जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Saturday 4 September 2010

HIN-404 लोकजागरण कालीन हिन्दी पद्य

भारतीय भक्ति साहित्य का परिचय

( इस विवेचन का आधार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का लेखन है। अधिक विस्तृत जानकारी के लिए विद्यार्थी उनकी ग्रंथावली के पाँचवे खंड को देख सकते हैं। इसमें बहुत सारी बातें आचार्यजी में से शब्दशः भी ली हैं। अतः यह कोई मौलिक चिंतन नहीं है। परन्तु आचार्यजी के ग्रंथों को देखने के लिए विद्यार्थी प्रेरित हों इस आशय से गुरु-वचन को सरल कर के इसमें रखने का प्रयास किया है।)


भारतीय भक्ति कविता की बात जब भी की जाती है, तब काल की दृष्टि से कहीं- न-कहीं हमारे चिंतन के पार्श्व में मध्यकाल होता है। पश्चिम में मध्यकाल की जो अवधारणा है उससे भारतीय मध्यकाल नितांत भिन्न रहा है। मध्यकाल को पश्चिम में पतनशील मानसिकता अथवा अंधकार युग के रूप में देखा जा सकता है। जबकि भारतीय संदर्भ में मध्यकाल कला, साहित्य, चिंतन, दर्शन और राजकीय दृष्टि से भी अत्यन्त समृद्ध एवं उत्कर्ष का काल रहा है। भारतीय मध्यकाल को हम मोटे तौर पर दो भागों में बाँट सकते हैं। पूर्व मध्यकाल (5वीं-6ठी से 10वीं शताब्दी तक) तथा उत्तर मध्य-काल ( 10वीं से 16वीं शताब्दी तक) पूर्व-मध्य काल में कुमारिल भट्ट, जैसे विख्यात मीमांसकों का प्रादुर्भाव हुआ। भुवन विश्रुत आचार्य शंकर, प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य चंद्रकीर्तिका का भी यही समय था। साथ ही सामंत भद्र, और अकलंक जैसे जैन मनीषी भी इसी समय हुए। यही वह समय है जब काव्य, नाटक, आख्यायिक, अंलकार-शास्त्र आदि के विख्यात आचार्य हुए। इसी समय में पुराणों, आगमों तथा संहिताओं की रचनाएं अस्तित्व में आती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय मध्यकाल का पूर्वार्ध धर्म, दर्शन तथा बैद्धिक मनीषा का एक ऐसा सुवर्ण काल था जिसने भारतीय सांस्कृतिक चेतना का पिंड निर्मित किया।
दसवीं शताब्दी के बाद का समय जिसे प्रायः हम भक्तिकाल के नाम से पहचानते हैं तथा उसमें भारतीय धर्म, दर्शन तथा भाषिक व्यवस्था की जो विभिन्नताएं दिखाई पड़ती हैं – उसकी मानों पृष्ठभूमि इस पूर्व-मध्यकाल में बनती है। इस समय के मीमांसकों, आचार्यों तथा वेद-विरोधी धर्म-संप्रदायों का उद्भव उत्तर-मध्यकाल की भारतीय भक्ति परंपरा के लिए ज़िम्मेदार है, ऐसा कहा जा सकता है।
