जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Monday, 30 December 2013

सेमीनार 2014

हिन्दी विभाग, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदाबाद एवं विदेश अध्ययन कार्यक्रम (STUDY ABROAD PROGRAMME) गुजरात युनिवर्सिटी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित
एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी
3 फरवरी 2014
संस्कृति की साहित्य में विभिन्न अभिव्यक्तियाँ : भारतीय एवं विदेशी भाषाओं के विशेष संदर्भ में
संगोष्ठी की संकल्पना
संसार भर की भाषाओं में लिखा साहित्य आखिरकार किस लक्ष्य की ओर अग्रसर हैं? आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो- मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है । तो पिर दूसरा प्रश्न उठता है - किस तरह का मनुष्य साहित्य का लक्ष्य हो सकता है? वह जो संघर्ष करता है जैसे प्रेमचंद की धनिया; वह जो क्रांति और बदलाव की प्रेरणा देता है जैसे गोर्की की माँ; वह जो तंत्र के भीतर रह कर अगर कुछ भी न कर सके तो कम-से-कम दम्भ तो नहीं करता और त्यागपत्र दे देता है जैसे जैनेन्द्र के त्यागपत्र का प्रमोद; या प्राईड एंड प्रेज्युडाईस की नायिका एलिज़ाबेथ बैनेट जो एक स्वतंत्र-मिजाज़ की ईमानदार और साहसी स्त्री है, जो भूलें करती है और उन्हें स्वीकार करती है और अपनी भूलों से सीखती भी है; यह सूची लंबी हो सकती है, जिस पर हम काम कर सकते हैं।
ये सारे 'मनुष्य' साहित्य का लक्ष्य हैं और इनकी चर्चा करना भाषा-साहित्य के अध्यापकों एवं विद्यार्थियों के लिए एक अनिवार्य प्रीतिकर काम है, होना चाहिए, क्योंकि अपने लक्ष्य में व्यक्ति तभी सफल हो सकता है जब वह बार-बार अपने उद्देश्य का स्मरण करे और उसे कार्यान्वित करे। एक अच्छे मनुष्य का निर्माण ही एक अच्छे और बेहतर समाज की संभावना खड़ी करता है।
संस्कृति और साहित्य अपने में मौखिक तथा लिखित विभिन्न परंपराओं को समेटे हुए है। पृथ्वी के विशाल पट पर (जो अब पर्यावरणीय संकट में बद्ध है) खड़े मित्र-सम पेड़, नदियाँ और अन्न उगाने वाली मिट्टी भी संस्कृति के ही प्रतिनिधि हैं, उस शिल्प, संगीत, चित्र और स्थापत्य के साथ जिन्हें मनुष्य ने निर्मित किया है और बड़े एहतियात के साथ उनकी महिमा को अपने ग्रंथों में सुरक्षित किया है।
संसार की विभिन्न भाषाओं में ये अभिव्यक्तियां विभिन्न स्वरूपों में देखी जा सकती हैं जिन्हें बार-बार स्मरण करना इस तेज़ दौड़ती दुनिया में इसलिए ज़रूरी है क्योंकि गति जहाँ आगे ले जाती है वहीं कई चीज़ों का  विस्मरण भी कराती है। जितना हम याद रखेंगे उतना ही हम परस्पर संबंध जोड़ सकेंगे। वे संबंध जो हमारी इन भाषाओं की ध्वनियों, स्वरों व्यंजनों, भावों और सोच में भी है ; समानता और विभिन्नता के बीच अपने संबंधों को पुनः एक  बार परखना  इस संगोष्ठी का प्रधान हेतु है।
संगोष्ठी के उपविषय-
भारतीय भाषाओं / विदेशी भाषाओं के साहित्य में प्रकृति के सांस्कृतिक संदर्भ (इसमें हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय के निबंधों के संदर्भ में बात हो सकती है।)
·       मानवीयता की गरिमा की रक्षा करते हुए पात्रों की चर्चा।
·       विदेशी भाषा की कृतियों के अनुवादों का मूल्यांकन भारतीय सांस्कृतिक संदर्भों में करना । इसमें दोनों भाषाओं में समानता का बिन्दु महत्वपूर्ण है।
·       मूल्य किस प्रकार सांस्कृतिक धरोहर हैं और विभिन्न भारतीय एवं विदेशी भाषाओं के साहित्य में वे किस तरह प्रकट हुए हैं।
·       साहित्यिक स्वरूप का तत्-देशीय सांस्कृतिक संबंध एवं संदर्भ- यथा नाटक, उपन्यास ,हाइकू अथवा भक्ति-काव्यों की संरचना पर बात हो सकती है।
·       साहित्य के विभिन्न स्वरूपों के  कथानकों में किस तरह संस्कृति का दर्शन होता है।




