नए सत्र के साथ हम नए पाठ्यक्रम के साथ रूबरू हुए हैं। जून वाले सत्र से कुछ नई पुस्तके हमें पढ़नी होंगी। उनमें तुलनात्मक के कोर्स में दो पुस्तकें हैं जिस पर एक लेख मैंने पिछली पोस्ट में डाला था। विद्यार्थी मित्रो यह ब्लॉग इसीलिए लगभग बंद हो गया था क्योंकि आपने इसमें कोई सक्रीय रुचि नहीं दिखायी थी। नए सत्र में नए पाठ्यक्रम के साथ मैं फिर उपस्थित हूँ। लेकिन आपकी स्क्रीयता ज़रूरी है।
इस ब्लॉग पर विद्यार्थियों के साथ संवाद होगा। हिन्दी साहित्य से जुड़े अभ्यासक्रमों में जो कुछ वर्ग में अध्यापन के दौरान अनकहा, अनसमझा रह जाएगा उस पर बातचीत होगी। कुछ अतिरिक्त जानकारी भी।
जिन खोजा तिन पाइयां
इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।
Thursday, 10 March 2016
मेरा जामक वापस दो तथा छावणी उपन्यासों पर एक तुलनात्मक दृष्टि
भ्रंश के साहित्यिक दस्तावेज़ : दर्द की संरचनाएं
रंजना अरगडे
भयंकर प्राकृतिक आपदाएं पृथ्वी का चेहरा बदल देती हैं। पहले
जहाँ समुद्र था वहाँ अब विशाल पर्वत श्रृंखलाएं हैं अथवा रेगिस्तान है या फिर बंजर
फैली ज़मीन है- यह किसी अन्य देश के नहीं अपने ही देश के क़िस्से हैं;सच होते हुए भी विश्वास, अविश्वास और आश्चर्य के बीच ये
हमारे भीतर स्थान ग्रहण करते हैं। फिर वह चाहे हिमालय की श्रृंखलाएं हों, कच्छ का
रेगिस्तान हो अथवा धोलावीरा तथा लोथल की प्रागैतिहासिक हड्डपा सभ्यताएं।‛दी
यूनिवर्सिटी हिस्ट्री ऑफ़ दी वर्ल्ड’[1]
पुस्तक में इस तथ्य का उल्लेख है कि आज जहाँ उत्तरी ध्रुव है वहाँ कभी जापान हुआ
करता था और यह भी कि बहुत पहले सारे समुद्र मीठे पानी के हुआ करते थे, कालांतर में
वे खारे हुए । इसका और क्या प्रमाण हो सकता है कि निरे भौतिक यथार्थ से, इस पृथ्वी से, इस प्रकृति से
अधिक रोमांचक और आश्चर्य चकित करने वाला, इस संसार में और कुछ नहीं हो सकता !
यह सच है कि अच्छी रचनाएंजितनी बार पढ़ी जाती हैं हर बार नए
तरीक़े से एक सुलझे हुए पाठक को आश्चर्य में डालती हैं। गोया एक स्थायी विकासशील
आश्चर्य !ऐसी
रचनाओं का कथ्य तो महत्वपूर्ण होता हीहै परन्तु इनकी संरचनाएं भी इसलिए महत्वपूर्ण
हो जाती हैं कि वे कथ्य की बेहतर प्रस्तुति के लिए ज़िम्मेदार होती हैं। कथ्य की
बेहतर प्रस्तुति के लिए ऐसे में क्या यह सवाल भी महत्वपूर्ण होना चाहिए कि अनुभव
से लेखक की दूरी कितनी है? और बक़ौल इलीयट- यह दूरी जितनी अधिक होगी रचना उतनी
अधिक प्रभावशाली होगी ?
