जिन खोजा तिन पाइयां

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Saturday 10 December 2011

तुलनात्मक साहित्य की प्रासंगिकता

आपने यह प्रश्न किया था कि आपको तुलनात्मक साहित्य की प्रासंगिकता वाला मुद्दा समझ में नहीं आया। सबसे पहले आपको इस बात को समझना चाहिए कि हम प्रासंगिकता की बात क्यों कर रहे हैं। आपके मन में यह प्रश्न उठा होगा कि सूर,तुलसी या मध्यकालीन काव्य के अन्य अनेक रचनाकारों की प्रासंगिकता की चर्चा तो समझ में आती है अथवा छायावादी काव्य की प्रासंगिकता की भी बात समझ में आती है। फिर इस विषय पर सीधे-सीधे ऐसी कोई ऐसी पुस्तक मिली नहीं कि हम पढ़ कर समझ लें। ले दे कर एक इन्द्रनाथ चौधुरी जी की पुस्तक है। उसमें भी तो सीधे सीधे कुछ नहीं लिखा है। अभी तो ज्ञान का यह विषय नया है, फिर प्रासंगिकता का प्रश्न कहाँ उठता है।
लेकिन इस मुद्दे पर आपके पास सामग्री है। आपकी समझ में भी आ रहा कि इसका आशय क्या है। जो समस्या आपकी है वह यह कि हम इस सामग्री को प्रासंगिकता के संदर्भ में समझें कैसे और फिर उसे लिखें कैसे।
आपने तुलनात्मक साहित्य का ऐतिहासिक परिचय पाया होगा जिससे आपकी समझ में आ गया होगा कि यह ज्ञान - शाखा बीसवीं सदी की देन है। हालांकि तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन का आरंभ 19वीं सदी के अंत में हो चुका था। आप इस बात को भी जानते हैं कि विश्व साहित्य तथा तुलनात्मक साहित्य बहुत क़रीबी ज्ञान-शाखाएं हैं। उस पूरे परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए आप इस बात को याद करें कि तुलनात्मक साहित्य के जन्म के क्या कारण हैं। आप इस बात को भी न भूलें कि तुलनात्मक साहित्य एक तरह से पाश्चात्य साहित्य की वर्चस्ववादी वृत्ति के सामने एक सशक्त स्वर के रूप में उभरा था।
आपको इस बात का भी पता होगा कि पश्चिम के बहुसंस्कृति वाद के परिणाम स्वरूप विभिन्न धर्मों एवं समाजों तथा उनकी संस्कृतियों की ही यह एक तरह से अकादमिक आवश्यकता है। एक ऐतिहासिक बिन्दु पर बहुसंस्कृति वाद समय की आवश्यकता था तो आगे चल कर वही बहुसंस्कृतिवाद बाधा रूप भी लगने लगा। इसी बीच तुलनात्मक साहित्य पनपा है। अतः इसकी प्रांसगिकता पर विचार करते समय इन सब बातों पर सोचना आवश्यक है। मुझे मालूम है कि आप इतना पढ़ते हुए सोच रहे होंगे कि यह बहुसंस्कृतिवाद क्या है। बहुसंस्कृतिवाद के लिए अंग्रेज़ी में शब्द मल्टी कल्चरलिज़्म है। इसका आरंभ कनाड़ा में हुआ था। जब कनाड़ा में विभिन्न धर्म एवं राष्ट्रों के लोग आ कर बसे और आवश्यकता इस बात की थी कि कनाडा का विकास हो। यह तभी संभव था जब वहाँ रहने वाले विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच सौर्हाद्र कायम हो सके। यह बिना राजकीय दखल के संभव नहीं था। अतः ऐसा कानून पारित किया गया जिसमें प्रत्येक धर्म तथा देश के लोगों को समान अधिकार प्राप्त था। इसका आशय यह था कि सभी की कनाडा के विकास में समान भूमिका होगी। उस देश में सभी धर्मों एवं नस्लों के लोगों को संवैधानिक रूप से समान दर्ज़ा प्राप्त हुआ। इस राजकीय आवश्यकता से निर्मित बात को साहित्य के माध्यम स् अभिव्यक्ति आवश्यक थी। तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन की विधि इसमें बड़ी करागर साबित हुई। ।
यह अलग बात है कि बाद में चल कर इस मुद्दे पर विचार बदला और बहुसंस्कृतिवाद को ले कर प्रश्न उठे।
इस समग्र भूमिका को ध्यान में रखते हुए अब प्रश्न यह उठता है कि वे क्या करण हैं कि हमें आज उसकी प्रासंगिकता की चर्चा करनी पड़ रही है। इस मुद्दे को हम सुविधा के लिए कुछ मुद्दों में बाँट देंगे।
 हमारा पहला मुद्दा होगा- तुलनात्मक साहित्य की प्रासंगिकता साहित्य-अध्ययन के क्षेत्र में क्या है ?
 दूसरा मुद्दा है- तुलनात्मक साहित्य की विभिन्न प्रविधियों के संदर्भ में इसे किस तरह देखा जाए ?