Saturday, 9 November 2013

नई ज़मीन पर खड़े नए मिथक

नई ज़मीन पर खड़े नए मिथक

"आधुनिकता जहाँ कला आंदोलनों की उर्वरा भूमि रही है, वहाँ उत्तर आधुनिक समय में साहित्य, तमाम ज्ञान के क्षेत्र एवं विषयों से घिरा, प्रमुख रूप से अन्तर्विद्याकीय प्रकृति का रहा है। मिथक आधुनिकता एवं उत्तर-आधुनिकता के बीच इस तरह अवस्थित है कि उसके पाँव आधुनिकता की ज़मीन पर पंजों के बल पर टिके हैं और नज़र भविष्य पर स्थित है। इस उत्तर-आधुनिकता के दौर में मिथक का यही महत्व है कि वह स्त्री मिथकों के नए संदर्भों को उजागर करता है।  साथ ही एक प्रश्न भी खड़ा करता है कि अगर मिथक का संबंध कहीं- न- कहीं हमारी पहचान से जुड़ा है, तो दलित, आदिवासियों के मिथक की खोज इस समय का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए; क्यों कि मिथक के मूल में जो कुछ भी है- धर्म, अनुष्ठान, अतिकल्पना- वह सब कुछ दलित जीवन में भी होना चाहिए। आदिवासी जीवन की तो भूमि ही प्रकृति है अतः ऋतु-चक्र, ऊषा- रात्रि, जन्म-मरण के अनुष्ठान वहाँ भी मौजूद हैं।
इसे रेखांकित कर के पढ़ा जाए कि राजनीतिक आधार विमर्शों को अस्थायी आधार दे सकते हैं, परन्तु मिथक क्योंकि सामूहिक आकांक्षाओं को रूप देते हैं अतः विमर्शों को एक स्थायी पहचान दे सकते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक संदर्भ (अधिकार) अथवा दबाव अथवा समय की माँग से उपजा दलित एवं नारी साहित्य अथवा अन्य प्रकार के हाशिए के साहित्य के अस्तित्व के लिए जितने राजनीतिक आधार कालजयी नहीं साबित होंगे, उतने  मिथकीय आधार दीर्घजीवी साबित होंगे।"
12-13 जनवरी 2013 को म.स. विश्वविद्यालय, बरोडा में आयोजित –महाभारत में मिथक नामक राष्ट्रीय  संगोष्ठी में -मिथक की पुनःसर्जना का मनोविज्ञान विषय पर अपने आलेख में मैंने उपरोक्त विधान किया था। उस समय मैं इस बात से अनभिज्ञ थी कि जे.एन.यू में महिषासुर शहादत दिवस  मनाया जा चुका है। दिनांक 14/10/2013 के इंडियन एक्सप्रेस की विशेष वार्ता पढ़कर मुझे अपने पूर्वोक्त कथन का स्मरण हो आया। अपनी कम-जानकारी को तो सबसे पहले मैं स्वीकार कर ही लेती हूँ परन्तु इंडियन एक्सप्रेस की इस वार्ता ने मुझे कई तरह से सोचने पर विवश कर दिया। यह मुद्दा अत्यन्त संवेदनशील है,  इस अर्थ में कि आज की ज्वलनशील विचारधारात्मक एवं राजनैतिक अनिश्तितता वाली स्थिति में, इस संदर्भ में कुछ भी कहने पर अथवा पक्ष लेने पर, किसी भी प्रकार की ग़लतफहमी देखते ही देखते निर्मित हो सकती है। इस संदर्भ में मुझे एक युवा चिंतक ने चेताया भी है। लेकिन मैं सोचती हूँ कि अगर कहने और न कहने के बीच की कोई भाषा हो ,तो उसके जरिए  मैं अवश्य ही अपनी बात आप तक पहुँचाऊंगी।
महिषासुर के मिथक ने मुझे सोचने पर बाध्य किया । ऋषि मुनियों को तप के पथ से विचलित करने के लिए स्त्रियों को भेजना- इन्द्रपुरी की परंपरा रही है। वहाँ मुद्दा इंद्र की सत्ता का रहा है।  ऐसे में अगर आदिवासी समाज ऐसा मानता है कि छल से दुर्गा को भेजा गया था[1], तो यह असंभव अथवा अतार्किक तो नहीं लगता। सामाजिक स्थलों पर स्त्रियों के अपमान के व्यापक  प्रसंग तो अपने महाकाव्यों में हमें मिल जाते हैं। द्रौपदी का ही मुख्य प्रसंग ले सकते है। उसी तरह अत्यन्त सलीके से अविश्वास करने वाला और यूँ, एक तरह से अपमानित करने का प्रसंग सीता के अग्निप्रवेश का  है। छल –छद्म से पत्नी का त्याग (सीता) अथवा ग्रहण( पाणिग्रहण-गांधारी) भी हमारे महानायकों/ नायकों  के जीवन का एक अंश है । इसके बहुत अलग उदाहरण हमें उस संस्कृति में मिलते हैं जिनमें हम राक्षस अथवा असुर को शामिल करते हैं। अपहरण करने के बावजूद मर्ज़ी के विरुद्ध सीता को रावण ने कामना की दृष्टि अथवा वृत्ति से स्पर्श भी नहीं किया था- (अपहरण के दौरान जो स्पर्श हुआ हो, उसके अलावा) ऐसी परंपरा आदिवासी जीवन में भी नहीं मिलती। अतः इस बात पर भरोसा करने का मन हो आता है कि महिषासुर दुर्गा के धोखे में आ गया होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि राज्यों, राष्ट्रों अथवा साम्राज्यों में वर्चस्व की राजनीति  प्रायः पराजित का चरित्र संदेह के दायरे में रखती  है, अथवा, उसमें  चरित्र नाम के किसी पदार्थ का कोई अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करती। फिर असत्य पर सत्य की विजय  का सूत्र हमारी चेतना में शताब्दियों से इस तरह अंकित हो गया है अपने वीर नायकों तथा उनसे भिड़ने वाले खलनायकों के संदर्भ में,  भाषा के स्तर पर भी महिषासुर और शहादत को पास-पास रखने के विषय में सोच भी नहीं सकते। युद्धभूमि में राम और रावण दोनों समान शक्ति से लड़ रहे हैं, पर कवि के लिए राम पृष्वी पर नवनीत चरण धर रहे हैं और रावण पृथ्वी को टलमल किए दे रहे हैं ; अथवा राम की आँखें रक्त-कमल के समान हैं और रावण की आग से समान.....इसे पढ़ कर हमारे भीतर का राष्ट्रीय मन कितना तो फूल कर कुप्पा हो जाता है। निराला कवि हैं अतः उन्होंने अपनी बात को काव्य के शोभापरक अंगों से इस तरह प्रस्तुत किया है कि वही  हमारे लिए अटूट सत्य हो जाता है। राष्ट्रीय चरित्र का यह रूप,  जन-सामान्य की चेतना, मन और समझ  में इसी तरह निर्मित किए जाते हैं कि हमें वे सत्य का आभास दें।
किन्तु महिषासुर का यह कथानक हमारे परंपरागत नायकत्व के विरुद्ध एक संदेह निर्मित करने का उपक्रम करता है। इस उत्तर-आधुनिक समय में एक तरफ अस्मिता का प्रश्न है तो दूसरी तरफ बहु-संस्कृति का भी प्रश्न है। मल्टी –कल्चरिज़्म की दृष्टि से यह उन अन्याय पूर्ण घटनाओं के उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है जहाँ सांस्कृतिक उच्चावचता एक सामन्य बात थी। अर्थात अगर मल्टी-कल्चरिज़्म एक न्याय-पूर्ण एवं लोकतांत्रिक तथा अधिकार प्रदान करने वाली एक संकल्पना है, तो, महिषासुर का प्रसंग उस पर एक प्रश्नार्थ खड़ा करता है। दूसरे, इस प्रकार के  विवेचन ने ट्राइबल आइडेंटिटि के प्रश्न को मिथकीय स्तर पर स्थापित कर दिया है। इसे हम वंशीय उच्चावचता ( रेशियल हाइरार्की) की दृष्टि से भी देख सकते हैं।   श्रीलंका में होती रावण –पूजा, अपने देश में [2],  हमारे लिए चाहे कोई ख़ास अहमियत न हो उसकी;  क्योंकि दोनों देश और उनकी संस्कृति भिन्न है; लेकिन बात जब एक ही देश के, जनजातीय और सवर्ण के बीच संघर्ष की हो जाती है, तब वह ठीक वैसी नहीं रहती। याद रखिए , अभी हमने स तरह पूरे प्रसंग को देखा नहीं है अथवा अगर कहा है,  तो वह इस रूप में नहीं।  
 इसी बात  को  एक अलग ही भूमिका पर रख कर देखा जा सकता है। मल्टी-कल्चरिज़्म की संकल्पना लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में ही संभव हो सकी [3] है। भारत जैसे एक लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक रूप से प्राप्त समानाधिकार,  आज़ादी के इतने वर्षों बाद अगर इस प्रकार का परिणाम लाते हैं, ला सकते हैं, तो इसे सही अर्थों में हमारी लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली की विजय मानी जानी चाहिए। निश्चय ही यह माना जा सकता है कि इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था से शासित होने वाले देश के भविष्य  अथवा वतर्मान की चिंता करने की आवश्यकता  नहीं है। हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था धीरे-धीरे अपना आकार ग्रहण कर रही है। चूँकि हम एक राष्ट्र के रूप में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली द्वारा शासित होते हैं अतः संविधान के अनुसार चलना ही हमारे समय की राष्ट्रीयता कही जा सकती है।  इसे मिथकीय चिंतन का उत्तर-आधुनिक विकास भी कहा जा सकता है।
एक विशिष्ट चिंतन –दृष्टि के रूप में मिथकीय चेतना एवं चिंतन आधुनिक काल से आरंभ होता है।[4] आधुनिक काल में मिथक की पुनर्व्याख्या को व्यक्तिगत विकास और सत्ता के असहयोग अथवा समझौते के रूप में देखा जा सकता है (एकलव्य, शंबूक, कर्ण ) । अथवा उनके सत्ता के प्रति समर्पण के रूप में भी देखा जा सकता है,  उदाहरण के लिए  शबरी , अहिल्या और संपाति । इस उत्तर-आधुनिक विमर्श में  मिथक का अध्ययन एक ही जातिगत अस्मिता के परिप्रेक्ष्य में मिथकों का  अध्ययन एवं विश्लेषण  केअर्थ में किया जा सकता है । विचारधारा की दृष्टि से मिथक को देखना आधुनिक परिप्रेक्ष्य है,  किन्तु अस्मिता के निदर्शन एवं संकट के रूप में मिथक को देखना उत्तर-आधुनिक विमर्श  हो सकता है ; जो मिथकीय चरित्र आधुनिक काल में भी मुख्यधारा चिंतन  में घुल नहीं सके , वे ही संभवतः उत्तर-आधुनिक विमर्श में अपनी पहचान स्थापित कर सकेंगे। आश्चर्यजनक रूप से मैथिलीशरण गुप्त की शूर्पणखा , जो बाद में नरेन्द्र कोहली में विकसित होती है, इस उत्तर-आधुनिक विमर्श के बीज अपने में लिए हुए है। इसालिए जनजातीय रामायणों एवं महाभारत की कथाओं को पुनः इस दृष्टि से पड़तालने की आवश्यकता है। हमारे अपने समय में संजीव के उपन्यासों का अध्ययन इस दृष्टि से महत्वपूर्ण होगा। इस संदर्भ में महुआ मांझी के एकाध उपन्यास भी देखा जा सकता है।  
                                                                                                                            रंजना अरगडे 




