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Monday, 24 March 2014

रचनात्मक लेखन - सैद्धांतिक विवेचन


(इस क्रम में पहले हमने डॉ मनीष गोहिल तथा डॉ धीरज वणकर की दो पोस्ट डाली थी। इसी क्रम में डॉ.जशाभाई पटेल, नरोड़ा कॉलेज की यह पोस्ट है। रचनात्मक लेखन पर लिखना बहुत मुश्किल काम  है। किन्तु डॉ जशाभाई पटेल ने यह चुनौति स्वीकार की और अपनी क्षमताओं के अनुसार इसे प्रस्तुत किया है। आशा है इसका लाभ विद्यारथी अवस्य लेंगे।)


रचनात्मक लेखन-सैद्धांतिक परिचय             


Unit-1   रचनात्मक लेखन से तात्पर्य, विशेषताएँ                    
              Unit-2 रचनात्मक लेखन का क्षेत्रः साहित्य और संचार माध्यम     
Unit-3 रचनात्मक लेखन का स्वरूपःगद्य और पद्य

रचनात्मक लेखन ­­: तात्पर्य
रचनात्मकता का अर्थ है सृजनात्मकता। सृजनात्मकता अर्थात् वही जिसे कॉलरिज कल्पना कहता है। कल्पना अर्थात्- नव-सृजन की वह जीवनी शक्ति जो कलाकारों, कवियों तथा वैज्ञानिकों और दार्शनिकों में होती है। जो अपने आसपास की दुनिया को आधार बना कर ही नव निर्माण करते हैं। सृजनात्मक लेखन अर्थात् नूतन निर्माण की संकल्पना, प्रतिभा एवं शक्ति से निर्मित पदार्थ(लेखन)। रचनात्मक शक्ति के माध्यम से किसी एक भौतिक पदार्थ द्वारा भिन्न भिन्न कृतियों का निर्माण करना। उदाहरण के लिए लकड़ी(भौतिक पदार्थ) में से रचनात्मक शक्ति द्वारा अलग-अलग कलात्मक कृतियों का निर्माण। उसी प्रकार रेत के द्वारा बालक अपनी रचनात्मकता शक्ति द्वारा घर बनाता है तो वहीं एक कलाकार रेत में अपनी कृति से भावों को उतारता है। कोई रेत का उपयोग मकान (उपयोगी कला) बनाने में करता है तो कोई रंगोली(सौन्दर्यात्मक/ललित कला) बनाने में। जिस तरह रेत अथवा लकड़ी के माध्यम से सौन्दर्यात्मक एवं ललित कला का निर्माण होता है ठीक उसी तरह जब शब्दों से भी विभिन्न उपयोगी एवं ललित कृतिओं की रचना होती है। जहाँ शब्दों के माध्यम से सौन्दर्यपरक रचनाओं का निर्माण होता है तब मोटे-तौर पर रचनात्मक-लेखन कह सकते हैं।
   "लेखन" शब्द का विशाल अर्थ है। समस्त लिखित-मुद्रित वाङमय अर्थात् लिखे हुए सार्थक आयोजन बद्ध सुरुचिपूर्ण शब्द-विस्तार सब लेखन है। किन्तु इस विस्तार में वह लेखन जिसका संबंध मनुष्य के सुख दुख हर्ष शोक आदि से जुड़ा है उसे रचनात्मक लेखन कहा जा सकता है। रचनात्मकता का संबंध मनुष्य की अभिव्यक्ति की तड़प से हैं।कोई दुःख में गाता है तो कोई खुशी के मारे रो पड़ता है।यही भाव-विचार जब भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त हो तब उसे रचनात्मक-लेखन की संज्ञा दे सकते हैं।
इस आधार पर रचनात्मक लेखन की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती हैं-                                      
       भाषा के माध्यम से मनुष्य के हर्ष-शोक, सुख-दुख की रचनात्मक एवं सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति द्वारा जो साहित्य रचा जाता है उसे रचनात्मक लेखन कह सकते हैं।’’
   प्रकृति(स्वभाव) की दृष्टि से लेखन की तीन श्रेणियाँ हो सकती हैं-    
1.प्रचारात्मक लेखनः-जो हमारी जानकारी बढ़ाती है अथवा नयी बाते बताते हो ऐसा साहित्य प्रचारात्मक साहित्य है। इसके अन्तर्गत सूचना प्रधान साहित्य शामिल कर सकते हैं। सूचनात्मक साहित्य वह है जिसमें एक विषय के बारे में दिया गया विचार दूसरों तक संप्रेषित किया जाता है।
