जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Thursday, 4 August 2011

Course HIN 506S


उपरोक्त कोर्स में यूनिट क्रमांक-5 में आपको बिम्ब अथवा अलंकार प्रधान रचना की समीक्षा करनी है। आपने अब तक कोई न कोई कविता तो ढूँढ ही ली होगी। आपको सबसे पहले कविता के उन अंशों को रेखांकित करना है जो चित्रात्मक रूप में सौन्दर्य प्रधान हों। यानी आप जब इस प्रक्रिया में उतरेंगे तो बिम्बों, अलंकारों एवं प्रतीकों से साक्षात्कार करेंगे। अब आपको यह पता करना है कि आपने जो ढूँढा वह बिम्ब है , प्रतीक है अथवा अलंकार। अगर वह सौन्दर्यप्रद चित्र उपमान एवं उपमेय को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से भी प्रकट करता है तब तो वह अलंकार है। जैसे नील परिधान बीच सुकुमार खिल रहा मृदुल अधखुला अंग/ खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघवन बीच गुलाबी रंग। एक तो ज्यों के कारण और दूसरे नील परिधान पहने श्रद्धा की वर्णन है- तो मेधों का वन=नील परिधान, गुलाबी रंग का बिजली का फूल=श्रद्धा की दिपदिपाती खिली खिली गुलाबी त्वचा । श्रद्धा उपमेय है तो वह जैसी लगती है वह वर्णन उपमान है। अब इसके सौन्दर्य को आप और बारीकी से विश्लेषित कर सकते हैं। उसी तरह एक पीली शाम कविता में आप देखिए तुम्हारा मुख-कमल कृश म्लान हारा –सा ( कि मैं हूँ वह मौन दर्पण में तुम्हारे कहीं) मुख-कमल में तो स्पष्ट रूपक अलंकार है ही। पर कि मैं हूँ वह मौन दर्पण में तुम्हारे कहीं... में अपन्हुति अलंकार भी है। अथवा विजन-वन वल्लरी पर सोती थी सुहाग भरी / स्नेह स्वप्न मग्न ... पढ़ते ही हमें मानवीकरण अलंकार की प्रतीति होती है क्योंकि उस पूरी कविता में जूही की कली को एक युवती के रूप में बताया गया है। श्रद्धा के वर्णन में प्रयुक्त अलंकार तथा जूही की कली के मानवीकरण को पढ़ते हुए उनका चित्र तो हमारे सामने आता ही है परन्तु सौन्दर्य का बोध हमें अलंकारों के माध्यम से होता है। हमारा ध्यान उपमानों तथा उपमेयों की तरफ़ जाता है। जबकि दिवस का अवसान समीप था गगन था कुछ लोहित हो चला/ तरु शिखा पर थी अब राजति/ कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा – में शाम का सुंदर चित्र अंकित है। इसमें उपमान-उपमेय का कोई मुद्दा नहीं है। इसी तरह की और भी कई कविताएं हैं जहाँ विशुद्ध प्रकृति वर्णन है। ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।
