जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Friday, 4 March 2011

सोचिए, शामिल होइए और लिखिए

कोर्स 409 की कुछ समस्याएं आपको अब भी परेशान करती हैं। उदाहरण के लिए आपके मन में एक प्रश्न यह हो सकता है कि ओम्प्रकाश वाल्मिक की रचना जूठन तो आत्म कथा है, तो इसे उपन्यास के अन्तर्गत क्यों शामिल किया गया है? इसे उपन्यास की श्रेणी में क्यों गिने? कैसे गिना जा सकता है? क्या ऐसा करना योग्य होगा? कहीं यह गलत सूचना तो नहीं, कहीं यह भूल तो नहीं, जैसे काशीनाथ सिंह लिख दिया है दूधनाथ सिंह के स्थान पर? आपके साथ -साथ यह प्रश्न हमारे अध्यापक साथियों को भी हो सकता है। क्योंकि आज तक हम साहित्य के इतिहास का अध्ययन करते हुए ऐतिहासिक कृतियों तथा स्वरूपों को उनके सही और तय वर्गीकरण में देखने और समझने का आदी हैं। सब कुछ तय और निश्चित माना जाता रहा है, आधुनिक काल में। उपन्यास उपन्यास है, कहानी, कहानी। पर उत्तर आधुनिक काल में स्थिति बदल जाती है। आपने पाठ्यक्रम में इसका उल्लेख उत्तर आधुनिक वाले खंड में पाया होगा।
आपको मैंने वागर्थ ( फरवरी 2011) का वह अंक दिया था जिसमें शंभूनाथजी का लेख है। इस समय इतिहास स्वयं अपने उस प्रारूप से अलग हो रहा है जैसा रामचंद्र शुक्ल से चल कर बच्चन सिंह तक हम पढ़ते आए हैं। उत्तर आधुनिक काल में साहित्यिक स्वरूपों का गड्ड-मड्ड होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। विशेष रूप से इतिहास को नैरेटिव के रूप में पढ़ना,( सुमन राजे का आधा इतिहास इसका उदाहरण है) आत्मकथा को उपन्यास के रूप में तथा उपन्यास को आत्मकथा के रूप में पढ़ना..... और इसी तरह अन्य स्वरूपो को भी शामिल कर सकते हैं, उत्तर आधुनिकता का एक लक्षण है। जब यहाँ मैं लक्षण शब्द का प्रयोग कर कर रही हूँ, तो इसे काव्य-शास्त्रीय ढंग से न समझें। लक्षण से मेरा अर्थ पहचान है । अतः अगर आप इस तथ्य को इस तरह समझें कि आज उत्तर आधुनिक समय में आत्मकथाएं औपन्यासिक हो गई हैं- इस अर्थ में यह उपन्यास है। गांधीजी की आत्मकथा पढ़ते समय हमारा ध्यान सबसे पहले तथ्यों पर जाता है। उसका रचाव तथा रचनात्मक सौन्दर्य हमारा ध्यान नहीं खींचता।
साथियो तथा विद्यार्थियो, मैं चाहती हूँ कि मेरी बातों के अलावा आप इसमें कुछ जोड़ कर अपनी बात कहना चाहते हैं, तो अवश्य कह सकते हैं। ऐसे मानना चाहिए अथवा नहीं – यह अगर पका प्रश्न है , तो आप इस मुद्दे पर चर्चा करें। यह चर्चा बहुत महत्वपूर्ण होगी। इससे कोई न कोई हल निकलेगा। मैं तो चाहती हूँ कि आप तथा हमारे साथी अध्यापक जो केन्द्रों में बैठें हैं वे भी इस में शामिल हो कर अपना मत रखें। पर इसके पूर्व मैं आपसे निवेदन करूंगी कि शंभूनाथजी का लेख अवश्य पढें। आशा है इस संदर्भ में आपकी टिप्पणी अवश्य मिलेगी। इस संदर्भ में हिन्दी साहित्य के इतिहास तथा कहानी एवं उपन्यास में विशेषज्ञता रखने वाले हमारे युनिवर्सिटी भाषा भवन तथा केन्द्रों में अध्यापन करने वाले साथियों से भी चर्चा विचारणा कर सकते हैं- जैसे डॉ आलोक गुप्त, डॉ रेखा शर्मा, डॉ. श्रीराम त्रिपाठी एवं डॉ. बिन्दु भट्ट।
मेरा विश्वास है कि इस तरह ही हम अपने विषय में अधिक बेहतर हो सकेंगे।