भारतीय साहित्य- रवीन्द्रनाथ की कविताएँ -2
कविता किस तरह अपने आस-पास के वस्तु जगत को कविता जगत में रूपांतरित करती है इसका उदाहरण रवीन्द्रनाथ की वैशाख और नव-वर्षा कविताएं हैं। हम लोगों नें इन कविताओं को विस्तार से पढ़ा। आपने देखा कि इन दोनों कविताओं में वस्तु-जगत के कुछ पदार्थ समान हैं पर काव्य का विषय अलग होने के कारण काव्य-वस्तु बदल जाती है। घास दोनों में है। पर वैशाख में वह घास पात हो जाती है तो नव-वर्षा में वह कोमल दूर्वा बन जाती है। वैशाख में नदी क्षीण-धारा है तो नव-वर्षा में वह गाँव के पास तक चली आती है। पर चूँकि नव-वर्षा की नदी है अतः अपने तटों को बाँध रखती है। अभी बाढ़ जैसी स्थिति नहीं आती। वैशाख में क्षुधा-तृषित मैदान हैं जो नव-वर्षा में कोमल दूर्वा से बिछ जाते हैं।
नव-वर्षा कविता में कवि ने काव्य-उपादानें का कैसा दोहरा प्रयोग किया है , यह भी देखते ही बनता है। वर्षा है तो मोर होगा ही । फिर कलाप करता हुआ मोर होगा। यह मोर बाहर भी नाच रहा है और मन-मयूर भी नाच ही रहा है। कलाप करते मोर का चित्र जहाँ एक ओर वर्षा ऋतु के लिए उपादान बनता है तो दूसरी ओर उसके कलाप के सुंदर रंगों को कवि अपनी मन की भावनाओं के साथ जोड़ कर उनका वर्णन भी करता है। कवि कल्पना की उड़ान भरता है तो भी यथार्थ जगत का उनका निरीक्षण हमें प्रभावित करता है। धरती से आसमान तक जो स्तर हैं उनका बयान नव-वर्षा में है। कवि नीचे धरती पर खड़ा है, नव-वर्षा बादलों पर बैठी है और वहाँ से आसमान में न जाने किसे पुकार रही है। हम इस बात को जानते हैं और हमारा अनुभव भी है कि जब हम पहाड़ों पर रहते हैं या हवाई-जहाज में सफ़र करते हों तो बादलों के ऊपर बैठे हों, या जा रहे हों या बादल हमारे घर में आ जाते हैं, इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।
रवीन्द्रनाथ की कविताओं की विशेषता है कि वे हमें वस्तु जगत के बाहर और अपने भीतर ले जाते हैं। कल्पना की सैर भी कराते हैं। निर्झर का स्वप्न भंग कविता में हम यह अनुमान कर सकते हैं कि कवि तो पहाड़ पर बहते हुए झरने को देख रहा है। पर अपनी जिज्ञासा के कारण हमें भी उस पहाड़ के भीतर ले जाते हैं और उनकी इस कल्पना का हिस्सा बना लेते हैं कि यह झरना जो बाहर बह रहा है भीतर कैसा होगा और हमारे अन्जाने अपने रचना-आकुल मन में भी ले जाते हैं कि कवि आखिर कविता कैसे रचता होगा।
सचमुच, रवीन्द्रनाथ की कविता पढ़ना यानी सौन्दर्य का साक्षात्कार करना।