2.विवेचनात्मक लेखनः-जो हमारी जानकारी को बढ़ाते हुए बोध शक्ति को निरन्तर सचेष्ट बनाएँ रखें ऐसे साहित्य को विवेचनात्मक लेखन कहते हैं।ज्ञान के साथ-साथ विवेक जाग्रत करता है।विविध वस्तुओं, विषयों तथा धर्म, संस्कृति, इतिहास, दर्शन आदि की विशिष्टता बताते हुए नियमित तर्क प्रणाली के आधार पर विषयों को समझाती है। दूसरे शब्दों में इसे विवेचनात्मक साहित्य कह सकते हैं।
3.रचनात्मक (सृजनात्मक) लेखनः-रचनात्मकता सबसे पहले आत्माभिव्यक्ति है। इसे कोई शब्दों में,कोई रंगों में,कोई रेखाओं में और कोई शरीर की मौन भाषा से अपनी बात अभिव्यक्त करने में सहजता और सुविधा अनुभव करता है।जब लेखन के क्षेत्र में यह कार्य हो तब हम रचनात्मक लेखन की संज्ञा दे सकते हैं।
रचनात्मक लेखन की विशेषताएँ-
1.रचनात्मकता सबसे पहले आत्माभिव्यक्ति हैः-
साहित्यिक रचनात्मक लेखन में आत्मा की आवाज़ को स्थान दिया गया है। अनुकूल परिस्थितियाँ, उचित वातावरण, निरन्तर अभ्यास और लेखन की अनिवार्यता की अनुभूति रचनात्मक लेखन के आधार हैं।
2.अनुभव सबसे बड़ा गुरुः-साहित्य की रचनात्मकता का एक लक्षण अनुभव का विस्तार है।वह अनुभव किसी कल्पनिक घटना या पात्रों के आधार पर कृति में उतरता है। रचनाकार को जितना विविध क्षेत्रों का अनुभव होता है उतनी रचना भी सफल होती है।
3.भाव,बुद्धि(विचार),कल्पना,और उद्देश्य महत्वपूर्ण घटकः-भाव और विचार का कल्पना से योग कर निश्चित उद्देश्य के हेतु प्रस्तुत किया जाए तब एक अच्छी रचना सामने आती है।चारों का योग रचना-धर्मिता के मुख्य घटक है।
4.आत्मविस्तार की इच्छा- भारतीय चिंतन में जिस प्रकार मनुष्य अपनी संतान में अपना आत्मविस्तार देखता है उसी तरह जब रचनाकार अपनी अनुभूतियों और अनुभवों को दूसरों से बाँटने की इच्छा रखता है उसे उसकी आत्मविस्तार की इच्छा माना जा सकता है।
5.समय और समाज का प्रतिबिंबः-रचनाकार जिस काल में रहता है उस काल का प्रभाव उस पर पड़ना स्वाभाविक है।अपने उद्देश्य का निरूपण करने के लिए रचनाकार जब रचना लिखता है तब रचना में रचनाकार का समय और समाज का प्रतिबिंब लक्षित होता है। रचना और रचनाकार दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध है।
6.ज्ञानात्मक विचार और भावात्मक संवेदन-एक सिक्के की दो पहलूः-रचना भाव और विचार का योग है। प्रायः भाव प्रधान रचना पद्य कही जाती है तो विचार प्रधान गद्य का रूप धारण करती है। किंतु हर बार ऐसा नहीं होता। कविता में भाव और विचार दोनों की सहोपस्थिति हो सकती है उसी तरह गद्य में भी विचार तथा भाव दोनों की ही उपस्थिति संभव है। मुक्तिबोध और निर्मल वर्मा इस तथ्य के सशक्त उदाहरण है। दोनों एक कृति में एक सिक्के की दो पहलू दो सकते हैं।
7.रचना मन की आभ्यंतर क्षमताओं की परिणिति हैः-जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि कहावत कदाचित इस विशेषता को समझने के लिए काफ़ी है। मन की दृष्टि से जैसे समाज को देखेंगे विचार भी मन में वही अभिव्यक्त होंगे। इसलिए रचना मन की आभ्यंतर क्षंमताओं की परिणिति है। अर्थात् रचनाकार का परिवेश, उसकी सोच को प्रभावित करने वाले तत्व आदि उसके आभ्यंतर परिवेश का निर्माण करते हैं।