इस शोध आलेख में हिन्दी लेखक विद्यासागर नौटियाल रचित ‛मेरा
जामक वापस दो’ तथा गुजराती लेखक धीरेन्द्र मेहता कृत ‛’छावणी’’ उपन्यासों के
संदर्भ में रचना और संरचना की प्रभावशीलता के प्रश्नों को कथ्य की जटिलता के
परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया जाएगा।ये दोनों उपन्यास भूकंप पर आधारित
हैं।हालांकि 2005 में मराठी लेखक लक्ष्मण गायकवाड का भूकंप पर आधारित उपन्यास
दुभंग भी प्रकाशित हुआ है। लातूर में आए 1993 के भूकंप में किल्लारी गाँव में हुई
मानवीय त्रासदी का आलेखन लेखक ने किया है[i]।( इस
उपन्यास को हालाँकि इस आलेख में चर्चा हेतु शामिल नहीं किया गया है, पर भविष्य में
इस तरह का काम हो सकता है। ) भीषण मानवीय त्रासदी की घटनाओं पर उपन्यासों की रचना
कई बार चुनौती पूर्ण हो जाती हैक्योंकि इसमें यह भय बना रहता है कि लेखक सर्वेक्षण
या रिपोतार्ज में तो नहीं उलझ गया? इसके
पूर्व अकाल परअमृत लाल नागर का उपन्यास‛भूख’तथा रांगेय राघव का उपन्यास ‛विषाद मठ’
हिन्दी में आ चुके हैंऔर इसी अकाल की पृष्ठभूमि में पन्नालाल पटेल का ‛मानवीनी
भवाई’ प्रसिद्ध है ही। गुजरात के कच्छ में सन् 2001 में भयानक विनाशकारी भूकंप आया
और 2006 में धीरेन्द्र मेहता ने उस पर ‘छावणी’ नामक उपन्यास लिखा। भूकंप परगुजराती में मावजी माहेश्वरी का तिराड नामक
एक निबंध-संग्रहभी 2003 में प्रकाशित हुआ।
2011 में इस उपन्यास का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। क्राऊन आकार की 246 पृष्ठों
की यह रचना केन्द्रीय साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत है। नौटियालजी का
उपन्यास 2012 में प्रकाशित हुआ और अभी इतना चर्चित भी नहीं है। डिमाई आकार में 232
पृष्ठों की यह रचना 1991 में उत्तरकाशी में आए विनाशकारी भूकंप पर आधारित है
जिसमें एक पूरा गाँव और उसके लगभग सभी मवेशी दब कर मर गए थे। कुल मानव मृत्यु 77
बतायी जाती है। लेकिन इसका एक गाँव जिसका नाम जामक है, वह पूरी तरह से नष्ट हो गया
था। उसकी अख़बारों में खूब चर्चा हुई थी। 1991में जामक की बरबादी की चर्चा 2013के
जागरण में भी मिलती है जिससे पता चलता है कि इस भूकंप के 22 वर्ष बाद भी जामक
चर्चा में है।[ii]
अर्थात् धीरेन्द्र मेहता भूकंप की त्रासदी के पाँच वर्षों बाद इस घटना का
साहित्यिक दस्तावेज़ हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं और नौटियालजी को इस साहित्यिक
दस्तावेज़ को प्रस्तुत करने में 21 वर्ष लगे। अनुभव से लेखकों की दूरी का यह हिसाब
है। लेकिन उपन्यासके परीक्षण का यह अकेला मापदंड नहीं है। पर चूंकि एलीयट नयी
समीक्षा के पुरोधा थे और यह प्रपत्र तुलनात्मक के अमरीकी स्कूल को आधार बना कर
लिखा जा रहा है अतः इस संदर्भ में कुछ पड़ताल तो अपेक्षित होगी ही।
एक और सवाल भी इस संदर्भ में उठता है । क्या प्रदेश विशेष
के भूगोल की संरचना का कृति की संरचना से कोई संबंध हो सकता है? कच्छ की भूमि का
सपाटपन और विस्तार एक अलग ही बोध जगाता है। उस भूमि पर विस्तार की अनुभूति का अलग
महत्व है जो दूसरे किसी भी चौड़े सपाट भू-भाग
में नहीं होता। धीरेन्द्र मेहता की ‘छावणी’ उसकी भूमि की तरह ही सपाट है।
पहाड़ संकुल होते हैं। परत-दर-परत मिट्टी की
सतहें अपने भीतर करोड़ों साल पुराने वनस्पतियों, नदियों, झीलों और जंगलों
को लिए होते हैं। पहाड़ अपनी संरचना में कठिन और जटिल होते हैं। तो क्या इन दो
रचनाकारों की कृतियों की संरचनाओं में इनके प्रदेशों की भौगोलिक रचना ने कोई
भूमिका अदा की होगी या कि यह महज़ संयोग है? इन उपन्यासों की संरचनाओं का विश्लेषण
करने के पूर्व और भी इस तरह के कुछ प्रश्न हैं जिनका उल्लेख करना आवश्यक लगता है।
इस तथ्य का उल्लेख करते हुए, कि नौटियालजी गुजराती नहीं जानते थे और ‘छावणी’ का अभी( फरवरी 2016 तक) हिन्दी अनुवाद हुआ नहीं है अतः उनपर इस उपन्यास
का प्रभाव पड़ा हो ऐसा कहा नहीं जा सकता। लेकिन एक अद्भुत् संयोग है कि इन दोनों
उपन्यासों में भूकंप के ठीक पहले दो भाइयों में संपत्ति को लेकर खटराग और मनमुटाव
हो जाता है और फिर भूकंप आता है। भूकंप का संबंध सामाजिक भ्रंशों से नहीं है,
बल्कि पृथ्वी के भीतर से संबंधित है।लेकिन दोनों उपन्यासकारों ने सामाजिक और
प्राकृतिक भ्रंशों को जोड़ दिया। क्या हमारी पारिस्थितिक को हमारी सामाजिकता इतनी
सूक्ष्मता से प्रभावित करती है ?
