जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Monday 27 December 2010

नए सेमिस्टर में प्रवेश

आप सभी ने प्रथम सेमिस्टर की परीक्षा अच्छी तरह से दे दी होगी। पहली बार नए ढंग से परीक्षा देने के सुख और दुख को आपने अनुभव किया होगा। पर पहले सेमिस्टर का अनुभव अब आपको काम आएगा। दूसरे सेमिस्टर में आप जैसा कि जानते हैं गद्य और पद्य को भी पढ़ेंगे। इस सेमिस्टर का पाठ्यक्रम आपके पास होगा ही। पर इसमें रहे यूनिट्स का विस्तार जानना ज़रूरी है। इस की चर्चा हम कोर्स HIN412 से आरंभ करेंगे।
पिछले सेमिस्टर में 406 में हमने हिन्दी के निबंध-स्वरूप के माध्यम से हिन्दी निबंधों का अध्ययन किस तरह करना चाहिए यह समझा था। इस सेमिस्टर में हम यही प्रक्रिया कविताओं के साथ करेंगे। कविताओं का आस्वाद कैसे किया जाता है और कविताओं का विश्लेषण कैसे करना चाहिए इस बात को समझना रोचक होगा। एक मध्यकालीन कविता को समझना और उसका विश्लेषण आज की कविता से किस तरह भिन्न है इसे हम इस सेमिस्टर में सीखेंगे। आप इन कविताओं को किसी भी स्रोत से प्राप्त कर सकते हैं। आपके अध्यापक भी इसमें आपकी मदद कर सकते हैं। कविता का पाठ , कविता में भाषा और सौन्दर्य-धर्मी प्रयोग किस तरह उसके भाव को प्रकट करते हैं, इसका इस कोर्स में हमें पता चलेगा। आपकी जानकारी के लिए इस कोर्स विवरण इस तरह है-
चुनी हुई कविताओं का वर्ष दौरान अध्यापक द्वारा काव्यास्वाद एवं काव्य विश्लेषण कराया जाए तथा विद्यार्थियों को लिखने का अभ्यास भी कराया जाए। वर्षान्त में कम-से कम 3000 शब्दों में आलेख जमा करवाया जाए आलेख में काव्यास्वाद की प्रक्रिया, काव्यस्वाद के आधार, पाठ्यक्रम में दी हुई कविताओं का आस्वाद आदि पर बात हो सकती है। काव्यास्वाद एवं काव्य-विश्लेषण की प्रक्रिया में अध्यापक एवं विद्यार्थी दोनों की सहभागिता अपेक्षित है। विद्यार्थी चाहे तो स्वतंत्र रूप से भी काव्यस्वाद कर सकता है। वर्ष दौरान किये गए अभ्यास एवं वर्षान्त में किए हुए प्रस्तुतिकरण के आधार पर आंतरिक मूल्यांकन (50 अंक का ) होगा।
मौखिकी के लिए विद्यार्थी द्वारा तैयार प्रस्तुति एवं कोर्स में दी गई कविताओं में आए भाव एवं सौन्दर्यबोध की पहचान हो सके इस तरह विद्यार्थी को तैयारी करनी होगी।
क्रम कविता का शीर्षक कवि
1. आली री म्हारे णेणा बाण पड़ी मीराँबाई
2. मेरो मन अनत कहाँ सुख पायो सूरदास
3. तब तौं छवि पीवत जीवत हौं घनानंद
4. बीती विभावरी जाग री जयशंकर प्रसाद
5. मैं नीर भरी दुख की बदरी महादेवी
6. ऊषा शमशेर बहादुर सिंह
7. कुदाली केदारनाथ सिंह
8. विदूषक की प्रार्थना मोहन डहेरिया
मूल्यांकन के आधार( लिखित एवं मौखिक तथा आंतरिक एवं बाह्य दोनों के लिए)
1- कथ्य
2- प्रस्तुति
3- भाषा
4- स्वतंत्र चिंतन


Wednesday 1 December 2010

कविता का जादू

HIN405

किसी भी कवि की श्रेष्ठता का मापदंड उसकी कविता ही होती है। रवीन्द्रनाथ हमारे समय के बड़े कवि हैं इस बात के लिए भी प्रमाण तो उनकी कविता ही है। उनकी श्रेष्ठता के अन्य सारे मापदंड या कारण अगर एक ओर रख दिए जाएं तब भी वे हमारे समय के उतने ही श्रेष्ठ कवि माने जाएंगे जितने पूर्व-काल में हुए कालिदास आदि माने जाते हैं। रवीन्द्रनाथ को मूल में पढ़ने पर बंगाली भाषा का सौन्दर्य अवश्य ही उजागर होता होगा पर उन्हें अनुवाद में पढ़ने पर भी कविता और कविता के माध्यम से मनुष्य तथा मनुष्य-जीवन के सौन्दर्य का जो पक्ष उजागर होता है वह अपने आप में अद्वितीय है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर हमें जानना हो कि यह जो हमारे चारों ओर पल-छिन फैला मनुष्य एवं प्रकृति - जगत है, यह जो हमारे भीतर भावनाओं का अनवरत उमड़ता हुआ सैलाब है वह कविता का रूप-आकार कैसे ग्रहण करते हैं तो अपने समय में हमें रवीन्द्रनाथ जैसे कवियों के पास जाना पड़ता है। जैसे कोई जादूगर हमारी ही आँखों के सामने तरह-तरह के जादू के खेल करता है और हमें आश्चर्य में डालता है ठीक उसी तरह रवीन्द्रनाथ भी अपनी कविताओं से हमें आश्चर्य में डालते हैं। लगातार डालते हैं। ट्रिक जान लेने पर जादू का प्रभाव क्रमशः कम हो जाता है पर रवीन्द्रनाथ की कविताओं का जादू समझ लेने पर भी प्रभाव में कोई कमी नहीं आती। किसी भी कविता में कल्पना का सौन्दर्य क्या होता है इस बात को समझना हो तो भी रवीन्द्रनाथ जैसे कवि ही हमारी मदद कर सकते हैं, करते हैयह हमें उनकी कविताएं पढ़ कर लगता है। हमारे अपने निराला हमे अधिक समझ में आते हैं जब हम रवीन्द्रनाथ को समझ लेते हैं। निराला अगर उनसे प्रभावित थे, तो इससे सहज और स्वाभाविक कोई घटना नहीं हो सकती थी ,ऐसा रवीन्द्रनाथ को पढ़ कर हमें लगता है। अथवा जीबनानंददास को (रणनीति के तहद्) उनका विरोध करके फिर उनका महत्व स्वीकारना पड़ा- अगर इस तथ्य को हम जस-का-तस स्वीकार भी कर लें, तब भी आश्चर्य की बात नहीं लगनी चाहिए क्यों कि इतने वर्षों बाद इतिहास में इतने सारे कवियों को अपने सामने पा कर भी रवीन्द्रनाथ की श्रेष्ठता निर्विवाद बनी हुई है।
रवीन्द्रनाथ की कविता के अनेक आयाम हैं। पर उनकी कविता में सौन्दर्य तथा मानवीयता का पक्ष इतना प्रबल है कि उसे नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है। यही उनकी कविताओं पर आखिरी टिप्पणी भी हो सकती है। उनकी कविताओं में कुछ विशिष्ट संरचनाएं हैं जिनको जान लेने पर यह तुरन्त समझ में आता है कि वस्तुकाव्य-वस्तु में कैसे परिवर्तित होती है। उदाहरण के लिए उनकी निर्झर का स्वप्न-भंग अथवा उर्वशी अथवा अहिल्या जैसी कविताओं को अगर देखा जाए