यहाँ पर यह समझ लेना होगा कि ईसा की छठी शताब्दी के पहले ही भारतीय धर्म साधना के चित्र फलक पर जैन तथा बौद्ध धर्म मतों का उद्भव हो चुका था। इन मतों के धर्म प्रचार तथा धार्मिक मान्यताओं में जो प्रमुख बात उभर कर आती है वह यह कि ये संप्रदाय वेद-विरोधी थे। वेद-विरोधी होने का मुख्य कारण यज्ञ में होने वाली बलि( जिसमें मानव बलि भी शामिल है) के कारण होने वाली हिंसा तथा वौदिक काल के बाद के समय में ,जाति प्रथा के फलस्वरूप समाज में उच्चावचता की व्यवस्था का निर्माण। वैदिक काल में भी ईश्वर तथा देवताओं की परिकल्पना इस तरह से थी कि समाज के एक विशेष वर्ग को ही उसका लाभ मिल सकता था। क्रमशः जाति प्रथा के दृढ बन्धन में बंधे हुए वैदिक धर्म संप्रदायों को इन बौद्धों ने शिथिल करने का आरंभ किया। इस पूर्व पूर्वभूमिका में जब हम पूर्व-मध्यकाल के धार्मिक चित्र को देखते हैं, तो यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि उस समय दो प्रकार की मान्यताएं प्रचलित थीं।एक मान्यता के अनुसार किसी को भी हीन बताने के लिए उसे वेद-विरोधी कहा जाए । दूसरी मान्यता में वे लोग थो जो इस प्रकार के – यानी कि वेद-विरोधी संप्रदायों को बेहतर समझते थे। वैदिक धर्मऔर संप्रदायों के विरोध में जिन सम्प्रदायों का उद्भव हुआ वे यही वेद-विरोधी संप्रदाय थे।कुल्लूक भट्ट ने मनु की टीका में इस शब्द की व्याख्या इस तरह की है - नास्तिक शब्द का अर्थ है- वह जो परलोक में विश्वास नही करता। सातवीं शताब्दी के बाद भारत में यह प्रवृत्ति उत्तरोत्तर प्रबल होती गई। इसका मुख्य आशय अ-वैदिक लोगों/संप्रदायों को अपने से हीन साबित करना रहा है। इससे यह पता चलता है कि भारतीय भक्ति साहित्य में आस्तिक और नास्तिक होनें प्रकार के मत थे परन्तु प्रबलता तो आस्तिकों की ही थी।
इस काल के प्रमुख नास्तिक संप्रदाय मुख्यतः छः थे। चार बौद्धों के तथा दो अन्य। बौद्धों के चार संप्रदाय इस प्रकार थे-
1- माध्यमिक 2- योगाचार 3- सौत्रांतिक तथा वैभाषिक
इनके अलावा
5- चार्वाक एवं 6- दिगंबर जैन।
जहाँ तक आस्तिक श्रेणी का संबंध है यह कहा जा सकता है कि इनमें वे तमाम धर्म-मत तथा दार्शनिक संप्रदायों की गिनती की जा सकती है जो वेद को प्रमाण मानते थे। उत्तर मध्य-काल तक आते-आते वेदांत के अनंत परस्पर विरेधी संप्रदाय हुए और मज़े की बात यह है कि सभी अपने को श्रुति परंपरा से निकले संप्रदाय मानते हैं। अद्वैत, द्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद आदि परस्पर विरोधी मत ऐसे हैं जो एक ही वेद को अपना आधार मानते हैं। इसी प्रकार शैव, शाक्त, पाशुपत गाणपत्य सौर आदि अनेक धार्मिक संप्रदाय अपने को वेद-प्रतिपादित बताते हैं। कूर्म पुराण में कापाल, लकुल, वाम,भैरव,पूर्व, पश्चिम, पांचरात्र, पाशुपत आदि को अवैदिक बताया गया है। एक मज़ेदार बात यह है कि प्रायः ही शिवजी या स्वयं विष्णु भगवान के मुख से कहलवाया गया है कि उन्होंने असुरों को पथभ्रष्ठ बनाने के लिए मोह शास्त्रों की रचना की थी। उत्तर कालीन मध्य युग में यह धारणा दृढ हुई कि प्रत्येक संप्रदाय के लिए एक भाष्य का होना आवश्यक माना गया। ये या तो उपनिषदों पर या ब्रह्मसूत्र पर अथवा गीता पर आधारित होना चाहिए। इसी को प्रस्थान-त्रयी कहा गया।[i]


