(बी.ए हिन्दी की छठी छमाही(सेम -6) के यूनिट दो की सामग्री बी डी आर्ट्स कॉलेज के प्रभारी प्राचार्य डॉ. धीरज वणकर के द्वारा तैयार की गयी है। यूँकि यह हिस्सा प्रायोगिक है अतः यह जानना ज़रूरी है कि कहानी, नाटक आद लिखने का ग्रामर क्या हो। इस सामग्री को इसी रूप में देखा जा सकता है।)
कहानी लेखन के तत्व
1. कथानक या कथावस्तु –
कहानी में कथानक का स्थान सबसे महत्वपूर्ण होता है। दरअसल कहानी के शरीर
में कथा-वस्तु हड्डियों के ढाँचे सदृश है। प्राचीन
समय के कहानी-लेखक कथानक को ही कहानी का सर्वस्व समझते थे। एक ही केन्द्र-बिन्दु
से सम्बध्द एक या दो चार संक्षिप्त-सी घटनाओं की संरचना ही वास्तव में कथानक है।
उपन्यास संपूर्ण जीवन को लेकर चलता है जबकि कहानी उसी के किसी एक अंश को, अतः
उसमें विस्तृत वस्तु के लिए स्थान नहीं होता ।मस्तिष्क को अनियंत्रित छोड़ देने पर
विचारों का प्रवाह फूट पड़ता है। यह प्रवाह अधिकांशः असंतुलित और किसी सीमा तक
अस्पष्ट होता है ।यही विचार कहानी की कथावस्तु को जन्म देते है। किसी एक प्रकार से
कोई घटना संयोजित होती है। उस घटना की अनुभूतियाँ कल्पना में साकार हो उठती हैं।
कोई एक व्यक्ति घटना के केन्द्र में होता
है। इस व्यक्ति के संबंध में जिज्ञासाएँ कई प्रश्नों को जन्म देती हैं। इन
प्रश्नों के उत्तर ही कथावस्तु के आधार को स्पष्ट करते है। फिर इस आधार पर सोचने
के बाद घटनाएँ साफ हो जाती हैं। इन घटनाओं की क्रमबध्दता ही कथावस्तु हैं।
कहानी में कथानक के विकास की मुख्यतः चार अवस्थाएँ या सीमाएँ स्वीकृत की गई
हैं। उनके नाम है आरंभ, आरोह, चरमसीमा और अवरोह या उपसंहार। कहानी के कथानक का
आरंभ पात्र–परिचय, वातावरण-चित्रण या मनोचित्रण की विशेष स्थिति से किया जाता है।
कथासूत्र का सांकेतिक चित्रण आरंभ है। उनका क्रमशः अंकुरित होना, कुछ घटनाओं के द्वारा
उसको व्यापकता मिलना, कुछ घात-प्रतिघातों का आयोजन कथानक का आरोह कहा जाता हैं।
घात-प्रतिघातों को किसी भी प्रकार के परिणाम की सीमा तक पहुँचा देना चरमसीमा है। परिणाम
का सामने आकर पाठकों की उत्सुकता का प्रशमित हो जाना ही कथानक का अवरोह, अंत या
उपसंहार है। कहानी का कथ्य या उद्देशय यहाँ तक पहुँचकर पूर्णरूपेण उजागर हो जाया
करता है। कथावस्तु में अनावशयक घटनाओं, असंबंधित तथ्यों और अस्वाभाविकता का समावेश
नहीं होना चाहिए। कथावस्तु का चयन जीवन की किसी भी घटना से किया जा सकता है किन्तु
इसके लिए सूक्ष्म पर्यवेक्षण-शक्ति आवश्यक है। नगण्य से नगण्य वस्तु भी सूक्ष्म
पर्यवेक्षण शक्ति के आधार पर उत्कृष्ट कथावस्तु का आधार बन सकती है। मौलिकता के
साथ –साथ कथावस्तु में सुसम्बध्द योजना आवश्यक है। कहानी का कथानक प्रायः उत्थान
की ओर अग्रसर होता है। इसी स्थल पर लेखक किसी महत्वपूर्ण तथ्य का उद्घाटन करता है।
पर आज की कहानियों में कथानक प्राय लुप्त होता जा रहा हैं।
2. चरित्र-चित्रण या पात्र -
कहानी लेखन का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व हैं – पात्र । वस्तु से अधिक आज कहानी
में पात्र पर ध्यान दिया जाता है ।कथानक के नाम पर योजित घटनाएँ कुछ व्यक्तियों से
संबंद्ध रहा करती है। उन्हीं व्यक्तियों को पात्र या चरित्र कहा जाता है। कहीं की
सीमा संक्षिप्त हुआ करती है, अतः इसमें पात्र कम से कम रहने चाहिए, एक भी अधिक
नहीं। इन पात्रों के माध्यम से जीवन के खंड-चित्रों के अच्छे-बुरे पहलुओं को उजागर
करना ही चरित्र-चित्रण कहा जाता है । कहानी के पात्र कल्पित हों या वास्तविक पर
उनका व्यक्तित्व अवश्य होगा। व्यक्ति के अभाव में पाठकों को प्रभावित नहीं कर सकते।
कहानी के पात्रों की एक विशेषता यह होनी चाहिए कि वह वे लेखक की आवश्यकताओं की
पूर्ति करे । पात्रों के व्यक्तित्व की पूणॅता आवश्यक है । इसी आधार पर लेखक
चरित्र-चित्रण करता है । कहानी में यह चित्रण कभी तो प्रत्यक्ष(वर्णात्मक) प्रणाली
अपनाकर कहानीकार स्वयं ही कर दिया करता है और कभी परोक्ष या नाटकीय प्रणाली के व्दारा पात्रों के व्यवहार, संवाद और
क्रियाकलाप अपने चरित्र को स्वयं ही व्यक्त कर दिया करते हैं । यह प्रणाली अच्छी
एवं वैज्ञानिक स्वीकार की जाती है। इस प्रणाली से कहानीकार, उसका कथ्य और पाठक स्वतः
ही आमने-सामने आ-जाकर एक दूसरे को प्रभावित करने लगते है। कई बार आत्मकथात्मक
कथानकों वाली कहानियों में पात्रों के अपने ही चरित्र-चित्रण के लिए पूर्व-दीप्ति –पध्दति
आदि मनोविश्लेषणात्मक पद्धतियों का सहारा भी लिया जाता हैं। चरित्र-चित्रण की कोई
भी प्रणाली क्यों न अपनाई जाए, वह सजीव एवं सप्राण होनी चाहिए ।
कहानी शिल्प का महत्वपूणॅ तत्व चरित्र-चित्रण है । कथावस्तु यदि मूल किश्ती
है तो पात्र उसके खेवनहार है और चरित्र-चित्रण उनका आधार। यों तो पात्र किसी वर्ग
के हों, इससे कहानीकार को कोई बंधन नहीं है । हाँ, पात्रों के स्वरूप के
संबंध तीन बातें आवश्यक होती हैं –
1. पात्रों को पूर्ण स्वाभाविक होना चाहिए
एवं कहानी की मूल कथा के साथ उनका पूर्ण सामंजस्य होना चाहिए ।
2. पात्रों के पूर्ण सजीव एवं सप्राण होना
चाहिए ।
3. जो भी पात्र लिए जाय ,वे सुलभ हों ।
पात्र दो प्रकार के होते है – ऐतिहासिक
– पौराणिक एवं सामान्य । ऐतिहासिक –पौराणिक पात्रों का स्वरूप इस प्रकार निर्धारित
होना चाहिए कि वे इतिहास संगत हों और उन्हें तुरंत ही पहचाना जा सके। इन पात्रों
के चरित्र-चित्रण में अत्यधिक कल्पना की आवश्यकता होती हैं। सामान्य पात्रों के साधारणीकरण में लेखक
को कोई कठिनाई इसलिए नहीं होती क्योंकि वे हमारे बीच के होते हैं और पाठकों को उन्हें
पहचान ने में कोई कठिनाई नहीं होती ।इन पात्रों के चरित्र चित्रण में कल्पना शीलता
के स्थान पर यथार्थता की अनुभूति से काम लिया जाता है। सामान्य पात्रों की भी दो
श्रेणियाँ हो सकती है-एक तो वैयक्तिपात्र और दूसरे वर्ग के या जाति के प्रतिनिधि, ये
टाईप पात्र होते हैं। चरित्र चित्रण के लिए प्रायः चार पध्दतियों का उपयोग किया