[1] इस संदर्भ में जो कथा अख़बार में कही गयी थी वह यह है कि – महिषासुर एक अत्यन्त वीर एवं साहसी जनजातीय राजा था। आर्यों ने अपने आक्रमण के दौरान उस पर विजय प्राप्त करने हेतु दुर्गा नामक स्त्री को छल से  भेजा था। महिषासुर चूँकि एक न्यायप्रिय जनजातीय राजा था और क्योंकि वे स्त्रियों और बच्चों पर हाथ नहीं उठाते थे, अतः इस बात का लाभ उठाते हुए आर्यों ने छल से दुर्गा को भेजा था  और उसको मारा था।
[2] हमारे देश में तमिलनाडु , केरल, प.बंगाल में रावण की पूजा होती है- प्रो. कृष्णा, हैद्राबाद
[3] यहाँ पर इस बात को भी समझा जा सकता है कि भारत में अनेक संस्कृतियों की उपस्थिति एक विशिष्ट प्रकार की भारतीयता को जन्म देती है, क्योंकि तब लोकतांत्रिक शासन प्रणाली नहीं थी। स्वतंत्रता के बाद संविधान के निर्माण के बाद संवैधानिक अधिकार उसी भारतीयता की संकल्पना को सदृढ करते हैं। अतः भारतीय संस्कृति में आने वाले संदर्भ में संस्कृति (कल्चर) और आज जिस बहु-संस्कृति में संस्कृति की बात की जा रही है, वह संस्कृति भिन्न है।
[4] फेबल्स ऑफ आयडेंटिटि, नॉर्थरोप फ्राय