उत्तर काशी में बसा एक छोटा-सा गाँव जामक लेखकीय चिंताओं के
केन्द्र में है। जामकके एक छोर पर काली रहता है , दूसरे छोर पर हरि। काली ऊँचाई पर
रहता है।उपन्यास को पढ़ लेने के बाद जामक का भौगोलिक परिचय हमें मिलता है और यह भी
पता चलता है कि लेखक जामक को किस से और क्यों वापस माँग रहा है।
गुमनामी के अँधेरे में रहे इस गाँव को पहले वहाँ हो रहे विकास कार्यों के परिणाम
स्वरूप मानवसर्जित भूकंपों का सामना करना पड़ा और फिर (संभवतः) उसी के परिणाम
स्वरूप प्राकृतिक आपदा रूप भूकंप का सामना करना पड़ा। यहाँ सायमन को भगा कर (गो
बैक सायमन वाले सायमन को) हिन्दुस्तान लेने की बात नहीं है फिर भी सायमन के
स्वातंत्र्योत्तर काले वंशजों ने तत्कालीन देशवासियों के वर्तमान वंशजों से जो
छीना है, और छीन रहे हैं आज भी लगातार, उसको वापस लेने की आवाज़ जामक वासियों को
किस तरह क्रमशः मिलती है, इसे लेखक ने अपने इस उपन्यास में दिखाने की कोशिश की
है। आज़ादी के बाद सामान्य जन के शोषण का
ठेका जिन व्यवसायियों तथा सरकारी कारिंदों ने लिया है उसका बड़ा सच्चा चित्र इस
उपन्यास में प्रस्तुत हुआ है।
राजनीतिक पार्टियाँ तथा व्यापारियों की मिली-भगत को, जिसमें
पत्रकारिता की भी एक सहयोगात्मक भूमिका रहती है, बड़े ही विस्तार के साथ इस
उपन्यास में चित्रित हुई है। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबसे अधिक किसे भुगतना
पड़ता है, लेखक ने इसका सटीक चित्र हमारे सामने रखा है। इसका एक मुख्य कारण है – गाँव में शिक्षा का अभाव। शिक्षा के प्रचार
में विचारधाराएं तथा विचारधाराओं को चलाने वाली राजनैतिक पार्टियाँ किस प्रकार
अपने हाथ सेंकती हैं इसे इस उपन्यास की कथा-वस्तु का विषय बनाया गया है। प्रकृति
विरुद्ध विकास, प्रकृति बनाम अंधविश्वास, मिथ, (प्राकृतिक) संकट विरुद्ध सरकारी
नीतियाँ, समय के साथ बदलते पारिवारिक संबंध, स्त्री-शिक्षा और वास्तविक विकास के
बिंदु इस उपन्यास का कलेवर रचते हैं। लेखक ने भूकंप का अनुभवजनित वास्तविक चित्रण
किया है।[2]
पर्यावरण
अध्ययन की दृष्टि से यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उपन्यास कहा जा सकता है। आज के बहुविध
विमर्शों में पारिस्थितिक पद्धति तथा पर्यावरण विमर्श केवल विज्ञान तक सीमित न रह
कर साहित्य एवं मानविकी तथा विधि जैसे विषयों में भी अपनी पैठ रखने लगे हैं। विकास
के नाम पर मनुष्य पर्यावरण संकट को किस तरह बढ़ावा दे रहा है , सरकार किस तरह से
संकट को गहरा बनाने की नीतियाँ गढ़ रही है, इन सब का चित्रण इस उपन्यास में बख़ूबी
मिलता है। कोंग्रेस, दक्षिणपंथी तथा वामपंथी पार्टियाँ जनता को किस तरह चक्राकार
में घुमा रही हैं, कभी विकास के नाम पर तो कभी सुशासन के नाम पर तो कभी राष्ट्रीय
अस्मिता के नाम पर, इसे लेखक ने इस उपन्यास में संप्रेषित करने का उपक्रम किया है।
बदलते हुए समय के साथ पहाड़ का भोला-भाला आदमी भी कितना चालाक होता जा रहा है,
इसकी ओर भी लेखक ने इशारा किया है।लेखक को विश्वास है कि आदमी कुदरत से जीत नहीं
सकता।[3]
इस भयावह भूकंप में अगर कोई चीज़ ऐसी है जिसके सहारे टिका
जा सकता है तो वह है केवल प्रेम और दूसरे के प्रति सह- सम-वेदना। यही वे दो प्रमुख तत्व हैं जिसके
