जिन खोजा तिन पाइयां

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Wednesday, 3 August 2011

दलित लेखन- चर्चा

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ओम्प्रकाश वाल्मिकी की रचना जूठन हमारे पाठ्यक्रम में है। सेमिस्टर दो में उसे हमने उसके बारे में इतिहास वाले कोर्स के अन्तर्गत पढ़ा था। तब एक विवाद भी जगा था कि जूठन तो आत्मकथा है फिर उसे उपन्यास क्यों कहा गया। उसके संबंध में एक पोस्ट मैंने लिखी थी। उसमें मैंने विचारों को आमंत्रित किया था परन्तु किसी ने अपने विचारों को विनिमय के लिए प्रस्तुत नहीं किया था। ज़ाहिर है कि इस वर्ष जिन केन्द्रों मंव दलित लेखन विकल्प के रूप में चुना गया है वहाँ यह बात फिर उठेगी ही। अर्थात् एक वर्ष किसी कृति को हम उपन्यास की केटेगरी में पढें और दूसरे वर्ष उसे हम एक आत्मकथा के रूप में पढें। अतः इस संबंध में कुछ कहना मुझे ज़रूरी लगता है।
इस दौर में सहित्यिक विधाओं का परस्पर गड्ड मड्ड हो जाना साहित्यिक परिदृश्य का एक लक्षण भी है। जब हम किसी कृति को उपन्यास के रूप में पहचानते हैं तब हमारी दृष्टि तथा जब उसे अन्य स्वरूप में पहचानते हैं तो हमारी दृष्टि भिन्न प्रकार की होती है। कृति को उसके लक्षणों से ही पहचाना जाता है। लेकिन जब लक्षणों में उतनी चुस्ती नही रह गयी है तब इस प्रकार के प्रश्न उठते हैं।
अगर हम सीध-सीधे मुख्य मुद्दे पर आएं तो –
1- जूठन को उपन्यास कहने से लेखक के द्वारा वर्णित पीड़ाएं वास्तविक होते हुए भी सृजित की कैटेगरी में आ सकती हैं। अतः लेखक द्वारा सवर्ण समाज के अत्याचारों तथा उसके परिणामस्वरूप दलित समाज द्वारा भोगी गयी यातनाएं वह चुभन या मार नहीं देती जो दलित साहित्य द्वारा अपेक्षित है। सवर्ण पाठक उसे पढ़ कर अपने आप को दोषी मानने की ज़लालत से बचा सकता है। उसके मन में करुणा आदि भाव उठेंगे , सहानुभूति भी जगेगी, वैसी ही जैसी अ-दलित रचनाकारों की दलित चरित्रों संबंधी रचनाओं के द्वारा जागती है। पाठक अपने को उस व्यवस्था का अंग तथा अंश न मानने के लिए स्वतंत्र हो जाता है जो दलितों के अत्याचार के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया है। तब आत्मकथा का लेखक कृति का नायक बन जाता है। और नायक तो जगदीशचंद्र के उपन्यास धरती धन न अपना का भी था, जिसे हमने पूरी संवेदना के साथ पढ़ा था किन्तु हमने कहीं भी अपने आप को अत्याचारियों का वंशज नहीं माना था।
2- जूठन को आत्मकथा कह देने पर बात बदल जाती है। एक अदृश्य उँगली हमारी ओर भी उठी रहती है जो हमें चैन से जीने नहीं देती। हम व्यक्ति के रूप में चाहे ज़िम्मेदार न हों परन्तु अत्याचारी(?)समाज के एक भाग के रूप में हम अपने को भी दोषी समझने लगते हैं। दलित साहित्य का यही आशय भी है। अगर वह एक ओर दलित समाज में संघर्ष का माद्दा तथा अपने प्रति सदियों से हुए अत्याचारों के प्रति जागृति पैदा करना चाहता है तो दूसरी ओर सवर्ण समाज को भी कहीं न कहीं यह महसूस कराना चाहते हैं कि उनकी बदहाली के लिए वे भी ज़िम्मेदार हैं। भारतीय समाज का जो ढाँचा है उसे चाहे किसी क. ख. ग. ने नहीं बनाया, परन्तु जो भी कोई उस वर्ग से संबंधित है, वह इसीलिए ज़िम्मेदार है क्योंकि वह उस वर्ग का है। हमारी उस कहानी की तरह कि 'तूने नहीं तो तेरे पुरखों ने इस पानी को जूठा किया होगा'। दलित विमर्श में कहानी का शेर दलित है जबकि जीवन की मुख्यधारा में वह अपने को मेमना पाता है। सारा संघर्ष इस बात का ही है कि जीवन की मुख्यधारा में ही शेर बनना है।
इस पोस्ट में इतना ही। आगे भी हम दलित विमर्श तथा जूठन से जुडी बातों की चर्चा करेंगे। मुख्यतः इसके सौन्दर्यशास्त्र से संबंधित।

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