जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Monday, 9 August 2010

रवीन्द्रनाथ की कविताएँ

भारतीय साहित्य- रवीन्द्रनाथ की कविताएँ -2 कविता किस तरह अपने आस-पास के वस्तु जगत को कविता जगत में रूपांतरित करती है इसका उदाहरण रवीन्द्रनाथ की वैशाख और नव-वर्षा कविताएं हैं। हम लोगों नें इन कविताओं को विस्तार से पढ़ा। आपने देखा कि इन दोनों कविताओं में वस्तु-जगत के कुछ पदार्थ समान हैं पर काव्य का विषय अलग होने के कारण काव्य-वस्तु बदल जाती है। घास दोनों में है। पर वैशाख में वह घास पात हो जाती है तो नव-वर्षा में वह कोमल दूर्वा बन जाती है। वैशाख में नदी क्षीण-धारा है तो नव-वर्षा में वह गाँव के पास तक चली आती है। पर चूँकि नव-वर्षा की नदी है अतः अपने तटों को बाँध रखती है। अभी बाढ़ जैसी स्थिति नहीं आती। वैशाख में क्षुधा-तृषित मैदान हैं जो नव-वर्षा में कोमल दूर्वा से बिछ जाते हैं।
नव-वर्षा कविता में कवि ने काव्य-उपादानें का कैसा दोहरा प्रयोग किया है , यह भी देखते ही बनता है। वर्षा है तो मोर होगा ही । फिर कलाप करता हुआ मोर होगा। यह मोर बाहर भी नाच रहा है और मन-मयूर भी नाच ही रहा है। कलाप करते मोर का चित्र जहाँ एक ओर वर्षा ऋतु के लिए उपादान बनता है तो दूसरी ओर उसके कलाप के सुंदर रंगों को कवि अपनी मन की भावनाओं के साथ जोड़ कर उनका वर्णन भी करता है। कवि कल्पना की उड़ान भरता है तो भी यथार्थ जगत का उनका निरीक्षण हमें प्रभावित करता है। धरती से आसमान तक जो स्तर हैं उनका बयान नव-वर्षा में है। कवि नीचे धरती पर खड़ा है, नव-वर्षा बादलों पर बैठी है और वहाँ से आसमान में न जाने किसे पुकार रही है। हम इस बात को जानते हैं और हमारा अनुभव भी है कि जब हम पहाड़ों पर रहते हैं या हवाई-जहाज में सफ़र करते हों तो बादलों के ऊपर बैठे हों, या जा रहे हों या बादल हमारे घर में आ जाते हैं, इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।
रवीन्द्रनाथ की कविताओं की विशेषता है कि वे हमें वस्तु जगत के बाहर और अपने भीतर ले जाते हैं। कल्पना की सैर भी कराते हैं। निर्झर का स्वप्न भंग कविता में हम यह अनुमान कर सकते हैं कि कवि तो पहाड़ पर बहते हुए झरने को देख रहा है। पर अपनी जिज्ञासा के कारण हमें भी उस पहाड़ के भीतर ले जाते हैं और उनकी इस कल्पना का हिस्सा बना लेते हैं कि यह झरना जो बाहर बह रहा है भीतर कैसा होगा और हमारे अन्जाने अपने रचना-आकुल मन में भी ले जाते हैं कि कवि आखिर कविता कैसे रचता होगा।
सचमुच, रवीन्द्रनाथ की कविता पढ़ना यानी सौन्दर्य का साक्षात्कार करना।