बल पर आम आदमी ज़िंदा है और उसी के बल पर यह पर्यावरण भी बना रह सकता है। पर साथ
ही लेखक को भय इस बात का भी है कि अगर परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया तो
वह दिन दूर नहीं कि पहाड़ का यह भोला जीव अपनी मूल प्रकृति ही खो देगा।
जैसे कि पहले उल्लेख किया गया है उत्तराखंड में सन् 1991 आए
भूकंप पर लिखा मेरा जामक वापस दो 2012 में प्रकाशित हुआ है। कहना चाहिए कलावादी
इलीयट के सूत्र को प्रगतिशील रचनाकार ने बड़ी गहराई से समझा है। इस उपन्यास का
कथाक्रम मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बँटा है। उपन्यास का आरंभ भूकंप का हृदय
विदारक चित्रण और जामक नामक गाँव में लोगों की बदहाली के यथार्थ चित्रण से होता
है। इसी में मनुष्य-मनुष्य तथा मनुष्य –प्राणी के परस्पर संबंध के भावनात्मक एवं
मानवीय चित्र मिलते हैं। इसी में मनेरी विकास परियोजना तथा तत्कालीन डी.एम का
जन-पक्षधर रवैया चित्रित है। अभी जामक में रहने वाले लोग
भूकंप के समग्र स्वरूप तथा गंभीरता से अनभिज्ञ हैं। और उसी तरह आसपास के लोग यानी
हलद्वानी, काठ गोदाम के लोग जामक की गंभीर स्थिति से अनभिज्ञ हैं। लेखक इस सूत्र को जोड़ कर भारत भर से आने वाली
राहत सामग्री और उसके वितरण में सरकारी नीतियों का ढीलापन, राहत सामग्री का
दुरुपयोग आदि का वर्णन बड़े विस्तार से करते हैं। यह उपन्यास का दूसरा भाग है। इसी
में स्वास्थ्य संबंधी मदद केप्रसंग शामिल हैं। इनको तथा मीडिया को इस तरह जोड़ा है
कि यह पता चलता है कि अख़बार भी भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों के साथ मिल जाते हैं।
मनेरी योजना से ले कर इस भूकंप तक आते -आते सरकारी अमलों तथा मीडिया के संबंध बदल
गए होते हैं। अंतिम खंड में ट्रक में लदे सामान के वितरण के भ्रष्टाचार में व्यापारियों,
सरकारी अमलों तथा गाँव के दबंग लोगों की भूमिका तथा लोक-विरोधी भ्रष्टाचार मूलक
भूकंप की नीतियाँ और उनका अमलीकरण बताया है। देश में ही नहीं विदेश में जा कर
भूकंप की ट्रेजेडी को बेचने वाले संगठनों का पर्दा फाश किया है। सरकारी भ्रष्टाचार
ने जिस अख़बार को जन-विरोधी बना दिया था वही फिर एक बार जन-पक्षधर बनता है। लेखक की रचनागत सफलता इस बात में है कि वह पहले हिस्से को बाद के हिस्से का साथ
कथ्य की कंटीन्यूटी से जोड़ देता है। इसमें असंख्य छोटे-मोटे प्रसंग हैं जो
उपन्यास का कलेवर रचते हैं। भूकंप में जैंती दब कर मर जाती है। जैंती इस गाँव की
पहली शिक्षित स्त्री है। जैंती और खिला ने उस समय शिक्षा प्राप्त की थी जब गाँव
में स्कूल नहीं था। इन दोनों की शिक्षा के केन्द्र में विकास संबंधी प्रगतिशील
विचार ज़िम्मेदार था। लेकिन भूकंप के बाद कल्पा की पीढ़ी आती है। कल्पा के माता –
पिता भूकंप में दब कर मर गए। वह अपने दादा-दादी के साथ रहती है। तब वहाँ दक्षिण
पंथी आते हैं और शिक्षा का प्रसार करने के लिए स्कूल खोलते हैं। पढ़ने के लिए
जैंती भी उत्सुक थी और कल्पा भी उत्सुक है। विचारधारा कोई भी हो, बालक तो ज्ञान
ग्रहण करने के लिए तत्पर ही रहता है। लेखक जैंती और कल्पा के माध्यम से इस
परिवर्तन की और संकेत करते हैं। अर्थात् भूकंप का लाभ केवल मीडिया, सरकारी कारिंदे
, व्यापारी ही नहीं ले रहे अपितु विचारधारा से संवाहक संगठन कहीं भी पीछे नहीं