जाता है – वर्णन, संकेत, कथोपकथन एवं घटना।
3. कथोपकथन (संवाद) –
कहानी का तीसरा
तत्व कथोपकथन है । दरअसल यह अंग बहुत ही महत्वपूर्ण है। कथोपकथन चरित्र –चित्रण में तो सहायक होता
ही है किन्तु कथानक का भी वह एक आवश्यक गुण है, क्योंकि कथा की स्वाभाविकता के लिए
कथोपकथन का समावेश होना आवशयक है । कथोपकथन दवारा ही हम पात्रों के दृष्टिकोण, आदशॅ तथा उद्देशय से
परिचित हो सकते है । वार्तालाप को स्वाभाविक रूप में उपस्थित करनें में हम बड़ी
सुगमता से सम्पूणॅ परिस्थिति का ज्ञान प्राप्त कर सकते है । कथोपकथन द्वारा
पात्रों के भाव स्पष्ट होते हैं । कथोपकथन के तीन उद्देश्य होते हैं – (1)चरित्र –चित्रण
करना, (2)कथावस्तु को आगे बढ़ाना, (3) कौतुहल और उत्सुकता बनाए रखना ।
बहुत सी कहानियों में तो कथोपकथन द्वारा ही
कहानी कही जा सकती है । यह कथोपकथन जितना सुंदर होगा उतनी ही अधिक सुन्दर कहानी
होगी । कथोपकथ को सुंदर बनाने के लिए निम्न लिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक हैं
(1) कथोपकथन कहानी का ही भाग हो, वह कहानी से
अलग-सा न दिखता हो और इसके साथ-साथ वह स्वाभाविक, सरल, संक्षिप्त बोलचाल का एवं
सरस हो।
(2) वह पात्र के अनुकूल हो और उसमें उसका
व्यक्तित्व संन्निहित हो।
(3) कथोपकथन का सवॅस्व उसकी जिज्ञासा में हैं।
एक पात्र का कथन पढ़ने के बाद जब पाठक उसका उत्तर पढे तो उससे वह संतुष्ट तो हो ही,
पर साथ ही उसमें ऐसा प्रश्न भी सम्मिलित रहे कि वह उसके आगे के उत्तर को पढ़ने के
लिए उत्सुक रहे ।
कथोपकथन में भाषा चलती एवं मुहावरेदार होनी चाहिए। लाक्षणिक प्रयोग भी यदि
सममिलित हो तो रोचकता बढ़ जाती हैं। मतलब यह हैं कि संवाद कथानक के उद्घाटक और उसे
गतिशील बनाने वाले, वक्ता पात्रों के अन्तःबाह्य चारित्रिक गुणों को रूपापित करने
वाले और वातावरण के चित्रण में सहायक होने वाले ही अच्छे माने जाते हैं। अधिक
भावुकतापूर्ण एवं कवित्वमय संवाद कहानियों के लिए स्वाभाविक प्रवाह में बाधक बन
जाता हैं।
4. देशकाल (वातावरण) –
कहानी में वातावरण का महत्व निर्विवाद है। कहानी की सफलता के लिए वातावरण
का ध्यान रखना भी आवश्यक है। स्थिति एवं वातावरण का मूल कथा के साथ तादात्मय होना
आवश्यक है । इसी से कहानी में स्वाभाविकता आती है और सत्यता का आभास होता है
।ऐतिहासिक एवं पौराणिक कहानियों में तो वातावरण की महत्ता सर्वोपरि हैं। वहाँ
युगीन संस्कृति ,सभ्यता एवं जीवन का पाठकों को पूणॅ विश्वास दिलाना पड़ता है। यदि
ऐसा न हो तो कहानी असफल ही रहती है ।कहानीकार जिस समय की घटना का चित्रण कर रहा
है, उस समय का पूरा विवरण देने के लिए वेशभूषा, भाषा और उनके कथोपकथन से उसी समय
का वातावरण प्रस्तुत करना भी उसके लिए आवश्यक है। यदि यह उस काल का विरोधी वातावरण
उत्पन्न करता है तो रचना में स्वाभाविकता तो नष्ट होती ही है किन्तु साथ ही उसकी
इतिहास से अनभिज्ञता भी प्रकट होती है । नाटककार जो कायॅ रंगमंच के विविध उपकरणों
की सहायता से करता है वही कायॅ कहानीकार को शबदों के द्वारा वातावरण बनाकर करना होता है ।प्रसाद जी की ‘आकाशदीप’ नामक कहानी के वातावरण का बहुत
ही सुन्दर सृजन हुआ है । सामाजिक कहानियों में भी समकालीन जीवन और समाज के वातावरण
का समावेश कुशलता पूर्वक हो जाता है। इससे कहानी का परिवेश भी वयापक बनता है ,साथ
ही उसमें यथार्थता भी आती है । वातावरण
कहानी का प्रमुख तत्व है। यह भौतिक और
मानसिक दोनों प्रकार का हो सकता है। पर दोनों प्रकार के वातावरण का मुख्य ध्येय
पात्रों का मानसिकता को प्रोत्साहित करना होता हैं। कहीं-कहीं वातावरण का उपयोग
भौगोलिक परिस्थिति को समझने के लिए होता हैं। यहाँ वह ‘ब्रेक ग्राउन्ड’ का रूप
ले लेता है। प्रसाद, चतुरसेन शास्त्री, वृन्दावन लाल वर्मा, रेणु, नागार्जुन,
सुदर्शन, कामू बादलेयर, वाइल्ड आदि वातावरण-चित्रण के अत्यन्त कुशल शिल्पी हैं।
प्राचीन भारत का सांस्कृतिक वातावरण प्रसादजी में अनुपम है, इसी भाँति मुगलकालीन
भव्य वातावरण शास्त्रीजी की कहानियों का प्राण है।
5. भाषाशैली – भाषा भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। कहानीकार का भाषा पर
प्रबल अधिकार होना अनिवार्य है अन्यथा
संक्षिप्तकरण उसके वश का नहीं। स्थानीय रंगत लाने के लिए कहानीकार जनभाषा का
प्रयोग भी करता है। भावों को व्यक्त करने की प्रणाली को शैली के नाम से पुकारा
जाता हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट हैं कि यदि भाव और भाषा दोनों सुन्दर हों तो उन्हें
व्यक्त करने के लिए सुन्दर शैली का होना आवश्यक है। भाषा शैली का कहानी के सभी
तत्वों से सम्बन्ध रहता है। कला की प्रेषणीयता मुख्य रूप से शैली पर निर्भर करती
है। उपयुक्त शब्द चयन भी शैली की सुदृढ़ता में सहायक होता है। शैली के सम्बन्ध में
यह सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य हैं कि प्रत्येक लेखक की शैली अलग होती है। और यह बहुत
कुछ उनके मानसिक व्यक्तित्व पर निर्भर करती है। सभी कहानियाँ एक ही शैली में तो
नहीं लिखी जानी चाहिए।
भाषा का सरलीकरण, सुबोध एवं
प्रवाहमान होना कहानी में प्राण संचार के लिए आवश्यक होता है। क्लिष्ट एवं
संस्कृतनिष्ठ भाषा रखने से दुरूहता उत्पन्न हो जाती है जिससे कहानी की रसमयता
समाप्त हो जाती है। शैली का तात्पर्य कहानी के प्रस्तुतीकरण से होता है। शैली के
पाँच रूप होते है – वर्णनात्मक, पत्रात्मक, आत्मकथात्मक, डायरी तथा मिश्रित
शैलियाँ। वर्णनात्मक शैली तो कहानी की चिरपरिचित एवं सर्व सामान्य शैली है। इसमें
कहानीकार स्वयं किस्सागोई के ढंग से सारी कहानी सुनता है। पत्रात्मक शैली में कुछ
पत्रों के माध्यम से सारी कथा कही जाती हैं। वे पत्र एक ही पात्र के भी हो सकते है
या कई पात्रों के भी। आत्मकथात्मक शैली में एक या अनेक पात्र स्वयं ही अपनी कहानी
सुनाते चलते है। इसमें लेखक तटस्थ रहता है। डायरी शैली में पत्रात्मक शैली की