परन्तु जब आप ऊषा जैसी कविताओं से साक्षात्कार करते हैं, तो सौन्दर्य बोध का अनुभव अलग होता है। यह कविता आपने पिछले सेमिस्टर में पढ़ी है। प्रता नभ था। पहला वाक्य एक स्टेटमैंट हैं। फिर बहुत नीला शंख जैसे भोर का नभ। यह बात ऊषा के वर्णन के अन्तर्गत है। भोर का नभ नीले शंख के समान है। आप कहेंगे कि यह भी तो उपमान और उपमेय ही है। नीला शंख उपमान और भोर का नभ उपमेय है। बिल्कुल सही । उसके बाद राख से लीपा हुआ चौका(अभी गीला पड़ा है) / बहुत काली सिल ज़रा-से लाल केसर से कि जैसे धुल गयी हो/ स्लेट पर या लाल खडिया चाक मल दी हो किसी ने/ नील जल में या किसी की गौर झिलमिल देह जैसे हिल रही हो.....तक आते-आते तो हम भूल जाते हैं कि यह भोर के नभ की बात है। एक के बाद एक आते चित्र हमारी इंद्रियों से सौन्दर्य की अनुभूति करते हुए हमें प्रभावित करते हुए, हम पर जादू डालते हैं। आप कहेंगे कि यह तो कवि का मायाजाल है ( हमारी रोज़-बरोज़ की भाषा में इसे हम चीटिंग भी कहेंगे) पर फिर कवि स्वयं इस ऊषा का जादू तोड़ते हुए कहते हैं कि सूर्योदय हो रहा है। इस कविता में सौन्दर्यबोध के लिए उपमान उपमेय से अधिक इंद्रीयगत संवेदना प्रमुख हो जाती है। जब कभी सौन्दर्य की अनुभूति उपमान-उपमेय का संबल छोड़ कर अपने आप बिम्बित होते हुए इन्द्रियानुभूत होती है, तब वह बिम्ब का स्वरूप धारण करता है। कई बार कविता बिना किसी उपमान उपमेय से अथवा वर्णन से इस तरह शुरु होती है
एक नीला दरिया बरस रहा है और बहुत चौड़ी हवाएं हैं.....इस पंक्ति को पढ़ते ही हमारी समझ में आता है कि अब न तो अलंकार , न प्रतीक न चित्र.. कुछ भी तो सौन्दर्य की प्रतीति नहीं करा रहे। दिवस का अवसान समीप था / गगन था कुछ लोहित हो चला में शुद्ध चित्रात्मकता है। दिवसावसान का समय/मेघमय आसमान से उतर रही वह संध्या सुंदरी परी-सी में मानवीकरण है पर यहाँ नीले दरिये के बरसने और हवाओं के चौड़े होने को आपको अपनी इंद्रियों से महसूस करना पड़ता है। आप एक सुंदर-सी काव्यात्मक अनुभूति से जकड़ लिए जाते हैं जो आगे की पंक्तियों में आपको और अधिक आकर्षक उलझाव में डालती हैं जब कवि कहता है- मक़ानात हैं मैदान/ किस तरह उबड़-खाबड. । हवा तो त्वचा पर महसूस होती है जिसे कवि आँखों से दिखाना चाहता है जैसे अपनी ही एक और कविता में कवि कहता है- हवा –सी पतली ...कि आर-पार देख लो...। कवि इंद्रिय व्यत्यय द्वारा चित्र खड़ा करता है। मैदान आँखों से दिखते हैं जिसे कवि त्वचा से – स्पर्श से महसूस करवा रहे हैं ........ ऊबड़-खाबड़।
बिम्ब इसी तरह अलंकारों वर्णनों तथा प्रतीकों से अलग होते हैं।
आप भी कुछ कविताओं के माध्यम से देखें कि आपको यह कितना समझ में आ सका।