Thursday, 5 September 2013


देह-मन-चेतना में, हिन्दी है आत्मा में,
देश में, विदेश में, हिन्दी हर वेश में

हिन्दी उत्सव - 2013

Saturday, 13 July 2013


(इस पोस्ट में अज्ञेय के छन्द और कविता के परस्पर संबंध के बारे में एक टिप्पणी है। काव्य शास्त्र के कोर्स में आपके लिए यह बहुत उपयोगी रहेगी)

HIN 502  काव्यशास्त्र – सृजन और सौन्दर्य

छन्द : भाषा की ध्वनियों का संगठन या नियमन । छन्द के द्वारा हम साधारण बोल-चाल के गद्य की लय को नियमित करते हैं – यानी स्वर मात्राओं के परस्पर संबंधों को सरलतर बना देते हैं : जो निहित रहता है उसे विहित कर देते है- या कर नहीं देते तो पहचाना जाने लायक कर देते हैं।
       छन्द स्वरों को स्पष्टतर करता है : भाषा की गति को धीमा करता है क्योंकि स्वरों की मात्रा बढ़ाता है : दीर्धतर स्वर अपनी पूरी अनुगूँज के साथ सामने आते हैं। उन की सच्ची रंगत पहचानी जाती है। स्वरों  की रंगत भावना की रंगत है : अतः छन्द के द्वारा स्वर अर्थ की वृद्धि करते है। छन्द मय उक्ति हमें शब्दार्थ भर नहीं देती --------- रंजना - विशिष्ट भावार्थ देती है।
       छन्द शह्दों को मूर्त करता है, मुखर करता है, उनके ध्वन्याकार को आलोकित करता है।
       छन्द- काव्य भाषा की आँख है। भाषा अपने को केवल सुन कर भी काम चलाती रहती है ; काव्य-भाषा अपने को देख भी लेती है।