भाँति किसी पात्र की डायरी के कुछ पृष्ठों के माध्यम से सारी कथा प्रस्तुत की जाती
है। डायरी के पृष्ठ एक से अधिक पात्रों के भी हो सकते है। मिश्रित शैली में कई
शैलियों का मिश्रण होता हैं, जिसमें डायरी, पत्रात्मक,आत्मकथात्मक आदि शैलियों के
सम्मिश्रण से मूल कथा को प्रस्तुत किया जाता है। हिन्दी के कहानीकारों में
स्वर्गीय श्री प्रेमचंद और जैनेन्द्र आदि अपनी शैलियों के लिए प्रसिद्ध हैं।प्रत्येक
लेखक अपनी वैयक्तिक शैली के अनुरूप वर्णनशैली का निर्माण करता है।
6. उद्देश्य – कहानी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण है उसका
उद्देश्य पूर्ण होना। यह उद्देश्य
बहुधा अव्यक्त रहता है। कहानी का जो मूल
प्रेरणा-बिन्दु होता है या केन्द्रीय विचार अथवा भाव हुआ करता है, उसी को उद्देश्य
कहा जाता हैं। अन्य तत्वों के उपादानों या माध्यम से कहानीकार इसी साध्य तक
पहुँचने का कलात्मक ढ़ंग से प्रयास किया करता है। उद्देश्य के रूप में कहानीकार
कुछ भी अपना सकता है। वह समाज की किसी रूढ़ि, कुरीति, व्यक्ति की समस्या या जीवन
और समाज का कोई व्यापक प्रश्न लेकर चल सकता है। सफलता इस में ही है कि लेखक की वह
अनुभूति सभी की अनुभूति बन जाए। सामाजिक, राजनीतिक, नैतिक, वैयक्तिक किसी भी
प्रकार का विषय अपनाया जा सकता है, किसी को भी कहानी का कथ्य या केन्द्रीय बिन्दु
बनाया जा सकता है। उस सब का समग्र चित्रण
एवं आधान करने के बाद कहानीकार जो परिणाम सामने लाता है, वही उद्देश्य होता है और
उसी में कहानी का सन्देश भी निहित रहा करता है। इसके अभाव में कहानी कहानी नहीं
होती या वह कहानी नहीं कहीं जा सकती, यही बात सुप्रसिद्ध कहानीकार प्रेमचन्द ने इन
शब्दों में कही हैं - ‘‘ जिसमें जीवन के किसी अंग पर प्रकाश न पड़ता हो, जो सामाजिक
रूढ़ियों की तीव्र आलोचना न करती हो, जो मनुष्य के सद्भावों को दृढ़ न करे या जो
मनुष्य में कौतुहल का भाव जाग्रत न करे, कहानी नहीं हैं।’’
3.
कथोपकथन –
(संवाद)
कथोपकथन पात्र एवं कथानक दोनों से ही संबंध रखता हैं । किन्हीं दो या दो से अधिक
पात्रो कं वार्तालाप को कथोपकथन कहते है । वैसे तो कथोपकथन नाटक का अनिवायॅ तत्व
है पर आज साहित्य की कई विधाओं में उसका वैविध्यपूणॅ प्रयोग होता दिखाई देता है ।
कथोपकथन पात्र एवं कथानक दोनों से ही सम्बन्ध रखता है । यह पात्रों के व्यक्तित्व
के विश्लेषण एवं कथावस्तु को विकास की दिशा में बदलने के लिए होता है । डॉ,शांति स्वरूप
गुप्त लिखते हैं ’’–यदि उपन्यास के कथोपकथन रोचक ,स्वाभाविक ,सहज ,पात्र तथा
परिस्थिति के अनुकूल हो , तो उनमें
उपन्यास में नाटक की सी विशदता ,सजीवता और यथाथॅता आ जाती है ।’’2 इसके अलावा
कथोपकथन में सार्थकता और संक्षिप्तता आदि गुणों का होना आवश्यक हैं । संवाद योजना
को स्थान देने से उपन्यास में वास्तविकता आती है और उसके पात्र लेखक के हाथ की
कठपूतली प्रतीत होने के स्थान पर जीवंत व स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले मालूम पड़ते है
। उपन्यास के संवाद वैसे तो संक्षिप्त ,सरल एवं स्वाभाविक होने चाहिए । लंबे-लंबे
संवाद अस्वाभाविक होते हैं । कथानक का अभिन्न अंग बनकर आनेवाला कथोपकथन ही सहज
हो सकता है ।
कहानी के उद्देश्य का क्षेत्र
बड़ा व्यापक होता है। कहानीकार का उद्देश्य सुधार का हो सकता है, उपदेश का हो सकता
है, मनोरंजन का हो सकता है, अपने सिद्धान्तों के प्रचार का हो सकता है या पाठकों
को किसी यथार्थ स्थिति या विशेष सत्य से परिचित करा देने भर का भी हो सकता हैं। इस
सम्बन्ध में ध्यान रखने वाली बात यह है कि कहानीकार का जो भी उद्देश्य हो, उसमें
कहानीकार की ईमानदारी, सत्यता एवं पूर्ण स्वाभाविकता होनी चाहिए, साथ ही उसे जन
जीवन से सम्बन्धित होना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि कहानी में
उद्देश्य के रूप में सम्प्रेषण की क्षमता रहनी चाहिए। वह जीवन के विविध रूपों का
खण्ड रूप में चित्रण करने वाली होना चाहिए। मानवीय मूल्यों को उजागर करना कहानी का
उद्देश्य हैं, उनकी रक्षा करने की प्रेरणा देना उसका सन्देश है। आज की ‘अकहानी’ युग में
भी सोदेश्य कहानियों की रचना होती है। इतने लघु कलेवर में जीवन-मीमांसा का तो कोई
प्रश्न ही नहीं है, हाँ मनोरंजन के परिधान में लेखक कोई न कोई ऐसी बात अवश्य कह
जाता है जिससे पाठक के जीवन को कोई नयी दिशा सूझे सामने छाई धुन्ध हट जाए और भविष्य
की कुहेलिका में कही चपला का क्रोध दिख जाए। जिस कहानी में उद्देश्य नहीं होता वह
सफल नहीं हो सकती ।
कविता लेखन की योग्यताएँ –
काव्य कवि का कर्म
है।’कवेः कर्मः काव्यम्’ । कर्म बिना कारण अथवा हेतु नहीं होता। इसलिए कवि-कर्म का
भी हेतु होना चाहिए। कारण को ही काव्य-शास्त्र में ’हेतु’ कहा गया है । काव्य हेतु
वह शक्ति है जिससे कवि काव्य रचना में प्रवृत्त होता है। काव्य शास्त्रियों ने यह
जानने की कोशिश की कि वे कौन-कौन से हेतु हैं जिनसे कवि को काव्य रचना की प्रेरणा
मिलती है। काव्य हेतु कवि कवि की वह शक्ति एवं क्षमता है जिसके कारण काव्य की रचना
होती है । काव्य हेतु पर भी भिन्न-भिन्न आचार्यों के भिन्न-भिन्न मत हैं । प्राचीन
विद्वानों ने प्रतिभा , व्युत्पत्ति , अभ्यास आदि को काव्य हेतु माना है ।
काव्य हेतु पर सर्वप्रथम आ.भामह
ने ’काव्यालंकार में’ विचार व्यक्त किया है। उन्होंने काव्य हेतु में प्रतिभा को
सर्वाधिक महत्व देते हुए उसे मूल हेतु मानते हुए ’व्यत्पत्ति’ एवं ’अभ्यास’ को भी
काव्य हेतु माना है । प्रतिभा का महत्व प्रतिपादित करते हुए है वे लिखते है कि-
जड़ बुद्धि के लोग भी गुरु के उपदेश से शास्त्र का अध्ययन करने में समथॅ हो सकते
है, पर काव्य तो कभी –कभी किसी –किसी प्रतिभावान द्वारा ही रचा जा सकता हैं । ऐसा
प्रतीत होता है कि इन्होंने प्रतिभा को ही प्रमुख हेतु मानने पर बल दिया ।
’’नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च
बहुनिर्मलम्