यहाँ दो-एक और बातें बताना ज़रूरी लगता है। हम रवीन्द्रनाथ की कविताओं को जब पढ़ते हैं तो एक तरफ़ उन पर उपनिषदों के प्रभाव को देखते हैं। उपनिषदों में जिस प्रकार सृष्टि का रहस्य प्रकृति के आनंदमय स्वरूप के साथ उजागर होता है उसी तरह रवीन्द्रनाथ में भी वह दिकाई पड़ता है। फिर रवीन्द्रनाथ पर कालिदास का प्रभाव हम उनकी मेघदूत नामक रचना में पढ़ ही चुके हैं। प्रेम में तो मुक्ति है- पर उसे हमेशा सामाजिक बंधनों का सामना करना पड़ता है- कविवर रवीन्द्रनाथ के मन में यह टीस कविता के अंत में आती दिखाई पड़ती है। पूरी कविता में वे कविदास के मेघ की पीठ पर सवार उस पूरे प्रदेश की यात्रा हमें करवाते हैं जिस रास्ते यक्ष ने मेघ को भेजा था। वे हमें उन वनांगनाओं, सिद्दांगनाओं और ग्राम वधुओं से भी मिलवाना नहीं भूलते जिनसे कालिदास ने दूत बने मेघ को मिलवाया था। वे अपनी ही भूमि के जयदेव को भी याद करते हैं। पर रवीन्द्रनाथ को पढ़ते हुए हमें अपने जयशंकर प्रसाद और निराला और शमशेर याद आए बिना नहीं रहते जिनकी कविताओं पर रवीन्द्रनाथ का प्रभाव पड़ा है। रवीन्द्रनाथ जब नव-वर्षा में घने वनों की दूब और नदी को आसमान में कल्पित करते हैं तो हमें शमशेरजी की ये पंक्तियां याद आती हैं- आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही थी और मैं उसी में कहीं कीचड़ की तरह सो रहा था। या जब इसी कविता में रवीन्द्रनाथ कहते हैं कि कि यब कौन है जिसने मेघों के वस्त्र को अपने वक्ष के बीच खींच लिया है या जो बिजली के बीच चल रही है- तो हमें सहसा प्रसाद की पंक्तियाँ याद आ जाती हैं- कामायनी में श्रद्धा का वर्णन कुछ इन्हीं शब्दों में जयशंकर प्रसाद ने किया है- नील परिधान बीच सुकुमार / खिल रहा मृदुल अधखुला अंग,/ खिला हो ज्यों बिजली का फूल/ मेघ वन बीच गुलाबी रंग।
दिवसावसान के समय मेघमय आसमान से उतरने वाली सुन्दरी परी –सी संध्या हो या बादलों के भपर किसे ऊँचे प्रासाद में बैठी कबरी खोल अपने बाल फैलाए बैठी नव-वर्षा हो- दोनों एक ही कुल-गोत्र की लगती हैं। इसी नव-वर्षा कविता में आसमान में जिस प्रासाद की कल्पना है, जिसके शिखर पर नव-वर्षा की कल्पना कवि ने की है, वह कबीर के सुन्न-महल का रोमानी रूप है।
उसी तरह निर्झर अपनी कारा को आखिर क्यों तोड़ना चाहता है ? इसलिए कि एक तो उसके पास कहने के लिए बहुत कुछ है फिर उसमें वह करुणा हो जिससे वह जगत को आप्लावित करना चाहता है। कवि के पास अगर करुणा न हो तो वह किस बात का कवि ! क्या इस समय आपको वे प्रसिद्ध पंक्तियाँ नहीं याद आतीं—वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान..... रवीन्द्रनाथ की इस करुणा के बीज आदि कवि में होंगे ही यह तो आप इसे पढ़ते-पढ़ते ही समझ गए होंगे।
यही तो साहित्य की अपनी परंपरा है। उपनिषदों से आरंभ हो कर कालिदास और कबीर से रवीन्द्रनाथ से होते हुए प्रसाद, निराला, महादेवी...शमशेर तक हमें मिलती है। आप अधिक अध्ययन करेंगे तो और भी कवियों को इस परंपरा में देख सकेंगे। शमशेर से आगे भी। आप याद कीजिए--- टी.एस. इलीयट भी तो परंपरा की ही बात करता है। ये वे सारे कवि हैं जिन्होने अपनी वैयक्तिक प्रतिभा से अपनी परंपरा को पुष्ट किया है।
यही साहित्य की हमारी भारतीय परंपरा है।