हैं। इस संदर्भ में पृ 98 तथा पृष्ठ 230 में क्रमशः जैंती तथा कल्पा के प्रगतिशील
तथा हिन्दूवादी विचार देखे जा सकते हैं। यह वास्तव में विचार करने वाली बात है कि
भौगोलिक भ्रंश केवल सामाजिक, राजनीतिक भ्रंश की ओर ही संकेत नहीं करते अपितु इस प्राकृतिक आपदा का लाभ लेकर किस तरह
विचारधारात्मक संगठन जनता की आत्मा और चेतना में भ्रंश निर्मित कर सकते हैं इसकी
और भी संकेत किया है। लेखक ने जहाँ इस उपन्यास में ऑथोराईज़्ड करप्शन को बताया है,
लेखक ने इसमें जितने भी प्रसंग लिए हैं सभी का इतना
विस्तृत और सूक्ष्म चित्रण किया है कि पाठक के समक्ष कुछ भी छिपा नहीं रहता। लेखक
अगर वर्णनात्मक बारीकियों को नहीं भूला है तो बदलते हुए व्यापक परिवेश पर से भी
उसकी नज़र नहीं हटी है। यह संतुलन बहुत ग़ज़ब का है।
भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा से जन-जीवन
तथा लोगों के परस्पर के व्यवहार में अंतर आ सकता है, प्रदेश गत उसमें भिन्नता भी
हो सकती है, परन्तु तंत्र की जड़ता एवं लूट तो स्थाई भाव की तरह सर्वत्र व्याप्त
है- फिर भूकंप चाहे उत्तरकाशी में आया हो या गुजरात में।
लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या तंत्र की नंगई जिस तरह जामक में खुलती है क्या
वैसे ही ‘छावणी’ में हो पाता है?
अथवा ‘छावणी’ के लेखक के लिए यह
महत्वपूर्ण नहीं है। इसके लिए तो लेखक की विचारधारा ही ज़िम्मेदार है। तुलना का एक
बिंदु यह भी हो सकता है। पर इसकी चर्चा आगे की जाएगी।
16 फरवरी 2010 को साहित्य अकादमी दिल्ली में अपना सम्मान प्राप्त करते समय
श्री धीरेन्द्र मेहता ने जो वक्तव्य दिया उसमें वे कहते हैं कि इस अनुभव के बाद
मेरी यह समझ में आया कि भूकंप के झटके मनुष्य के अस्तित्व को अथवा उसने जो सृष्टि
खड़ी की है, उसी को नहीं लगे, दरारें
केवल इमारतों और रास्तों पर ही नहीं पैदा
हुईं, केवल यह शहर ही नष्ट नहीं हुआ मनुष्य के भीतर भी विनाश हुआ है। साथ ही मानव
संबंधों एवं संवेदनाओं की भंगुरता का भी
पता चल गया।(पृ 250) अपने जमीं दोस्त हुए घर से निकलने के बाद लेखक को इस विनाश के
भयंकर और दिल दहलाने वाले अनुभव हुए। पर योग्य तकनीक के अभाव में इसकी बात नहीं की
जा सकती है। लेखक को चिंता इस बात की थी कि भूकंप का यह अनुभव रिपोर्ट बन कर न रह
जाए अथवा तो केवल निजी दुःख का दस्तावेज़ बन कर न रह जाए। और फिर लेखक कल्पना करता
है कि एक चरित्र नाम जिसका है रवि अपने मित्र से मिलने भुज आता है। जैसे ही वह भुज
की धरती पर क़दम रखता है वहाँ भूकंप का जोरदार झटका अनुभव करता है। मित्र का घर तो
मिट्टी में मिल चुका है और उसे लगता है कि तुरंत शहर छोड़ कर नहीं जाना चाहिए। वह
एक अजनबी की हैसियत से ही वहाँ रुक जाता है और वहाँ जो कुछ होता है उसका साक्षी
बनता है, निरीक्षण करता है। उसका हिस्सा भी बन जाता है कई बार। वह एक साल वहाँ
रहता है कई तरह के अनुभवों से गुज़रता है
, वहाँ रहते हुए नियमित डायरी लिखता है। यह डायरी किसी सामान भरे ट्रक से नीचे
गिरी उसे मिलती है। और जब साल भर बाद वह वहाँ से जाने का निर्णय लेता है तो डायरी
वहीं छोड़ जाता है। एक लड़का उसे वह डायरी देने की कोशिश करता है पर कथा-नायक उन
अनुभवों को वहीं छोड़ देना चाहता है। वह डायरी वापस नहीं लेता यह कह कर कि वह मेरी