                                                       ( पृ 37 , भवन्ती, अज्ञेय राजपाल एंड स्स, दिल्ली प्रथम संस्करण , 1972)

Saturday, 25 May 2013

नवागन्तुको,

      आपका एम. ए. हिन्दी  के छमाही  पाठ्यक्रम में स्वागत है। तृतीय वर्ष का परिणाम निकल आया है और आप जब प्रवेश ले चुकें होंगे तब यह पोस्ट देखेंगे। किन्तु अगर आपने पहले इसे देख लिया हो तो आप पहला काम यह करें कि गुजरात युनिवर्सिटी की वेबसाईट पर जाएं। वहाँ डाऊनलोड पर क्लिक करें फिर सिलेबस पर जाएं और एम ए हिन्दी    w e f   from 2012  पर क्लिक करें और पाठ्यक्रम का अभ्यास कर लें। आप यह जान लें कि किस तरह की तैयारी आपको करनी है। आप क्या पढ़ने वाले हैं। पाठ्यक्रम को डाउनलोड  कर के उसे अपने पास उपलब्ध कर लें। 
     
     
    इस वर्ष ब्लॉग  लेखन नियमित हो , ऐसी मेरी कोशिश रहेगी।
 

    आप जितने सक्रीय रहेंगे, उतना ब्लॉग प्रकाशित होगा।

    पहला काम करें अपना ई-मेल अकाऊंट  खोल लें।

     शेष मिलने पर





पुनश्च

कोर्स ४०९ को लेकर आपने में जो सवाल उठाए हैं, उनके संबंध में पहले तो मुझे आपको बधायी देनी चाहिए कि आप अपने पाठ्यक्रम को गंभीरता से लेते हैं। फिर आप अध्ययनशील भी हैं। लेकिन हमें अपना अध्ययन निरंतर पैना बनाना चाहिए। अपने जिन सवालों को उठाया है,उनमें पहला प्रश्न बाणभट्ट के प्रकाशन वर्ष को लेकर था। आप को यह तो पता ही है कि इस उपन्यास को आपको विशेष रूप से नहीं पढ़ना है। जैसे सूरज का सातवाँ घोड़ा इत्यादि। पर हिन्दी उपन्यास में आए विभिन्न मोडों में से एक यह भी है। इस का असर उत्तर आधुनिक समय के उपन्यासों पर देख सकते हैं। बाणभट्ट आत्मकथा नहीं परन्तु आत्मकथनात्मक उपन्यास है, जैसे कि ओम्प्रकाश वाल्मीक के जूठन के विषय में कहा जाता है। फ़र्क यह है कि बाणभट्ट की कथा हजारी प्रसाजी कहते हैं और वाल्मीक की कथा स्वयं कहते हैं वाल्मीक

Friday, 17 May 2013



यह एक प्रस्ताव है और हमारा आपसे निवेदन है कि इसे आप गंभीरता से पढ़ें तथा अपने विचारों से अवगत कराएं ।