यहाँ दो-एक और बातें बताना ज़रूरी लगता है। हम रवीन्द्रनाथ की कविताओं को जब पढ़ते हैं तो एक तरफ़ उन पर उपनिषदों के प्रभाव को देखते हैं। उपनिषदों में जिस प्रकार सृष्टि का रहस्य प्रकृति के आनंदमय स्वरूप के साथ उजागर होता है उसी तरह रवीन्द्रनाथ में भी वह दिकाई पड़ता है। फिर रवीन्द्रनाथ पर कालिदास का प्रभाव हम उनकी मेघदूत नामक रचना में पढ़ ही चुके हैं। प्रेम में तो मुक्ति है- पर उसे हमेशा सामाजिक बंधनों का सामना करना पड़ता है- कविवर रवीन्द्रनाथ के मन में यह टीस कविता के अंत में आती दिखाई पड़ती है। पूरी कविता में वे कविदास के मेघ की पीठ पर सवार उस पूरे प्रदेश की यात्रा हमें करवाते हैं जिस रास्ते यक्ष ने मेघ को भेजा था। वे हमें उन वनांगनाओं, सिद्दांगनाओं और ग्राम वधुओं से भी मिलवाना नहीं भूलते जिनसे कालिदास ने दूत बने मेघ को मिलवाया था। वे अपनी ही भूमि के जयदेव को भी याद करते हैं। पर रवीन्द्रनाथ को पढ़ते हुए हमें अपने जयशंकर प्रसाद और निराला और शमशेर याद आए बिना नहीं रहते जिनकी कविताओं पर रवीन्द्रनाथ का प्रभाव पड़ा है। रवीन्द्रनाथ जब नव-वर्षा में घने वनों की दूब और नदी को आसमान में कल्पित करते हैं तो हमें शमशेरजी की ये पंक्तियां याद आती हैं- आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही थी और मैं उसी में कहीं कीचड़ की तरह सो रहा था। या जब इसी कविता में रवीन्द्रनाथ कहते हैं कि कि यब कौन है जिसने मेघों के वस्त्र को अपने वक्ष के बीच खींच लिया है या जो बिजली के बीच चल रही है- तो हमें सहसा प्रसाद की पंक्तियाँ याद आ जाती हैं- कामायनी में श्रद्धा का वर्णन कुछ इन्हीं शब्दों में जयशंकर प्रसाद ने किया है- नील परिधान बीच सुकुमार / खिल रहा मृदुल अधखुला अंग,/ खिला हो ज्यों बिजली का फूल/ मेघ वन बीच गुलाबी रंग।
दिवसावसान के समय मेघमय आसमान से उतरने वाली सुन्दरी परी –सी संध्या हो या बादलों के भपर किसे ऊँचे प्रासाद में बैठी कबरी खोल अपने बाल फैलाए बैठी नव-वर्षा हो- दोनों एक ही कुल-गोत्र की लगती हैं। इसी नव-वर्षा कविता में आसमान में जिस प्रासाद की कल्पना है, जिसके शिखर पर नव-वर्षा की कल्पना कवि ने की है, वह कबीर के सुन्न-महल का रोमानी रूप है।
उसी तरह निर्झर अपनी कारा को आखिर क्यों तोड़ना चाहता है ? इसलिए कि एक तो उसके पास कहने के लिए बहुत कुछ है फिर उसमें वह करुणा हो जिससे वह जगत को आप्लावित करना चाहता है। कवि के पास अगर करुणा न हो तो वह किस बात का कवि ! क्या इस समय आपको वे प्रसिद्ध पंक्तियाँ नहीं याद आतीं—वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान..... रवीन्द्रनाथ की इस करुणा के बीज आदि कवि में होंगे ही यह तो आप इसे पढ़ते-पढ़ते ही समझ गए होंगे।
यही तो साहित्य की अपनी परंपरा है। उपनिषदों से आरंभ हो कर कालिदास और कबीर से रवीन्द्रनाथ से होते हुए प्रसाद, निराला, महादेवी...शमशेर तक हमें मिलती है। आप अधिक अध्ययन करेंगे तो और भी कवियों को इस परंपरा में देख सकेंगे। शमशेर से आगे भी। आप याद कीजिए--- टी.एस. इलीयट भी तो परंपरा की ही बात करता है। ये वे सारे कवि हैं जिन्होने अपनी वैयक्तिक प्रतिभा से अपनी परंपरा को पुष्ट किया है।
यही साहित्य की हमारी भारतीय परंपरा है।