8.यथार्थ भाषा-शैली का प्रयोगः- विचारों तथा भावों को उनकी जटिलता तथा अर्थ- सभरता के साथ लिखना ही भाषा है और उस भाषा में निबद्ध भाव-विचार को प्रस्तुत करने का तरीका शैली है। सार्थक शब्द, अलंकार, प्रतीक, बिम्ब भाषा की सृजनात्मकता के मुख्य बिंदु हैं। लोक-भाषा सहजता का प्रतीक भी है। रचना की अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण आधार स्तंभ भाषा पक्ष  है।
    इस प्रकार रचना-धर्मिता की प्रक्रिया में उपरोक्त विशेषताओं का योग श्रेष्ठ रचना का आधार बन सकता है। इस आधार पर रचनात्मक साहित्य के सामान्य तत्व-वस्तु-चयन, निरीक्षण और अन्वेषण, नवीन उद्भावनाएँ तथा शैली मुख्य है।
रचनात्मक लेखन का क्षेत्रः- संचार क्रांति के पूर्व साहित्यिक लेखन ही रचनात्मक लेखन का क्षेत्र था। परन्तु संचार माध्यमों के आने के बाद रचनात्मक लेखन का क्षेत्र विस्तृत हो गया। इस तरह कहा जा सकता है कि रचनात्मक लेखन के मुख्य क्षेत्र- साहित्य व संचार माध्यम है।
साहित्य-लेखनः-मनुष्य की भावनाओं की शाब्दिक प्रस्तुति ही साहित्य है। शब्द,अर्थ और भाव का साहचर्य अर्थात् साहित्य। संस्कृत के प्राचीन ग्रंथ हलायुध कोश में साहित्य की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया गया है-सहितस्य भावः साहित्यम् अर्थात् वाणी, अर्थ और भाव का साहचर्य या अभिन्नता ही साहित्य है। तो आचार्य जगन्नाथ कहते हैं- रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दं काव्यम् अर्थात् रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द ही काव्य या साहित्य है।आधुनिक हिंदी आलोचक रामचंन्द्र शुक्ल साहित्य में भाव-प्रवणता और आलंकारिकता दोनों को ही महत्व देते हैं।कभी-कभी आकर्षण पैदा करने के लिए वक्रोक्ति का भी आश्रय लेना पड़ता है।तो अंग्रेजी आलोचक हेनेरी हड़सन कहते हैं-मानव-रुचि तथा आनंदानुभूति के लिए साहित्य निर्मित होता है। अतः साहित्य रुचिकर और आनंद प्रदान करनेवाला होता है।
  सारांशतः साहित्य समाज का प्रतिवाद तथा प्रतिभाव है।जिसके मुख्य दो रूप हैं-गद्य तथा पद्य। इसकी विशेष चर्चा आगे की जाएगी।
संचार माध्यमः-वैसे तो संचार माध्यम संप्रेषण का ही माध्यम है लेकिन आज इसका इतना व्याप हो गया है कि उसकी विशेष चर्चा अपेक्षित है। सामान्यतः-किसी भी सूचना, विचार या भाव को दूसरों को पहुँचाना ही संचार या कम्युनिकेशन कहलाता है। दूसरे शब्दों में कहे तो-एक साथ लाखों-करोड़ों लोगों तक एक सूचना को पहुँचाना जनसंचार या मास कम्युनिकेशन मीड़िया कहलाता है।
    मानव सभ्यता के विकास में संचार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैसे तो सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य किसी न किसी रूप में संचार करता है। पहले पशु-पक्षियों से संदेश भेजते थे। राजा-महाराजा दूत से संदेश भेजते थे।आधुनिक काल में डाक विभाग अस्तित्व में आने के संचार को वेग मिला। टेलीफोन तथा फैक्स के कारण यह अधिक गतिशील हुआ। उत्तर-आधुनिक समय में इंटरनेट, ई-मेल, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग आदि नये माध्यमों से आज संचार में मानो क्रांति आयी हुई है।
संचार माध्यमों के मोटे-तौर पर तीन उद्देश्य माने जा सकते हैं- सूचना, मनोरंजन और शिक्षा। संचार माध्यम का मुख्य उद्देश्य सूचनाएं पहुँचाना होता है। लेकिन रेड़ियो और टेलीविज़न देखते हैं तो उसमें कार्यक्रम का बहुत-बड़ा हिस्सा मनोरंजन को ध्यान में रखकर प्रसारित किया जाता है। शिक्षा संबंधी कार्यक्रमों से अब मीडिया का उपयोग भी किया जाता है। भारत सरकार ने एजूसेट नामक उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित किया गया जिसका मकसद विद्यार्थियों-शिक्षार्थियों को शिक्षा का लाभ पहुँचाना है।