Thursday 25 November 2010

गुजरात युनिवर्सिटी हीरक जयंती समारोहसमापन कार्यक्रमआज का दिन गुजरात विश्वविद्यालय और उसमें भी भाषा साहित्य भवन के लिए ब़ा ख़ुशी का दिन रहा। 23 नवंबर गुजरात युनिवर्सिटी के हीरक जयंती का समापन समारोह था। सुबह 9.15 को गुजरात राज्य के शिक्षा-मंत्री श्री रमणभाई वोरा ने भाषा साहित्य भवन के सभा खंड का उद्धाटन किया। उद्धाटन में उनके साथ हमारे विश्वविद्याल के सम्मानीय कुलपति आदरणीय डॉ. परिमल भाई त्रिवेदी , विकास अदिकारी एवं कार्यकारी कुलसचिव श्रीमती वैशाली पढ़ियार, भाषा साहित्य भवन के निदेशक आचार्य वसंत भट्ट, भाषा भवन के अध्यापक एवं विद्यार्थी उपस्थित थे।
इसके बाद हीरक जयंती के निमित्त हिन्दी विभाग द्वारा अपराह्न 12 बजे एक छोटे से कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। कार्यक्रम का आरंभ प्रार्थना से हुआ। कार्यक्रम के आरंभ में हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. रंजना अरगडे ने प्रासंगिक उद्बोधन करते हुए कहा कि "यह एक अद्भुत संयोग ही है कि इस वर्ष जहाँ हिन्दी के चार प्रमुख रचनाकारों – सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय , बाबा नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल एवं शमशेर बहादुर सिंह के शताब्दी वर्ष का आयोजन समग्र देश भर के हिन्दी प्रेमी कर रहे हैं, वहीं कवि कुल गुरु रवीन्द्रनाथ की डेढ़ सौवीं जयंती पूरा विश्व मना रहा है। यह हमारे लिए विशेष इसलिए हो जाता है कि यह वर्ष हमारे विश्वविद्यालय का हीरक जयंती वर्ष की पूर्णाहुति भी है।
इस अवसर पर हमारे विभाग के एम.ए तथा शोध छात्र-छात्राओं ने अपनी मौलिकता का परिचय देते हुए हिन्दी के विभिन्न कवियों की कविताओं का पाठ किया तथा गान बड़े उत्साह एवं तन्मयता के साथ किया। भी किया। यह एक तरह से इन कवियों के प्रति विभाग की स्मरणांजलि थी एवं मातृ-संस्था के प्रति अपने प्रेम एवं आदर की अभिव्यक्ति थी।
इसके बाद डॉ. आलोक गुप्त ने प्रासंगिक उद्बोधन किया तथा अपनी लाक्षणिक शैली में हिन्दी के प्रसिद्ध ग़ज़लकार दुष्यन्त कुमार का एक शेर कह कर अपनी बात समाप्त की। इस अवसर पर डॉ. रंजना अरगडे ने शमशेर जी की कविता – एक पीली शाम का पाठ किया। अंत में डॉ निशा रम्पाल ने जगदीश गुप्त की कविता का मर्म बताकर कार्यक्रम का समापन किया।
हिन्दी-विभाग द्वारा हीरक जयंती समारोह के समापन की कड़ी –रूप इस कार्यक्रम की कुछ झलकियां तस्वीरों एवं विडियो-प्रस्तुति के माध्यम द्वारा आप भी देखिए-


रिपोर्ट
राजेन्द्र परमार
(प्रोजेक्ट फैलो, भाषा साहित्य भवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद)

Tuesday 9 November 2010

HIN 404 लोकजागरण कालीन साहित्य (पद्य)