रवीन्द्रनाथ की कविताएँ

भारतीय साहित्य ( रवीन्द्रनाथ की कविताएं)इस वर्ष पूरी दुनिया कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की 150 वीं जयंति मना रही है और हिन्दी जगत अपने चार महत्वपूर्ण कवियों – अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन एवं केदारनाथ अग्रवाल- की जन्मशती वर्ष मना रहा है। इसे हमें अपना सौभाग्य मानना चाहिये कि कविवर टैगोर की कविताएं हमें अपने पाठ्यक्रम में पढ़ने का सौभाग्य मिल रहा है। यह हमारी पीढ़ी की कविवर को स्मरणांजलि भी है और कविवर का हमें दिया हुआ आशिर्वाद भी है। कविवर के शब्दों, भावों और उनकी सौन्दर्य चेतना का हमें जो साक्षात्कार होगा इससे हम बेहतर मनुष्य बनने की दिशा में आगे कदम भी बढ़ाएंगे।
हमारा सबसे पहला प्रश्न यह होना चाहिए कि आखिर रवीन्द्रनाथ में ऐसा क्या है कि इतने बरसों बाद भी हम उन्हें पढ़े? क्या केवल इसलिए कि वह हमारे एकमात्र नोबेल पारितोषिक पाने वाले कवि हैं? या इसलिए कि रवीन्द्रनाथ विश्व के फलक पर भारतीय साहित्य की एक गहरी पहचान हैं? या फिर इसलिए कि मानवीय गरिमा और विश्व-मानव की बात करते हुए रवीन्द्रनाथ ने राष्ट्रीय अस्मिता के अर्थ को व्यापकता दी ? या फिर इसलिए कि हम यह भी जानना चाहते हैं कि सौन्दर्य क्या है! फिर हमारा एक प्रश्न यह भी होना चाहिए कि रवीन्द्रनाथ को किस तरह पढ़ा और समझा जाए? इन बातों की चर्चा हम उनकी कविताओं के माध्यम से करेंगे।
यह बारिश के दिन हैं। रवीन्द्रनाथ ने अपनी कविताओं के माध्यम से प्रकृति के असीम सौन्दर्य तथा रहस्य को हमारे सामने खोल कर रख दिया है। आप से मैंने इस बात की चर्चा की है कि गीतांजलि के गीतों में रवीन्द्रनाथ ने प्रकृति में ही ईश्वर की उपस्थिति को देखा, महसूस किया और अभिव्यक्त किया है। हवा की हल्की-सी लहर हो या तेज़ चलती हवाएं हों, वर्षा की फुहारें हों, या मूसलाधार, वसंत की बयार या फिर पतझड़ ही क्यों न हो, पेड़, पौधे, नदी, झरने ....कुछ भी की उपस्थिति में वह उस रहस्यमय को अनुभव करते हैं- बल्कि स्वयं प्रकृति ही वह रहस्यमय का रूप है- कुछ इस तरह का बोध हमें गीतांजलि को पढ़ कर होता है।
हम रवीन्द्रनाथ की कविताओं को पढ़ते हैं तो हमें यह अनुभव होता है कि हर वह व्यक्ति जो यह जानना चाहता है कि आखिर कविता की रचना कैसे होती है, उसे रवीन्द्रनाथ को पढ़ना चाहिए। या अगर हम यह जानना चाहें कि आखिर कविता क्या है- तो हमें रवीन्द्रनाथ की कविताएं पढ़नी चाहिए। आचार्य रामचंद्र शुक्ल हमारे महत्वपूर्ण आलोचक हैं। उन्हेंने एक निबंध लिखा- कविता क्या है। रवीन्द्रनाथ मूलतः सर्जनात्मक कलाकार हैं। उन्होंने इसी बात को बहुत पहले अपनी रचनात्मकता के द्वारा कह दिया था।
आखिर एक कवि अपनी कविता में करता क्या है? वह ऐसा क्या करता है कि वह जो लिखता है उसे हम कविता अथवा साहित्य की संज्ञा देते हैं। कविता असल में हमारे चारों तरफ फैले अथवा तो कहें कि व्याप्त वस्तु जगत को शब्दों के माध्यम से सौन्दर्य-बोध में रूपांतरित कर देना है। ये शब्द कभी अलंकारों का वेष धर कर तो कभी छन्द का बाना पहन कर तो कभी विशिष्ट उक्तियों द्वारा कल्पना के माध्यम से इस वस्तुजगत को एक नए विश्व में रूपांतरित कर देते हैं। यह नया विश्व ही कविता का, यानी कला का यानी एक नयी भावना का विश्व बन जाता है जो हमारा परिचित होते हुए भी एकदम नया-सा लगता है। यही कवि की कविता है। तो इसका मतलब यह हुआ कि कवि हमारी परिचित दुनिया में एक नए विश्व का सृजन कर देता है। इस बात को हम कविताओं के उदाहरण से समझने की कोशिश करेंगे।
अगली पोस्ट में इस संबंध में चर्चा होगी।