नहीं है। एक सवाल उठता है कि रवि साल भर इस सबके बीच रहा तो क्या कुछ भी उसका अपना
न हो सका?उस डायरी को वहीं भूल जाने का कारण क्या
यही हैकि साल भर जो कुछ उसने अनुभव किया वह उसके अपने पन का हिस्सा न हो
सका। यानी जा कुछ अनुभव किया वह हृदय से नहीं किया था। लेकिन ऐसे निष्कर्षों तक
नहीं पहुँचना चाहिए। रवि जब यहाँ पहुँचा था, तब उसके बड़े भाई ने मकान का उसका
हिस्सा यह कह कर ले लिया था कि पिता की मौत के बाद सब कुछ उन्होंने सँभाला था, रवि
का खर्च भी उठाया था अतः उस हिसाब के बदले में मकान का अपना हिस्सा उसे छोड़ देना
चाहिए। फिर जोड़ा भी था कि महेश[4](बेटा)
अब बड़ा हो रहा है इसलिए ऐसा सोचना ज़रूरी है।(पृ30) संबंधों में पड़ी ऐसी दर्दनाक
दरार से आहत हो कर वह अपने दोस्त के यहाँ चला आया था। लेकिन शहर में पाँव धरते ही
वहाँ की धरती में कैसी महा-भयानक दरारें पड़ी। लेखक ने धरती के भीतर के भ्रंश का
आलेखन मन के भीतर के भ्रंश के साथ जोड़ दिया है। टूटे मन से आया रवि भूकंप से टूटे
शहर का हिस्सा बन जाता है। उसने यही विकल्प पसंद किया। शायद इसलिए कि जो टूट उसके
अंदर थी वही टूट वह इस शहर में बिखरी पड़ी देख रहा था। डायरी की तकनीक में लिखा यह
उपन्यास कथा-कथक रवि को एक बाहरी निरीक्षक के रूप में ही चित्रित करता है। पूरे उपन्यास में वहाँ रहते वासियों के भीतर के
भ्रंश किस-किस तरह उजागर होते हैं इसका आलेखन वे करते हैं। लेकिन उसके पास यह
स्वतंत्रता थी कि वह अपने आप को कभी भी बाहरी कह सके। पर इसी में एक स्थिति ऐसी
आती है कि वहीं का निवासी यह कह उठता है कि बाहरी हुए तो क्या? इस धरती कंप ने तो
ऐसा कोई भेद नहीं रखा। जो यहाँ थे, वे सभी धरती में समा गए है।
"पर कैंट (छावनी) में आने के बाद भी मेरा यह भटकना कहाँ समाप्त हुआ है?
मेरी इन भटकनों ने ही तो यह डायरी मुझे भेंट की है और उसने जो जो दिया उसे टीपने
के लिए। जैसे इस डायरी के आरंभिक पन्नों में घर-गृहस्थी की जिन्सों की एक सूची है
यूं मुझे घटनाओं, दृश्यों, व्यक्तियों, विचारों, संवेदनाओं को इसमें टीपना है।
संक्षेप में कहूँ तो एक दुर्घटना की और उसमें से जो जन्मी हैं उन सभी की टीप मुझे
इस डायरी में करनी है। यह डायरी न मिली होती तो मेरे मन में कितना कुछ दबा पड़ा रह
गया होता। जब कुछ भी डायरी में लिखता हूँ तो ऐसा लगता है कि गोया कोई प्रचंड
विस्फोट होता है और डायरी के पन्ने पर सब बिखर जाता है। एक बार तो यह भी विचार आ
गया कि अगर यह सब डायरी में अभिव्यक्त न हुआ होता तो....तो क्या होता।"(28)
जैसे यह रवि की नहीं लेखक की बात हो।
‘छावणी’ में रवि, जो बाहर से आया है वह, उन अनेक
प्रसंगों का साक्षी बनता है जो भूकंप की विभीषिका के भोक्ता हैं। इन प्रसंगों के
माध्यम से वे प्रमुखतः मानवीय संबंधों में जो ओछापन आ गया है उसे रेखांकित करते
हैं। भाई-भाई को नहीं पहचानता, मरे भाई के नाम पर सरकारी सहाय मिल जाने के बाद
जीवित निकल आए भाई को पहचानने से इनकार कर देना, मलबे से निकली घर गृहस्थी की
चीज़ों को लूटना आदि। इस उपन्यास में कई किस्से हैं, प्रसंग हैं जो भूकंप की
विभीषिका को उजागर करते हैं। साल बीतने पर जब गाड़ी पटरी पर आ जाती है, लगभग, तब
कथा-कथक वापस लौट जाता है। जिस दिन उसका आखिरी दिन था वह सोचता है-
