नई ज़मीन पर खड़े नए मिथक
"आधुनिकता जहाँ कला
आंदोलनों की उर्वरा भूमि रही है, वहाँ उत्तर आधुनिक समय में साहित्य, तमाम ज्ञान
के क्षेत्र एवं विषयों से घिरा, प्रमुख रूप से अन्तर्विद्याकीय प्रकृति का रहा है।
मिथक आधुनिकता एवं उत्तर-आधुनिकता के बीच इस तरह अवस्थित है कि उसके पाँव आधुनिकता
की ज़मीन पर पंजों के बल पर टिके हैं और नज़र भविष्य पर स्थित है। इस उत्तर-आधुनिकता
के दौर में मिथक का यही महत्व है कि वह स्त्री मिथकों के नए संदर्भों को उजागर
करता है। साथ ही एक प्रश्न भी खड़ा करता
है कि अगर मिथक का संबंध कहीं- न- कहीं हमारी पहचान से जुड़ा है, तो दलित,
आदिवासियों के मिथक की खोज इस समय का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए; क्यों कि
मिथक के मूल में जो कुछ भी है- धर्म, अनुष्ठान, अतिकल्पना- वह सब कुछ दलित जीवन
में भी होना चाहिए। आदिवासी जीवन की तो भूमि ही प्रकृति है अतः ऋतु-चक्र, ऊषा-
रात्रि, जन्म-मरण के अनुष्ठान वहाँ भी मौजूद हैं।
इसे रेखांकित
कर के पढ़ा जाए कि राजनीतिक आधार विमर्शों को अस्थायी आधार दे सकते हैं, परन्तु
मिथक क्योंकि सामूहिक आकांक्षाओं को रूप देते हैं अतः विमर्शों को एक स्थायी पहचान
दे सकते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक संदर्भ (अधिकार) अथवा दबाव
अथवा समय की माँग से उपजा दलित एवं नारी साहित्य अथवा अन्य प्रकार के हाशिए के साहित्य
के अस्तित्व के लिए जितने राजनीतिक आधार कालजयी नहीं साबित होंगे, उतने मिथकीय आधार दीर्घजीवी साबित होंगे।"
12-13 जनवरी 2013 को म.स. विश्वविद्यालय, बरोडा में आयोजित –महाभारत में
मिथक नामक राष्ट्रीय संगोष्ठी में
-मिथक की पुनःसर्जना का मनोविज्ञान विषय पर अपने आलेख में मैंने
उपरोक्त विधान किया था। उस समय मैं इस बात से अनभिज्ञ थी कि जे.एन.यू में महिषासुर
शहादत दिवस मनाया जा चुका है।
दिनांक 14/10/2013 के इंडियन एक्सप्रेस की विशेष वार्ता पढ़कर मुझे अपने पूर्वोक्त
कथन का स्मरण हो आया। अपनी कम-जानकारी को तो सबसे पहले मैं स्वीकार कर ही लेती हूँ
परन्तु इंडियन एक्सप्रेस की इस वार्ता ने मुझे कई तरह से सोचने पर विवश कर दिया।
यह मुद्दा अत्यन्त संवेदनशील है, इस अर्थ
में कि आज की ज्वलनशील विचारधारात्मक एवं राजनैतिक अनिश्तितता वाली स्थिति में, इस
संदर्भ में कुछ भी कहने पर अथवा पक्ष लेने पर, किसी भी प्रकार की ग़लतफहमी देखते
ही देखते निर्मित हो सकती है। इस संदर्भ में मुझे एक युवा चिंतक ने चेताया भी है।
लेकिन मैं सोचती हूँ कि अगर कहने और न कहने के बीच की कोई भाषा हो ,तो उसके जरिए मैं अवश्य ही अपनी बात आप तक पहुँचाऊंगी।
महिषासुर के मिथक ने मुझे सोचने पर बाध्य किया । ऋषि मुनियों को तप के पथ से
विचलित करने के लिए स्त्रियों को भेजना- इन्द्रपुरी की परंपरा रही है। वहाँ मुद्दा
इंद्र की सत्ता का रहा है। ऐसे में अगर
आदिवासी समाज ऐसा मानता है कि छल से दुर्गा को भेजा गया था[1], तो यह
असंभव अथवा अतार्किक तो नहीं लगता। सामाजिक स्थलों पर स्त्रियों के अपमान के
व्यापक प्रसंग तो अपने महाकाव्यों में
हमें मिल जाते हैं। द्रौपदी का ही मुख्य प्रसंग ले सकते है। उसी तरह अत्यन्त सलीके
से अविश्वास करने वाला और यूँ, एक तरह से अपमानित करने का प्रसंग सीता के