अमन्दश्चाभियोगोडस्या कारणं काव्य संभव ’’1
जन्म जात प्रतिभा ,निर्मल शास्त्र एवं
निरंतर अभ्यास ही काव्य के हेतु हैं ।
आचाचॅ दण्डी ने अपने ग्रंथ
काव्यादर्श में आचार्य मम्मट के विवेचन – ’केवल प्रतिभा काव्य हेतु है । इसका खंडन
करते हुए लिखा है कि ’प्रतिभा’ ही मूल हेतु नहीं हैं बल्कि व्युत्पत्ति और अभ्यास
भी आवश्यक हैं । उनके अनुसार काव्य में प्रतिभा ,शास्त्रज्ञान एवं अभ्यास के
द्वारा काव्य रचना की जा सकती । यदि पूवॅ संस्कारों के गुणों के आधार पर उत्पन्न
होने वाली अद्भुत प्रतिभा न भी हो तो भी यदि सरस्वती की उपासना शास्त्र एवं
प्रयत्न से की जाती है तो वह कुछ न कुछ कृपा कर देती है ।इस प्रकार दंडी ने आ.भामह
के कारणों को समान स्तर पर अवस्थित किया ।
काव्य हेतुओं पर वामन ने लिखा है
–’’ कवित्व बीजं प्रतिभानं कवित्वस्य बीजं जन्मान्तरागत संसकार विशेषः कश्चित्
यस्माद् बिना काव्यं न निषपद्यते
निष्पन्नं वा हास्याडडयतनं स्यात् ’’ 2(कवित्व का कारण प्रतिभान है। यह प्रतिभान
जन्मजन्मान्तरगत संस्कार विशेष होता हैं ।उसके बिना काव्य निष्पन्न नहीं हो सकता ,और
यदि निष्पन्न भी हो जाए तो हास्य को प्राप्त होता है । दरअसल वामन का यह विवेचन
बड़ा विसतृत एवं व्यापक है । इन्होंने व्युत्पत्ति में लौकिक ज्ञान ,शास्त्रज्ञान
एवं लक्ष्यग्रंथों का अनुशीलन, अभ्यास में अभियोग , वृध्दसेवा ,अवधान ,अवेक्षण तथा
प्रतिभा में प्रतिभान का उल्लेख किया है । वामन ने काव्य हेतुओं को ’काव्यांग कहा
है, जो निम्नानुसार है 1–लोक 2 .विद्या और प्रकीर्ण ।
वामन के पश्चात् आ. रुद्रट एवं
कुंतक आते है । इन्होंने भी काव्य हेतुओं
पर विचार प्रस्तुत किये है। इऩ्होंने भी प्रतिभा, व्युत्पत्ति एवं अभ्यास को काव्य
हेतु माना हैं । आचायॅ मम्मट ने इस विषय पर अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि –’शक्ति’
एक विशेष प्रकार का संस्कार होता है जिसे कवित्व का बीज रूप कहा जा सकता है,जिसके
बिना काव्य रचना संभव नहीं हैं । अगर कृति
का प्रयास किया जाय तो भी वह निम्नकोटि का होगा ।स्थावर ,जंगम आदि लोकवृत्ति ,व्याकरण
,अभिधान कोश ,महाकाव्यों के चिंतन-मनन से जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है उसे
व्युत्पत्ति कहते हैं । कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि काव्य के मूलतःतीन हेतु है –प्रतिभा,व्युत्पत्ति
एवं अभ्यास ।अब इस पर विस्तार से देखेंगे ।
1.
प्रतिभा – काव्य हेतुओं में
प्रतिभा को आचार्यों ने बहुत महतव दिया है । प्रतिभा काव्य का मुख्य हेतु है ,इसके
बिना काव्य रचना हो ही नहीं सकती । प्रतिभा ही एक मात्र काव्य हेतु है
,व्युत्पत्ति एवँ अभ्यास कारण हैं । कवि में कारयित्री और भावयित्री दोनों प्रकार
की प्रतिभा होना अपेक्षित है । प्रतिभा के अभाव में जो दोष उत्तम होते हैं उन्हें
छिपाया नहीं जा सकता है,जबकि प्रतिभा होने पर उन्हें सहज ही छिपाया जा सकता है। आचायॅ
रुद्रट ने उस शकति को प्रतिभा कहा है जो कवि में नूतन कलपनाएँ जागृत करती हैं ।
मम्मट संस्कार विशेष से प्राप्त कवित्व के बीज को प्रतिभा मानते है।’ शक्तिः
कवित्व बीज रूपः संस्कार विशेषः 3’
2.
व्युत्पत्ति – व्युत्पत्ति या निपुणता भी एक महत्वपूर्ण काव्य हेतु
है । व्युत्पत्ति का विवेचन करते हुए आचायॅ राजशेखर ने बहुलता एवं उचितानुचित के
विवेक को व्युत्पत्ति कहा है । बहुलता उनके पूवॅवर्ती आचार्यों का मत है ।
आ.वाग्भट्ट ने व्युत्पत्ति की व्याख्या देते हुए लिखा है –व्याकरण, कोश इत्यादि
शब्दशास्त्र,श्रुति,स्मृति पुराण आदि अर्थशास्त्र, कामशास्त्र एवं काव्यालंकारशास्त्र
में गुरु परंपरा से रीति पूर्व उपदेश ग्रहण करके जो बोध प्राप्त किया जाता है उसे व्युत्पत्ति
कहते है। आचार्य मम्मट्ट ने व्युत्पत्ति को निपुणता कहते हुए लिखा है कि –निपुणता
(बहुज्ञता),लोकजीवन के अनुभव और निरीक्षण ,शास्त्रों के अनुशीलन तथा काव्यादि के
विवेचन का परिणाम है ।’’-निपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात् । 4’वस्तुतः आचार्यों
ने बहुलता के अथॅ में ही व्युत्पत्ति के माना है। सभी तरह के शास्त्रीय और लौकिक
ज्ञान ,लक्ष्य एवं लक्षण ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त करना व्युत्पत्ति है। कवि कर्म
प्रायः सभी इसी से संबंधित है। सिर्फ कल्पना से काव्य की संभावना प्राणवत्ता को
नहीं प्राप्त हो सकती । शास्त्र ज्ञान एवं लोक ज्ञान परमावश्यक है। अभ्यास-
आचार्यों ने काव्य रचना के लिए अभ्यास को भी आवश्यक माना है। किसी काम के लिए
निरंतर प्रयत्न .चिंतन एवं मनन ’अभ्यास’ कहा जाता है।यह एक प्रकार की साधना है
जिसे लगातार किया गया श्रम एवं सतत चिंतन से सिद्ध किया जा सकता है। काव्य मर्मज्ञों
के समीप में रहकर शिक्षा प्राप्त और साधना करना अभ्यास है। इससे बुद्धि प्रखर होती
है, काव्य में बहुज्ञता का समावेश होता है व शब्द चयन में कसावट आती है । दरअसल अभ्यास
के बिना कई प्रतिमाएँ कुंठित हो जाया करती है । ऐसे अभ्यास के फल स्वरूप काव्य प्रभावशाली बनता हैं
। संयुक्ताक्षरों के बाद लघु वर्णों का
गुरु की तरह उच्चारण,विसर्गों का लोप तथा संधि न करनें का भी अभ्यास करना कवि के
लिए जरूरी है अन्यथा काव्यत्व की की हानि की संभावना रहती है ।कथा ,वार्तालाप, इतिहास
में नूतन अर्थ योजना का कवि को प्रयास करना चाहिए। अलंकार योजना के द्वारा चमत्कार
पैदा करना चाहिए । स्पष्ट होता है कि कवि के लिए अभ्यास बहुत ही आवश्यक संस्कृत के
आचार्य मानते थे। आचार्य जयदेव का कथन सर्वथा सार्थक है कि ’जिस प्रकार जल और
मिट्टी के बगैर बीज लता को जन्म नहीं दे सकता वैसे ही व्युत्पत्ति और अभ्यास के
बगैर केवल प्रतिभा से सुन्दर काव्य की सर्जना नहीं हो सकती ’इस प्रकार उक्त तीनों
के संयोग से ही काव्य की रचना संभव है
संदर्भ –
(1) भारतीय
काव्यशास्त्र-डॉ.भारतीय काव्यशास्त्र डॉ.अरविंद पांडेय जवाहर पुस्तकालय, मथुरा,1971
(2) वहीं-पृ.25.
(3) साहित्यशास्त्र-डॉ.ओमप्रकाश
गुप्त –गोर्वधन बंजारा- पार्श्व प्रकाशन अहमदाबाद 2004पृ.26
(4) भारतीय
काव्यशास्त्र - पृ.29
उपन्यास लेखन के
तत्व –
उपन्यास आधुनिक गद्य –साहित्य
की अत्यंत महत्वपूणॅ व लोकप्रिय विधा है । प्रारंभ में उपन्यास मनुष्य की दो मुख्य
भावनाओं के आधार पर लिखा जाता था। आगे चलकर साहसी उपन्यासों का निर्माण हुआ होगा।
इसी के आधार पर विजय पाने की भावना ऐसे उपन्यासों में पायी जाती है। किन्तु इससे
अधिक उपन्यास प्रेमभावना को आधार बनाकर लिखे थे। उपन्यास का स्वरूप विशाल होता है
। इसी लिए उसे आधुनिक युग का गद्यात्मक महाकाव्य कहा जाता है। असल में महाकाव्य की तुलना में उपन्यास जीवन
यथार्थ के अधिक निकट है। उपन्यास जीवन की आलोचना है। मनुष्य के बहुआयामी जीवन का
कलात्मक चित्रण उपन्यास का प्रमुख उद्देश्य है। इस उद्देश्य के लिए उपन्यासकार को
वस्तु एवं शिल्प का सुंदर संयोजन करना पडता है। कहानी की भाँति उपन्यास के भी छः
तत्व माने गये है। जो इस प्रकार है –
(1) कथानक या कथावस्तु –
दरअसल कथानक को उपन्यास का प्राण तत्व माना जाता है । जिस उपन्यास का कथानक
सुसंगठित एवं ठोस होता है, वह उतना ही महत्वपूर्ण बन जाता है। उपन्यास में कथानक
के स्वरूप को लेकर विद्वानों में मतभेद है लेकिन कथावस्तु के अस्तित्व के विषय में
वे प्रायः एकमत है। आधुनिक उपन्यासों में कथावस्तु के महत्व का अस्वीकार किसी ने
नहीं किया है। कथावस्तु अंग्रेजी शब्द प्लॉट का पर्यायवाची है। उपन्यास में घटनाओं
के संयोजन को कथानक कहा जाता है। उपन्यासकार व्यापक जीवन में से पने अनुभवों से
चुनकर कथानक का चयन करता है। जीवन के किसी एक अंश का विश्लेषण तथा उसका
प्रस्तुतीकरण के कारण कथानक को उपन्यास की रचना का मूल आधार कहा जाता है।‘कथानक घटनाओं का वह
साधारण या जटिल ढ़ाँचा है, जिसके द्वारा किसी उपन्यास की रचना होती
है। उपन्यास की कथा चयन जीवन एवं जगत् के किसी भी क्षेत्र से किया जा सकता है।
उपन्यासकार का प्रथम दायित्व यह है कि वह कथा निरूपण करते समय अपने जीवन अनुभवों
के प्रति सच्चा वं इमानदार हो। मानवजीवन के रागद्वेष – भाव-अभाव, आशा-आकांक्षा,
संघर्ष – समस्या इत्यादि का इमानदारी पूर्वक कलात्मक चित्रण ही उसके कथानक को
प्रभावशाली बना सकेगा। डॉ. गुलाबराय के द्वारा बताया गया यह मत सार्थक है - ‘उपन्यास
के पढ़ने वालों में केवल कौतुहल की ही वृत्ति नहीं होती, वरन् स्मृति और बुद्धि भी
होती है, वे पूर्वापर सम्बन्ध लगाते है और उसकी युक्तिमक्ता तथा सम्भावना भी देखते
है।’’1 कथानक में निम्न चार गुणों का होना आवश्यक है – मौलिकता, रोचकता,
विश्वसनीयता और गतिशीलता। इन चार गुणों के साथ-साथ कथानक का समग्रतः संगठन संतुलित
एवं कलात्मक होना चाहिए। घटना या प्रसंगों का श्रृंखला में बंधा होना जरूरी है।
कथावस्तु में कोई एक आधिकारिक एवं अन्य प्रासंगिक कथाएँ हो सकती है किन्तु इसके
बीच एक सूत्रता होना जरूरी है। मुंशी प्रेमचंद लिखित गोदान अत्यन्त सशक्त उपन्यास
होते हुए भी गाँव एवं शहरी जीवन के कथानक की विश्रृंखलता के प्रश्न को लेकर विवाद
का विषय बना रहा। उपन्यासकार कथावस्तु को कई प्रकार से प्रस्तुत करता है। कथानक के
आधार पर उपन्यासों को दो विभागों में विभाजित किया जाता है – शिथिल वस्तु प्रधान उपन्यास
तथा संगठित वस्तु प्रधान उपन्यास।
(2) चरित्र-चित्रण –
वस्तुतः चरित्र-चित्रण उपन्यास का
एक महत्वपूर्ण तत्व है।उपन्यास का मूल विषय मानव एवं मानव जीवन होता हैं । उपन्यास
मानव चरित्र का चित्र होता है। चरित्रों के अभाव में उपन्यास की रचना संभव नहीं है
।पात्रों के चरित्र-चित्रण के सहारे उपन्यासकार जीवन के विविध पक्षों को प्रस्तुत
करता हैं । वह अपने इर्द-गिर्द के परिवेश से पात्रों का चयन करता हैं । उनके भीतर
झाँकता है तथा अपनी संपूर्ण अच्छाईयाँ-बुराईयाँ के साथ हमारे सामने उजागर करता हैं
। पात्रों के चरित्र-चित्रण में भी स्वाभाविकता ,सजीवता एवं क्रमिक विकास का होना
आवश्यक है । प्राचीन महाकाव्यों की भाँति उपन्यास के पात्र न तो अति मानवीय होते
हैं और न ही उनका चरित्र प्रारंभ से लेकर अंत तक एक जैसा होता है । पात्रों के
वर्गगत विशिष्टताओँ के साथ-साथ वैयक्तिक विशेषताओं का भी समन्वय होना चाहिए ,अन्यथा
उनके व्यकतित्व का विकास नहीं हो पायेगा ।
’गोदान’में होरी, हीरा और शोभा तीनों एक ही परिवार तथा एक ही परिवार से सम्बन्धित
है, फिर भी तीनों में इतना सूक्षम अंतर रखा गया है जिससे हम एक दूसरे को पहचान सके
, भिन्न कर सके । पात्रों के चरित्र में परिवतॅन या विकास परिस्थितियों एवं
वातावरण के प्रभाव से क्रमशः दिखाया जाना चाहिए । पात्रों का चरित्र-चित्रण आदशॅवादी
भी हो सकता है तथा यथार्थवादी भी । संघषॅशील
चरित्र का व्यक्तित्व अधिक आकषॅक बन पड़ता हैं । उपन्यास में लेखक भी पात्र के चरित्र का परिचय देता हैं
।उपन्यास के पात्रों का चरित्र-चित्रण करने के लिए उपन्यासकार कई तरह की विधियों
का प्रयोग करता हैं .कभी-कभी स्वयं अपनी ओर से पात्रों का वर्णन करता है अर्थात्
कभी अन्य पात्रों के भाषण द्वारा या क्रियाकलाप द्वारा चरित्र-चित्रण करता हैं ।
4.