भारतीय साहित्य

भारतीय साहित्य- सैद्धान्तिक पक्षविषय-प्रवेश के लिए मार्गदर्शनभारतीय साहित्य के सैद्धांतिक पक्ष में हमें तीन मुद्दे पढ़ने हैं-
v अवधारणा
v स्वरूप
v अध्ययन की समस्याएँ
आइए, इसे कैसे पढेंगे, इस पर थोड़ा सोच लें। सबसे पहले अवधारणा की बात-


1-अवधारणाअवधारणा से हमारा तात्पर्य है कि किसी भी शब्द/संज्ञा के विषय में हमारी क्या धारणा हो सकती है। या उस संज्ञा/शब्द में किस अर्थ की धारणा छिपी हुई है/ संगोपित है। भारतीयता की अवधारणा को समझने के लिए हमें पहले समझना होगा कि-
v भारतीय का तात्पर्य
इसके लिए हमें कुछ आधारबिन्दुओं का सहारा लेना होगा। वे आधार बिन्दु हैं-
-आधार-बिन्दुv -भौगोलिक
v -सांस्कृतिक- धार्मिक मानववाद : श्रेयस की भावना से मंडित मानव गरिमा की स्वीकृति, सहिष्णुता, सम-भाव, आस्तिक बुद्धि, सद्भाव
v -वैचारिक- भेद में अभेद अनेकता में एकता
फिर हमें भारतीय से होने वाला अर्थबोध के विषय पर सोचना होगा।

भारतीय वही है जिसने-
2. उपरोक्त को आत्मसात् कर लिया है।
इसके बाद हम भारतीय साहित्य की चर्चा आरंभ करेंगे। भारतीय साहित्य की संज्ञा सबसे पहले किसने प्रयुक्त की। उसका इतिहास क्या है, इन सारी बातों की चर्चा इसके अन्तर्गत की जा सकती है।
स्वरूप
भारतीय साहित्य किसे कहा जाए, इसकी चर्चा यानी भारतीय साहित्य के स्वरूप की चर्चा।
अनेक भाषों में लिखा हुआ एक भावधारा विचारधारा परंपरा सौन्दर्यशास्त्रीय अवधारणाओं को अभिव्यक्त करने वाला साहित्य- यानी भारतीय साहित्य।
1) वे मुद्दे जो इसे एक बनाते हैं-
v प्रस्थान-त्रयी( हजारी प्रसाद द्विवेदी) रामायण- महाभारत- गीता
v आधुनिक भाषाओं के विकास का संदर्भ ।
v सांस्कृतिक सातत्य ।
v हमारी साहित्यिक एवं भाषाई ही नहीं अपितु राजनैतिक एवं दार्शनिक और धार्मिक की साझा संस्कृति।
v अंग्रेज़ी का प्रभाव ।
v अनुवाद ।
v साहित्यिक स्वरूपों की समानता ।
v भारतीय साहित्य में द्विभाषिता एवं अनेक भाषिता की उपस्थिति ।

अध्ययन की समस्याएं
1.भाषाओं की जानकारी का अभाव तथा उसके प्रति रूचि का भी अभाव ।
2. अनुवाद की अल्पता की समस्या ।
3. अनूदित होने के कारण मूल कृति की भाषा तथा शिल्प की जानकारी का अभाव ।
4. अपरिचय (अन्य भाषा तथा साहित्य का) ।
5. विभिन्न भाषाओं के साहित्य के इतिहास की सभी/ अधिकांश भाषाओं में अप्राप्यता ।
6. संकुचित दृष्टिकोण का उदय एवं राष्ट्रीय भावना का क्रमशः तिरोधान ।
7. ग्लोबलाइज़ेशन के फलस्वरूप दूसरे के प्रति संवेदनहीनता की उपस्थिति ।