नव-वर्षा कविता में कवि ने काव्य-उपादानें का कैसा दोहरा प्रयोग किया है , यह भी देखते ही बनता है। वर्षा है तो मोर होगा ही । फिर कलाप करता हुआ मोर होगा। यह मोर बाहर भी नाच रहा है और मन-मयूर भी नाच ही रहा है। कलाप करते मोर का चित्र जहाँ एक ओर वर्षा ऋतु के लिए उपादान बनता है तो दूसरी ओर उसके कलाप के सुंदर रंगों को कवि अपनी मन की भावनाओं के साथ जोड़ कर उनका वर्णन भी करता है। कवि कल्पना की उड़ान भरता है तो भी यथार्थ जगत का उनका निरीक्षण हमें प्रभावित करता है। धरती से आसमान तक जो स्तर हैं उनका बयान नव-वर्षा में है। कवि नीचे धरती पर खड़ा है, नव-वर्षा बादलों पर बैठी है और वहाँ से आसमान में न जाने किसे पुकार रही है। हम इस बात को जानते हैं और हमारा अनुभव भी है कि जब हम पहाड़ों पर रहते हैं या हवाई-जहाज में सफ़र करते हों तो बादलों के ऊपर बैठे हों, या जा रहे हों या बादल हमारे घर में आ जाते हैं, इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।
रवीन्द्रनाथ की कविताओं की विशेषता है कि वे हमें वस्तु जगत के बाहर और अपने भीतर ले जाते हैं। कल्पना की सैर भी कराते हैं। निर्झर का स्वप्न भंग कविता में हम यह अनुमान कर सकते हैं कि कवि तो पहाड़ पर बहते हुए झरने को देख रहा है। पर अपनी जिज्ञासा के कारण हमें भी उस पहाड़ के भीतर ले जाते हैं और उनकी इस कल्पना का हिस्सा बना लेते हैं कि यह झरना जो बाहर बह रहा है भीतर कैसा होगा और हमारे अन्जाने अपने रचना-आकुल मन में भी ले जाते हैं कि कवि आखिर कविता कैसे रचता होगा।
सचमुच, रवीन्द्रनाथ की कविता पढ़ना यानी सौन्दर्य का साक्षात्कार करना।
यहाँ दो-एक और बातें बताना ज़रूरी लगता है। हम रवीन्द्रनाथ की कविताओं को जब पढ़ते हैं तो एक तरफ़ उन पर उपनिषदों के प्रभाव को देखते हैं। उपनिषदों में जिस प्रकार सृष्टि का रहस्य प्रकृति के आनंदमय स्वरूप के साथ उजागर होता है उसी तरह रवीन्द्रनाथ में भी वह दिकाई पड़ता है। फिर रवीन्द्रनाथ पर कालिदास का प्रभाव हम उनकी मेघदूत नामक रचना में पढ़ ही चुके हैं। प्रेम में तो मुक्ति है- पर उसे हमेशा सामाजिक बंधनों का सामना करना पड़ता है- कविवर रवीन्द्रनाथ के मन में यह टीस कविता के अंत में आती दिखाई पड़ती है। पूरी कविता में वे कविदास के मेघ की पीठ पर सवार उस पूरे प्रदेश की यात्रा हमें करवाते हैं जिस रास्ते यक्ष ने मेघ को भेजा था। वे हमें उन वनांगनाओं, सिद्दांगनाओं और ग्राम वधुओं से भी मिलवाना नहीं भूलते जिनसे कालिदास ने दूत बने मेघ को मिलवाया था। वे अपनी ही भूमि के जयदेव को भी याद करते हैं। पर रवीन्द्रनाथ को पढ़ते हुए हमें अपने जयशंकर प्रसाद और निराला और शमशेर याद आए बिना नहीं रहते जिनकी कविताओं पर रवीन्द्रनाथ का प्रभाव पड़ा है। रवीन्द्रनाथ जब नव-वर्षा में घने वनों की दूब और नदी