अग्निप्रवेश का है। छल –छद्म से पत्नी का
त्याग (सीता) अथवा ग्रहण( पाणिग्रहण-गांधारी) भी हमारे महानायकों/ नायकों के जीवन का एक अंश है । इसके बहुत अलग उदाहरण
हमें उस संस्कृति में मिलते हैं जिनमें हम राक्षस अथवा असुर को शामिल करते हैं। अपहरण
करने के बावजूद मर्ज़ी के विरुद्ध सीता को रावण ने कामना की दृष्टि अथवा वृत्ति से
स्पर्श भी नहीं किया था- (अपहरण के दौरान जो स्पर्श हुआ हो, उसके अलावा) ऐसी
परंपरा आदिवासी जीवन में भी नहीं मिलती। अतः इस बात पर भरोसा करने का मन हो आता है
कि महिषासुर दुर्गा के धोखे में आ गया होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि राज्यों,
राष्ट्रों अथवा साम्राज्यों में वर्चस्व की राजनीति प्रायः पराजित का चरित्र संदेह के दायरे में
रखती है, अथवा, उसमें चरित्र नाम के किसी पदार्थ का कोई अस्तित्व ही स्वीकार
नहीं करती। फिर असत्य पर सत्य की विजय का सूत्र हमारी चेतना में शताब्दियों से
इस तरह अंकित हो गया है अपने वीर नायकों तथा उनसे भिड़ने वाले खलनायकों के संदर्भ
में, भाषा के स्तर पर भी महिषासुर और
शहादत को पास-पास रखने के विषय में सोच भी नहीं सकते। युद्धभूमि में राम और रावण
दोनों समान शक्ति से लड़ रहे हैं, पर कवि के लिए राम पृष्वी पर नवनीत चरण
धर रहे हैं और रावण पृथ्वी को टलमल किए दे रहे हैं ; अथवा राम की आँखें
रक्त-कमल के समान हैं और रावण की आग से समान.....इसे पढ़ कर हमारे भीतर का
राष्ट्रीय मन कितना तो फूल कर कुप्पा हो जाता है। निराला कवि हैं अतः उन्होंने अपनी
बात को काव्य के शोभापरक अंगों से इस तरह प्रस्तुत किया है कि वही हमारे लिए अटूट सत्य हो जाता है। राष्ट्रीय
चरित्र का यह रूप, जन-सामान्य की चेतना,
मन और समझ में इसी तरह निर्मित किए जाते
हैं कि हमें वे सत्य का आभास दें।
किन्तु महिषासुर का यह कथानक हमारे परंपरागत नायकत्व के विरुद्ध एक संदेह
निर्मित करने का उपक्रम करता है। इस उत्तर-आधुनिक समय में एक तरफ अस्मिता का
प्रश्न है तो दूसरी तरफ बहु-संस्कृति का भी प्रश्न है। मल्टी –कल्चरिज़्म की
दृष्टि से यह उन अन्याय पूर्ण घटनाओं के उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है जहाँ
सांस्कृतिक उच्चावचता एक सामन्य बात थी। अर्थात अगर मल्टी-कल्चरिज़्म एक
न्याय-पूर्ण एवं लोकतांत्रिक तथा अधिकार प्रदान करने वाली एक संकल्पना है, तो, महिषासुर
का प्रसंग उस पर एक प्रश्नार्थ खड़ा करता है। दूसरे, इस प्रकार के विवेचन ने ट्राइबल आइडेंटिटि के प्रश्न को
मिथकीय स्तर पर स्थापित कर दिया है। इसे हम वंशीय उच्चावचता ( रेशियल हाइरार्की)
की दृष्टि से भी देख सकते हैं। श्रीलंका
में होती रावण –पूजा, अपने देश में [2], हमारे लिए चाहे कोई ख़ास अहमियत न हो उसकी; क्योंकि दोनों देश और उनकी संस्कृति भिन्न है;
लेकिन बात जब एक ही देश के, जनजातीय और सवर्ण के बीच संघर्ष की हो जाती है, तब वह
ठीक वैसी नहीं रहती। याद रखिए , अभी हमने स तरह पूरे प्रसंग को देखा नहीं है अथवा
अगर कहा है, तो वह इस रूप में नहीं।
इसी बात को एक
अलग ही भूमिका पर रख कर देखा जा सकता है। मल्टी-कल्चरिज़्म की संकल्पना
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में ही संभव हो सकी [3] है। भारत
जैसे एक लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक रूप से प्राप्त समानाधिकार, आज़ादी के इतने वर्षों बाद अगर इस प्रकार का
परिणाम लाते हैं, ला सकते हैं, तो इसे सही अर्थों में हमारी लोकतांत्रिक
शासन-प्रणाली की विजय मानी जानी चाहिए। निश्चय ही यह माना जा सकता है कि इससे
लोकतांत्रिक व्यवस्था से शासित होने वाले देश के भविष्य अथवा वतर्मान की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था
धीरे-धीरे अपना आकार ग्रहण कर रही है। चूँकि हम एक राष्ट्र के रूप में लोकतांत्रिक
शासन प्रणाली द्वारा शासित होते हैं अतः संविधान के अनुसार चलना ही हमारे समय की
राष्ट्रीयता कही जा सकती है। इसे मिथकीय
चिंतन का उत्तर-आधुनिक विकास भी कहा जा सकता है।
एक विशिष्ट चिंतन –दृष्टि के रूप में मिथकीय चेतना एवं चिंतन आधुनिक काल से
आरंभ होता है।[4]
आधुनिक काल में मिथक की पुनर्व्याख्या को व्यक्तिगत विकास और सत्ता के असहयोग अथवा
समझौते के रूप में देखा जा सकता है (एकलव्य, शंबूक, कर्ण ) । अथवा उनके सत्ता के
प्रति समर्पण के रूप में भी देखा जा सकता है, उदाहरण के लिए
शबरी , अहिल्या और संपाति । इस उत्तर-आधुनिक विमर्श में मिथक का अध्ययन एक ही जातिगत अस्मिता के
परिप्रेक्ष्य में मिथकों का अध्ययन एवं
विश्लेषण केअर्थ में किया जा सकता
है । विचारधारा की दृष्टि से मिथक को देखना आधुनिक परिप्रेक्ष्य है,
किन्तु अस्मिता के निदर्शन एवं संकट के
रूप में मिथक को देखना उत्तर-आधुनिक विमर्श हो सकता है ; जो मिथकीय चरित्र आधुनिक काल में
भी मुख्यधारा चिंतन में घुल नहीं सके , वे
ही संभवतः उत्तर-आधुनिक विमर्श में अपनी पहचान स्थापित कर सकेंगे। आश्चर्यजनक रूप
से मैथिलीशरण गुप्त की शूर्पणखा , जो बाद में नरेन्द्र कोहली में विकसित होती है,
इस उत्तर-आधुनिक विमर्श के बीज अपने में लिए हुए है। इसालिए जनजातीय रामायणों एवं
महाभारत की कथाओं को पुनः इस दृष्टि से पड़तालने की आवश्यकता है। हमारे अपने समय
में संजीव के उपन्यासों का अध्ययन इस दृष्टि से महत्वपूर्ण होगा। इस संदर्भ में
महुआ मांझी के एकाध उपन्यास भी देखा जा सकता है।
रंजना अरगडे
[1] इस संदर्भ में जो कथा अख़बार में कही गयी थी वह यह है कि – महिषासुर एक
अत्यन्त वीर एवं साहसी जनजातीय राजा था। आर्यों ने अपने आक्रमण के दौरान उस पर
विजय प्राप्त करने हेतु दुर्गा नामक स्त्री को छल से भेजा था। महिषासुर चूँकि एक न्यायप्रिय जनजातीय
राजा था और क्योंकि वे स्त्रियों और बच्चों पर हाथ नहीं उठाते थे, अतः इस बात का
लाभ उठाते हुए आर्यों ने छल से दुर्गा को भेजा था
और उसको मारा था।
[2] हमारे देश में
तमिलनाडु , केरल, प.बंगाल में रावण की पूजा होती है- प्रो. कृष्णा, हैद्राबाद
[3] यहाँ पर इस बात को भी समझा जा सकता है कि भारत
में अनेक संस्कृतियों की उपस्थिति एक विशिष्ट प्रकार की भारतीयता को जन्म देती है, क्योंकि तब लोकतांत्रिक
शासन प्रणाली नहीं थी। स्वतंत्रता के बाद संविधान के निर्माण के बाद संवैधानिक
अधिकार उसी भारतीयता की संकल्पना को सदृढ करते हैं। अतः भारतीय संस्कृति में आने
वाले संदर्भ में संस्कृति (कल्चर) और आज जिस बहु-संस्कृति में संस्कृति की बात की जा रही है, वह संस्कृति
भिन्न है।