UNIT-4 (5) वचन- साहित्य की कन्नड भाषा साहित्य को देन
वचनकारों का कन्नड साहित्य पर क्या प्रभाव रहा अथवा वचनकारों ने कन्नड साहित्य में क्या योगदान दिया इस प्रश्न पर विचार करते हुए यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि इन वचनकारों के पूर्व कन्नड साहित्य किस तरह का था। इसके बाद ही यह बताया जा सकता है कि इन वचनकारों ने अपने साहित्य के द्वारा कन्नड साहित्य को क्या विशेष प्रदान किया जिसके फलस्वरूप इनका अद्वितीय महत्व स्वीकारा गया। इस बात को हम समाज में, साहित्य की भूमिका क्या रही है इस रूप में भी देख सकते हैं। अर्थात् साहित्य चूंकि समाज से ही अपनी ऊर्जा ग्रहण करता है अतः किसी भी भाषा का, किसी भी समय पर लिखा साहित्य किन विशेषताओं से भरा रहता है- विचार का एक मुद्दा यह भी है। कन्नड के वचनकारों पर इस दृष्टि से सोचते हुए हमें सबसे पहले वचनकारों के पूर्व कन्नड साहित्य किस तरह का था, इस पर पहले विचार कर लेना होगा। इस बात को हम अत्यंत संक्षेप में इस तरह देख सकते हैं :
कन्नड साहित्य का आरंभ ईसा की पाँचवीं शताब्दी से माना जाता है। सन् 500 ई से सन् 1200 ई तक का काल कन्नड साहित्य के इतिहास में प्राचीन तथा आरंभिक मध्यकाल का समय माना जाता है। कन्नड साहित्य के आरंभिक ग्रंथ 'कविराजमार्ग' तथा 'वड्डाराधना'' माने गए हैं। ये क्रमशः नौवीं तथा दसवीं शताब्दी की रचनाएं मानी जा सकती हैं तथा इन पर (क्रमशः) भाषा की दृष्टि से संस्कृतनिष्ठता तथा भाव की दृष्टि से जैनों का प्रभाव माना जाता रहा है। इसके बाद मुख्य रूप से कन्नड साहित्य के आदिकवि माने जाने वाले पंप कवि का नाम आता है। इस काल में कन्नड साहित्य में चंपू काव्य प्रकार अपने प्रौढत्व तक पहुँच चुका था। इस काल में धार्मिक तथा लौकिक - दोनों प्रकार के काव्य-रूप अस्तित्व में आए। लौकिक काव्यों में ऐतिहासिकता का तत्व भी मिल जाता है। लेकिन ये रचनाएं केवल पंडितवर्ग तक ही सीमित थीं। इस काल के अंत समय में हमें सुलभ एवं गद्य-बहुल चंपूरस काव्यों में कथा-साहित्य प्राप्त होता है। इसमें संस्कृत प्रधानता के विरूद्ध लोगों मंो एक आक्रोश दिखाई पड़ता है। इसी पृष्ठभूमि में बाद में आने वाले वचन साहित्य के बीज हमें पड़े हुए मिलते हैं। गद्य का लालित्य सभर तथा काव्यात्मक रूप बाद के वचन साहित्य में देखने को मिलता है।
12 वीं सदी में लिखा वचन साहित्य अपने आप में बहुत वैशिष्ट्य लिए हुए है। वचन साहित्य पढ़कर सबसे पहले यह विचार आता है कि इनका साहित्यिक स्वरूप क्या हो सकता है। "वचन एक विधा है। तीन से पंद्रह पंक्तियों के माध्यम से शिवशरणों ने सहज स्फूर्त और गहरे अनुभव के फलस्वरूप हृदय से उमड़ी भावनाओं और विचारों को हज़ारों वचनों में वाणी दी है। वचनों में विभिन्नता अवशमयभावी है। इनमें रहस्यानुभूति भी है जो कभी-कभी उलटबासियों के रूप में प्रकट हुई है। इनमें भक्ति की तीव्रताजन्य सांद्रता है तो कहीं ये आक्रोश से भरे हैं।" (डॉ अजयकुमार सिंह) इनमे एक प्रकार की गद्यात्मकता तो है ही पर इन्हे पढ़ कर काव्य के लालित्य का भी आनंद आता है। यह एक प्रकार का अनुभावी(अनुभव-जन्य) गद्य है। सच पूछा जाए तो इन्हें आध्यात्मिक भावगीत भी कह सकते हैं। विश्व साहित्य में इसकी तुलना और स्पर्द्धा का साहित्य शायद ही मिलेगा। कन्नड में तो यह अ-पूर्व ही है। अर्थात् इसके पहले इस प्रकार का गद्य नहीं लिखा गया । अत्यन्त सीधा एवं सरल इस साहित्य की तुलना संभवतः बाइबल के संवादों में अथवा मार्क्स के घोषणा-पत्र से की जा सकती है। परन्तु फिर भी जिस तरह वचन साहित्य के मूल में जिस अनुभव परकता को देखा जा सकता है वैसा इस साहित्य में नहीं मिलता। वचन साहित्य की विशेषता यह है कि इसे हम अनुभव परक गद्य कह सकते हैं। वचन साहित्य को केवल काव्यमय गद्य कह कर हमारा काम नहीं चल सकता । इसमें अनुभव की प्रगाढ़ता एवं सूक्ष्मता भरी पड़ी है। साथ ही उक्तियां सहजस्फूर्त एवं अलंकारयुक्त भी हैं। पंक्ति-दर-पंक्ति लौकिक दृष्टांत, लोकोक्तिनुमा कहावतों के माध्यम से सूक्ष्मानुभव एवं महान तत्वों को सामान्य मनुष्य तक सम्प्रेषित करने की क्षमता इन वचनों में है। कुछ वचनकारों में इष्ट देवता के समक्ष भक्ति से विनम्र हो कर अपने हृदय की भावनाओं को प्रकट करने का भाव है, तो साथ ही समाज के दोषों पर टीका करने का भी कुछ वचनकारों में सामर्थ्य है। कुछ वचनकारों ने अपने कायकानुसारी दृष्टांतों से परमार्थ का विवरण भी दिया है।
वचनों की विशेषता यह है कि वे साहित्य भी हैं और शास्त्र भी हैं। चूंकि उनमें स्वानुभव एवं सौन्दर्यदृष्टि है अतः साहित्य की श्रेणी मं इन्हें गिना जा सकता तथा एक निश्चित दर्शन एवं आचारधर्म युक्त होने के कारण इन्हें शास्त्र की कोटि में भी रखा जा सकता है। ( लगभग यही बात हम सूरदास के विषय में कह सकते हैं) यह सही है कि सभी वचनों को उत्तम साहित्य नहीं कहा जा सकता है। वचन एक तरह से कन्नड उपनिषद् कहे जा सकते हैं। एक अर्थ में ये अत्यन्त सुंदर वर्णन कहे जा सकते हैं। परन्तु उपनिषदों में जिस समाज-नीति, आचार-धर्म, साहित्य एवं शैली का अभाव है वह हमें वचनों में मिलते हैं। अतः यह शैली की दृष्टि से साहित्य हैं और भाव-गांभिर्य की दृष्टि से साहित्य हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि वचन साहित्य भारतीय एवं विश्व साहित्य को कन्नड साहित्य द्वारा दी गई एक अनमोल देन है।
इस काल में संस्कृतनिष्ठ कन्नड के स्थान पर बोलचाल की कन्नड साहित्य के निर्माण के लिए उपर्युक्त समझी गई और संस्कृत की काव्यशैली के बदले देशी छंदों को विशेष प्रोत्साहन दिया गया। इसका कारण यह भी रहा होगा कि वचन साहित्य के रचयिताओं में बहुत सारे रचनाकार निम्न जाति के तथा कम पढ़े-लिखे अथवा अनपढ़ थे। लेकिन यही कन्नड भाषा और साहित्य में वचनकारों का योगदान कहा जा सकता है। वचनकारों से पूर्व पिछली शताब्दियों में जैन मतावलंबियों का साहित्यक्षेत्र में सर्वाधिकार था। परन्तु इस युग में भिन्न-भिन्न मतावलंबियों ने साहित्य के निर्माण में योग दिया। साहित्य की श्रीवृद्धि में भक्ति एक प्रबल प्रेरक शक्ति के रूप में सहायक हुई। इस संदर्भ में विकेपिडिया में हमें यह जानकारी मिलती है :
"12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बसवेश्वर का आविर्भाव हुआ। उन्होंने वीरशैव मत का पुन: संघटन करके कर्नाटक के धार्मिक एवं सामाजिक जीवन में बड़ी उथल पुथल मचाई। बसव तथा उनके अनुयायियों ने अपने मत के प्रचार के लिए बोलचाल की कन्नड को माध्यम बनाया। वीरशैव भक्तों ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार एवं नीति पर निराडंबर शैली में अपने अनुभवों की बातें सुनाई, जो वचन साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुई। इन वीरशैव भक्तों अथवा शिवशरणों के वचन एक प्रकार के गद्यगीत हैं। शिवशरणों ने साहित्य के लिए साहित्य नहीं रचा। उनका मुख्य उद्देश्य अपने विचारों का प्रचार करना ही था। उनके विचारों में सरलता थी, सचाई थी और सच्चे जिज्ञासु की रसमग्नता था। इसलिए उनकी वाणी में साहित्यिक सौष्ठव अपने आप आ गया। इन शिवशरणों के वचनों ने कर्नाटक में वही कार्य किया जो कबीर तथा उनके अनुयायियों ने उत्तर भारत में किया।
बसव ने भक्ति का उपदेश दिया और इस भक्ति की साधना में वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा, जाति पाँति का भेदभाव, अवतारवाद, अंधश्रद्धा आदि को बाधक ठहराया। जातिरहित, वर्णरहित, वर्गरहित समाज के निर्माण द्वारा उन्होंने आध्यात्मिक साधन का मार्ग सर्वसुलभ बनाना चाहा। बसव के समकालीन वीरशैव भक्तों में अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चेन्न-बंसव तथा सिद्धराम प्रमुख हैं।" ( विकेपिडिया से साभार)
अल्लम प्रभू जैसे वचनकारों के कारण कन्नड भाषा में इस तरह की अभिव्यक्तियाँ संभव हुईं जो पहले कन्नड-साहित्य में कभी नहीं थीं। अल्लम प्रभू नें अपने आध्यात्मिक अनुभवों को जिस भाषा में व्यक्त किया वह कन्नड काहित्य तथा भाषा में अ-पूर्व ही माना जा सकती है। तत्कालीन धार्मिक रूढ़िचुस्तता तथा आतंककारी प्रभाव एवं स्वानुभव जनित भक्ति रस को जिन सहज उपमाओं द्वारा इन वचनकारों ने प्रकट किया है उससे कन्नड भाषा की शक्ति का एक नया परिचय मिलता है। वचनकारों में श्रेष्ठ में से एक ऐसे अल्लम प्रभू के वचन एक प्रकार से मंत्र का दर्ज़ा प्राप्त करते हैं। शब्द की अभिव्यक्ति क्षमता में जो भाव न आते हों तथा शब्दों द्वारा जो न कहा जा सके ऐसा अनुभव वचनकारों के यहाँ हमें मिलता है। "न समझ में आने वाले भाव को समझने वाले, नासमझों की तरह रहते हैं-" "जो दिखता है उसे न थाम कर जो न दिखता है उसे जब थामने की कोशिश करते हैं, तब न मिलने की व्यथा जागती है।" ये वचनकार, विशेषकर अल्लम प्रभू कहते हैं कि प्रत्येक शिशु का एक नाम होता है। परन्तु जो शिशु 'निराला' है, उसका क्या कोई नाम हो सकता है ? उसका वर्णन करने की क्षमता शब्दों में भी नहीं है। परन्तु जब शब्दों को ये काम सौंपा जाता है तो वे शरमा जाते हैं, संकोच करते हैं। शब्द अपनी मर्यादा समझते हैं। किन्तु जिस प्रकार विवाह का नयापन धीरे धीरे समाप्त होता है और एक लाजहीनता की स्थिति आती है उसी प्रकार शब्द भी धीरे-धीरे लाजहीन हो कर अनुभवों का वर्णन करते हैं।" इस प्रकार की उक्तिया इसके पहले कन्नड भाषा और साहित्य में नहीं मिलती हैं। अनुभव की गहराई तथा ज्ञान के शिखर पर से बोले जाने वाले ये वचन इसीलिए मंत्र की संज्ञा पाते हैं।
वचनकारों ने इस प्रकार भाषा में एक नयी क्रांति ला दी। यही योगदान भाषा एवं अभिव्यक्ति के स्तर पर कन्नड साहित्य को इन वचनकारों का है।
जहाँ तक विषय की नवीनता का प्रश्न है वचनकारों ने कई नई मंज़िलों को प्राप्त किया। वीरशैव धर्म की आधारभूमि पर खड़ा यह साहित्य सामाजिक दूषणों तथा असमानता को भक्ति के दायरे में लाने में कामयाब रहा। उसी तरह नारी स्वतंत्रता का मुद्दा पहली बार वचनकारों के माध्यम से कन्नड साहित्य को प्राप्त हुआ। अक्कमहादेवी मुक्त्यक्का जैसी शरणियों द्वारा लिखा साहित्य काफ़ी प्रसिद्ध हुआ। साहित्य रचना एवं भक्ति का आचरण एक आंदोलन के रूप में संभव है, यह भी प्रथम बार वचन साहित्य के द्वारा कन्नड साहित्य में उजागर हुआ। मात्र कन्नड साहित्य ही नहीं पूरे विश्व साहित्य में इस प्रकार की घटना देखने में नहीं आती । यह वचन साहित्य का एक विशिष्ट लक्षण कहा जा सकता है। कायक और दासोह जैसी समाज-केन्द्री संकल्पनाएं भी इस साहित्य की विशेष देन है। समाज के लिए पसीना बहाना लोकमंगल के लिए परिश्रम कर कार्य करना तथा अपने कार्य को शिव के प्रति समर्पित करना कायक कहा जाता है और कायक द्वारा अर्जित धन को समाज में वितरित करना दासोह कहलाता है। पहली बार जैसे सामान्य मनुष्य का श्रम तथा उसका स्वमान एवं सामाजिक जीवन काव्य में गौरवपूर्ण स्थान पाता है। भक्ति को सामाजिकता के साथ तथा आम आदमी की भावना के साथ जोड़ने का कार्य प्रथम बार वचन साहित्य के माध्यम से संभव हुआ।
12 वीं सदी के वचनकारों के तीन महत्वपूर्ण कन्नड कवियों- हरिहर, राघवांक तथा पद्मरस पर इन वचनकारों का प्रभाव पड़ा। इन कवियों ने वचनकारों से ली। यह अलग बात है कि इन कवियों ने शैली तथा भावाभिव्यक्ति में नया रास्ता अपनाया। परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि वचनकारों का प्रभाव बाद में आने वाले साहित्यकारों पर प्रेरणा के रूप में हुआ।