अकादमिक जगत में इतने वर्ष काम करते हुए हमें यह बात बड़ी शिद्दत से अनुभव हुई है  कि हिन्दी के शोध कार्यों में शोध प्रविधि के मानकीकरण का नितान्त अभाव है। (यह अनुभव आपका भी होगा) इस मानकीकरण के अभाव के कारण  हमारे शोध कार्यों में स्तरीकरण का अभाव देखा जा सकता है। भारत के सभी विश्वविद्यालयों में वर्षों से पीएच. डी. का तथा एम.फिल का शोध कार्य हो रहा है। कई विश्वविद्यालयों में एम. ए. के स्तर पर भी इस प्रकार का कार्य होता रहा है। हम सभी का यह साझा अनुभव रहा है कि तमाम विश्वविद्यालयों में जो शोध कार्य हो रहे हैं उनमें शोध प्रविधि का या तो अंशतः अभाव होता है अथवा उसका किसी मानकीकृत स्वरूप का प्रयोग नहीं होता है।  मानकीकरण के अभाव की समस्या के संदर्भ में समाज-शास्त्रीय विषयों , शिक्षा,  विज्ञान के विषयों में अथवा अंग्रेज़ी के समक्ष यह चिन्ता नहीं है।
आज जब व्यापक रूप से शोध कार्य करने के कारणों में परिवर्तन आ गया है , परिस्थितियों में बदलाव आ गया है तथा राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हम हिन्दी भाषा तथा उसके साहित्य को स्थापित करने की मंशा रखते हैं, उसके अध्ययन-अध्यापन को लेकर उत्साहित हैं , तब इस मानकीकरण की हमें अधिक आवश्यकता है। हिन्दी साहित्य का अध्यापन  केवल विभिन्न भारतीय प्रांतों में ही नहीं होता अपितु विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में हो रहा है।
आज अंग्रेज़ी पढ़ने वाला चाहे हिन्दुस्तान में रहकर अंग्रेज़ी में शोधकार्य करे, चाहे इंडियन इंग्लिश लिटरेचर पर करे या अमरीकन इंग्लिश लिटरेचर  पर करे अथवा चीन -जापान में रह कर अंग्रेज़ी साहित्य में शोध कार्य करे, परन्तु वह सामान्य रूप से एम. एल.ए. स्टाईलशीट का प्रयोग करेगा। अथवा वह अन्य जिसका भी करेगा उसका उल्लेख अपने शोध कार्य की भूमिका में अवश्य करेगा। एम. एल. ए. स्टाइलशीट के किस संस्करण से क्या लेना  है , इस संबंध में भी एकरूपता देखी जा सकती है। अतः अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने वाला विश्व का हर शोधार्थी एक प्रकार की शोध प्रविधि का उपयोग करता हुआ दिखता है जिसके कारण शोध में आने वाली अनेक स्तरहीन बातें अपने आप निलंबित हो जाती हैं।
इसके ठीक विपरीत शोध प्रविधि में मानकीकरण के अभाव में हमारे यहाँ किये जाने वाले शोध कार्यों में अनेक क्षतियाँ रह जाती हैं। मानकीकरण के अभाव में किसी को इस संदर्भ  में टोका भी नहीं जा सकता। ऐसे शोधकार्य इसीलिये, अमान्य भी नहीं किये जा सकते।  परिणामस्वरूप शोधार्थी कई बार अख़बार से लेकर विज्ञापन के लिये प्रसिद्ध किए हुए  चौपाने तक से संदर्भ लेने में हिचकिचाते नहीं हैं। संदर्भ कहाँ से नहीं लेने चाहिए उसका कोई मानकीकृत निर्देश न होने के कारण शोध कार्यों की स्थिति  कई बार बड़ी अराजक हो जाती है।
विषय-चुनाव  की दृष्टि से हमारे शोध विषय की मर्यादा भी रेखांकित नहीं हो पायी है। हमारे विषय का अतिक्रमण कई बार धर्मशास्त्र में होता  है अथवा कई बार दर्शनशास्त्र में । इसे अन्तर्विद्याकीय अध्ययन के रूप में करना है तो शोध प्रविधि भी उस प्रकार की होना ज़रूरी है- इस बात को गंभीरता से नहीं लिया जाता। इस संबंध में सबसे अधिक अराजकता तथाकथित 'तुलनात्मक अध्ययनों' में होती है।  
इसी शोध-प्रविधि  के अभाव में आजकल शोध-कार्य स्वीकृत होने के पूर्व ही –  इस उम्मीद में कि, इसे आगे तो छपना ही है, --   समर्पित करने की पहल भी कई विश्वविद्यालयों  के शोध-कार्यों में दृष्टिगोचर होने लगी  है।