देश काल या वातावरण –
वातावरण के अन्तर्गत दो तरह का वातावरणों
का उललेख आता हैं ।पहला वातावरण तो भौतिक होता है और दूसरा वातावरण सामाजिक होता
है । भौतिक देशकाल के अन्तर्गत प्राकृतिक पृष्ठभूमि या सभी ओर दिखाई देने वाली
परिस्थिति आती है । सामाजिक देशकाल के अन्तर्गत आचार- व्यवहार ,रीति-रिवाज तथा
जीवन पध्दति आती हैं । इस तत्व को अनदेखा करनेवाला कोई भी उपन्यासकार अपने युग के
साथ समुचित न्याय नहीं कर सकता । घटना का स्थान , समय पात्र का परिवेश एवं चित्रित
युग विशेष की अलग- अलग परिस्थितियों का ज्ञान उपन्यासकार के लिए आवश्यक हैं । देशकाल
तथा वातावरण का सबसे अधिक उपयोग ऐतिहासिक उपन्यासों के अतर्गत होता है । ऐतिहासिक
उपन्यासकार के लिए तत्कालीन देश काल एवं वातावरण का चित्रण करने के लिए पूरा ज्ञान
होना चाहिए । डॉ. गुलाबराय ने इसके महत्व को दर्शाते हुए लिखा हैं कि -’’देश काल
के चित्रण में सदा इस बात का ध्यान आवश्यक हैं कि वह कथानक के स्पष्टीकरण का साधन
ही रहे ,स्वयं साध्य न बन जाए ।’’3 प्राकृतिक या भौतिक वातावरण के चित्रांकन में
उपन्यासकार ने चतुराई ,विशदता एवं कलात्मकता के साथ प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण
करना चाहिए । चित्रलेखा उपन्यास की समस्या पाप एवं पुण्य की सार्वभौमिक समस्या है
परंतु देशकाल का संबंध गुप्त कालीन संस्कृति के साथ हैं । यथार्थ –चित्रण की ओर
जैसे –जैसे उपन्यास का झुकाव बढ़ता जा रहा है , युगबोध के चित्रण को अधिकाधिक महत्व
दिया गया हैं । देशकाल के निरूपण में उपन्यासकार की चित्रात्मक दृष्टि आवश्यक है ।
डॉ.यतीन्द्र तिवारी के देशकाल संबंधी विचार देखिए –’’उपन्यास में किसी घटना की
सजीवता में वृद्धि करने के लिए पृष्ठभूमि कें रूप में वातावरण चित्रण नितांत उपयुक्त
सिद्ध होता है । देश काल वातावरण के चित्रण में भी सूक्ष्मता का ध्यान रखना चाहिए
।ऐसा न हो कि इसके आधिक्य से पाठक ऊबने लगे । इसको सरस बनाने के लिए इसमें कल्पना
का भी पुट दे देना चाहिए । इससे उपन्यास में काव्यात्मकता भी आ जाती है ।.यह तत्व
उपन्यास में समाज का वास्तविक रूप प्रस्तुत करनें में बड़ा सहायक सिद्ध होता है ।
’’4 कहने का अभिप्राय यह हैं कि देशकाल का चित्रण उपन्यास में होना जरूरी है ।
5.
भाषा शैली –
भाषा अभिव्यक्ति का शशक्त माध्यम है । उपन्यास की भाषा सहज ,सरल ,स्वाभाविक
,पात्रोंचित ,रोचक ,कौतुहलवर्धक होनी चाहिए । उपन्यासकार अपने अनुभव ,विचार,भाव –प्रतिमान
को उपन्यास में अपनी एक विशिष्ट शैली के माध्यम से एक आकार प्रदान करता है । हर
कलाकार अपनी शक्ति एवं सामथ्यॅ के अनुरुप कथन –शैली स्वयं निर्मित करता है
।उपन्यास की भाषा दूसरी विधाओं से नितांत अलग होती हैं । उपन्यास की भाषा सहज ,सरल
,स्वाभाविक ,पात्रोंचित ,रोचक , कौतुहलवर्धक होनी चाहिए। उपन्यासकार को भाषा में
कहावतों ,मुहावरों ,कहावतों का प्रयोग करना चाहिए । इस पर रामचंद्र वर्मा ने लिखा
’’भाषा में सौंदर्य लाने के लिए मुहावरों ,कहावतों और अलंकारों से भी सहायता ली
जाती है । इन सभी का भाषा में विशिष्ट और निजी स्थान होता है । कहावतों और
अलंकारों की तो सब जगह उतनी अधिक आवश्यकता नहीं होती , पर मुहावरेदार और बोलचाल की
भाषा तथा शिष्ठ-सम्मत प्रयोगों के ज्ञान की हर जगह आवश्कता होती है ।’’5 उपन्यासकार
जिस कथाविश्व हमें ले जाना चाहता है ,उसकी प्रतीति भाषा के माध्यम से ही संभव होती
है ।उपन्यास जीवन यथार्थ की अभिव्यक्ति का माध्यम है इसलिए उसकी भाषा केवल व्यवहार
की भाषा कभी नहीं हो सकती । व्यग्यात्मकता ,संकेतात्मकता,प्रतीकात्मकता द्वारा
भाषा की व्यंजनाशक्ति कई गुनी बढ़ जाती हैं ।
शैली – अनेक उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों के लिए कई शैलियों का प्रयोग किया
हैं। प्राचीनकाल से चली आ रही विवेचनात्मक एवं विश्लेष्णात्मक शैलियों के साथ –साथ
अन्य भी कई शैलियाँ विकसित होती चली गयी । डॉ .गुलाबराय शैली का महत्व बताते हुए
लिखते है कि-’’ पद –पद पर प्रसन्नता
प्रदान करना और उत्सुकता को कायम रखना जो कथावस्तु की आवश्यकताओं में से है, बहुत
कुछ शैली पर निर्भर करता है । कथावस्तु के और भी गुण –जैसे संगठन ,क्रम ,संगति आदि
शैली के आंतरिक संबंध रखते हैं ।’’6 शैली में ओज ,प्रसाद और माधुर्य गुणों का होना
अपेक्षित है ।
6.
उद्देश्य –
साहित्यकार बिना उद्देश्य कोई रचना नहीं करता । आज उपन्यासों के उद्देशय
में अनेक तरह के परिवर्तन हो गया है । प्राचीन काल में उपन्यास केवल मनोरंजन के उद्देशय
से लिखे गये । डॉ.शांति स्वरूप के मतानुसार सिर्फ मनोरंजन ही उपन्यास का उद्देशय
नहीं होता । किंतु पत्नी के समान मीठा उपदेश देना है । आधुनिक काल के उपन्यासों
में समस्या चित्रण ,यथार्थ और आदर्श का चित्रण जैसे कई उद्देश्यों से उपन्यास की
रचना की जाती हैं । दरअसल उपन्यासकार जीवन को निकट से देखता है एवं समझता है , माववीय
जीवन –व्यवहार को आत्मसात करता है । साहित्य की दूसरी विधाओं की तुलना में नवीन
रूप होते हुए भी यथाथॅ –चेतना की अभिव्यक्ति के लिए उपन्यास ज्यादा सक्षम सिद्ध
हुआ हैं । उपन्यास की कथा व पात्र योजना भले ही काल्पनिक हों ,पर उपन्यासकार उन्हें
इस रूप में निरूपित करता हैं कि वे एकदम जीवंत और सहज प्रतीत हों, उनमें वास्तविकता
का पूणॅ आभास हो ।
1.ममता कालिया व्यकित्व एवं कृतित्व –डॉ.फेमिदा
बिजापुर –विनय प्रकाशन-कानुपुर -2004 पृ.102.
2.वही –पृ.103
3.वही –पृ-103
4.वही-पृ.104.
5 वही-पृ104
6 वही -.पृ.104
नाट्यलेखन –संवाद
लेखन एवं रंग-निर्देश
नाटक सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है
। पाणिनी ने नाट्य की उत्पतत्ति ’नट्’धातु से मानी हैं जिसका अथॅ हैं –सात्विक भावों
का प्रदशॅन । ’अवस्थानुकृति नाट्यम् ’ही नाटक है । नाटक का संबंध नट् से होता है
और उसकी विभिन्न अवस्थाओं की अनुकृति को ही नाटक कहते है । अनादिकाल से मानव के
सहचर बने नाट्य परंपरा के सूत्र भारतीय संदभॅ में सबसे पहले वैदिक काल में मिलने
लगे थे । नाटक का पहला-पहला सूक्त ऋग्वेद यम –यमी एवं पुरुरवा-उवॅशी जैसे सूक्तों
में प्राप्त हुआ है । यह सही हैं कि भरत मुनि
का नाट्यशास्त्र भारतीयों की दृष्टि में अपने विषय का सबसे अधिक प्राचीन
ग्रंथ है। नाटक ,रंगमंच और रंगशाला के संबंध में विस्तृत एवं विशद व्याख्या इस
ग्रंथ में पायी जाती हैं ,उतनी दुनिया के अन्य किसी साहित्य के किसी एक ही प्राचीन
ग्रंथ में नहीं पायी जाती ।दरअसल कथोपकथन या संवाद ही नाटक को नाटक बनाते है ।जिसके
माध्यम से रचनाकार कथा को विकसित करते हुए पात्रों के आंतरिक एवं बाह्य संघर्ष को
,सूच्य घटनाओं को दशॅनाकों के सामने उपस्थित करता हैं । कथोपकथन के लेखन में यह
ध्यान रखना चाहिए कि संवाद स्वाभाविक ,संक्षिप्त ,मार्मिक और पात्रानुकुल हो ।पात्रों
के बीच की बातचीत या पात्रों के बीच बोला गया संवाद है। इसे वाचिक अभिनय कहा जाता
है ।
ग्रीक और प्राचीन फ्रांसिसी
नाटकों में तो संवादों के अतिरिक्त कुछ होता ही नहीं था क्योकि उनमें कायॅ नगण्य
होता था ।,प्रेक्षक केवल संवाद सुनते थे । आज भी संवाद का महतव , जबकि नाटक में
कायॅ की मात्रा बढ़ गई है, फिर भी कम नहीं हुआ है । नाटक के संवाद सुंदर एवं अभिनय
के अनुकूल होने चाहिए । कहने का तात्पयॅ यह है कि नाटक की सफलता बहुत कुछ उसके
संवादों पर निर्भर करती है । संवाद के सफल होने के निम्न लक्षण हैं –अभिनेता उसे
सरलतापूर्वक ,बिना अटके बोल सके । वह उसे पूरी तरह समझ सके तथा उसे पता हो कि उसे
कहाँ रुकना है कहाँ सांस लेनी है ,कहाँ स्वर को ऊचा या नीचा करना है। प्रेक्षक भी
उसे तुरत समझ सके । सभी नाटकों में एक प्रकार के संवाद प्रयुकत नहीं किये जा सकते
।जैसे –कामदी के संवादों में व्यंग्य का प्राधान्य हो ,त्रासदी में शैली की गरिमा
हो,विचार प्रधान नाटकों में तकर् स्पष्ट एवं सरलता पूर्वक प्रस्तुत किये जाये ।पात्रों
की भाषा भी भिन्न होनी चाहिए तथा इस संबंध में नाटककार को उनके स्वभाव ,परिस्थिति
मानसिक स्थिति ,वगॅ , शिक्षा-स्तर आदि का ध्यान रखना चाहिए । अर्थात् नाटक के
संवाद पात्र एवं परिस्थिति के अनुकूल लिखे जाने चाहिए । नाटकों के संवाद
की भाषा में कुछ गरिमा हो उदात्तता होनी ही चाहिए ।
रंग निर्देश – रंगमंच एक भाव है –एक
अनुभूति है ,जिसकी अपनी असीम व्यापकता एवं गहराई है। दरअसल नाटक व रंगमंच का संबंध
शरीर एवं आत्मा जैसा ही है।दोनो परस्पर पूरक बनकर सजॅनात्मक अभिव्यक्ति करता है।नाटक
की अंतिम कसौटी रंगमंच है । जैसे मनुष्य
की पहचान उसके कार्यों से होती हैं वैसे नाटक की पहचान रंगमंच द्वारा संभव है । रंग
निर्देश यानी नाटक की प्रस्तुति । मंच पर की सारी प्रोपर्टी रंग निर्देश के अंतर्गत आती हैं । जब तक नाटक का
मंचीकरण नहीं होता तब तक नाटक अपूणॅ माना जाता है ।किसी नाटय कृति का एकांत कक्ष में बैठकर रसास्वादन
करने में जो आनंद मिलता है उससे कई गुना ज्यादा दर्शकों के साथ बैठकर अभिनय देखने
में मिलता है । आचायर् भरतमुनि ने ’रंग’शब्द का मंच ,रंगपीठ अथवा रंग-मंडप अथॅ
बताया है ।डॉ.अज्ञात ने रंगमंच शब्द की परिभाषा देते हुए लिखा है कि ’’रंगमंच शब्द
की उत्पत्ति बडी रोचक है ।यह दो शब्दों
’रंग’ और ’मंच’के योग से बना है । अभिनवगुप्ताचार्य ने रंग शब्द का प्रयोग ’मंडप’ अथवा रंगमंडप या
’’नाट्यमंडप’के अथॅ में लिखा है ।असल में मंच एक अर्वाचीन शब्द है जिसका अथॅ है
’मंडप’ या कायॅ स्थान जहाँ कोई प्रयोग या नाट्याभिनय किया जाए। नाटक को सफलता
पूवॅक रंगमंच पर प्रस्तुत करने के लिए प्रस्तुतकर्ता को रंगमंच पर दृश्य का संयोजन
करनेवाले का, रूप-विन्यास का कायॅ संपन्न करनेवाले का , प्रकाश व्यवस्था नियोजीत
करनेवाले का ,संगीत निर्देशक का,ध्वनि नियंत्रक और प्राम्पटर का ,पर्दा उठाने तथा
’सेट को हटाने –बढाने वाले का,पोशाक प्रबंधक का ,कुली का सहयोग प्राप्त करना होगा
।
अभिनय - अभिनय को नाटक के
संप्रेषण की आत्मा कहा गया है।विविध रंग उपकरण एवं नाट्यतत्व अभिनय को ही जीवंत
एवं अलंकृत बनाने के लिए निर्मित हुए है ।विद्वानों ने नाटक को जीवन की अनुभूति
,दर्पण,सत्य की तलाश का माध्यम ,ज्ञान का सुखदायक संयोग माना है तो इसके पीछे
अभिनय तत्व ही महत्व रखता है । वस्तुतःनाटक तभी नाटक है जब उसमें सही अभिनय
तत्व ही महतव रखता है ।अभिनय नाटक का एक
ऐसा ततव है जिसके बिना नाटक की आंतरिक चेतना,भावात्मकनुभूति, संघषर् ,रसास्वादन
आदि का अनुभव नहीं हो सकता है । अभिनय
करने का मतलब परकाया प्रवेश कर निजी व्यक्तित्व के आवरण से हटकर नया सजॅन करना । केवल
किसी अवस्था की अनुभुति को अभिनय नहीं कहा जा सकता ।किसी परिस्थिति विशेषता
....नाटक का बाह्य दावा है ,हदय के आवेग ,कलपना ,अनुभव आदि मिलकर एक नये पात्र का