Wednesday, 3 August 2011

दलित लेखन- चर्चा

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ओम्प्रकाश वाल्मिकी की रचना जूठन हमारे पाठ्यक्रम में है। सेमिस्टर दो में उसे हमने उसके बारे में इतिहास वाले कोर्स के अन्तर्गत पढ़ा था। तब एक विवाद भी जगा था कि जूठन तो आत्मकथा है फिर उसे उपन्यास क्यों कहा गया। उसके संबंध में एक पोस्ट मैंने लिखी थी। उसमें मैंने विचारों को आमंत्रित किया था परन्तु किसी ने अपने विचारों को विनिमय के लिए प्रस्तुत नहीं किया था। ज़ाहिर है कि इस वर्ष जिन केन्द्रों मंव दलित लेखन विकल्प के रूप में चुना गया है वहाँ यह बात फिर उठेगी ही। अर्थात् एक वर्ष किसी कृति को हम उपन्यास की केटेगरी में पढें और दूसरे वर्ष उसे हम एक आत्मकथा के रूप में पढें। अतः इस संबंध में कुछ कहना मुझे ज़रूरी लगता है।
इस दौर में सहित्यिक विधाओं का परस्पर गड्ड मड्ड हो जाना साहित्यिक परिदृश्य का एक लक्षण भी है। जब हम किसी कृति को उपन्यास के रूप में पहचानते हैं तब हमारी दृष्टि तथा जब उसे अन्य स्वरूप में पहचानते हैं तो हमारी दृष्टि भिन्न प्रकार की होती है। कृति को उसके लक्षणों से ही पहचाना जाता है। लेकिन जब लक्षणों में उतनी चुस्ती नही रह गयी है तब इस प्रकार के प्रश्न उठते हैं।
अगर हम सीध-सीधे मुख्य मुद्दे पर आएं तो –
1- जूठन को उपन्यास कहने से लेखक के द्वारा वर्णित पीड़ाएं वास्तविक होते हुए भी सृजित की कैटेगरी में आ सकती हैं। अतः लेखक द्वारा सवर्ण समाज के अत्याचारों तथा उसके परिणामस्वरूप दलित समाज द्वारा भोगी गयी यातनाएं वह चुभन या मार नहीं देती जो दलित साहित्य द्वारा अपेक्षित है। सवर्ण पाठक उसे पढ़ कर अपने आप को दोषी मानने की ज़लालत से बचा सकता है। उसके मन में करुणा आदि भाव उठेंगे , सहानुभूति भी जगेगी, वैसी ही जैसी अ-दलित रचनाकारों की दलित चरित्रों संबंधी रचनाओं के द्वारा जागती है। पाठक अपने को उस व्यवस्था का अंग तथा अंश न मानने के लिए स्वतंत्र हो जाता है जो दलितों के अत्याचार के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया है। तब आत्मकथा का लेखक कृति का नायक बन जाता है। और नायक तो जगदीशचंद्र के उपन्यास धरती धन न अपना का भी था, जिसे हमने पूरी संवेदना के साथ पढ़ा था किन्तु हमने कहीं भी अपने आप को अत्याचारियों का वंशज नहीं माना था।
2- जूठन को आत्मकथा कह देने पर बात बदल जाती है। एक अदृश्य उँगली हमारी ओर भी उठी रहती है जो हमें चैन से जीने नहीं देती। हम व्यक्ति के रूप में चाहे ज़िम्मेदार न हों परन्तु अत्याचारी(?)समाज के एक भाग के रूप में हम अपने को भी दोषी समझने लगते हैं। दलित साहित्य का यही आशय भी है। अगर वह एक ओर दलित समाज में संघर्ष का माद्दा तथा अपने प्रति सदियों से हुए अत्याचारों के प्रति जागृति पैदा करना चाहता है तो दूसरी ओर सवर्ण समाज को भी कहीं न कहीं यह महसूस कराना चाहते हैं कि उनकी बदहाली के लिए वे भी ज़िम्मेदार हैं। भारतीय समाज का जो ढाँचा है उसे चाहे किसी क. ख. ग. ने नहीं बनाया, परन्तु जो भी कोई उस वर्ग से संबंधित है, वह इसीलिए ज़िम्मेदार है क्योंकि वह उस वर्ग का है। हमारी उस कहानी की तरह कि 'तूने नहीं तो तेरे पुरखों ने इस पानी को जूठा किया होगा'। दलित विमर्श में कहानी का शेर दलित है जबकि जीवन की मुख्यधारा में वह अपने को मेमना पाता है। सारा संघर्ष इस बात का ही है कि जीवन की मुख्यधारा में ही शेर बनना है।
इस पोस्ट में इतना ही। आगे भी हम दलित विमर्श तथा जूठन से जुडी बातों की चर्चा करेंगे। मुख्यतः इसके सौन्दर्यशास्त्र से संबंधित।