यह अत्यन्त चिंता का विषय है कि अकारादि से दी हुई संदर्भ-ग्रंथ सूचि  तथा  शोध कार्य की भाषा में निजवाचक सर्वनाम के प्रयोग के संदर्भ में 80 प्रतिशत शोधकार्य किसी भी प्रकार के नियमों का पालन नहीं करते।
इसमें कोई संदेह नहीं कि वैदुष्य एवं शोध-प्रतिभा का क्रमशः क्षरण हो रहा है साथ ही शोध-कार्य के उद्देश्यों में परिवर्तन आ गया है। ऐसे में यह अत्यन्त आवश्यक हो गया है कि हम किसी मानकीकृत प्रविधि का प्रयोग करें। अब अगर यू. जी. सी. शोध कार्यों को नेट पर रखने वाली  है , तो,  मानकीकृत प्रविधि के अभाव में हमारे शोधकार्यों की विद्वत् समाज के  सम्मुख सामाजिक  स्वीकृति का प्रश्न भी  तो उठेगा ।  
आज जब सभी विश्वविद्यालयों को शोधकार्य हेतु छात्रों को पंजीकृत करने के लिए परीक्षा पद्धति का मानकीकरण हो गया है और सभी इसका पालन करने के लिए बाध्य हैं, तो क्यों न हम हिन्दी भाषा साहित्य में होने वाले शोध कार्यों की प्रविधि के मानकीकरण की दिशा में पहल करें ? शोध कार्यो के अभिलेखिकरण की भी आवश्यकता है तथा उसका भी मानकीकरण करने की भी आवश्यकता है।
सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे पास शोध-प्रविधि की अपनी एक भारतीय परंपरा भी रही है। उसे तथा आज की हमारी आधुनिक प्रविधि को जोड़ कर क्या हम अपनी एक मानकीकृत पद्धति को नहीं अपना सकते ? इस संबंध में हमारे पास पुस्तकें भी उपलब्ध हैं जो इस कार्य में हमारी मदद कर सकती हैं। अगर किसी विश्वविद्यालय में इस प्रकार की पहल हुई है तो उसे भी देखा जा सकता है। हमें नये सिरे से कुछ नहीं करना , परन्तु जो अव्यवस्थित है,  उसे संपादित कर के व्यवस्थित करना है।
यह हमारी साझा चिंता का विषय है, अतः हमें साथ मिल कर इस संबंध में काम करना होगा।  इस संबंध में किस तरह कार्य किया जा सकता है,  अपने विचारों से अवगत कराएं ।
·       सबसे पहली बात तो यह है कि क्या हम इस विचार से सहमत हैं! अथवा क्या असहमत होने का हमारे पास कोई विकल्प है?
·       क्या हमें आरंभिक स्तर पर क्लस्टर्स बना कर आस-पास के विश्वविद्यालयों में समानांतर समय पर, कार्यशालाओं के माध्यम से काम करना चाहिये- चाहे राज्य स्तर पर अथवा अन्तर्राज्यीय स्तर पर?
·       इसके बाद हर कार्यशाला के परिणामों को किसी राष्ट्रीय संगोष्ठी के अन्तर्गत चर्चा कर के किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिये?
·       प्रत्येक विश्वविद्यालय को संगोष्ठियों के लिए  अनुदान मिलता है। क्या हम इस हेतु आते एक दो वर्ष बारी बारी अपने अनुदान को इस विषय के लिए खर्च कर सकते हैं ?
·       क्या इसके लिये कोई अलग संस्था बनानी चाहिये अथवा वर्तमान किसी राष्ट्रीय संस्था के मंच से यह काम करना चाहिये?
हम जिन भी शोध परिणामों पर पहुँचेंगे, इसका पालन करने के लिए यू. जी. सी. ने जिस कोर्स वर्क का आग्रह रखा है उसमें इसे समान रूप से लागू किया जा सकता है। इस तरह हमारे सामूहिक परिणामों को समान रूप से लागू भी किया जा सकता है।
आपके प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा है।

रंजना अरगडे,      अध्यक्ष हिन्दी विभाग ,    गुजरात विश्वविद्यालय,  अहमदाबाद               
माधव हाडा,       अध्यक्ष हिन्दी विभाग,     मो. सु. विश्वविद्यालय,   उदयपुर                         
शैलजा भारद्वाज,   अध्यक्ष हिन्दी विभाग,    म.स. विश्वविद्यालय,    बरोड़ा                                    
गीता नायक,        अध्यक्ष हिन्दी विभाग,    विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन