यह एक प्रस्ताव है और हमारा आपसे निवेदन है कि इसे आप
गंभीरता से पढ़ें तथा अपने विचारों से अवगत कराएं ।
अकादमिक जगत में इतने वर्ष काम करते हुए हमें यह बात बड़ी शिद्दत से अनुभव हुई
है कि हिन्दी के शोध कार्यों में शोध
प्रविधि के मानकीकरण का नितान्त अभाव है। (यह अनुभव आपका भी होगा) इस मानकीकरण के
अभाव के कारण हमारे शोध कार्यों में
स्तरीकरण का अभाव देखा जा सकता है। भारत के सभी विश्वविद्यालयों में वर्षों से पीएच.
डी. का तथा एम.फिल का शोध कार्य हो रहा है। कई विश्वविद्यालयों में एम. ए. के स्तर
पर भी इस प्रकार का कार्य होता रहा है। हम सभी का यह साझा अनुभव रहा है कि तमाम
विश्वविद्यालयों में जो शोध कार्य हो रहे हैं उनमें शोध प्रविधि का या तो अंशतः अभाव
होता है अथवा उसका किसी मानकीकृत स्वरूप का प्रयोग नहीं होता है। मानकीकरण के अभाव की समस्या के संदर्भ में
समाज-शास्त्रीय विषयों , शिक्षा, विज्ञान
के विषयों में अथवा अंग्रेज़ी के समक्ष यह चिन्ता नहीं है।
आज जब व्यापक रूप से शोध कार्य करने के कारणों में परिवर्तन आ गया है ,
परिस्थितियों में बदलाव आ गया है तथा राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर
हम हिन्दी भाषा तथा उसके साहित्य को स्थापित करने की मंशा रखते हैं, उसके
अध्ययन-अध्यापन को लेकर उत्साहित हैं , तब इस मानकीकरण की हमें अधिक आवश्यकता है।
हिन्दी साहित्य का अध्यापन केवल विभिन्न
भारतीय प्रांतों में ही नहीं होता अपितु विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में हो रहा
है।
आज अंग्रेज़ी पढ़ने वाला चाहे हिन्दुस्तान में रहकर अंग्रेज़ी में शोधकार्य
करे, चाहे इंडियन इंग्लिश लिटरेचर पर करे या अमरीकन इंग्लिश लिटरेचर पर करे अथवा चीन -जापान में रह कर अंग्रेज़ी
साहित्य में शोध कार्य करे, परन्तु वह सामान्य रूप से एम. एल.ए. स्टाईलशीट का
प्रयोग करेगा। अथवा वह अन्य जिसका भी करेगा उसका उल्लेख अपने शोध कार्य की भूमिका
में अवश्य करेगा। एम. एल. ए. स्टाइलशीट के किस संस्करण से क्या लेना है , इस संबंध में भी एकरूपता देखी जा सकती है।
अतः अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने वाला विश्व का हर शोधार्थी एक प्रकार की शोध प्रविधि
का उपयोग करता हुआ दिखता है जिसके कारण शोध में आने वाली अनेक स्तरहीन बातें अपने
आप निलंबित हो जाती हैं।
इसके ठीक विपरीत शोध प्रविधि में मानकीकरण के अभाव में हमारे यहाँ किये जाने
वाले शोध कार्यों में अनेक क्षतियाँ रह जाती हैं। मानकीकरण के अभाव में किसी को इस
संदर्भ में टोका भी नहीं जा सकता। ऐसे
शोधकार्य इसीलिये, अमान्य भी नहीं किये जा सकते।
परिणामस्वरूप शोधार्थी कई बार अख़बार से लेकर विज्ञापन के लिये प्रसिद्ध
किए हुए चौपाने तक से संदर्भ लेने में
हिचकिचाते नहीं हैं। संदर्भ कहाँ से नहीं लेने चाहिए उसका कोई मानकीकृत निर्देश न
होने के कारण शोध कार्यों की स्थिति कई
बार बड़ी अराजक हो जाती है।
विषय-चुनाव की दृष्टि से हमारे शोध
विषय की मर्यादा भी रेखांकित नहीं हो पायी है। हमारे विषय का अतिक्रमण कई बार धर्मशास्त्र
में होता है अथवा कई बार दर्शनशास्त्र में
। इसे अन्तर्विद्याकीय अध्ययन के रूप में करना है तो शोध प्रविधि भी उस प्रकार की
होना ज़रूरी है- इस बात को गंभीरता से नहीं लिया जाता। इस संबंध में सबसे अधिक
अराजकता तथाकथित 'तुलनात्मक अध्ययनों' में होती है।
इसी शोध-प्रविधि के अभाव में आजकल
शोध-कार्य स्वीकृत होने के पूर्व ही – इस
उम्मीद में कि, इसे आगे तो छपना ही है, -- समर्पित करने की पहल भी कई
विश्वविद्यालयों के शोध-कार्यों में
दृष्टिगोचर होने लगी है।
यह अत्यन्त चिंता का विषय है कि अकारादि से दी हुई संदर्भ-ग्रंथ सूचि तथा
