इस ब्लॉग पर विद्यार्थियों के साथ संवाद होगा। हिन्दी साहित्य से जुड़े अभ्यासक्रमों में जो कुछ वर्ग में अध्यापन के दौरान अनकहा, अनसमझा रह जाएगा उस पर बातचीत होगी। कुछ अतिरिक्त जानकारी भी।
जिन खोजा तिन पाइयां
इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।
Saturday, 2 July 2011
विज्ञापन उद्योग में साहित्य का विनियोग
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आप कल्पना कीजिए एक ऐसे समूह की, जिसमें कई तरह के लोग बैठे हैं। विभिन्न धर्म, जाति वर्ग के इस समूह में एक रोबो भी है - दिखता तो वह मनुष्य की तरह ही है, पर है तो वह मानवेतर -इतर-मानव। अगर हम जाति प्रथा में मानते हैं या पुरुष वर्चस्व वाली मानसिकता हमारी है, तो स्त्रियों एवं वर्णेतर समूह के प्रति हम कुछ संकोचशील एवं खिंचे-खिंचे रहेंगे। पर उस रोबो के प्रति हमारी वैसी मानसिकता नही होगी। केवल एक कुतुहल – सा , पर, फिर 'वह है तो मनुष्य-इतर', यह सोचकर हमारे लिए वह कोई खास महत्व का कभी नहीं होगा। परिधि पर का साहित्य( विशेष रूप से -दलित, नारी) अब भी कई लोगों के लिए वैसा ही है (अछूत-सा),पर प्रयोजन-मूलक तो उस रोबो की तरह है जो कुतूहल तो पैदा करता है परन्तु उपेक्षा जितना भी महत्वपूर्ण हमें कभी नहीं लगता। जहाँ तक कार्यालय से जुड़े प्रयोजनमूलक का संबंध है , तो हमें वह कभी भी अवरोध-रूप नहीं लगता । अर्थात् हमें उससे कोई ख़ास लेना-देना नहीं होता। पत्रकारिता ठीक है , कई बार हमें काम आती है और विज्ञापन से तो हमारा कोई लेना- देना ही नहीं होता। वही रिश्ता,अर्थात् कौतूहल अथवा मतलब का, किसी भी ग्राहक का एक उत्पाद से होता है। लेकिन हमारे कान तब खड़े हो जाते हैं जब हम साहित्यिक कृतियों के विज्ञापन में रूपांतरण करने की बात करते हैं। हमें अचानक लगने लगता है कि यह तो ज्यादती है। और लगना भी चाहिए। जो सुन्दर छवियां हमारे मन में कविताओं आदि की छप चुकी हैं उन्हें बाज़ार में लाते हुए हमारी सौन्दर्य-धर्मी ( जिसे ज़रूरत पड़ने पर हम मूल्य-धर्मी भी कहते हैं) रूह काँप जाती है।
साहित्य क्या है- इस परम्परागत प्रश्न का उत्तर देते हुए हम अपनी बात को शुरु करते हैं। उसके अनेकविध जवाब ढेरों पन्नों में छप चुके हैं, जिन्हें आप फुर्सत से पढ़ सकते हैं। उन तमाम परिभाषाओं के साथ, साहित्य आखिरकार तो एक कंटेंट है जिसे कवि-लेखक अपने बिम्बों , प्रतीकों, विचारों अलंकारों के माध्यम से एक स्वरूप देता है। उसे साहित्य बनाता है। यानि, हर साहित्यिक कृति को अगर रिड्यूस करें तो उसकी सबसे छोटी इकाई उसकी संकल्पना है। जब हम कहते हैं दाने आए घर के अंदर – तो इसका अर्थ हम रोटी ही लेते हैं, या फिर दाने लाने वाले मज़दूर -लक्षणा शक्ति के बल पर। और भूख का निदान, भरापन और समृद्धि क्रमशः अर्थ लेते हैं व्यंजना शक्ति के बल पर। मूल बात कंटेंट की है। साहित्य में जो सामग्री है उसमें विचार निहित होते हैं। असल में सबसे मूल्यवान तो विचार ही होते हैं। यही विचार, साहित्य,