फिर लगता है कि मैं किसकी बात कर रहा हूँ। अपनी अथवा इस बस्ती में रहने वाले
दूसरे लोगों की? अपनी बात को मैंने इन सब के साथ कहाँ जोड़ दी है? मेरा भला यहाँ
कौन-सा घर? मैंने जो खोया है वह घर इस शहर में कहाँ है? यहीं क्यों, क्या वह
वास्तव में था भी कहीं, कभी? घर के होने की, और उसके साथ अपनत्व के भाव की कितनी
बड़ी भ्रांति मुझे थी। इसका अर्थ यह हुआ कि साथ रहने वाले सभी के परस्पर के संबंध
की भी कितना बड़ी भांति ही तो है। क्या भंगुरता का यह अनुभव ले कर निर्वासित की
तरह ही मैं यहाँ नहीं उतर पड़ा था।
इतना समय यहाँ के लोगों के साथ रहा और भंगुरता का जो अनुभव मैंने किया उस पर
से यही कहा जा सकता है कि इसके पहले भी जो अखंड (लग रहा) था वह भी केवल एक
व्यवस्था(arrangement)ही थी। जो मलबा भीतर था वही
बाहर आया है। फिर चाहे वह मानव बस्ती वाले इन मकानों की बात हो अथवा मानव संबंधों
की बात हो। (237)
‘छावणी’ में लेखक इस मानव विभीषिका को सहन करने के
बाद वीतरागी हो जाता है। अतः आध्यात्मिक किस्म की बात करता हुआ दिखायी पड़ता है।
कहीं-कहीं लेखक ने शासन व्यवस्था पर हल्का-सा तन्ज़ कसा है। पर भूकंप के लिए मानव
वृत्तियों , लालसाओं, स्वार्थों और स्व-केन्द्रिता को ज़िम्मेदार ठहराया है।
धीरेन्द्र मेहता कहीं भी सत्ता, व्यवस्था, विकास , राजनीति, विचारधारा को इसमें
शामिल नहीं करते। संभवतः इसका कारण यही है कि जिस साहित्य परंपरा के धीरेन्द्र
मेहता एक सशक्त लेखक हैं वह इसी तरह की
रचनाशीलता से भरी है। भूकंप के लिए ज़िम्मेदार तत्व जो हों पर भूकंप जैसी
प्राकृतिक आपदा को निसृत परिणामों के लिए मनुष्य की वृत्ति ही ज़िम्मेदार हो सकती
है यह सोच इस परंपरा में सहज स्वाभाविक है।
या यह भी हो सकता है कि कच्छ की सपाट भूमि पर नुकसान की संभावनाएंपहाड़ों से
कम हो, विकास का जो रूप पहाड़ों पर, विशेष रूप से जामक में था वैसा यहाँ न हो अथवा
लेखक यह पूरी घटना को भीतरी भ्रंश के साथ जोड़ कर मनुष्य जिस दर्द से अथवा ट्रेजेडी
से गुज़रता है उसे आलेखित करना चाहता हो। डायरी का शिल्प इस लिए यहाँ अधिक प्रभावी
बनता है कि डायरी लिखने वाला चरित्र गोया भूकंप की त्रासदी का एक हिसाब दे रहा है;वह इस शहर से इसीलिएजुड़ा है क्योंकि जब वह यहाँ पहुँचा था तो
तुरंत वापस लौटने के लिए उसके पास न तो कोई घर था न ही कोई स्वजन। अतः इन बे-घर
वालों के साथ वह एक संबंध में बँधता है। इस शिल्प के कारण उपन्यास में एक बेगानेपन
का भाव बिखरा दिखता है। वस्तुतः मनुष्य का स्वभाव श्मशान-वैरागी अधिक है। वह बहुत
जल्दी बड़ी से बड़ी दुर्घटना को भूल जाता है।
अतः यह बेगानापन एक बाहरी चरित्र के कारण उभरता है। भूकंप का भोक्ता क्या
इसे न्याय दे पाता ? लेखक ने इसमें बहुत करुण मार्मिक और दिल दहलाने और तोड़ने
वाले दृश्य और प्रसंग डाले हैं परन्तु फिर भी उपन्यास में व्यापक समाज के टूटने के
चित्र इस तरह नहीं आते कि भूकंप एक व्यापक सामाजिक आपदा बन कर आता।
इन दोनों उपन्यासों की संरचनाएं एक दूसरे से भिन्न हैं। मुख्यतः डायरी शैली के
कारण और दूसरे गुजराती उपन्यास साहित्य की वैचारिक परंपरा के कारण संभवतः उपन्यास में एक बहुत बड़े अनुभव का दर्दएक
तरह से निजी दस्तावेज़ के रूप में सामने आता है। वहीं मेरा जामक वापस दो उपन्यास अनेक स्तरीय संदर्भों
के प्रस्तुत करता है।अपने परंपरागत वर्णनात्मक शैली में यह उपन्यास व्यक्ति, समाज,
बाबू शाही तथा मानवीय स्खलन के कई स्तर हमारे सामने खोलता है। इसमें यह गहराई से
रेखांकित हुआ है कि जहाँ प्राकृतिक-भौगोलिक भ्रंश पृथ्वी का चेहरा बदल देते हैं
वहाँ सामाजिक, राजनीतिक भ्रंश जन-जीवन बदल देते हैं। उसी तरह विचारधारात्मक भ्रंश मानसिकता बदल देते हैं तथा आध्यात्मिक
भ्रंश चेतना और मानवीय अस्तित्व के अर्थ बदल देते हैं। यही इस उपन्यास की
बहुस्तरीयता है।
[1]The University History of the
world, ed- pg
[2]"मकान काँपा, थरथराया और फिर यों हिलने-डोलने लगा कि जैसे किसी
बच्चे का पालना हिल रहा हो बाएं से दाहिने और फिर दाहिने से बाएं, या कोई हिंडोला
झूल रहा हो आगे से पीछे। भयानक और विचित्र आवाज़ें करते हुए उस घर की इमारत के
जोड़-जोड़ टूटने उखड़ने लगे।"
[3]"लेकिन कुदरत भी जिसका कुछ न बिगाड़ सके ऐसा कोई
भवन कौन बना सका है आज तक ? कुदरत की बात अलग है। उसकी हरकतें किसी को पूछ कर नहीं
होतीं। वह एक झटके में इनसानी बस्तियों को नेस्तनाबूद कर दे। पहाड़ों को झकझोरते
हुए वहाँ जमा मिट्टी-पत्थरों को घाटियों में बिछा दे और उनकी सूरत–शकल को ही बदल डाले। ........कुदरत से कौन
जीत सकता है। आदमी, पालतू पशु और बनैले जानवर, वनस्पति ? इनमें से कुदरत जिसे चाहे
घायल कर दे, अशक्त बना दे, वह जिसकी चाहे जान ही ले ले। "
[4]एक अजब संयोग यह
है कि जामक में भी उपन्यासकार ने एक भाई हरि को दूसरे भी काली से भी पुश्तैनी मकान
में उसका हिस्सा माँगा अपने बेटे महेश के नाम पर ही, हालाँकि बहुत अलग स्थितियों
में।
[i]दुभंग दुभंग 30 सितम्बर, 1993 को महाराष्ट्र के किल्लारी गाँव, जिला लातूर में आए भूकम्प
पर आधारित उपन्यास है। इस भूकम्प से यह गाँव लगभग पूरी तरह नष्ट हो गया था। अनेकों
लोग मलबे में दफन हो गए थे। प्रसिद्ध मराठी लेखक लक्ष्मण गायकवाड ने भूकम्प के बाद
किल्लारी जाकर बाकायदा सहायता और राहत कार्यों में हिस्सा लिया था और उन तमाम सामाजिक
तथा मानवीय स्थितियों को अपनी आँखों से देखा था जिनका वर्णन उन्होंने इस उपन्यास
में किया है। एक ऐसी प्राकृतिक आपदा के बाद जिसके सम्मुख मनुष्य अपनी तमाम
शक्तिमानता के बावजूद असहाय हो जाता है, हमारा सामाजिक-राजनीतिक ताना-बाना, हमारे मूल्य-मानदंड, जाति-धर्म, हमारा चरित्र और मन
क्या-क्या रूप अख्तियार करता है, यह इस उपन्यास में बखूबी चित्रित किया गया है।(नेट से)
[ii]2013-07-05 21:07:27
जागरण संवाददाता,
उत्तरकाशी: जामक
गांव एक बार फिर आपदा के जख्मोंसे सिहर उठा है। 1991
के भूकंप में सबसे
ज्यादा जनहानि झेलने वाला यह गांवलगातार कुदरत के कोप का शिकार होता रहा है। लोग
इसे से सिर्फ कुदरत हीनहीं बल्कि मनेरी भाली परियोजना का भी नतीजा मान रहे हैं। जब
से गांव केनीचे परियोजना की टनल बनी है तब से इस गांव का सुख चैन छिन गया है।
जिलामुख्यालय से 15 किमी दूर भटवाड़ी ब्लॉक के जामक गांव के
ग्रामीण क्षेत्र केअन्य गांवों की तरह चौदह जून को संग्रांद के दिन खेतों में
रोपाई कीतैयारी कर रहे थे। पंद्रह जून से बारिश ने इस काम में खलल डालना शुरू
करदिया। ग्रामीणों ने ...Read more
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