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पाशुपत मत का महत्व
मध्यकाल में जो विभिन्न धार्मिक संप्रदाय हुए उनमें पाशुपत मत अधिक प्रबल था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्युएनात्सांग ने अपने यात्रा विवरण में इस मत का बार-बार उल्लेख किया है। बाणभट्ट के ग्रंथों में पाशुपतों की चर्चा है। शंकराचार्य नें अपने ग्रंथ में इस मत का खंडन किया है। इस मत की तीन शाखाएं प्रसिद्ध हैं –
1. वैदिक 2. तांत्रिक 3. मिश्र
वैदिक पाशुपत लिंग, रुद्राक्ष और भस्म धारण करते थे, तांत्रिक पाशुपत लिंगतप्त चिह्न और शूल धारण करते थे तथा मिश्र पाशुपत समान भावों से पंचदेवों की उपासना करते थे। मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में ( 6-10 शती) लकुलीश के पाशुपत मत और कापालिक संप्रदायों का पता चलता है। गुजरात में पाशपत मत का बहुत पहले ही प्रादुर्भाव हो चुका था। पर पंडितों का मत है कि उसके तत्वज्ञान का विकास विक्रम की सातवीं आठवीं शताब्दी में हुआ होगा । कालांतर में यह मत दक्षिण और मध्य भारत में फैला। पाशुपत मत में मानने वाले जीवमात्र को पशु मानते हैं। शिव पशुपति हैं। पशुपति ने बिना किसी साधन या सहायता के इस जगत का निर्माण किया है। पशुपति ही समस्त कार्यों के कारण हैं। दुःखों से आत्यंतिक निवृत्ति तथा परम ऐश्वर्य की प्राप्ति इन दो बातों पर इनका विश्वास था। कापालिक वाममार्गी थे। इसीलिए गृहस्थों से संभवतः इनके सिद्धांतों का प्रचार नहीं था। ये लोग मानव बलि भी दिया करते थे। ऐसा माना जाता है कि शैवों के आगमों की संख्या 170 के क़रीब है। इन आगमों के निर्माण का स्थान भारत का उत्तरी हिस्सा, विशेषकर कश्मीर माना जाता है।
दक्षिण में तीन प्रसिद्ध शैव भक्त हो गए हैं। ज्ञान संबंधहार, अप्पय, सुंदर मूर्ति । इन शैव भक्तों के भजनों से आगमों का रूप तो बनता ही है , फिर भी ये महाभारत और पुराणों से प्रभावित बताए जाते हैं। इस संदर्भ में एक प्रभावशाली कवि मणिवाचकर का नाम आता है। ये भाव, भाषा, तत्वज्ञान, और काव्य-मर्म के उत्तम जानकार थे। उन्हें तमिल शैवों का तुलसीदास कहा जाता है। इस काल में शैवों की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण शाखा कश्मीर में थी। इस शाखा की तत्वविद्या पर आगमों का प्रभाव है। कश्मिरी शैव शाखा के दार्शनिक मत को प्रत्यभिज्ञा या स्पंद कहते हैं। पूर्वी भारत में जिस शाक्त मत का प्रचार था उसका संबंध कश्मिरी शैव मत से माना जाता है। शैव मत में प्रत्यभिज्ञा का अपना एक अलग वैशिष्ट्य है।
जिस तरह पाशुपत मत में शिव के प्रति परम आराध्य का भाव दृष्टिगोचर होता है। आगे चलकर इसमें तांत्रिकों का संदर्भ भी आता है, उसी तरह कापालिक मत को मानने वाले मुख्यतः तांत्रिक थे। अन्यतांत्रिकों की भाँति कापालिक भी इस बात पर विश्वास करते थे कि परम शिव ज्ञेय है। उपास्य है। इसी बात को लक्ष्य करके देवी भागवत् में यह कहा गया है कि कुण्डलिनी अर्थात् शक्ति से रहित शिव शव के समान अर्थात् निष्क्रीय है। तांत्रिकों का मानना है कि परम शिव के न रूप है न गुण अतः उनका स्वरूप लक्षण नहीं बताया जा सकता। जगत् के जितने भी पदार्थ हैं वे उनसे भिन्न हैं। निर्गुण शिव केवल जाने जा सकते हैं। उपासना का विषय नहीं हैं। शिव केवल ज्ञेय हैं। उपास्य तो शक्ति है। कापालिक मत में जितना महत्व शिव का है उतना ही शक्ति का भी है। बाणभट्ट की कादंबरी और हर्षचरित में तथा दसवीं सदी के आसपास लिखी हुई पुस्तकों में कापालिकों का वर्णन मिलता है। इनमें कहा गया है कि कापालिक मद्यपान करते थे, स्त्रियों के साथ विहार करते थे और सहज ही मोक्ष प्राप्त कर लेते थे। इन वर्णनों का आधार जन-साधारण में कापालिकों के प्रति जो मान्यताएँ थीं उसका प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। कापालिक प्रायः शैव-योगी माने जाते हैं। किन्तु उस समय बौद्ध कापालिक भी विद्यमान थे। दसवीं शताब्दी के बाद जिस नाथ मार्ग का प्रणयन हुआ , ये कापालिक उसके पूर्ववर्ती कहे जा सकते हैं।