विज्ञान, समाज-शास्त्र सभी प्रकार के ज्ञान का निर्माण करते हैं और इन्हीं को साहित्य में से परख कर/ढूँढ कर हम विज्ञापन का निर्माण कर सकते हैं। उदाहरण के लिए यह विज्ञापन देखिए-
अब इस विज्ञापन को देख कर आपको कुछ परिचित –परिचित-सा लगा। हाँ, आपने कली और अलि पढ़ कर बिहारी को याद किया होगा। जी हाँ, नहिं पराग नहिं मधुर मधु वाला ही यह दोहा है। लेकिन साहित्य के अध्येताओं को इतनी सरलता से यह बात गले नहीं उतरेगी। यह बात बड़ी बेतुकी और विचित्र भी लग सकती है। इसे हम अपनी परंपरागत साहित्यिक दृष्टि पर आक्रमण ही समझेंगे। हम अब तक इस दोहे के साथ जिस सौन्दर्य दृष्टि को जोड़ते आए हैं, वह जैसे एकाएक कहीं ग़ायब हो जाती है। लेकिन अगर आप सोचेंगे तो इस दोहे के अब तक हुए अर्थ हमारी ज्ञान-संपदा का हिस्सा तो बन ही चुके हैं। इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। वह तो यथावत् है ही। इसमें कोई परिवर्तन तो नहीं होगा। जितनी सूक्ष्मता से हमारे इन कवियों का विश्लेषण हुआ है वह तो हमारे पास सुरक्षित है ही। उसे कोई बदल तो नहीं सकता। पुराने साहित्य को हम नए विमर्शों की दृष्टि से भी देखते-परखते हैं। उससे पुराने विश्लेषण पर कोई खतरा तो नहीं आ जाता। सवाल यह है कि यह हमारी एक पूँजी है जिसे हम अपने लिए नई दृष्टि से उपयोग मे ला सकते हैं। वेदादि तथा पुराणों को हमने भक्ति विमर्श में इस्तेमाल किया फिर उसी को हमने श्रृंगार-चित्रण तथा सत्ता की तरफ़दारी में प्रयुक्त किया। सामग्री वही है पर उसका उपयोग युगानुरूप अलग-अलग ढंग से करते रहे हैं।
इसी तरह एक और प्रसिद्ध दोहा लीजिए- कहत, नटत, रीझत खीजत...... इस दोहे को याद कर के हम सभी का दिल बाग़-बाग़ हो जाता है। इस के मूल विचार तक इसे जब हम रिड्यूस करते हैं , तो हमारी समझ में आ जाता है कि –Privacy in public place. भीड़ के स्थानों पर हमें अपने प्रियजन से संवाद करना है। इसका विस्तार करें तो भीड़ में खोए हुए लोगों को एक दूसरे को खोजना है। आपको यह बताना है कि अब कुंभ के मेले में कोई भाई अपने भाई से जुदा नहीं होगा। यानी कि कहत नटत .... एक मोबाईल का विज्ञापन बन सकता है। आप इसमें समाज के कई अन्य चित्र और संदर्भ जोडते चले जाएं। एक पूरी सीरीज़ बन सकती है विज्ञापन की।
हम सब कहीं-न-कहीं इस बात को समझते हैं कि अब हमारे पाठ्यक्रमों में मध्यकाल को पढ़ने-पढ़ाने वालों की संख्या भी कम होती जा रही है। उसकी उपयोगिता पर भी प्रश्नचिह्न लग रहे हैं। अतः हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या पर उसका असर पड़ता जा रहा है। ज़रूरी यह है कि अपने पाठ्यक्रमों के इन यूनिट्स को आज की आवश्यकता के अनुसार ढाल लेना चाहिए। हम यह भी सोचते हैं कि इसका मतलब तो यह हुआ हमें बाज़ार की आवश्यकताओं के सामने क्या घुटने टेक देने चाहिए। लेकिन बात को इस सिरे से नहीं पकड़ना