(इस सामग्री को तैयार करने के लिए वचन की भूमिका, रं. श्री. मुगळी के कन्नड साहित्य का इतिहास तथा विकेपीडिया से सामग्री का उपयोग किया गया है। इसके अलावा आप डॉ.काशीनाथ अंबालगे की पुस्तक बसवेश्वर की भूमिका में भी इसके संदर्भ में सामग्री प्राप्त कर सकते हैं, और अपने ब्लॉग पर ही यह उपलब्ध है।)


Wednesday 29 September 2010

HIN403

(नेट पर ( प्रायः विकिपीडियी) से उपलब्ध सामग्री का यह हिन्दी अनुवाद है। इसे विशेष रूप से विद्यार्थियों के लिए ही अव्यवसायिक स्तर पर तैयार किया गया है। अगर इस संदर्भ में किसी को भी किसी भी तरह की कोई आपत्ति हो तो कृपया ब्लॉग के पते पर हमें सूचित करें। इसे तुरंत हटा लिया जाएगा।)

ईलेन शोवाल्टर (जन्म 21 जनवरी 1941) अमरीकी साहित्य की समीक्षक, नारीवादी, तथा सांस्कृतिक एवं सामाजिक मुद्दों पर लिखने वाली लेखिका के रूप में जानी जाती हैं। अमरीका के अकादमिक क्षेत्र में, साहित्यिक नारीवादी समीक्षा की नींव का पत्थर रखने वालों में उनकी गिनती विशेष रूप से होती है। ख़ास तौर पर वे गायनोसेंट्रिक्स की अवधारणा के सिद्धांत एवं व्यवहार पक्ष की स्थापक के रूप में पहचानी जाती हैं।
अकादमिक जगत के साथ-साथ वे लोकप्रिय सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी वे समान रूप से जानी-मानी तथा सम्मानीया हैं। नारीवादी साहित्यिक समीक्षा से ले कर फैशन तक के वैविध्य पूर्ण विषयों पर उन्होंने अनेक पुस्तकें तथा लेख लिखे हैं। इसी संदर्भ में उन्होंने कई पुस्तकों का संपादन भी किया है। कई बार उनके लेखों से विवाद भी जगे हैं, ख़ासकर बीमारी को लेकर उनके लेखों ने एक खलबली – सी मचा दी है। टेलीविज़न पर वे पीपल नामक पत्रिका के लिए समीक्षक के रूप में काम कर चुकी हैं और टेलीविज़न के साथ-साथ वे बी.बी.सी रेडियो पर कमेंटेटर भी रही चुकी हैं।

व्यक्तिगत जीवन
ईलेन शोवाल्टर का जन्म मैस्युचैस्ट के बॉस्टन में हुआ। उनका मूल नाम ईलेन कॉटलर है। अपने माता-पाता की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने अकादमिक क्षेत्र को अपने करीयर के रूप में चुना। ब्रायन माव्र कॉलेज में उन्होंने स्नातक की पदवी प्राप्त की , स्नातकोत्तर की पदवी ब्रांडीज़ युनिवर्सिटी से तथा युनिवर्सिटी ऑफ़ केलिफ़ोर्निया से 1970 में पीएच.डी की पदवी प्राप्त की। अध्यापक के रूप में उनकी पहली नियुक्ति रटगर विश्वविद्यालय के डगलस कॉलेज में हुई। 1984 में वे प्रिस्टन विश्वविद्यालय में फैकल्टी के रूप में जुड़ीं तथा 2003 में वहाँ से उन्होंने स्वेच्छया निवृत्त ले ली।
उनके पिता ऊन का व्यवसाय करते थे तथा उनकी माता एक सामान्य गृहिणी थीं। 21 वर्ष की उम्र में उन्होंने एक ग़ैर-यहूदी से विवाह किया जिसके फलस्वरूप उनके माता-पिता ने उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया। उनके पति इंग्लिश शोवाल्टर, येल में पढ़े थे तथा 18वीं शताब्दी के फ्रांसिसी साहित्य के अध्यापक हैं। शोवाल्टर दंपत्ति की दो संताने हैं। मैकल शोवाल्टर- एक अभिनेता एवं हास्य- कलाकार है तथा विंका(सा) शोवाल्टर ला फ़्लेयुर एक व्यावसायिक भाषण-लेखिका (लेखक) है।

