जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Saturday 14 January 2012

डॉ.अम्बाशंकर नागरजी नहीं रहे। यह हम सभी जानते हैं कि आएं हैं तो जाएंगे.. राजा रंक फकीर....। परन्तु फिर भी जिनके साथ हमारा अथवा जिनका व्यापक मानव जीवन के साथ संबंध रहा है उनके जाने पर हमें अवश्य दुःख होता है। वह अगर हमारा आत्मीय अथवा स्वजन हो, तो, दुःख संभले नहीं संभलता।


       आज यह समाचार मिला तो मैं नागरजी को याद करते हुए सोच रही थी कि जिस व्यक्ति ने अपने जीवन के अंतिम समय तक  सक्रीयता को बनाए रखा उसके बारे में मुझे, एक विद्यार्थिनी अथवा हिन्दी से जुड़े एक सामान्य व्यक्ति के लिए, नागरजी के जाने का क्या अर्थ हो सकता है। नागरजी ने हमें एम.ए में पढ़ाया था, इस नाते मैं उनकी विद्यार्थिनी तो थी ही। फिर बाद में, मैं इस पढ़ने-पढ़ाने के व्यवसाय में आई तो उनके साथ मेरा एक अकादमिक संबंध भी बना। अतः उनके जाने को मुझे बहुत भावनात्मक रूप से नहीं लेने की अपेक्षा एक तटस्थ एवं वस्तुगत दृष्टि से स्वीकार करना चाहिए।


       बहुत ही तटस्थ और व्यापक रूप से देखूं तो नागरजी का जाना एक ऐसे व्यक्ति का जाना कहा जाएगा जिसका संबंध लोक एवं अकादमिक व्यवहार के उस सलीके से है, जो अब नदारद-सा ही, कहा जा सकता है। हमारा पूरा दौर बे-तमीज़ वागाडंबर का दौर है। नागरजी से मिलने वाला कोई भी व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि उन्होंने  कभी भी किसी के साथ अनौचित्यपूर्ण वाणी में बात की हो। सामने वाले की असहमति तथा बे-तमीज़ी का जवाब भी उन्होंने बड़ी सौहार्द्रता तथा तमीज़ से दिया है, ऐसा दावा अगर मैं करती हूँ तो यह निश्चय ही अतिश्योक्ति या अतिरंजित नहीं कहा जाएगा। लेकिन यह भी सही है कि वे वही करते रहे जिसे कहते थे, मानते थे और जिसे अपनी दृष्टि से वे योग्य और ज़रूरी समझते रहे थे। अपने मत में दृढ थे।
       मूलतः राजस्थान के निवासी डॉ नागर जी का कर्म-स्थान तो गुजरात ही रहा।


      डॉ. नागरजी का हिन्दी साहित्य को सबसे बड़ा योगदान यही रहा कि उन्होंने गुजरात में लिखे जाने वाले हिन्दी साहित्य, ख़ास कर मध्यकालीन साहित्य विषयक खोज की, इस तरह की क्षेत्रीय शोध को बढ़ावा दिया, इससे संबंधित कृतियों का  संपादन किया तथा यहाँ रहते हुए वर्तमान समय में लिखने वाले रचनाकारों को लोकतांत्रिक सुविधा मुहैया कराने में भी एक भूमिका निभाई।  गुजरात में लिखे जाने वाले हिन्दी साहित्य को नागरजी की यह बहुत बड़ी देन है।आज यू.जी..सी प्रांतीय हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम बनाने को महत्व देती है। गुजरात में यह सरलता से संभव इसलिए हो सका कि नागरजी तथा उनके साथियों एवं समकालीनों ने इस विषय में नींव का काम किया,  इसमें कोई संदेह नहीं है। उन्हें गुजरात में हिन्दी प्रसार एवं प्रचार तथा रचनात्मक कार्यों के लिए  के लिए अनेक पुरस्कार तथा सम्मान मिले, जिसके वे हक़दार थे।


      पर इन सम्मानों से परे नागरजी का एक और व्यक्तित्व है , जो एक प्रभावशाली  शिक्षक का माना जा सकता है। उनकी छबि, युनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर की एक बड़े प्रभावशाली और प्रीतिकर चित्र के रूप में याद की जाएगी। उनका डील-डौल, उनका व्यक्तित्व तो प्रभावशाली था ही, साथ ही वे उस पीढ़ी के शिक्षक थे जो अपने व्यवसाय को ले कर बहुत गंभीर थे। अपने समय की व्यावसायिक राजनीति से वे अछूते नहीं थे, वे उसका एक हिस्सा थे , परन्तु उस राजनीति को बड़ी कुशलता से वहन करने के सलीके को वे जानते थे, शायद तभी वे एक सफल अध्यापक भी थे।


     मध्यकाल के विशेषज्ञ, नागरजी संगीत और कला के भी मर्मज्ञ थे। गुजरात का हिन्दी जगत उनके इस योगदान को सदैव याद रखेगा।


     भाषा साहित्य भवन के हिन्दी विभाग के वे प्रथम अध्यापक एवं अध्यक्ष थे। अपने कार्यकाल के दौरान विभाग में अनेक-विध कार्यक्रमों के द्वारा एक विद्याकीय वातावरण आपने निर्मित किया, यह विभाग के लिए स्मरणीय बात रहेगी।


      विभाग उनक प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।