चाहिए। हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि कृति के केन्द्र में तो विचार अथवा भाव ही है। उस विचार के बीज को अगर आप पकड़ सकते हैं, तो आप उसका विनियोग विज्ञापन में कर सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि साहित्यिक कृति का सौन्दर्य पक्ष तथा उसके सामाजिक पक्ष की जानकारी जितनी गहरी होगी उतने बेहतर विज्ञापन आप बना सकते हैं। हैवेल्स का विज्ञापन प्रेमचंद की ईदगाह कहानी ही तो है। वहाँ हामिद और दादी है यहाँ एक बच्चा और उसकी माँ है। हैवेल्स के इस विज्ञापन की संवेदनशीलता के मूल में प्रेमचंद की उस कहानी की संवेदनशीलता ही तो है, जो उस तरह के मेले और उस तरह के बच्चे समाप्त हो जाने पर भी समय के साथ बदल जाती है, किन्तु प्रभावित तो करती ही है।
आपने देखा होगा कि श्रृंगार रस का यह(बिहारी) दोहा सामाजिक जागृति का काम करता है। (अगर इस तरह आप देखेंगे तो) आपको यह भी ध्यान आएगा कि उस समय के कवि समाज के प्रति विमुख तो नहीं थे। क्योंकि कोई भी रचना अपना कंटेंट समाज से ही लेती है। उस समय राजा से प्रजा तक यह बात विद्यमान होगी। लेकिन जिस के सिर पर राष्ट्र की, शासन की, राज्य की ज़िम्मेदारी है वह तो विमुख नहीं ही हो सकता है। लेकिन अगर वही कंटेंट आज भी है , और अगर लोकतंत्र भी है, तो इसका इस्तेमाल हम सामाजिक जागृति के विषयों में कर सकते हैं। साहित्य में देखा जाए तो सामाजिक संदर्भों के ऐसे कूट समाए होते हैं जो हो सकता है कि हमें तत्काल समझ में न आएं, पर परिस्थितियाँ, भूतकाल में रचे साहित्य के वर्तमान अर्थों को खोलने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। एक ही कंटेंट को अभिव्यक्ति के भिन्न माध्यमों द्वारा भिन्न अर्थ-स्तरों तक पहुँचते हुए हम देख सकते हैं। रीतिकाल में जो श्रृंगार रस की रचना थी आज विज्ञापन के माध्यम से आप उसके द्वारा सामाजिक जागृति के अर्थ तक पहुँच सकते हैं।
आज बाज़ार में सर्वाधिक अगर कुछ बिकता है तो सौन्दर्य प्रसाधन। रीतिकाल में नायक-नायिकाओं के सौन्दर्य निरूपण एवं अंग-निरूपण के इतने उदाहरण हैं कि सौन्दर्य प्रसाधनों से पटे पड़े बाज़ार में इससे बेहतर और कौन-सा कंटेंट हो सकता है।
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विज्ञापन की दुनिया हमारी वास्तविक दुनिया के इतने क़रीब एक ऐसा मायाजाल रचती है कि हम उसे एक ठोस वास्तविकता के रूप में ही स्वीकारने लगते हैं। विज्ञापन की दुनिया हमारी वास्तविक दुनिया से ही पदार्थ लेती है, वह हमारी इच्छा, स्वप्न तथा आकांक्षाओं पर पलती-बढ़ती है, निर्मित होती है। अतः वह एक तरह से हमारी वास्तविक दुनिया ही है ऐसा कहा जा सकता है। परन्तु यह मायाजाल इसलिए है कि यह दुनिया हमें ऐसे काल्पनिक और कई बार असंभव दुनिया में ले जाने का स्वप्न दिखाती है, जो अक्सर सही नहीं साबित होते , अतः यह मायाजाल है। जैसे कोई भी शैंपू आपके बालों को इतना सशक्त