व्यावसायिक जीवन
शोवाल्टर विक्टोरियन साहित्य तथा फिन-डे सियसिल ( 19 वीं शताब्दी के मोड़ पर) की विशेषज्ञ मानी जाती हैं। इस क्षेत्र में उनका सर्वाधिक उल्लेखनीय एवं सर्जनात्मक कार्य "साहित्य में हिस्टिरिया एवं पागलपन का अध्ययन- महिला लेखन एवं स्त्री चरित्रों के आलेखन के विशेष संदर्भ में- "माना जाता है।
वे एवेलॉन फाउंडेशन की प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं। उन्हें कई अकादमिक सम्मान मिले जिनमें विशेष उपल्बधियों के रूप में गुगनहेम फैलोशिप (1977-78) तथा रॉकफैलर ह्यूमैनिटीज़ फैलोशिप का उल्लेख किया जा सकता है। वे एम.एल.ए. (मॉडर्न लैंग्युएज एसोसिएशन ) की भूतपूर्व अध्यक्ष भी रह चुकी हैं। 2007 में ब्रिटन के अन्तर्राष्ट्रीय साहित्यिक सम्मान- मैन बूकर के निर्णायक मंडल की अध्यक्ष भी रही हैं।
शोवाल्टर की कुछ उल्लेखनीय एवं चर्चित कृतियाँ हैं- टूवर्ड्स ए फेमिनिस्ट पोएटिक्स(1979), दी फिमेल मेलडी- विमेन, मैडनेस एंड इंग्लिश कल्चर(1930-1980) सैक्शुएल एनार्की- जेंडर एंड कल्चर एट दी फिन-डे सियसिल(1990) हिस्टोरीज़- हिसेटेरिकल एपिडेमिक्स एंड मॉडर्न मीडिया(1997) तथा इनवेंटिंग हरसेल्फ- अ फेमिनिस्ट इंटलैक्च्युएल हेरिटेज( 2001)।
आलोचनागत महत्व
नारीवादी परंपरा के महत्व को समझने के लिए लंबे समय से जिस संवाद की आवश्यकता महसूस की जा रही थी, वह मानो शोवाल्टर की पुस्तक इन्वेंटिंग हर सेल्फ (2001) में आ कर पूरी हो जाती है। यह पुस्तक नारीवादी आदर्श मूर्तियों का एक प्रकार का सर्वेक्षण है। शोवाल्टर के आरंभिक निबंध और संपादन जो '70 एवं '80 के दशक के उत्तरार्द्ध में लिखे गए वे असल में साहित्यिक सिद्धांतों तथा समीक्षा के गुंजलक के भीतर नारीवादी परंपराओं का सर्वेक्षण है। शोवाल्टर वास्तव में एक ऐसे समय में नारीवाद के साहित्यिक सिद्धांतों और समीक्षा के क्षेत्र में काम कर रही थीं जब 1970 के दशक में विश्वविद्यालयों में इस विषय को अभी ताज़-ताज़ा गंभीर अध्ययन के रूप में स्वीकारा जा रहा था। ऐसे समय शोवाल्टर का लेखन इस तथ्य की गवाही देता है कि वे अपने विषय-क्षेत्र की समीक्षा हेतु उसकी प्राचीनता के नक़्शे को इस तरह खींच कर संप्रेषित करना चाह रही थी कि वह उसे एक ठोस सिद्धांत के रूप में नींव-बद्ध कर सकें। वे एक ऐसा ज्ञानाधार भी रचना चाह रही थीं जिससे भविष्य में इस क्षेत्र में जो काम होना है, उन्हें भी एक दृढ भूमि मिल सके।
टूवॉर्ड्स ए फेमिनिस्ट पोएटिक्स में शोवाल्टर महिला लेखन के इतिहास को रेखांकित करती हैं। उनके अनुसार इसके तीन तबके माने जा सकते हैं-
1- फेमिनिन- इस दौर में (1840-1880) स्त्रियों ने पुरुष-संस्कृति की बौद्धिक-क्षमता की उपलब्धियों के साथ स्पर्द्धा का भाव अनुभव करते हुए पुरुषों की स्त्री के बारे में जो मान्यताएँ थीं उन्हें मानों स्वीकार किया।
2- फेमिनिस्ट- यह दौर ( 1880-1920) पुरुषों द्वारा स्थापित मानदंडों और मूल्यों, के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले दौर के रूप में जाना जाता है। साथ ही नारी के अधिकार, मूल्य आदि मुद्दों की चर्चा केन्द्र में रही, जिसमें स्वायत्ता की माँग का समावेश भी हो जाता है।
3- फीमेल –(1920- ) यह दौर स्त्रियों की आत्म-खोज का माना जाता है। शोवाल्टर कहती हैं कि स्त्रियां अनुकरण और विरोध दोनों का ही अस्वीकार करती हैं, क्योंकि ये दोनों अवलंबन के ही प्रकार हैं। बल्कि वे स्वायत्त कला के स्रोत के रूप में स्त्री-अनुभव की ओर मुड़ती हैं। वे संस्कृति के स्त्री-वादी अभिगम को साहित्य के उपकरणों तथा स्वरूपों तक विस्तरित करती हैं।
परमपरागत एन्ड्रोसेंट्रिक मनोविश्लेषणवादी अथवा जैविक सिद्धांतो की अपेक्षा वर्तमान फीमेल दौर में अनुकरण और विरोध का अस्वीकार करते हुए शोवाल्टर सांस्कृतिक दृष्टिबिन्दु से एक नितांत नई एवं भिन्न नारीवादी समीक्षा की वकालत करती हैं। भूतकाल के नारीवादियों ने इन्हीं परंपरागत ढ़ाचों में रह कर या तो महिला प्रतिनिधित्व को सुधारा है अथवा तो उसकी आलोचना की है (फेमिनिस्ट और फेमिनिन दौर में) फेमिनिस्ट क्रिटिसिज़्म इन दी विल्डरनैस नामक अपने निबंध(1981) में शोवाल्टर कहती हैं- संस्कृति सिद्धांत यह स्वीकार करता है कि वर्ग, नस्ल, राष्ट्रीयता तथा इतिहास वे आधार-बिन्दु हैं जिनके ज़रिए लेखिका के रूप में स्त्री का अलग मूल्यांकन होना चाहिए। उनका मानना है कि एक लेखिका के रूप में स्त्री के साथ भेद बरता जाता है, ठीक वैसे ही जैसे समाज में उन्हें भेद-दृष्टि से देखा जाता है। बावजूद इसके समग्र सांस्कृतिक ढाँचे में स्त्री की सांस्कृति पहचान और अनुभव एक भिन्न सामूहिक अनुभव के रूप में हमारे सामने आता है। एक ऐसा अनुभव, जो महिला लेखकों को एक दूसरे से देश और काल के परे जा कर जोड़ता भी है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि शोवाल्टर एक समीक्षा सिद्धांत के बदले में दूसरे का प्रयोग करने की वकालत करती है। उदाहरण के लिए वे मनोविश्लेषण को सांस्कृतिक नृवंशशास्त्र के बदले में प्रयुक्त करने की बात नहीं करती। बल्कि वह यह सुझाती हैं कि महिला लेखन का विश्लेषण करने की अनेक मान्य पद्धतियों में से एक पद्धति सांस्कृतिक दृष्टि-बिन्दु की भी हो सकती है जो स्त्री-परंपराओं को उद्घटित करने में उपयोगी साबित हो सकती हैं। उनका मानना है कि सांस्कृतिक नृवंशशास्त्रीय तथा सामाजिक इतिहास की पद्धति अन्य पद्धतियों की तुलना में अधिक उपयोगी साबित इस अर्थ में हो सकती हैं कि वे हमें स्त्रियों की सांस्कृतिक स्थितियों विषयक संज्ञाओं तथा रेखांकनों से वाकिफ़ कराएँगी। शोवाल्टर की यह कैविएट (प्रतिरक्षात्मक कथन) है कि नारीवादी समीक्षकों को यह समझने के लिए भी कि स्त्रियाँ आखिर क्या लिख रही है, सांस्कृतिक विश्लेषण का सहारा लेना चाहिए।
यह संभव है कि पहली नज़र में हमें यह लगे कि शोवाल्टर का नज़रिया एकांतवादी है, पर वे पुरुष परंपरा को स्त्री परंपरा से अलगाने की बात नहीं करतीं। उनका तर्क यह है कि स्त्रियों को भीतर –बाहर से (साहित्य के भीतर और साहित्य के बाहर) पुरुष परंपराओं पर एक ही साथ काम करना चाहिए। शोवाल्टर का दृढ मानना है कि अपने सम-काल में उपस्थित पुरुष-परंपरा में विद्यमान स्त्रीवादी परंपरा का भविष्य संबंधी सर्वाधिक सर्जनात्मक नज़रिया यही हो सकता है कि स्त्रीवादी परंपरा को एक नए फेमिनिन कल्चरल दृष्टिबिन्दु पर केन्द्रित हो जाना चाहिए- जिसमें न वह परावलंबी है न जवाबदेह ही।

गायनोक्रिटिक्स
नारीवादी दृष्टिबिन्दु से की जाने वाली समीक्षा के लिए शोवाल्टर ने गायनोक्रिटिक्स संज्ञा का इजाद किया। इस संज्ञा का सर्वोत्तम विवरण एवं समझ उन्होंने अपनी पुस्तक टूवर्ड्स ए फेमिनिस्ट पोएटिक्स में दिया है-
राग-द्वेष केन्द्री पुरुष साहित्य के विपरीत गायनोक्रिटीक्स स्त्री-साहित्य के विश्लेषण के लिए बने-बनाए पुरुष-ढांचों तथा सिद्धांतो को जस-का-तस स्वीकार करने की अपेक्षा एक स्त्री ढाँचा (बन्द) रचती हैं जिससे स्त्री-अनुभवों के विश्लेषण के आधार पर नए प्रारूप रचे जा सकें। जिस बिन्दु पर हम अपने आप को पुरुष साहित्यिक इतिहास के रेखीय और अंतिमवाद से मुक्त करते है, पुरुषवादी परंपरा के क्रम में स्त्रियों की गोट बिठाने की कोशिश के बजाय हम स्त्री-परंपरा के नव-दृश्यमान विश्व पर केन्द्रित होने की शुरुआत करते हैं उसी बिन्दु पर गायनोक्रिटिक्स की शुरुआत होती है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि गायनोक्रिटिक्स का उद्देश्य स्त्री और पुरुष-लेखन के भेद को मिटाना है ; गायनोक्रिटिक्स उस प्रोमिस्ड लैंड( वचनित भूमि) की तीर्थ-यात्रा पर नहीं निकली है जहाँ जेंडर अपना अधिकार खो देगा, जहाँ सभी पाठ देवदूतों की तरह अ-लिंगी तथा समान हो जाएँगे। सच तो यह है कि गायनोक्रिटिक्स का आशय स्त्री लेखन को सेक्स के उत्पाद की बनिस्बत स्त्री-अस्तित्व के मूलभूत लक्षण के रूप में उसकी विशेषताओं को समझना है।
फेमिनिस्ट क्रिटिसिज़्म इन विल्डरनैस में शोवाल्टर यह स्वीकार करती हैं कि स्त्री-लेखन के लाक्षणिक अंतर को पहचान पाना कठिन है, जो, उनके अनुसार एक फिसलन भरा और कष्टकर काम है। उनका कहना है कि स्त्री लेखन के विशेष अंत को पहचान पाने में अथवा स्त्री - लेखन परंपरा की पहचान को रेखांकित करने की समझ बनाने में गायनोक्रिटिक्स संभवतः कभी सफल नहीं हो सकेंगे। पर जैसे-जैसे सिद्धांत और ऐतिहासिक शोध की भूमि दृढ बनती जाएगी, शोवाल्टर का स्पष्ट मानना है कि, गायनोक्रिटिसिज़्म साहित्यिक संस्कृति से स्त्री के संबंध को पहचानने का एक ठोस, स्थायी और सही तरीका साबित हो सकता है। वह इस बात पर विशेष भार देती हैं कि हमें पुरुष साहित्यिक इतिहास के रेखीय अंतिमवादी दृष्टिकोण से मुक्त होना चाहिए। यही वह बिन्दु है जहाँ से गायनोक्रिटिक्स का आरंभ होता है।

आलोचना और विवाद
फेमिनिस्ट सिद्धांत और आलोचना
शोवाल्टर की नारीवादी साहित्यिक सिद्धांतो की सबसे कठोर समीक्षक ड्यूक युनिवर्सिटी की टोरिल मोई हैं, जिन्होंने अपनी 1985 में लिखी पुस्तक सैक्शुएल/टेक्सचुएल पॉलिटिक्स में शोवाल्टर पर यह आरोप लगाया है कि स्त्रियों के प्रति उनका नज़रिया बहुत सीमित तथा मताग्रही( तत्ववादी- Essentialist) किस्म का है। मोई ने खास तौर पर शोवाल्टर के फीमेल दौर के विचारों का विरोध किया है। स्त्रियों की एकल स्वायत्तता तथा फीमेल आइडेंटिटि (स्त्री अस्मिता) के लिए अनिवार्य भीतरी खोज के विचारों से भी वह सहमत नहीं हैं। इस बहदांश उत्तर संरचनावादी दौर में जहाँ यह मान लिया गया है कि अर्थ अनिवार्य रूप से संदर्भ (कॉन्टेक्स्ट) एवं इतिहास से ही संबद्ध होते हैं और पहचान, सामाजिक तथा भाषिक रूप से रचित होती है, मोई का कहना यह है कि स्त्री की अपनी कोई मूलभूत पहचान नहीं हो सकती( फंडामेंटल सेल्फ)।
मोई के अनुसार साहित्यिक सिद्धांतों में समानता की समस्या इस तथ्य में निहित नहीं है कि साहित्य की मुख्यधारा(कैनन) मूलभूत रूप से पुरुष केन्द्री है और स्त्री-परंपरा का प्रतिनिधित्व नहीं करती, परन्तु मुख्यधारा का होना ही एक समस्या है। मोई का तर्क यह है कि एक स्त्री-वादी मुख्यधारा भी पुरुष मुख्यधारा की तुलना में कम दमन-युक्त न होगी, क्योंकि वह अनिवार्य रूप से एक विशेष सामाजिक वर्घ का प्रतिनिधित्व करने वाली होगी ; वह निश्चित रूप से सभी स्त्रियों का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा क्योंकि स्त्री-परंपराएँ भी अनेक हैं, जो वर्ग, नस्ल, सामाजिक मूल्य तथा लिंग-भेद पर आधारित होती हैं। स्त्री-चेतना के अस्तित्व का कोई एक कारण नहीं होता। मोई को शोवाल्टर की मताग्रही स्थिति के प्रति आपत्ति है- अर्थात् वह (शोवाल्टर) पहचान के निर्धारण के लिए लिंगीय आधार को स्वीकार नहीं करती। तत्ववादियों( Essentialists) तथा उत्तर-आधुनिकों के बीच चली व्यापक बहस में मोई की समीक्षा का काफी प्रभाव एवं महत्व रहा था।
हिस्टीरिया एंड मॉडर्न इलनैसेस
मल्टीपल पर्सनैलिटी डिस्ऑर्डर जैसी बीमारियों के संबंध में शोवाल्टर के मंतव्य भी काफी विवादित रहे हैं। उनकी पुस्तक हिस्टोरीज़- हिस्टेरिकल एपिडेमिक्स एंड मॉडर्न मीडिया (1997) में उन्होंने गल्फ वॉर सिन्ड्रोम तथा क्रॉनिक फैटिग सिंड्र्रम की बात की है जिससे स्वास्थ्य-व्यवसाय से जुडे तथा वे लोग जो इस तरह की बीमारियों से पीड़ित थे, बहुत नाराज़ हुए। न्यू यॉर्क टाइम्स मे लिखते हुए मनोवैज्ञानिक कारलो तार्विस ने टिप्पणी की है कि-" चिकित्सकीय निश्चितता के अभाव में ऐसा कहना और यह विश्वास कर लेना कि ऐसे सभी लक्षण मूल में मनोवैज्ञानिक होते हैं, इस विश्वास से कहीं भी बेहतर नहीं है कि ऐसा नहीं होता।" शोवाल्टर (जिन्हें किसी प्रकार का औपचारिक चिकित्सकीय प्रशिक्षण प्राप्त नहीं था) यह स्वीकार करती हैं कि उन्हें काफी सारे हेट-मेल्स (भर्त्सना करते हुए पत्र) मिले हैं, पर फिर भी वे अपने इस मत से बिलकुल भी डिगी नहीं हैं कि ये स्थितियाँ हिस्टीरिया के समकालिक चिह्न हैं।( कॉन्टम्परेरी मेनिफेस्टेशन)

लोकप्रिय संस्कृति
1990 के उत्तरार्द्ध में शोवाल्टर ने लोकप्रिय संस्कृति पर भी लिखा जो पीपल एंड वोग जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ और उन्हें उसके लिए विरोध का भी सामना करना पड़ा था। अमरीकी पत्रिका दी नेशन में डायर्ड्रे इंगलिश ने लिखा है-
जैसे - जैसे पहचान की राजनीति की उत्तर-संरचनावादी समीक्षा प्रमुख बनती गई , विचार तथा वेष में इसकी फैशन अब नहीं रही। ऐसा लगता है कि फीमेल की बात करने वाली आवाँ-गार्द प्रोफेसरा महोदया तो अपने आप को पुरुष अथवा स्त्री जोड़ कर अपनी पहचान बना रही हैं।
इंगलिश शोवाल्टर के वोग में प्रकाशित 1997 के विवादास्पद लेख में से उद्धृत करते हैं-
" मैरी वॉलस्टोनक्राफ्ट से लेकर नाओमी वुल्फ तक – नारीवाद ने अक्सर फैशन, खरीददारी और समग्र सौन्दर्य उपादानों पर बड़ा कड़ा रुख अख्तियार किया है...... पर हमारी वे बहने जो वेलकम यॉर फेसलिफ्ट को दी सैकंड सैक्स के भीतर छिपाए रखती हैं, फैशन के प्रति एक किस्म का उन्माद कई बार उनके लिए एक शर्मनाक गोपनीय जीवन ( का हिस्सा) हो सकता है..... मुझे लगता है कि मुझे बन्द दरवाजों के बाहर तो आना ही पड़ेगा"।
परंपरागत नारीवाद तथा उपभोक्तावादी पूँजीवाद के पितृसत्तात्मक प्रतीकों के लिए शोवाल्टर को उनके अकादमिक साथियों ने बहुत लताड़ा। शोवाल्टर का उत्तर था- हमें उत्तर-आधुनिक हताशा के वश में होने की कोई आवश्यकता नहीं है जो राजनीतिक कार्यों की व्यर्थता की बात करता है। साथ ही न ही हमें सैद्धांतिक औचित्य की असंभाव्यता को कार्य की पूर्व-शर्त मानने की आवश्कता ही है।