संचार माध्यम में साहित्यिक संचारः-साहित्य सम्बन्धी संचार कार्य को साहित्यिक संचार कहा जाता है। संचार के विविध माध्यमों में रोज़-रोज़ नाना प्रकार की अनेकविध रचनाएँ प्रकाशित होती है। आज इन्टरनेट पर अनेकों रचनाकारों का परिचय तथा मुक्त ज्ञान कोश से विविध-विषयों से अवगत होना सरल बना है।पत्रिका तथा ई-पत्रका स्थान आज के समय सर्वोच्च है।
संचार माध्यम में शैक्षिक-संचार का मतलब शिक्षा संबंधी  शैक्षिक संचार से है। संचार के विविध माध्यमों से शैक्षिक-संचार में आज क्रान्ति आयी हुई है। इन्हीं माध्यमों के आधार पर सारे देश के पाठ्यक्रमों की जानकारी सरलता से उपलब्ध होती है। ऑडियो-विडियो से तत् संबंधी रूपांतरण से समझने में सहायता मिलती है।यह एक तरह से शिक्षा में सर्जनात्मकता का काम करता है। साहित्यिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक संबंधी ब्लोग द्वारा रचनात्मक संवाद स्थापित किया जा सकता है। साहित्यिक-ब्लॉग से आज अपनी अभिव्यक्ति का खुला कैनवास मिला है।
रचनात्मक लेखन का स्वरूपः-गद्य और पद्यः
  प्रत्येक साहित्यकार अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अलग-अलग माध्यम चुनता है,अलग शैली व अलग ढंग से प्रस्तुति करता है,परिणाम स्वरूप साहित्य में विविधता आती हैऔर अनेकों विधाएँ जन्म लेती है। मोटो तौर पर साहित्य के मूल दो स्वरूप बता सकते हैं-
(1)पद्य और (2) गद्य
(1)           पद्य का अर्थ है छन्दोबद्ध। जिसे सामान्य रूप से हम कविता कहते हैं। यह अलग बात है कि आज कविता छन्दोबद्ध ही लिखी जाती हो, ऐसा नहीं है। वैसे कविता के  भी अनेक रूप होते हैं। प्रस्तुति के आधार पर तथा स्वरूप के आधार पर मुख्य दो प्रकार कहे जा सकते हैं-प्रबंध और मुक्तक। इसके अलावा एक प्रकार है- चंपू- जिसमें गद्य और पद्य दोनों होते हैं। कविता प्रायः भावप्रधानता की प्रस्तुति है। प्रबंध काव्य अफनी प्रकृति में कथात्मक एवं सर्गबद्ध रचना है जो लक्षणों पर आधारित  है। जबकि मुक्तक में गीति-तत्व की प्रधानता औप भाव-तत्व की बहुलता होती है। उसके भी कई प्राकर हैं जिनका अपना स्वरूप है और उन स्वरूपों के लक्षण हैं- यथा, गीत, ग़ज़ल, सॉनेट आदि।
प्रबंध काव्यः-        लक्षणों आधारित काव्य प्रबंध काव्य है। जिसके मुख्य दो प्रकार हैं(i)महाकाव्य (ii) खंण्डकाव्य। कोई तीसरा प्रकार-एकार्थक काव्य भी बताते हैं।जो काव्य आठ से अधिक तथा तीन से अधिक और कम सर्गो अथवा अध्यायों में विभक्त होता है क्रमशः महाकाव्य तथा खंण्डकाव्य तथा एकार्थक-काव्य कहलाता हैं।तीनों काव्य की कथा पौराणिक या ऐतिहासिक तथा नायक-नायिका धीरोदत्त गुणों वाला प्रांसगिक होना चाहिए।श्रृंगार,वीर तथा शांत रसों में एक की प्रधानता तथा शेष रस गौण होते हैं। कलात्मक बिम्ब,तत्सम् शब्दों से युक्त सरल भाषा तथा काव्य का प्रारंभ मंगलाचरण से होना चाहिए।
मुक्तक काव्यः-        मुक्तक काव्य में पहले या बाद में प्रसंगों की जानकारी की अपेक्षा नहीं होती। स्वतंत्र रूप से रस-प्राप्ति संभव है। वैसे मुक्तक काव्य प्राचीन काल का गीति काव्य है और आधुनिक काल में कविता, लंबी कविता, अकविता आदि नामों से जाना जाता हैं। मुक्तक काव्य गेय और लय बद्ध भी होते हैं। मुक्तक काव्य श्रोता को मंत्र मुग्ध कर देता है जिसमें कल्पना की सीमित उड़ान होती है। प्रासंगिक विषयों पर  प्रायः मार्मिक भाषा-शैली में मुक्तक लिखे जाते हैं। मुक्तक काव्य अनुभूति और भाव-प्रवण अधिक होते हैं।