नहीं बनाता कि आप अपने बालों से ट्रैक्टर खींच सकें। या कोई भी साबुन आपको सुंदर नहीं बना सकता अगर आप सुंदर नहीं हैं तो ! या आप अचानक स्वस्थ नहीं बन सकते, चाहे जो खाएं। अतः यह एक प्रकार का मायजाल ही है। पर फिर भी विज्ञापन के बिना आज की दुनिया की कल्पना करना कठिन ही है। ये विज्ञापन हमारे संबंधों, भावनाओं के साथ जुड़ गए-से लगते हैं। समय के साथ हम यह भी देख सकते हैं कि जिन्सों के अलावा अब हमारे तीज-त्यौहार, हमारी पूजा अर्चना, हमारे पारिवारिक व्यवहार तथा संवेदना के मूल्य भी विज्ञापनों के द्वारा ही हमारी स्मृति का द्वार खटखटाते दिखाई पड़ते हैं। अपने काम-काज में व्यस्त बाहरी दुनिया में काम करती पीढ़ी(स्त्री-पुरुष- दोनों ही) को इन विज्ञापनों से ही पता चलता है कि कब करवा चौथ है, कब रक्षा-बंधन और कब गणेश-चतुर्थी। उसे जो कुछ भी करना-कराना है, विज्ञापन ही बताएंगे मसलन उसे तोहफ़े में क्या ले जाना है और कौन-सी मिठाई खानी है।
विज्ञापन हमें प्रभावित करते हैं। चाहे जितना हम उनसे बचना चाहें, पर रेडियो द्वारा, टी.वी द्वारा. सड़क पर लगे होर्डिंग्स द्वारा, अख़बारों, पत्रिकाओं, पैम्फ्लेट, दीवारें.... कितनी ही जगहों के बारे में और तरीकों के बारे में आप सोचें – विज्ञापन तो आपको दिख ही जाएंगे। उत्पाद बेचते विज्ञापन, सरकारी योजनाओं को प्रचारित करते विज्ञापन, विकास की सरकारी नीतियों की ओर ले जाते विज्ञापन .... अर्थात् हमारा पूरा जीवन, हमारी सोच, हमारी भविष्य संबंधी चिंताएं.... सभी को इस दौर में अभिव्यक्त करने का काम विज्ञापन करते हैं।
विज्ञापन अभिव्यक्ति (कॉम्युनिकेशन) का एक अलहदा माध्यम है। और जैसा कि ऊपर कहा गया है वह हम तक उत्पाद, विकास तथा विचार का संप्रेषण करते हैं। उत्पाद तथा विकास ठोस हैं। दृश्यमान है। विचार ठोस तो हो सकते हैं पर दृश्यमान नहीं होते। उत्पाद पदार्थ है, विकास क्रिया है, कार्य है। पर दोनों ठोस हैं, दिखाई पड़ते हैं। विचा,र पदार्थ तथा विकास की तरह नहीं होते। अर्थात् न ही वह पदार्थ की तरह
स्थिर है, न विकास की तरह क्रियाशील ही ।( यही बात साहित्य के बारे में भी कही जा सकती है। लेकिन इनके अंतर के विषय में आगे बात होगी।) परन्तु विज्ञापन के माध्यम से, विचार, ठोस तथा क्रियाशील दोनों ही बन सकता है। विचार उत्पाद में वैचारिकता तथा विकास में ठोसत्व लाने का काम करता है। वह उसमें एक प्रकार का आकर्षण भी उत्पन्न करता है।
साहित्य भी एक प्रकार का संप्रेषण ही है।( एक दृष्टि से वह(साहित्य) स्वयं उत्पाद है।) पर वह न तो पदार्थ का संप्रेषण करता है न ही विकास की क्रियाशील प्रस्तुति करता है। आपके मन में तुरंत यह बात आ सकती है कि रस की चर्चा करते समय रस का उल्लेख पदार्थ की तरह किया गया है। लेकिन रस का पदार्थत्व उत्पाद के पदार्थत्व से भिन्न है। एक का भौतिक तथा दूसरे का अ-भौतिक। अतः साहित्य अ-भौतिक पदार्थों(भाव रसादि एवं छन्द-अलंकारादि) का संप्रेषण करता है। इन सब अ-भौतिक तत्वों से मिल कर वह एक अ-भौतिक पदार्थ बनता है। प्राचीन काल में पांडुलिपियाँ तथा वर्तमान काल में पृष्ठों(कागज़) में निबद्ध उसका उत्पादन असल में उसकी पैकेजिंग है। जो प्रकाशन संस्था जितनी समृद्ध है वह उतना ही बढिया पैकेजिंग करती है।
साहित्य का संबंध मनुष्य की उन वृत्तियों से है जो बाजार में बिकाऊ नहीं हैं। पर इन अ-भौतिक पदार्थों को (भाव-सौन्दर्यादि) समाज में संप्रेषणीय बनाने के लिए साहित्यकार कुछ बिम्ब कुछ चित्र कुछ ऐसे सामाजिक प्रतीकों को चुनता है, जो भौतिक पदार्थों का आकार ग्रहण करते हैं। नायिका की सुन्दरता को चाँद, गुलाब, कमल मछली आदि बताना या लोगों के बीच को संबंधों तथा आशा-निराशाओं वफादारियाँ-धोखेबाज़ियाँ, उत्साह-ईर्ष्या को बताने के लिए पदार्थ-प्रतीकों,प्रसंगों, घटनाओं, मिथकों का उपयोग किया ही जाता है। यही वह स्थान है जब साहित्य की रचनाएं हमारे काम आ सकती हैं। साहित्य में भी भाव-सौन्दर्य का जो ठोस स्वरूप है जिसे बिम्बों,अलंकारों आदि के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है, वह विज्ञापन की संकल्पना निर्माण में बहुत उपयोगी हो सकता है।
विज्ञापन में विचार की संकल्पना के बीज साहित्य की कृतियों में बिखरे पड़े हैं। लेकिन इन बीजों को पकड़ने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम इन बातों को समझ लें-
1-विज्ञापन-निर्माण के बिन्दु
2-विज्ञापन का टार्गेट-ग्रुप
3-विज्ञपित वस्तु, पदार्थ का प्रकार( कैटेगरी)
4-विज्ञापन का माध्यम (पत्र-पत्रिकाएं, दृश्य-श्राव्य आदि)
5- साहित्य कृति में से विचार, संकल्पना को आकारित करने की क्षमता का विकास करना।
6- कंप्यूटर पर हिन्दी में काम करने की क्षमता को विकसित करना।
7- संकल्पना को ठीक-ठीक भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए भाषा की बारीकियों को समझना तथा भाषा का दोष-हीन प्रयोग करने के लिए भाषा-ज्ञान की पूरी जानकारी।
8-साहित्य के सौंदर्य-पक्ष तथा साहित्य के समाज-शास्त्रीय पक्ष की पहचान करना।
हम लोग तो साहित्य के विद्यार्थी हैं, अतः हमें विज्ञापन कैसे बनता है, इसकी तकनीकी जानकारी नहीं होती, यह स्वाभाविक ही है। पर जैसे नाट्यकार के लिए रंगमंच का ज्ञान होना ज़रूरी है, इतना भर कि वह नाटक लिखते समय यह देख सके कि रंगमंच पर लिखा हुआ दृश्य संभव है या नहीं। यानी उसे अपने माध्यम की जानकारी होनी चाहिए ठीक उस स्क्रिप्ट लेखक की तरह जिसे कुछ-कुछ फिल्म टेकनीक का पता होना चाहिए जैसे कि एक अंपायर, चाहे न बल्लेबाजी करता हो न गेंदबाजी, पर उसे क्रिकेट की जानकारी तो होनी ही चाहिए। हम विज्ञापन की कॉपीराइटिंग करने का काम कर सकते हैं। पर कॉपीराइटर के रूप में हमें यह पता होना चाहिए कि इस विज्ञापन का टार्गेट ऑडियंस कौन-सा है। हमारा कंटेंट, हमारी भाषा , हमारा अंदाज़- सभी उस टार्गेट ऑडियन्स पर आधारित होना चाहिए। फिर हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जिस विज्ञापन के लिए हमें कॉपीराइटिंग करना है, उसकी श्रेणी कौन-सी है। वह व्यावसायिक विज्ञापन है अथवा सामाजिक, राजनैतिक जागृति से संबंधित है अथवा विकास से जुड़ा है। सभी श्रेणियों के विज्ञापन का स्वरूप तथा गौण संरचना अलग होगी। प्राथमिक संरचना तो एक जैसी ही होती है। प्राथमिक संरचना का अर्थ है- प्रत्येक विज्ञापन प्रचार के लिए होता है और संप्रेषणीयता उसकी पहली शर्त है। वह बहुत बड़ा नहीं होना चाहिए। सबसे बड़ी बात यह है कि वह प्रभावशाली होना चाहिए। गौण संरचना का अर्थ यह है कि श्रेणियों के अनुरूप भाषा तथा दृश्यों का प्रयोग। वैसे, दृश्य भी विज्ञापनों में भाषा का काम देते हैं। पर दृश्य कैसा होना चाहिए, यह भी विज्ञापन की कॉपीराइटिंग का कच्चा हिस्सा होते हैं।(कच्चा इसलिए कि बाद में उस पर काम होता है।) फिर व्यावसायिक विज्ञापन कई बार श्रेणी बद्ध रूप से तैयार
किए जाते हैं। एक ही विचार या संकल्पना को विभिन्न परिस्थितियों में विकसित किया जाता है। जैसे कोई कवि एक ही बात को विभिन्न बिम्बों के माध्यम से प्रकट करता है। इस बात को हमने कहत नटत वाले उदाहरण से भी देखा ।
विज्ञापन मीडिया के किस माध्यम के द्वारा प्रसारित होना है, उसके आधार पर कॉपीराइटर को अपना काम करना होता है। वह पत्र-पत्रिकाओं में अथवा अख़बार में छपने वाला है अथवा रेडियो से प्रसारित होगा या फिर दृश्य माध्यमों द्वारा पहुँचाया जाने वाला। दृश्य माध्यमों में कम लेखन, श्रव्य माध्यमों में ध्वनि का आधिक्य (संगीत आदि) एवं लेखन तथा प्रकाशित माध्यमों में ज़बरदस्त प्रभावशाली भाषा-प्रयोग- बहुत आवश्यक है। आप अगर हिन्दी में कंप्यूटिंग सीख लेंगे तो आप इन तीनों माध्यमों द्वारा बेहतर विज्ञापन के कॉपीराइटर बन सकेंगे। लेकिन इतना सब करने के लिए भाषा का दोषहीन प्रयोग अथवा भाषा की पूरी जानकारी या सही जानकारी ही आपको अच्छा कॉपीराइटर बना सकेगा। निराला ने छन्द तोड़ने की बात इसलिए की, क्योंकि उन्हें छन्द का ज्ञान था। ठंडा यानी कोका कोला सुनने पर सरल लगता है, पर इस सरलता तक तभी पहुँच सकेंगे जब आप भाषा पर अधिकार रखते हों। कोका कोला तभी कोकाकोला होता है जब वह ठंड़ा होता है। उसका मूल कंसेप्ट साहित्य के विद्यार्थी बेहतर निकाल सकते हैं क्योंकि हमने अपने विभिन्न कोर्सेस में उसे पढ़ रखा है। आप देखिए आपको विज्ञापन के लिए कॉपीराइटर बनाने में साहित्य की बेहतर समझ ही काम आएगी। आप साहित्य के समाजशास्त्रीय पक्ष को तथा सौन्दर्य पक्ष को जितनी गहराई से समझेंगे उतना ही विज्ञापन लेखन में सफल होंगे।