एकेडेमिक टीचिंग
सन् 2006 में प्रकाशित टीचिंग लिटरेचर पर बहुत व्यापक और सकारात्मक समीक्षाएँ लिखी गईं, विशेष रूप से अमरीकी जर्नल पेडॉगॉगी में। इस पत्रिका में, पुस्तक पर तीन समीक्षाएँ प्रकाशित हुईं और यह कहा गया- कि यह एक ऐसी पुस्तक है जो हम चाहते कि हमारे पास होती जब हमने पढ़ाना आरंभ किया। जॉन राउस ने भी इस किताब की बड़ी कड़ी समीक्षा की थी। शोवाल्टर की अध्यापन पद्धति पर भी उसने इस अंदाज़ में समीक्षा की कि जैसे शोवाल्टर की समीक्षा साहित्य का कोई नया स्वरूप हो।

(इस सामग्री को प्राप्त कराने, सुझाव देने एवं अनुवाद-परीक्षण कर आप तक पहुँचाने का लिए हम आभारी हैं- डॉ. इंदिराबेन नित्यानंदन, श्री जगदीश आणेराव, डॉ. नीरजा अरुण, डॉ.महावीर सिंह चौहाण, डॉ रोहिणी अग्रवाल एवं डॉ. सुरेश पटेल के)

Thursday 23 September 2010

सुमन पाल की टिप्पणी का उत्तरआपने यह जानना चाहा था कि पाश्चात्य काव्य-शास्त्र की विकास-रेखा के संदर्भ में सौन्दर्य, धर्म, राजनीति तथा दर्शन को किस तरह समझा जाए।
जब हम पाश्चात्य काव्य-शास्त्र की विकास रेखा कहते हैं तो कहीं-न-कहीं हमारे मन में प्लेटो से लेकर आज तक की काव्य-शास्त्रीय विकास रेखा का चित्र उभरता है। प्लेटो-अरस्तू-लोंगिनुस का समावेश प्राचीन काव्यशास्त्र के अन्तर्गत है, फिर क्लासिकी और उसके बाद स्वच्छंदतावादी, फिर आधुनिक और अंत में उत्तर-आधुनिकों को हम शामिल करते हैं। प्लेटो ने अच्छे नागरिकों की आवश्यकता को देख कर कला तत्व को बहुत तवज्जो नहीं दी। पर बाद में अरस्तू और लोंगिनुस ने अवश्य साहित्य के स्वरूप और उसके सौन्दर्य तथा संतुलन को ध्यान में रखा। तभी ट्रेजेडी में आकार( स्वरूप) का महत्व है और लोंगिनुस ने अलंकारों के औचित्य पर विशेष भार दिया है। साथ ही उसने भाषा के प्रयोग में, विचार की प्रस्तुति में तथा कृति की समग्रता में एक संतुलन का आग्रह उसका रहा है। लेकिन प्लेटो की नैतिकता का दबाव दूर तक पाश्चात्य काव्य-शास्त्र को प्रभावित करता रहा। अतः वहाँ इन मुद्दों की विशेष चर्चा होती रही कि कला कला के लिए अथवा जीवन के लिए। पाश्चात्य काव्य-चिंतन में जब-जब और जहाँ-जहाँ जर्मन तथा अप्रत्यक्ष रूप से यहूदी चिंतकों का प्रवेश होता है, दर्शन का भार बढ़ता है और जब-जब फ्रेंच का प्रभाव भारी दिखाई पड़ता है, वहाँ कलात्मकता सिर उठाती है। आधुनिकता तथा विशेष रूप से उत्तर-आधुनिकता तक आते आते जब विमर्शों का दौर आरंभ होता है तब अमरीका का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है एवं काव्य-शास्त्र में राजनीति अत्यन्त मुखर रूप से दिखाई पड़ती है। यह जितनी सरलता से कही गई बात लगती है वास्तव में बात इतनी इतनी सरल नहीं है, क्योंकि अन्य अनेक ऐसे कारण हैं जो इन सबके लिए ज़िम्मेदार हैं। परन्तु एक समझ बनाने के लिए इसे मैंने इस तरह लिखा है।
यों तो प्लेटो का कवियों को देश-निकाला देना अपने आप में राजनीति का ही हिस्सा है, पर तब नैतिकता का ज़ोर अधिक था। अब, यानी कि उत्तर-आधुनिक दौर में राजनीति का स्वरूप एवं विधि के बदल जाने से काव्य-शास्त्र का आधार पश्चिम में कला, दर्शन आदि न हो कर विभिन्न विमर्श हो गए हैं। इनके मूल में नृवंश-शास्त्र, संस्कृति, समाज-शास्त्र और नव्य इतिहासवाद है, या हम कहें इतिहास-लेखन की परंपरा है।। चाहे वह अश्वेत साहित्य हो, नारी-वादी साहित्य हो या फिर हमारा अपना दलित साहित्य। अब राजनीति नैतिकता की बात नहीं करती। बल्कि राजनीति पहचान के संकट पर केन्द्रित हो गई है, ऐसा लगता है। पहचान का संकट- इसका मतलब यह हुआ कि समाज में जो अब तक पहचाने नहीं जा रहे थे, वे अपनी पहचान को, अपने अधिकारों को अपनी भाषा में अपनी बात को कहने के लिए तैयार हैं। आपको उन्हें पहचानना ही होगा।

अतः पश्चिम में कला के प्रति सजगता का वह रूप नहीं है जिस तरह भारतीय काव्य-शास्त्र में हम अपने काव्य-संप्रदायों के अध्ययन से जानते आए हैं। हमारे यहाँ दर्शन, राजनीति आदि कला में इस तरह दबी होती है कि उसे उकेर कर बाहर निकालना पड़ता है। वह अतिरिक्त है- केन्द्र में नहीं है। मैंने वर्ग आपको बताया था कि हमारे यहाँ रस-निष्पत्ति की प्रक्रिया महत्वपूर्ण है- उसकी चर्चा करने वाला प्रत्यभिज्ञा में मानता है – शैव है या बौद्ध है, वैष्णव है या जैन - ये बातें गौण हैं। साहित्य पदार्थ का कला या शोभा-स्वरूप मुख्य है।

Tuesday 21 September 2010

सुमन पाल की टिप्पणी का उत्तर



भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक आधार की बात जब हम करते हैं तब सबसे पहले हमें यह समझ लेना होगा कि किसी भी समाज या जाति के सांस्कृतिक आधार उसके साहित्य, कला और भाषा में निहित होता है। साथ ही इसका एक आधार उसकी धार्मिक एवं आध्यात्मिक विश्वासों के साथ भी जुड़ा है। जब हम भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक आधारों की बात करते हैं तो जैसा कि आपको याद होगा हमने प्रस्थान-त्रयी की बात की थी। आज तक का भारतीय साहित्य में अभी भी रामायण, महाभारत, पुराणों आदि के संदर्भ देखे जा सकते हैं। महाभारत एवं रामायण की रचना हुए अनेक वर्ष बीत जाने पर भी उसकी कथा एवं कथा प्रसंगों का आधार बना कर केवल तुलसीदास, दक्षिण के कम्बन आदि ने ही नहीं बल्कि आगे चल कर मैथिलीशरण गुप्त, निराला, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती नरेन्द्र कोहली, भगवान सिंह, बंगाली के रवीन्द्रनाथ टागोर, महाश्वेता देवी गुजराती के उमाशंकर जोशी आदि अनगिन साहित्यकारों ने लिखा और आज भी लिख रहे हैं। आप स्वयं इस बात का पता लगाएंगे तो आपको मालूम होगा कि यह सूची बहुत लंबी है। अर्थात् कथ्य के स्तर पर यह सांस्कृतिक आधार है।
हमारी कलाएँ, हमारी भाषा परंपरा का भी एक ऐसा ही आधार है। यही कारण है कि भारत में प्रायः कवि- लेखक द्विभाषी( दो भाषाएँ जानने वाले ) तो थे ही, बहुभाषी भी थे। तुलसीदास ने ब्रज अवधी दोनों में लिखा, मीरा ने राजस्थानी, ब्रज और गुजराती में लिखा,गुजराती के दयाराम ने ब्रज में भी लिखा- इस तरह भाषा भी एक आधार बनता है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि इतने वर्षों से चले आते हमारे मूल्यबोध भी हमारे सांस्कृतिक आधार हैं। अहिंसा, त्याग, परिवार भावना आदि इसी तरह के मूल्य हैं जो हमारे भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक आधार बनते हैं। मानवीय वृत्तियां तथा भाव मनुष्य-मात्र में समान हो सकते हैं। परन्तु उनकी प्रस्तुति पर समाज और विशेषकर संस्कृति का प्रभाव रहता है। सीतानुमा व्यवहार अ-भारतीय पाठक को विचित्र लग सकता है, पर भारतीय पाठक को नहीं। अतः जिन कृतियों को हम भारतीय कहते हैं उनमें हमारे सांस्कृतिक प्रभाव देखे जा सकते हैं।
किन्तु हमें यह भी याद रखना होगा कि भारतीय संस्कृति विभिन्नता से भरी हुई है अतः हमारे पास अनेक प्रकार के चरित्रों के रोल-मॉडल उपस्थित हैं। अतः स्वकीया सीता आदि के साथ-साथ परकीया राधा के प्रति भी हमारे मन में यथेष्ठ श्रद्धा है। इसीलिए तमाम सामजिक विरोध के बावजूद मीराँ के प्रेम को अथवा अक्क महादेवी के प्रेम को हम स्वीकार करते हैं।