 तीसरा मुद्दा है- भारतीय संदर्भ में तुलनात्मक साहित्य की विशेष आवश्यकता क्यों है ?
 चौथा मुद्दा है- विभिन्न राजकीय स्थितियां बदलने से क्या स्वरूप की प्रासंगिकता में परिवर्तन आता है ? परिवर्तन के बावजूद आवश्यकता क्या बनी रहती है ?
पहले मुद्दे के संदर्भ में बात करें तो यह स्पष्ठ हो जाता है कि तुलनात्मक साहित्य एकक(single literature) साहित्य अध्ययन से भिन्न है। एकक साहित्य का अध्ययन जहाँ साहित्य के सीमित अध्ययन की दिशा की ओर संकेत करता है, वहीं तुलनात्मक साहित्य हमें साहित्य के व्यापक अध्ययन की दिशा में ले जाता है। यहाँ तुलना इस बात की नहीं होती कि कौन-सा साहित्यकार श्रेष्ठ है बल्कि तुलना इस बात की होती है कि दोनों साहित्यकारों में समानता और भिन्नता के बिन्दु कौन-से हैं। कहाँ भाव-संवेदनाए-विचार-कला एक दूसरे के साथ मिलते हैं कहाँ अलग है। यह दूसरे को पहचानने तथा स्वीकार करने की दिशा में पाठक को ले जाता है। वर्तमान समय में इसकी विशेष आवश्यकता है। साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन व्यापक दृष्टि प्रदान करता है। संकीर्णता के विरोध में व्यापकता आज के विश्व-मनुष्य की आवश्यकता है।
दूसरे मुद्दे के संदर्भ में आपने तुलनात्मक साहित्य की विभिन्न प्रविधियों का अध्ययन किया है। इन प्विधियों के माध्यम से हमें पता चलता है कि इतिहास, सामाजिक तथा कला दृष्टि से विभिन्न भाषाओं के तथा विभिन्न देशों की विभिन्न भाषाओं के अध्ययन द्वारा विश्व के साहित्यों के अध्ययन में किस तरह व्यापकता आती है। आज के हमारे विश्व का चित्र कहीं व्यापकता को पुरुस्कृत करता है तो कहीं संकीर्णता की ओर ले जाता भी दिखाई पड़ता है। ऐसे में तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन विश्व को जीने लायक जगह बनाने की हमारी दृष्टि तथा प्रयत्म में हमारी मदद करता है।
तीसरे मद्दा भारतीय तुलनात्मक साहित्य से संबद्ध है। आज भारत में ही कई भाषाएं हैं और संस्कृतियाँ भी विद्यमान हैं। यों चाहे सभी भारतीय भाषाओं के बोलने वाले एक व्यापक भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं, परन्तु एक दूसरे की सही समझ के लिए आवश्यक है कि हम उनके साहित्य का अध्ययन करें और जानें कि हममें परस्पर समानता के बिन्दु कौन-से हैं जो हमें जोड़े रखते हैं और भेद के कौन हैं तथा क्यों हैं। क्यों का प्रश्न हमें इतिहास की परिस्थियिताँ जान कर मिल सकता है। इस जानकारी से एक-दूसरे के प्रति हमारी समझ तथा परिणामतः आत्मीयता बढ़ेगी।
इसी से जोड़ कर चौथा मुद्दा अगर देखें तो ता चलता है कि राजकीय परिस्थितियों तथा इतिहास से जुड़े मुद्दों के कारण अथवा सामजिक स्थितियों के कारण किस तरह भक्तिकाल का आविर्भव उत्तर तथा दक्षिण भारत में अगल अलग समय पर होता है। अथवा स्वतंत्रता संघर्ष के परिणाम स्वरूप दलित विमर्श का अस्तित्व प्रकट होता है परन्तु सामाजिक जागृति के परिणामस्वरूप वह महाराष्ट्र में पहले आता है तथा कालांतर में देश के उत्तरी हिस्से में वह प्रकट होता है। महाराष्ट्र की लोक-जागृति के कारण उसके इतिहास में ढूँढे जा सकते हैं जिस तरह उत्तर के राज्यों के पिछड़ेपन को उसके इतिहास में देखा जा सकता है। इस तरह साहित्य को देखने की दृष्टि साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से प्राप्त होती है। यह एकक साहित्य अध्ययन से संभव नहीं है। साहित्य को देखने की इस तरह की दृष्टि को विकसित करना ही आज सर्वाधिक प्रासंगिक है।
असल में इन्हीं मुद्दों पर आप विस्तृत चिंतन करेंगे तो आपको तुलनात्मक साहित्य की प्रासंगिकता के बारे में अधिक जानकारी मिल सकती है। इसे आप केवल चिंतन की एक दिशा मानें। एक बार आपने तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन संबंधी विभिन्न मुद्दों को समझ लिया तो उसकी प्रासंगिकता को समझना कठिन नहीं होगा।