निर्माण करते हैं । वहीं अभिनेचता सक्षम एवं सफल माना जायेगा जो पात्र जीते हुए
निजी संस्कार ,आचारण विचार ,व्यवहार ,वाणी आदि से मुक्त रहकर नाटक के पात्रों को सजीव बनाकर नाटकीय स्थितियाँ
पैदा करे । जीवन के यथाथॅ पक्ष को उजागर करने के लिए सहज एवं सवाभाविक अभिनय महत्व
रखता है किंतु अभिनय के सौंदर्य पक्ष की रक्षा भी आवशयक है ।इस संबंध में शंभु
मिश्र का कथन देखिए –’’स्वाभाविक अभिनय उसे कहते है जो सत्य को स्पष्ट करे ,साधारण
स्वाभाविकता की नकल न करे ।1 रंगमंच पर सबसे अधिक महत्वपूणॅ कार्य अभिनेता का होता
है ।वह अपना शरीर व वाणी प्रदान कर नाटक को एक स्वरूप प्रदान करता है ।
रंग-शिल्प के अंतर्गत दृश्य-बंध ,मंच पर प्रयुक्त प्रकाश योजना
,ध्वनि-संयोजन ,वेशभूषा मेकअप आदि का समावेश होता है ।शिल्प का अथॅ देते हुए
डॉ.विश्वनाथ शर्मा लिखते है –’’शिल्प का अथॅ है हस्त कला आदि कमॅ । मंच शब्द से
जुड़ा जाने से मंच संबंधी कला अथवा कायॅ का बोध होता है । इसे अंग्रेजी में स्टेज
टेकनीक अथवा स्टेज क्राफ्ट कहा जाता है । ’’2 हिंदी शब्द कोश में शिल्प की परिभाषा इस प्रकार दी गई है –’’शिल्प से
अभिप्राय हाथ से कोई वस्तु और तैयार करने अथवा दस्तकारी अथवा
कारीगरी से हैं ।’’3 नाट्य निदशॅन में दृश्यबंध होना चाहिए । नाटक की कथा कितने
अंक व दृश्यों में है इसका विभाजन भी रंगमंचीय दृष्टि से किया जाना चाहिए
। कई नाटककार अब दृश्य न रखकर अंकों से काम चलाते है ।चाहे नाटककार दृशय या अंक
नाम देना आवश्यक न समझे फिर भी दृशय एवं अंक की संकल्पना कहीं-न-कहीं नाटककार को
मन में रखनी पड़ती है क्योंकि वही नाट्य शरीर का नियमन करती है ।दृश्यबंध की
चित्रमाला एवं प्रमुख पात्र के अनुसार प्रतीकात्मक दृश्यों का गठन भी निर्देशन
कौशल एवं गहरी समझ पर आधारित होता है ।
प्रकाश योजना – रंगमंच पर अभिनय
कला की प्रभावशाली अभिव्यक्ति हेतु समुचित प्रकाश व्यवस्था की आवश्यकता होती हैं
।मंच पर मंच सज्जा के तकनीक उपकरण, पात्र एवं दृश्ययोजना के साथ –साथ प्रकाश योजना
महत्व रखती है । प्रकाश योजना द्वारा ही दशॅकों को पात्रों का .संवादों का ,घटनाओं
का परिचय मिलता है ।बिजली मिस्त्री को यह जानना जरूरी है कि कहाँ कैसा बल्ब लगाया जाय ।किस जगह कैसी
बत्ती अपेक्षित प्रकाश दे सकती है । प्रस्तुत करता को यह ध्यान रखना चाहिए कि किस
दृश्य में किस तरह का प्रकाश होना चाहिए । कहाँ रात नजर आनी चाहिए और कहाँ दिन का
समय परिलक्षित होना चाहिए ।
ध्वनि संयोजन – ध्वनि योजना भी रंग निर्देश का एक महत्वपूणॅ तत्व
है ।नाटक के समुचित प्रभाव की योजना में ध्वनि एवं संगीत योजना का अत्यंत महत्व है
। नाटक में यथाथॅवादी सघन प्रभाव उत्पन्न करनें में ध्वनि एवं संगीत का योगदान
अनिवाय्रॅ होता है । ध्वनि में संगीत का समावेश होता है । टेपरेकॉडर, टेलीफोन आदि
वैज्ञानिक साधनों की सहायता भी ली जाती है । इसके अतिरिक्त कंठ ,पैर ,घोडों की
टापों ऐर वाद्ययंत्रों द्वारा भी धवनि उतपनन की प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता हैं ।
इस पर नैमिचंद जैन के विचार देखिए –’’केवल गीतों की धुने बनाना ही ध्वनि और संगीत
का उद्देशय नहीं होता बल्कि मंच पर अभिनेताओं के संवादों के साथ उस विशेष
सुनियोजित संबंध में कभी संजीत में ,कभी विशमता में ,ध्वनि प्रभावों और पृषठभूमि
के संगीत ने उकत सवैया नवीन साथॅकता प्राप्त की ।’’4 विभिन्न प्रकार के ध्वनि
प्रयोगों से नाटक के दृश्यों ,संवेदनाओं एवं मनोभावों को मुखरित किया जा सकता है । प्रेम ,शोक ,हर्ष
,विषाद ,उद्वेग ,चाच्लय ,जड़ता गवॅ
,शंका आदि विविध मनोविकारों को ध्वनि
योजना के द्वारा विविध प्रभाव निर्माण कर दशॅकों पर प्रभाव डाला जाता है । वस्तुतः
ध्वनि संयोजन के विनियोग से नाटक का प्रभाव बढ़ जाता है
वेशभूषा – रंग निर्देश के
अंतर्गत वेशभूषा एवं मेकअप का खास ध्यान रखना चाहिए । दरअसल पात्रों के लिए
वेशभूषा का उल्लेखनीय महत्व है । वेशभूषा मात्र पात्र का बाह्य पोषाक ही नहीं है ।
पात्र अपनी भूमिका के अनुरुप वेशभूषा धारण करे इस का ध्यान निर्देशक को रखना चाहिए
। नाटक में योग्य एवं पात्रानुकूल वेशभूषा को ग्रहण करना चाहिए । वेशभूषा के चयन
में बहुत ही सावधानी बरतनी चीहिए । आभूषण भी वेशभूषा के अंग माने जाते हैं । वेशभूषा
के चयन में चरित्र ,पात्र ,घटना या प्रसंग ,नाटक का प्रकार आदि पर ध्यान रखना
पड़ता हैं । पात्रानुरूप यानी नायक –नायिका .खल नायक –खल नायिका, नौकर नौकरानी
,राजा रानी ,गुरु-शिष्य आदि का ध्यान ऱखना पड़ता है । वेशभूषा मंच पर अनुकूल
वातावरण की सृष्टि में मदद करती है , साथ ही अभिनेताओं को पात्रों के चरित्र को
महसूस करने में भी सहायक करता हैं । वेशभूषा
नाटक की कथा जिस समय से संबंधित हो उसके अनुकूल होनी चाहिए ।ऐतिहासिक
,पौराणिक ,सामाजिक ,धार्मिक ,राजनीतिक और सांप्रत प्रमुख घटनाओं या समस्या आदि को
ध्यान में रखकर वेशभूषा का उपयुक्त चयन बडी ही सावधानी के साथ सूझ बूझ से
करना पड़ता हैं । वेशभूषा का चयन किसी एक
पात्र की दृष्टि से नहीं किया जा सकता । समकालीन नाटककार नवीन रंगमंच ऐर रंगकमॅ के
प्रति आकर्षित होकर वतॅमान स्थितियों के अनुरूप रंगमंच को समृध्द किया है ।