जैन मत का महत्व आठवीं और नौवीं शताब्दी के आसपास जैन मत भी प्रचलन में था। किन्तु इसका आरंभ तो ईसा पूर्व से ही दक्षिण में मिलता है। जैन साधुओं , कवियों ने अपभ्रंश में लिखा। उनकी रचनाओं में वे सभी विशेषताएँ पाई जाती हैं जो उस युग के बौद्ध, शैव, शाक्त आदि योगियों और तांत्रिकों के ग्रंथ में प्राप्त है। बाह्याचार का विरोध. चित्तशुद्धि पर ज़ोर देना , शरीर को ही समस्त साधनाओं का आधार समझना और समरस भाव से स्वसंवेदन और आनंद का उपभोग करना जिससे जीव निष्कंचुक हो कर शिव हो जाता है। यही इस युग की साधनाओं की विशेषताएं हैं। कट्टर जैन साधू भी भिन्न मार्ग से चलते हुए इसी परम सत्य तक पहुँचे हैं। अगर उनकी रचनाओं पर से जैन का विशेषण हटा दिया जाए तो वह योगियों और तांत्रिकों की रचनाओं से बहुत भिन्न नहीं लगेंगी। सामरस भाव उस युग की एक महत्वपूर्ण साधना है। जैन साधकों के मतानुसार मन जब परमेश्वर से मिल जाता है तो दोनों का समरसी भाव अर्थात् सामरस भाव हो जाता है। इस अवस्था में साधक को पूजा और उपासना की आवश्यकता नहीं रहती।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मध्यकालीन विभिन्न धर्म साधनाएँ अलग – अलग पंथ तथा तत्वदर्शन से चलते हुए उस परम सत्य , अर्थात् परमेश्वर की प्राप्ति करते हैं। मध्यकालीन धर्म साधनाएँ एक ओर जहाँ भारतीय भक्ति-धारा की विविधता को दर्शाते हैं वहीं दूसरी ओर जीव और परमेश्वर की प्राप्ति एवं संबंधों में रहे ऐक्य भाव को भी दर्शाती है। यही भारतीय भक्ति की विशेषता भी मानी जा सकती है।
मध्यकाल में जो विभिन्न धार्मिक संप्रदाय हुए उनमें पाशुपत मत अधिक प्रबल था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्युएनात्सांग ने अपने यात्रा विवरण में इस मत का बार-बार उल्लेख किया है। बाणभट्ट के ग्रंथों में पाशुपतों की चर्चा है। शंकराचार्य नें अपने ग्रंथ में इस मत का खंडन किया है। इस मत की तीन शाखाएं प्रसिद्ध हैं –
1. वैदिक 2. तांत्रिक 3. मिश्र
वैदिक पाशुपत लिंग, रुद्राक्ष और भस्म धारण करते थे, तांत्रिक पाशुपत लिंगतप्त चिह्न और शूल धारण करते थे तथा मिश्र पाशुपत समान भावों से पंचदेवों की उपासना करते थे। मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में ( 6-10 शती) लकुलीश के पाशुपत मत और कापालिक संप्रदायों का पता चलता है। गुजरात में पाशपत मत का बहुत पहले ही प्रादुर्भाव हो चुका था। पर पंडितों का मत है कि उसके तत्वज्ञान का विकास विक्रम की सातवीं आठवीं शताब्दी में हुआ होगा । कालांतर में यह मत दक्षिण और मध्य भारत में फैला। पाशुपत मत में मानने वाले जीवमात्र को पशु मानते हैं। शिव पशुपति हैं। पशुपति ने बिना किसी साधन या सहायता के इस जगत का निर्माण किया है। पशुपति ही समस्त कार्यों के कारण हैं। दुःखों से आत्यंतिक निवृत्ति तथा परम ऐश्वर्य की प्राप्ति इन दो बातों पर इनका विश्वास था। कापालिक वाममार्गी थे। इसीलिए गृहस्थों से संभवतः इनके सिद्धांतों का प्रचार नहीं था। ये लोग मानव बलि भी दिया करते थे। ऐसा माना जाता है कि शैवों के आगमों की संख्या 170 के क़रीब है। इन आगमों के निर्माण का स्थान भारत का उत्तरी हिस्सा, विशेषकर कश्मीर माना जाता है।
दक्षिण में तीन प्रसिद्ध शैव भक्त हो गए हैं। ज्ञान संबंधहार, अप्पय, सुंदर मूर्ति । इन शैव भक्तों के भजनों से आगमों का रूप तो बनता ही है , फिर भी ये महाभारत और पुराणों से प्रभावित बताए जाते हैं। इस संदर्भ में एक प्रभावशाली कवि मणिवाचकर का नाम आता है। ये भाव, भाषा, तत्वज्ञान, और काव्य-मर्म के उत्तम जानकार थे। उन्हें तमिल शैवों का तुलसीदास कहा जाता है। इस काल में शैवों की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण शाखा कश्मीर में थी। इस शाखा की तत्वविद्या पर आगमों का प्रभाव है। कश्मिरी शैव शाखा के दार्शनिक मत को प्रत्यभिज्ञा या स्पंद कहते हैं। पूर्वी भारत में जिस शाक्त मत का प्रचार था उसका संबंध कश्मिरी शैव मत से माना जाता है। शैव मत में प्रत्यभिज्ञा का अपना एक अलग वैशिष्ट्य है।
जिस तरह पाशुपत मत में शिव के प्रति परम आराध्य का भाव दृष्टिगोचर होता है। आगे चलकर इसमें तांत्रिकों का संदर्भ भी आता है, उसी तरह कापालिक मत को मानने वाले मुख्यतः तांत्रिक थे। अन्यतांत्रिकों की भाँति कापालिक भी इस बात पर विश्वास करते थे कि परम शिव ज्ञेय है। उपास्य है। इसी बात को लक्ष्य करके देवी भागवत् में यह कहा गया है कि कुण्डलिनी अर्थात् शक्ति से रहित शिव शव के समान अर्थात् निष्क्रीय है। तांत्रिकों का मानना है कि परम शिव के न रूप है न गुण अतः उनका स्वरूप लक्षण नहीं बताया जा सकता। जगत् के जितने भी पदार्थ हैं वे उनसे भिन्न हैं। निर्गुण शिव केवल जाने जा सकते हैं। उपासना का विषय नहीं हैं। शिव केवल ज्ञेय हैं। उपास्य तो शक्ति है। कापालिक मत में जितना महत्व शिव का है उतना ही शक्ति का भी है। बाणभट्ट की कादंबरी और हर्षचरित में तथा दसवीं सदी के आसपास लिखी हुई पुस्तकों में कापालिकों का वर्णन मिलता है। इनमें कहा गया है कि कापालिक मद्यपान करते थे, स्त्रियों के साथ विहार करते थे और सहज ही मोक्ष प्राप्त कर लेते थे। इन वर्णनों का आधार जन-साधारण में कापालिकों के प्रति जो मान्यताएँ थीं उसका प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। कापालिक प्रायः शैव-योगी माने जाते हैं। किन्तु उस समय बौद्ध कापालिक भी विद्यमान थे। दसवीं शताब्दी के बाद जिस नाथ मार्ग का प्रणयन हुआ , ये कापालिक उसके पूर्ववर्ती कहे जा सकते हैं।जैन मत का महत्व आठवीं और नौवीं शताब्दी के आसपास जैन मत भी प्रचलन में था। किन्तु इसका आरंभ तो ईसा पूर्व से ही दक्षिण में मिलता है। जैन साधुओं , कवियों ने अपभ्रंश में लिखा। उनकी रचनाओं में वे सभी विशेषताएँ पाई जाती हैं जो उस युग के बौद्ध, शैव, शाक्त आदि योगियों और तांत्रिकों के ग्रंथ में प्राप्त है। बाह्याचार का विरोध. चित्तशुद्धि पर ज़ोर देना , शरीर को ही समस्त साधनाओं का आधार समझना और समरस भाव से स्वसंवेदन और आनंद का उपभोग करना जिससे जीव निष्कंचुक हो कर शिव हो जाता है। यही इस युग की साधनाओं की विशेषताएं हैं। कट्टर जैन साधू भी भिन्न मार्ग से चलते हुए इसी परम सत्य तक पहुँचे हैं। अगर उनकी रचनाओं पर से जैन का विशेषण हटा दिया जाए तो वह योगियों और तांत्रिकों की रचनाओं से बहुत भिन्न नहीं लगेंगी। सामरस भाव उस युग की एक महत्वपूर्ण साधना है। जैन साधकों के मतानुसार मन जब परमेश्वर से मिल जाता है तो दोनों का समरसी भाव अर्थात् सामरस भाव हो जाता है। इस अवस्था में साधक को पूजा और उपासना की आवश्यकता नहीं रहती।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मध्यकालीन विभिन्न धर्म साधनाएँ अलग – अलग पंथ तथा तत्वदर्शन से चलते हुए उस परम सत्य , अर्थात् परमेश्वर की प्राप्ति करते हैं। मध्यकालीन धर्म साधनाएँ एक ओर जहाँ भारतीय भक्ति-धारा की विविधता को दर्शाते हैं वहीं दूसरी ओर जीव और परमेश्वर की प्राप्ति एवं संबंधों में रहे ऐक्य भाव को भी दर्शाती है। यही भारतीय भक्ति की विशेषता भी मानी जा सकती है।