Friday 17 September 2010

HIN-404 लोकजागरणकालीन काव्य

(पिछली  पोस्ट  से आगे)

पाशुपत मत का महत्व

मध्यकाल में जो विभिन्न धार्मिक संप्रदाय हुए उनमें पाशुपत मत अधिक प्रबल था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्युएनात्सांग ने अपने यात्रा विवरण में इस मत का बार-बार उल्लेख किया है। बाणभट्ट के ग्रंथों में पाशुपतों की चर्चा है। शंकराचार्य नें अपने ग्रंथ में इस मत का खंडन किया है। इस मत की तीन शाखाएं प्रसिद्ध हैं –

1. वैदिक 2. तांत्रिक 3. मिश्र

वैदिक पाशुपत लिंग, रुद्राक्ष और भस्म धारण करते थे, तांत्रिक पाशुपत लिंगतप्त चिह्न और शूल धारण करते थे तथा मिश्र पाशुपत समान भावों से पंचदेवों की उपासना करते थे। मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में ( 6-10 शती) लकुलीश के पाशुपत मत और कापालिक संप्रदायों का पता चलता है। गुजरात में पाशपत मत का बहुत पहले ही प्रादुर्भाव हो चुका था। पर पंडितों का मत है कि उसके तत्वज्ञान का विकास विक्रम की सातवीं आठवीं शताब्दी में हुआ होगा । कालांतर में यह मत दक्षिण और मध्य भारत में फैला। पाशुपत मत में मानने वाले जीवमात्र को पशु मानते हैं। शिव पशुपति हैं। पशुपति ने बिना किसी साधन या सहायता के इस जगत का निर्माण किया है। पशुपति ही समस्त कार्यों के कारण हैं। दुःखों से आत्यंतिक निवृत्ति तथा परम ऐश्वर्य की प्राप्ति इन दो बातों पर इनका विश्वास था। कापालिक वाममार्गी थे। इसीलिए गृहस्थों से संभवतः इनके सिद्धांतों का प्रचार नहीं था। ये लोग मानव बलि भी दिया करते थे। ऐसा माना जाता है कि शैवों के आगमों की संख्या 170 के क़रीब है। इन आगमों के निर्माण का स्थान भारत का उत्तरी हिस्सा, विशेषकर कश्मीर माना जाता है।
दक्षिण में तीन प्रसिद्ध शैव भक्त हो गए हैं। ज्ञान संबंधहार, अप्पय, सुंदर मूर्ति । इन शैव भक्तों के भजनों से आगमों का रूप तो बनता ही है , फिर भी ये महाभारत और पुराणों से प्रभावित बताए जाते हैं। इस संदर्भ में एक प्रभावशाली कवि मणिवाचकर का नाम आता है। ये भाव, भाषा, तत्वज्ञान, और काव्य-मर्म के उत्तम जानकार थे। उन्हें तमिल शैवों का तुलसीदास कहा जाता है। इस काल में शैवों की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण शाखा कश्मीर में थी। इस शाखा की तत्वविद्या पर आगमों का प्रभाव है। कश्मिरी शैव शाखा के दार्शनिक मत को प्रत्यभिज्ञा या स्पंद कहते हैं। पूर्वी भारत में जिस शाक्त मत का प्रचार था उसका संबंध कश्मिरी शैव मत से माना जाता है। शैव मत में प्रत्यभिज्ञा का अपना एक अलग वैशिष्ट्य है।
जिस तरह पाशुपत मत में शिव के प्रति परम आराध्य का भाव दृष्टिगोचर होता है। आगे चलकर इसमें तांत्रिकों का संदर्भ भी आता है, उसी तरह कापालिक मत को मानने वाले मुख्यतः तांत्रिक थे। अन्यतांत्रिकों की भाँति कापालिक भी इस बात पर विश्वास करते थे कि परम शिव ज्ञेय है। उपास्य है। इसी बात को लक्ष्य करके देवी भागवत् में यह कहा गया है कि कुण्डलिनी अर्थात् शक्ति से रहित शिव शव के समान अर्थात् निष्क्रीय है। तांत्रिकों का मानना है कि परम शिव के न रूप है न गुण अतः उनका स्वरूप लक्षण नहीं बताया जा सकता। जगत् के जितने भी पदार्थ हैं वे उनसे भिन्न हैं। निर्गुण शिव केवल जाने जा सकते हैं। उपासना का विषय नहीं हैं। शिव केवल ज्ञेय हैं। उपास्य तो शक्ति है। कापालिक मत में जितना महत्व शिव का है उतना ही शक्ति का भी है। बाणभट्ट की कादंबरी और हर्षचरित में तथा दसवीं सदी के आसपास लिखी हुई पुस्तकों में कापालिकों का वर्णन मिलता है। इनमें कहा गया है कि कापालिक मद्यपान करते थे, स्त्रियों के साथ विहार करते थे और सहज ही मोक्ष प्राप्त कर लेते थे। इन वर्णनों का आधार जन-साधारण में कापालिकों के प्रति जो मान्यताएँ थीं उसका प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। कापालिक प्रायः शैव-योगी माने जाते हैं। किन्तु उस समय बौद्ध कापालिक भी विद्यमान थे। दसवीं शताब्दी के बाद जिस नाथ मार्ग का प्रणयन हुआ , ये कापालिक उसके पूर्ववर्ती कहे जा सकते हैं।
जैन मत का महत्व आठवीं और नौवीं शताब्दी के आसपास जैन मत भी प्रचलन में था। किन्तु इसका आरंभ तो ईसा पूर्व से ही दक्षिण में मिलता है। जैन साधुओं , कवियों ने अपभ्रंश में लिखा। उनकी रचनाओं में वे सभी विशेषताएँ पाई जाती हैं जो उस युग के बौद्ध, शैव, शाक्त आदि योगियों और तांत्रिकों के ग्रंथ में प्राप्त है। बाह्याचार का विरोध. चित्तशुद्धि पर ज़ोर देना , शरीर को ही समस्त साधनाओं का आधार समझना और समरस भाव से स्वसंवेदन और आनंद का उपभोग करना जिससे जीव निष्कंचुक हो कर शिव हो जाता है। यही इस युग की साधनाओं की विशेषताएं हैं। कट्टर जैन साधू भी भिन्न मार्ग से चलते हुए इसी परम सत्य तक पहुँचे हैं। अगर उनकी रचनाओं पर से जैन का विशेषण हटा दिया जाए तो वह योगियों और तांत्रिकों की रचनाओं से बहुत भिन्न नहीं लगेंगी। सामरस भाव उस युग की एक महत्वपूर्ण साधना है। जैन साधकों के मतानुसार मन जब परमेश्वर से मिल जाता है तो दोनों का समरसी भाव अर्थात् सामरस भाव हो जाता है। इस अवस्था में साधक को पूजा और उपासना की आवश्यकता नहीं रहती।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मध्यकालीन विभिन्न धर्म साधनाएँ अलग – अलग पंथ तथा तत्वदर्शन से चलते हुए उस परम सत्य , अर्थात् परमेश्वर की प्राप्ति करते हैं। मध्यकालीन धर्म साधनाएँ एक ओर जहाँ भारतीय भक्ति-धारा की विविधता को दर्शाते हैं वहीं दूसरी ओर जीव और परमेश्वर की प्राप्ति एवं संबंधों में रहे ऐक्य भाव को भी दर्शाती है। यही भारतीय भक्ति की विशेषता भी मानी जा सकती है।