देश की सुरक्षा बिना सैनिकों के संभव नहीं है। सालभर में सैनिकों को हम अलग अलग अवसरों पर याद करते हैं। हमारे कवियों ने ढेरों रचनाएं इन पर लिखी हैं। आप को अगर इस से संबंधित कोई कॉपीराइटिंग करनी हो, तो आप कौन-सी कविता चुनेंगे ? आप जब देखना शुरु करेंगे और कॉपीराइटिंग की दृष्टि से उस पर सोचना आरंभ करेंगे कि संदेश पहुँचे भी, मार्मिक भी हो, दृश्य की दृष्टि से सटीक भी और आपका पढ़ा साहित्य आपके काम भी आए..... तो आप किस कविता को चुनेंगे। आप सोच कर देखिए। क्या पुष्प की अभिलाषा कविता प्रभावशाली होगी... तो बना कर देखिए कोई विज्ञापन। उसका टार्गेट ऑडिएंस कौन-सा होगा, उसकी भाषा कौन-सी होगी, वह किस श्रेणी में आता हे......इत्यादि, इत्यादि।
अब आप देखिए उसने कहा था कहानी है... वह किस प्रकार के विज्ञापन में आपकी मदद कर सकती है। कहानी तो प्रेम की है, उसका बैकड्रॉप युद्ध है.....। आप सोच कर देखिए। इसकी एक प्रोसेस है। प्रेम
आपको क्या देता है- आश्वासन एवं शीतलता। वह आजीवन साथ का आश्वासन देता है। उससे आपका जीवन निश्चिंत हो जाता है। अब इस थीम के आस पास आप एक व्यावसायिक एवं जीवन सुरक्षा का कोई विज्ञापन बना सकते हैं। जीवन सुरक्षा में क्या आता है, यह अब आप सोचिए। बीमा पॉलिसी ? व्यावसायिकता में किस उत्पाद की बात हो सकती है। लेखक ने तो कहानी में लिखा ही है। लहनासिंह क्या खरीदने बाज़ार गया था। अब यह एक कहानी आपको दो श्रेणियों के विज्ञापनों की कॉपीराइटिंग करने में मदद कर सकती है।
' देखा मुझे उस दृष्टि से जो मार खा रोई नहीं...' यह पंक्ति ग्रास रूट के स्तर तक हुए स्त्री –सशक्तिकरण तथा स्त्री जागृति को बताने के लिए कितना प्रभावशाली विज्ञापन बनाने में मददरूप हो सकती है।
पूरा शहर अँधेरे में डूबा है,
शर्माजी के घर उजाला !?! कैसे।
जी हाँ...--------- लैंप का कमाल!
अब बताइए, इस विज्ञापन के मूल में कौन-सी रचना है। (आप भी खरीदिए और एक चाँद अपने घर ले आइए।)
आपको किसी नए वाद्य या किसी म्यूज़िक कंपनी के लिए विज्ञापन बनाना हो तो आप को किस कविता से मदद मिल सकती है ? क्या आप को कुछ याद आता है ? आपको यह बताना है कि यह नया वाद्य सर्वथा नया है, औरों से अलग... तो आप किस कविता के उपयोग के बारे में सोच सकते हैं- इस पर सोचिए। क्या- नव गति नव लय ताल छन्द नव- से आप कुछ बना सकते हैं ?!?
आपने अब तक अंदाज़ा लगा लिया होगा कि अगर हम अपने विषय ( हिन्दी साहित्य) को ठीक से हृदयंगम करेंगे और भाषा पर प्रभुत्व प्राप्त कर सकेंगे तो इस क्षेत्र में हम से अच्छा कॉपीराइटर कहाँ मिलेगा। आप इतिहास पढ़ते हैं, तो सामग्री को एकत्रित करने की क्षमता प्राप्त करते हैं। आप गद्य-पद्य पढ़ते हैं तो सौन्दर्य तथा समाजशास्त्रीय पक्ष को जानने लगते हैं, आप काव्य-शास्त्र पढ़ते हैं तो संकल्पनाओं का आकलन करना आपको आ जाता है, आप अनुवाद, प्रयोजन मूलक आदि पढ़ते हैं तो सही स्थान पर सही एवं
9498औचित्यपूर्ण शब्द रखने का बोध आपको हो जाता है, मध्यकालीन साहित्य आपको एक सांस्कृतिक आधार देता है, नाटक आपको सिखता है कि समय को सही रूप में कैसे पकड़ें.... यह सभी गुण एक कॉपीराइटर में होना ज़रूरी है।
लेबल:
प्रयोजन मूलक हिन्दी
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