को आसमान में कल्पित करते हैं तो हमें शमशेरजी की ये पंक्तियां याद आती हैं- आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही थी और मैं उसी में कहीं कीचड़ की तरह सो रहा था। या जब इसी कविता में रवीन्द्रनाथ कहते हैं कि कि यब कौन है जिसने मेघों के वस्त्र को अपने वक्ष के बीच खींच लिया है या जो बिजली के बीच चल रही है- तो हमें सहसा प्रसाद की पंक्तियाँ याद आ जाती हैं- कामायनी में श्रद्धा का वर्णन कुछ इन्हीं शब्दों में जयशंकर प्रसाद ने किया है- नील परिधान बीच सुकुमार / खिल रहा मृदुल अधखुला अंग,/ खिला हो ज्यों बिजली का फूल/ मेघ वन बीच गुलाबी रंग।
दिवसावसान के समय मेघमय आसमान से उतरने वाली सुन्दरी परी –सी संध्या हो या बादलों के भपर किसे ऊँचे प्रासाद में बैठी कबरी खोल अपने बाल फैलाए बैठी नव-वर्षा हो- दोनों एक ही कुल-गोत्र की लगती हैं। इसी नव-वर्षा कविता में आसमान में जिस प्रासाद की कल्पना है, जिसके शिखर पर नव-वर्षा की कल्पना कवि ने की है, वह कबीर के सुन्न-महल का रोमानी रूप है।
उसी तरह निर्झर अपनी कारा को आखिर क्यों तोड़ना चाहता है ? इसलिए कि एक तो उसके पास कहने के लिए बहुत कुछ है फिर उसमें वह करुणा हो जिससे वह जगत को आप्लावित करना चाहता है। कवि के पास अगर करुणा न हो तो वह किस बात का कवि ! क्या इस समय आपको वे प्रसिद्ध पंक्तियाँ नहीं याद आतीं—वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान..... रवीन्द्रनाथ की इस करुणा के बीज आदि कवि में होंगे ही यह तो आप इसे पढ़ते-पढ़ते ही समझ गए होंगे।
यही तो साहित्य की अपनी परंपरा है। उपनिषदों से आरंभ हो कर कालिदास और कबीर से रवीन्द्रनाथ से होते हुए प्रसाद, निराला, महादेवी...शमशेर तक हमें मिलती है। आप अधिक अध्ययन करेंगे तो और भी कवियों को इस परंपरा में देख सकेंगे। शमशेर से आगे भी। आप याद कीजिए--- टी.एस. इलीयट भी तो परंपरा की ही बात करता है। ये वे सारे कवि हैं जिन्होने अपनी वैयक्तिक प्रतिभा से अपनी परंपरा को पुष्ट किया है।
यही साहित्य की हमारी भारतीय परंपरा है।
इन्टरनेट के माध्यम से अध्यापन की यह रीत गुजरात विश्वविद्यालय के लिए नया और सराहनीय कार्य है। काव्य की समझ विकसित करने का यह तरीका आवकार्य है। आशा करता हूँ इससे अन्य अध्यापकों को भी प्रेरणा मिलेगी।
ReplyDeleteधन्यवाद। यह माध्यम तभी सफल होगा जब अधिक से अधिक लोग इसमें जुडेंगे। यह एक ऐसा तरीक़ा है जिससे विद्यार्थी स्वयं सोचने और समझने की प्रकिया में आएंगे। मैं चाहती हूँ कि आप ही की तरह और विद्यार्थी एवं अध्यापक इसमें शामिल हो तथा ज्ञान के इस ई-यज्ञ में अपना योगदान दें।
ReplyDeleteरंजना
It is difficult to read with green colored text
ReplyDeleteअब आप इसे पढ़ सकेंगे। पढ़ कर बताएं कैसे लगा।
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