उत्तर-मध्य युग में भाष्य-हीन संप्रदायों को अ-वैदिक समझ लिया गया। कहा जाता है कि अपना भाष्य नहीं होने के कारण गौडीय वैष्णव को एक बार जयपुर में कठिनाइयों में पड़ना पड़ा था। जैसा कि यह ज्ञात है कि आगसों की तीन श्रेणियाँ हैं – अर्थात् वैष्णव , शैव और शाक्त। उनके भी उपभेद हैं। ये सभी भेद और उप-भेद उत्तर मध्यकाल में विकसित रूप पाते चले गए। मध्यकालीन भक्ति साहित्य में जो महत्वपूर्ण साधनाएं दृष्टिगोचर होती हैं उनमें से पाँचरात्र और वैष्णव मत विशेष महत्वपूर्ण हैं।
पाँचरात्र मत के उपासकों को भागवत् कहते हैं। पाँचरात्र संहिता कहाँ और कब लिखी गई इसके संदर्भ में कुछ भी निर्णय करना कठिन है। लेकिन ईस्वी सन् की 8वीं सदी से पूर्व दस से बारह संहिताएं निश्चित् रूप से लिखी गई थीं। बाद में दक्षिण भारत में भी पाँचरात्र संहिताएं बनीं। इन संहिताओं में क्या है ? शैव आगमों की भाँति इन संहिताओं में चार विषयों का प्रतिपादन है। यथा- ज्ञान, योग, क्रिया, चर्या।
ज्ञान- अर्थात् ब्रह्म, जीव तथा जगत के पारस्पारिक संबंधों का निरूपण है।
योग- अर्थात् मोक्षके साधन-भूत योग प्रक्रियाओं का वर्णन।
क्रिया- अर्थात् देवालय का निर्माण मूर्ति स्थापना आदि।
चर्या- अर्थात् नित्य-नैमित्तिक क्रिया। मूर्ति तथा यंत्र की पूजा पद्धति परम विशेष के उत्सव आदि।
वस्तुतः क्रिया और चर्या ही संहिताओं के प्रिय और प्रधान विषय हैं। इन संहिताओं को वैषणवों का कल्प-सूत्र भी कहा जाता है। दक्षिण में इस समय बहुत से मंदिरों में भागवत अर्चक हुए हैं। तमिल देश के अधिकांश मंदिरों पाँचरात्र संहिताओं के अनुसार पूजा होती है। परन्तु अभी भी ऐसे देवालय हैं जिनमें वैखानस संहिताओं के अनुसार पूजा होती है। कहते हैं कि रामानुजाचार्य द्वारा विरोध के कारण बहुत से मंदिरों में वैखानस संहिताओं का व्यवहार उठ गया और पांचरात्र संहिताओं का प्रचलन हुआ। अप्पय दीक्षित का कहना है कि पाँचरात्र मत अवैदिक हैं और वैखानिस मत वैदिक हैं। वस्तुतः इन संहिताओं के मत से भगवत् के अनुग्रह से ही जीव के मल का नाश होता और उनकी कृपा से ही वह मुक्ति पाता है। इस भवजाल से मुक्ति पाने का उपाय निरीह हो कर भगवान की शरण में जाना ही है। जो भगवान के प्रति अनुकूलता के संकल्प, प्रतिकूलता के त्याग, रसकत्वम, विश्वास तथा आत्मसमर्पण और निरीहता से प्राप्त है। विक्रम की सातवीं सदी से लेकर दसवीं सदी तक तमिल देश में ऐसे भक्त गायकों का प्रादुर्भाव हुआ था जो भक्ति के उल्लास में एक मंदिर से दूसरे मंदिर तक भजन गाते फिरते थे। अपने इष्टदेव की मूर्ति का वियोग इनके लिए असह्य था। इन भक्तों में यह विश्ष्टिता थी कि ये शैव तथा वैष्णव दोने प्रकार के थे। वैष्णव संत दस आळवार संज्ञक प्रसिद्ध हैं। शैव भक्तों में भी तीन बहुत प्रसिद्ध हैं। उन पर भी आगमों का प्रभाव बहुत कम है। इससे यह पता चलता है कि तमिल देश में संहिताएं देर से पहुँची। आलवार लोग अस्पृश्यों को भी उपदेश देते थे। कई अस्पृश्य कही जाने वाली जातियाँ में ऐसे भक्त भी उत्पन्न हुए जो वैष्णव संप्रदाय के आदि गुरु माने जाते हैं।

(शेष अगली पोस्ट में...)


[i] ( महाभारत, रामायण तथा गीता को भी प्रस्थान त्रयी कहा गया है।)