गीति काव्यः- माँ-दादी-नानी के मुँह से सुनी हुई लोरी, प्रसंगोंपयोगी लोक-गीत अथवा नृत्य के लिए रचे हुए गेय गीत गीति काव्य है। प्राचीन काल से ऐसे पदों की रचना होती आई है जिसमें सरलता,भावावेग,गेयता,रसानुभूति,संगीतमयता तथा संक्षिप्तता होती है।
2- गद्यः-साहित्य की सर्वाधिक  लोकप्रिय विधा गद्य है। संस्कृत आचार्यो का मानना है कि गद्यं कविनां निकषं वदन्ति अर्थात गद्य कवियों के लिए कसौटी है।गद्य विचार प्रधान लेखन है जिसमें मन की मुक्तावस्था का वाणी विधान प्रमुख होता है। जिसके विविधतम रूप हैं-नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, निबंध, रेखाचित्र, रिपोतार्ज, संस्मरण, आत्मकथा, जीवनी, साक्षात्कार, डायरी, पत्र-लेखन, शोधपत्र, आलेख, फिल्मी साहित्य, मीडिया और पत्रकारिता आदि प्रमुख है। इन में से सभी रचनात्मक नहीं हैं परन्तु माध्यम क्रांति के कारण इन विधाओं में रचनात्मकता आ सकती है। अख़बार में प्रकाशित होने वाला एक सामान्य समाचार दृश्य-श्राव्य के कारण रचनात्मक हो सकता है।
नाटकः- जीवन की समस्याओं को रंगमंच पर अभिनीत करने वाली विधा है तो जीवन के किसी एक घटना अथवा प्रसंग को  रंगमंच पर जब प्रस्तुत किया जाता है तब वह एकांकी कही जाती है। उपन्यास के बारे में प्रेमचंद कहते है-मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ।तो कहानी के बारे में कहते हैं-कहानी एक रचना है,जिसमें जीवन के लिए एक अंग या किसी एक मनोवेग को प्रदर्शित करना लेखक का उद्देश्य रहता है।निबंध में  अपने विचारों को गद्य-रूप में  लिपि बद्ध करना होता है। रेखाचित्र किसी व्यक्ति या वस्तु का  सूक्ष्म शब्द चित्र है। जीवनी किसी व्यक्ति के जीवन का लेखा-जोखा होता है तो आत्मकथा व्यक्ति के खुद के जीवन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। डायरी में लेखक अपने दैनिक जीवन की गतिविधियों को प्रस्तुत करता है।
पत्र-लेखनः- किसी महान व्यक्तियों का महानतम व्यक्तियों को लिखे पत्रों का संकलन है।
आलेख - तथ्यप्रधान तथा प्रामाणिक प्रस्तुति है जो किसी भी विषय को प्रस्तुत करती है।
फिल्मी साहित्य-फिल्म संबंधी साहित्यिक रूप को कहते हैं तो मीडिया और पत्रकारिता सूचना-क्रांति के वाहक रूप में देखा जाता है। इन्टरनेट, ब्लॉग, वेब पत्रिका तो टी.वी.चेनलों द्वारा प्रचारित साहित्य आदि मीडिया के अंतर्गत आते हैं। प्रिन्ट माडिया में-समाचार पत्र,पत्रिकाएँ तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इन्टरनेट, ब्लॉग, वेब पत्रिका, टी.वी.चेनल आदि समाविष्ट होते हैं। व्यंग्य-लेख और हास्य-लेख भी साहित्यिक विधा के रूप में आज अत्यन्त लोकप्रिय हो रहे हैं। दृश्य-श्राव्य माध्यम में तो जैसे इनकी बाढ़ आ गयी है। इनके भौंडेपन और स्तरहीनता को स्वीकारते हुए भी एक बात माननी पड़ेगी कि हास्य-व्यंग्य के कार्यक्रम अगर चल रहे हैं तो अपनी रचनात्मकता के कारण ही। इसके पूर्व हास्यव्यंग्य में इतनी भिन्नताएं देखने को नहीं मिलती थीं.
  इस प्रकार रचनात्मक लेखन साहित्य की विविध विधाओं एवं विभिन्न माध्यमों के कारण अधिक व्यापक और वैविध्यपूर्ण हो गया  है।