जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Friday 18 February 2011

411-EA

वह बुड्ढासुमित्रानंदन पंत की कविताओं की एक विशेषता यह है कि उनमें कल्पना शक्ति के साथ-साथ निरीक्षण शक्ति भी अद्भुत रूप से दिखाई पड़ती है। प्रथम रश्मी अथवा नौका विहार या फिर पावस ऋतु में पर्वत प्रदेश जैसी कविताओं में इसका आपको परिचय मिल गया होगा। छायावादी काव्य-कौशल से युक्त उनकी कवित्त –शक्ति जब कुछ भिन्न प्रकार की कविताएं रचती है तब भी पूर्व प्राप्त किया हुआ काव्य-कौशल वहाँ झलकता तो है। इस संदर्भ में वह बुड्ढा कविता बरबस हमारा ध्यान खींचती है। जैसे जैसे इस कविता को हम पढ़ते हैं, हम भी, जैसा कवि ने कहा है बरबस उठ जाने का मन – यानी कि न पढ़ने का मन बना लेते हैं। परन्तु साथ ही साथ हमारे भीतर एक कौतुक भी जगता है कि आखिर पंत जी ने इस बुड्ढे का इतना सही चित्रण कैसे किया है ? जैसे कोई रेखाचित्र कवि बना रहा है। इस कविता को पढ़कर कोई चित्रांकन करे तो सहसा ऐसा लगेगा कि किसी वास्तविक मॉडल (बूढ़े) को देख कर ही यह चित्र बनाया गया है।
कविता के आरंभ में ही कवि हमारे सामने उस बुड्ढे का चित्र खींचते हैं। कवि उसका वर्णन करते हुए, उसे जीवन का बूढ़ा पंजर कहते हैं। आगे का वर्णन कितना सूक्ष्म है चिमटी उसकी सिकुड़ी चमड़ी। बुढ़ापे में चमड़ी झुर्रीदार हो जाती है, फिर ढ़ीली भी हो जाती है, उसमें कसाव नहीं होता , अतः ऐसी हो गई यह चमड़ी उसकी हड्डी के ढाँचे पर हिल रही है। एक तो शब्द चयन ही ऐसा है इनमें इकारान्त शब्दों का आवर्तन .... बूढ़े पंजर पर चिपकी हुई सिकुडन वाली चमड़ी बूढ़े का चित्र इस तरह खडा करता है कि हमें लगने लगता है कि इससे अधिक यथार्थ कुछ नहीं हो सकता। यथार्थ के ऐसे चित्र कविता में आगे भी आते हैं। कविता में बूढ़े पंजर, हड्डी का ढाँचा, ठठरी- कितने ही विशेषण बूढे कि लिए होती हैं। फिर ठूंठे तने से इसकी तुलना करते हुए कहते हैं कि नसें उसकी हड़ी पर ऐसी लगती है जैसे ठूंठ पर लिपटी अमरबेल।
इस बात को हमने कई बार कहा और सुना होगा कि खंडहर बता रहै हैं इमारत बुलंद थी। इसी को पंतजी ने इस कविता में स तरह कहा है, देखिए
उसका लंबा डील-डौल है/ हट्टी-कट्टी लंबी काठी/ इस खंडहर में बिजली-सी /उन्मत्त जवानी दौड़ी होगी । ऐसे इस डील डौल वाले शरीर के इस बूढे की अब छाती बैठ गई है, रीढ़ की हड़ी झुक गई है, कंधे झुक गए हैं, देह नंगी है , बालों से भरी है, झुक कर मानों पिछले पाँवों पर चलता है, जैसे कोई बनमानुस हो, ऐसा लगता है।
कविता का मर्म अंतिम पंक्तियों में है। कवि कहता है कि वह बूढ़ा, जानवर की तरह हो गया है और उसका कारण है दुख परिणाम यह हुआ कि उसमें मनुष्यता मर गई है। उसकी ऐसा दशा को देख कर कवि को लगता है कि उस धरती से वे पाँव उठा लें- अर्थात् चले जाएं।
इस कविता को पढ़ कर हमारे मन में कई प्रश्न उठते हैं। कवि ने एक विपन्न बूढ़े पर कविता लिखी है, परन्तु कवि के मन में इसके प्रति कोई सहानुभूति नहीं है, बल्कि कवि ने दो स्शानों पर उसके प्रति उठता घृणा का भाव प्रकट किया है। क्या इसे हम कवि का भाव कहें या फिर ऐसे लोगों को देख कर सामान्यतया जो भाव लोगों के मन में उठते हैं उसका बयान कवि करते हैं। हमें यह भी लगता है कि कवि इस बात की ओर इशारा करना चाहता है कि भूख का दुख ही व्यक्ति को मनुष्य में से जानवर बनाती है। समाज की इस सच्चाई को कवि हमारे सामने लाना चाहते हैं।
हमारे मन में एक प्रश्न उठता है कि आखिर कवि पंत- जिन्होंने छायावादी दौर में एक-से-एक सौन्दर्य से भरे चित्र खींचे हैं, उन्होंने एक ऐसा चित्र क्योंकर खींचा। कवि अब एक नए दौर में प्रवेश भी कर रहे हैं। अतः छायावादी काव्य के उपकरणों से वे नए दौर में प्रवेश करते हैं। जहाँ उन्हें अपनी निरीक्षण क्षमता और सूक्ष्म चित्रण की कला काम आती है, वहीं छन्द ङी उन्हें मदद करता हुआ दिखता है। अभी छन्द छोड़ कर कविता लिखने का युग आया नहीं था। अतः इसमें वितृष्णा से भरा यथार्थ सौन्दर्य मंडित हो कर आता है। कवि बूढ़े का जो चित्र लेकिन हमारे सामने खींचते हैं, वह अगर हमें आकर्षित करता है, तो एक कला रूप में- इसका पहला कारण इसे कवि ने एक नियमित लय में बाँधा है। खड़ा द्वार पर लाठी टेके......कविता का आरंभ एक निश्चित लय-गति के साथ हमें बँधता है- 16 मात्राओं का यह मात्रिक छन्द लगभग अपनी मात्रा संयोजन की नियमितता तोड़ता नहीं है। कहीं-कहीं 15 मात्राएं भी हैं। देखिए, कविता का तो ऐसा ही है- ख़ासकर छायावादी युग में कवि प्रायः मात्रिक छन्दों में ही लिखते रहे। कोर्स 412 में महादेवी का कविता नीर भरी दुख की बदरी में भी 16/15 का नियमित आवर्तन है, प्रसाद की बीती विभावरी में 15 का आवर्तन है--- परन्तु सभी की लयात्मकता में अंतर है। यह अंतर इसलिए है कि लघु-गुरु का आयोजन और कविता में भाव की भिन्नता उसके पाठ की लय में भेद का कारण बनती है।
खड़ा द्वार पर लाठी टेके 16
वह जीवन का बूढ़ा पंजर 16
चिमटी उसकी सिकुड़ी चमड़ी 16
हिलते हड्डी के ढाँचे पर 16
मैं नीर भरी दुख की बदरी(महादेवी) 16
साड़ी सी सिकुडन-सी जिस पर (नौका विहार) 16
आपने देखा कि ऐसे अनेक उदाहरण अगर आप ढूंढे, तो आपको मिल जाएंगे। कविता पढ़ने का अपना एक आनंद होता है। कविता पढ़ने की अपनी एक रीति भी होती है। कभी अगली बार इस पर भी हम चर्चा करेंगे।