शोध कार्य की भाषा में निजवाचक सर्वनाम के प्रयोग के संदर्भ में 80 प्रतिशत
शोधकार्य किसी भी प्रकार के नियमों का पालन नहीं करते।
इसमें कोई संदेह नहीं कि वैदुष्य एवं शोध-प्रतिभा का क्रमशः क्षरण हो रहा है
साथ ही शोध-कार्य के उद्देश्यों में परिवर्तन आ गया है। ऐसे में यह अत्यन्त आवश्यक
हो गया है कि हम किसी मानकीकृत प्रविधि का प्रयोग करें। अब अगर यू. जी. सी. शोध
कार्यों को नेट पर रखने वाली है ,
तो, मानकीकृत प्रविधि के अभाव में हमारे
शोधकार्यों की विद्वत् समाज के सम्मुख
सामाजिक स्वीकृति का प्रश्न भी तो उठेगा ।
आज जब सभी विश्वविद्यालयों को शोधकार्य हेतु छात्रों को पंजीकृत करने के लिए
परीक्षा पद्धति का मानकीकरण हो गया है और सभी इसका पालन करने के लिए बाध्य हैं, तो
क्यों न हम हिन्दी भाषा साहित्य में होने वाले शोध कार्यों की प्रविधि के मानकीकरण
की दिशा में पहल करें ? शोध कार्यो के
अभिलेखिकरण की भी आवश्यकता है तथा उसका भी मानकीकरण करने की भी आवश्यकता है।
सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे पास शोध-प्रविधि की अपनी एक भारतीय परंपरा भी
रही है। उसे तथा आज की हमारी आधुनिक प्रविधि को जोड़ कर क्या हम अपनी एक मानकीकृत
पद्धति को नहीं अपना सकते ? इस संबंध में हमारे पास
पुस्तकें भी उपलब्ध हैं जो इस कार्य में हमारी मदद कर सकती हैं। अगर किसी
विश्वविद्यालय में इस प्रकार की पहल हुई है तो उसे भी देखा जा सकता है। हमें नये
सिरे से कुछ नहीं करना , परन्तु जो अव्यवस्थित है, उसे संपादित कर के व्यवस्थित करना है।
यह हमारी साझा चिंता का विषय है, अतः हमें साथ मिल कर इस संबंध में काम करना
होगा। इस संबंध में किस तरह कार्य किया जा
सकता है, अपने विचारों से अवगत कराएं ।
·
सबसे पहली बात तो यह है कि क्या हम इस विचार से सहमत हैं!
अथवा क्या असहमत होने का हमारे पास कोई विकल्प है?
·
क्या हमें आरंभिक स्तर पर क्लस्टर्स बना कर आस-पास के
विश्वविद्यालयों में समानांतर समय पर, कार्यशालाओं के माध्यम से काम करना चाहिये-
चाहे राज्य स्तर पर अथवा अन्तर्राज्यीय स्तर पर?
·
इसके बाद हर कार्यशाला के परिणामों को किसी राष्ट्रीय
संगोष्ठी के अन्तर्गत चर्चा कर के किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिये?
·
प्रत्येक विश्वविद्यालय को संगोष्ठियों के लिए अनुदान मिलता है। क्या हम इस हेतु आते एक दो
वर्ष बारी बारी अपने अनुदान को इस विषय के लिए खर्च कर सकते हैं ?
·
क्या इसके लिये कोई अलग संस्था बनानी चाहिये अथवा वर्तमान
किसी राष्ट्रीय संस्था के मंच से यह काम करना चाहिये?
हम जिन भी शोध परिणामों पर पहुँचेंगे, इसका पालन करने के
लिए यू. जी. सी. ने जिस कोर्स वर्क का आग्रह रखा है उसमें इसे समान रूप से लागू
किया जा सकता है। इस तरह हमारे सामूहिक परिणामों को समान रूप से लागू भी किया जा
सकता है।
आपके
प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा है।
रंजना अरगडे, अध्यक्ष हिन्दी विभाग , गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद
माधव हाडा, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, मो. सु. विश्वविद्यालय, उदयपुर
शैलजा भारद्वाज, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, म.स. विश्वविद्यालय, बरोड़ा
गीता नायक, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन
माधव हाडा, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, मो. सु. विश्वविद्यालय, उदयपुर
शैलजा भारद्वाज, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, म.स. विश्वविद्यालय, बरोड़ा
गीता नायक, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन