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इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Saturday 4 January 2014

रचनात्मक लेखन और अनुवाद


(प्रस्तुत सामग्री डॉ.मनीष गोहिल हिन्दी विभाग, आर्टस एन्ड कॉमर्स कॉलेज. धोलका ने तैयार की है और विद्यार्थियों के लाभार्थ उसे यहाँ दिया जा रहा है। इस सामग्री को आप डॉ. मनीष गोहिल के ब्नॉग पर भी देख सकते हैं। यह सामग्री उस योजना का हिस्सा है जिसके अन्तर्गत हिन्दी के अद्यापकों ने इस प्रश्नपत्र के लिए सामग्री का निर्माण किया क्योंकि इस प्रश्नपत्र से संबंधित सामग्री सरलता से उपलब्ध नहीं है। अनुवाद पर तो पुस्तकें हैं, पर डॉ गोहिल ने इस सामग्री के माध्यम से अधिक अध्ययन के लिए छात्रों को प्रेरित करने के लिए इसे अपनी तरह से निर्मित किया है। इसी क्रम में आने वाली पोस्ट में अन्य यूनिट की सामग्री उपलब्ध कराई जाएगी। संभव हुआ तो इस प्रकाशित सामग्री को प्रिंट माध्यम में भी उपलब्ध कराया जाएगा।)



यूनिट-3

1-अनुवाद स्वरूप और भेद                                                                
अनुवाद स्वरूप – सामान्य रूप से देखा जाए तो अनुवाद करना यानी स्रोत सामग्री के मुख्य आशय को यथायोग्य अभिव्यक्ति के साथ लक्ष्य भाषा में ले जाना। अनुवाद प्रक्रिया का मुख्य कार्य यही है। अनुवाद का मुख्य उदेश्य संप्रेषण है  भावो, विचारो तथा भाषा सौंदर्य़ का संप्रेषण। भाव तथा विचार की अभिव्य़क्ति भाषा के माध्यम से होती है। भाषा में शब्द होते हैं और शब्दों के अर्थ होते हैं।
      'अनुवाद' शब्द हिन्दी और अन्य क़ई भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त होता है। आज अनुवाद अंग्रेज़ी के 'ट्रान्सलेशन' शब्द के समानार्थी के रूप में प्रयुक्त होता है। यह शब्द प्राचीन फ्रान्सीसी शब्द 'ट्रान्सलेटेर' से व्युत्पन्न माना गया है। इसका व्युत्पत्तिमूलक अर्थ पारवहन – एक स्थान बिंदु से दूसरे स्थान बिंदु पर ले जाना। 'ट्रान्सलेट' शब्द लाक्षणिक व्यापार से अन्य कई अर्थो में भी प्रयुक्त होता है। मगर इस समय  हम इसके  मुख्य शब्दार्थ की ही बात कर रहे हैं।
      'अनुवाद' शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ को इस प्रकार प्रस्तुत कर सक्ते हैं। 'अनुवाद' शब्द संस्क̨त का है।  'अनुवाद' शब्द का सम्बन्घ 'वद्' धातु से है,  जिसका अर्थ होता है 'बोलना' या 'कहना'। 'वद्' धातु में 'धञ्' प्रत्यय से 'वाद' बनता है,फिर उसमें 'पीछे','बाद में','अनुवर्तिता' आदि अर्थों में प्रयुक्त 'अनु' उपसर्ग जुड़ने से 'अनुवाद' शब्द निष्पन्न होता है। अनुवाद का मूल अर्थ है - 'पुन:कथन' या 'किसी के कहने के बाद कहना'।
            अनुवाद शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अलग – अलग शब्द कोश में अनुवाद शब्द का अर्थ इस प्रकार होता है। जैसे – भाषान्तर, पुनरुकित, उल्था, दुहराना, पुन:कथन, पश्चात कथन, आव̨त्ति आदि।

परिभाषा :-
      अनुवाद प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कई विद्वानों ने परिभाषा प्रस्तुत की हैं। जैसे –
भोलानाथ तिवारी :- "एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथासम्भव समान और सहज अभिव्यक्ति द्वारा दूसरी भाषा में व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद है।"
न्यूमार्क :- "अनुवाद एक शिल्प है,जिसमें एक भाषा में लिखित संदेश के स्थान पर दूसरी भाषा में उसी संदेश को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जाता है।"
ए.एच.स्मिथ :- "अर्थ को बनाए रखते हुए अन्य भाषाओं में अन्तरण करना अनुवाद है।"
डॉ.स्टार्ट :- "अनुवाद अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान की शाखा है,जिसका सम्बन्ध प्रतीकों के एक सुनिश्चत समुच्चय से दूसरे समुच्चय के अर्थ के अन्तरण से है।"

अनुवाद के भेद (प्रकार) :-
      अनुवाद प्रक्रिया केवल एक भाषा नहीं अपितु अनेक भाषाओं में व्याप्त तथा व्यक्त जीवनानुभूति सौंदर्य तथा संस्कारों से तालमेल बिठानेवाला माध्यम है। अनुवाद की इस प्रक्रिया में प्रयोजन प्रयोग तथा प्रयुक्ता आदि तत्वों के आधार पर अनुवाद के अनेक भेद – प्रभेद हो सक्ते हैं। लेकिन विद्वानों ने अनेको भेद के मत मतांतर को ध्यान में रखकर निम्नलिखित कुछ महत्वपूर्ण भेद स्थापित किए हैं।

1). शब्दानुवाद :- अनुवाद के क्षेत्र में शब्दानुवाद को उच्च कोटी की श्रेणी में नहीं रखा जाता,किन्तु अनुवादक प्रक्रिया में एसे अनेक बिंदु आते हैं,जब शब्दानुवाद के सिवाय कोई पर्याय नहीं रह जाता। शब्दानुवाद वैसे भी भावानुवाद के लिए पूरक तत्व के रूप में काफी महत्वपूर्ण माना जा सक्ता है। जैसे अंग्रेजी का एक शब्द है - 'Pay' (पे) जिसका शब्दानुवाद 'भुगतान' अथवा 'वेतन' होगा।किन्तु बेंकिंग क्षेत्र में उसे 'भुगतान करें' इस पूरा वाक्य के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रकार शब्दानुवाद से कभी – कभी उलझने भी पैदा हो सक्ती है।
      शब्दनुवाद को बोधगम्य अनुवाद नहीं माना गया। क्योंकि इस अनुवाद में भाषा प्राय:क̨त्रिम एवं निष्प्राण रहती है। साथ ही साथ इसमें मूल पाठ या रचना का स्वाभाविक प्रवाह नहीं रह जाता या नहीं आ पाता।

2). भावानुवाद :- अनुवाद प्रक्रिया में भावानुवाद को उत्तम कोटी का अनुवाद माना जाता है। इसे Sense Of Sense Translation भी कहा जाता है। भावानुवाद कभी अनुच्छेद का,कभी पूरे वाक्य का,कभी शब्द का और कभी पूरे पाठ का होता है। भावानुवाद में मूल पाठ की आत्मा अर्थात् मूल कथा की सामग्री को ही मुख्य रूप मानकर उसे लक्ष्य भाषा में यथायोग्य पध्दति से सम्प्रेषित किया जाता है। सर्जनात्मक क̨तियों के विषय में भावानुवाद ही उचित्त है। इसमें भाव संवेदना की अभिव्यक्ति होती है।
      भावानुवाद को अनुवाद प्रक्रिया की महत्वपूर्ण पध्दति माना जाता है,क्योंकि भावानुवाद में मूल भाषा पाठ के प्रमुख विचार,भाव,अर्थ तथा संकल्पना को लक्ष्य भाषा में उनकी समस्त विशेषताओं के साथ सम्प्रेषित किया जाता है। अत: इस द̨ष्टि से भावानुवाद सर्वाधिक उपयोगी माना जा सक्ता है।

3). छायानुवाद :- छायानुवाद शब्द का तात्पर्य 'छाया' शब्द से है। मूल क̨ति पढ़ने के बाद अनुवादक ने जो समझा या जो अनुभव किया हो या उसके मन पर जो प्रभाव पड़ा उसके संदर्भ में वह मूल पाठ का लक्ष्य भाषा में जो रूपान्तरण करता है,उसे छायानुवाद कहा जाता है।इसमें अनुवादक को पूरी छूट रहती है कि वह मुख्य भाव को लेकर पाठ – रचना करे। छायानुवाद में मूल की छाया मात्र होती है। उसके कथ्य का अनुकूलन लक्ष्य भाषा की सामाजिक एवं सांस्क̨तिक स्थितियों के अनुसार किया जाता है।

4). व्याख्यानुवाद :- व्याख्यानुवाद को 'भाष्यानुवाद' और 'टीकानुवाद' के नाम से भी पहचाना जाता है। इस अनुवाद में मूल पाठ की व्याख्या अथवा टिका के साथ अनुवाद किया जाता है। व्याख्या स्वाभाविक रूप से अनुवादक के व्यक्तित्व तथा चिंतन प्रणाली पर आधारित होती है। जिससे अनुवाद का महत्व उभरकर सामने आ जाता है। इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक मूल विचारों,भावों तथा संकल्पनाओं को अपनी शैली के अनुसार सविस्तार रूपाइत करता है। महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर द्वारा किया गया भगवद् गीता का अनुवाद 'ज्ञानेश्वरी' तथा लोकमान्य तिलक द्वारा 
किया गया गीता का अनुवाद 'गीता – रहस्य' इसी श्रेणी में आऍंगे।

5). सारानुवाद :- लंबी रचनाओं,लंबे भाषण,ब̨हद प्रतिवेदन तथा राजनीतिक वार्ताओं आदि को उसके कथ्य तथा मूल तत्त्व को पूर्णत: सुरक्षित रखते हुए प्रसंग अथवा संदर्भ को आवश्यक्ता अनुसार संक्षेप में रूपांतरित करने की प्रक्रिया को सारानुवाद कहते हैं। इस अनुवाद में मूल भाषा की सामग्री का संक्षिप्त और अति संक्षिप्त अनुवाद लक्ष्य भाषा में किया जाता है। सारानुवाद का काम परिश्रम साध्य है,तथा पर्याप्त अभ्यास की अपेक्षा रखता है। अपनी संक्षिप्तता,सरलता,स्पष्टता तथा लक्ष्य भाषा के स्वाभाविक – सहज प्रवाह के कारण व्यावहारिक कार्यों के सामान्य अनुवाद की तुलना में सारानुवाद अधिक उपयोगी है। अनुवाद की इस पध्दति को मुख्यत: दुभाषिय समाचार पत्रों के संवाददाता,संसद,तथा विधान मंडलों की कार्यवाही के रेकार्डकर्ता आदि में देखा जा सक्ता है।

6). आशु अनुवाद :- आधुनिक युग में सांस्क̨तिक, सामाजिक तथा राजनीतिक आदान – प्रदान हेतु आशु अनुवाद पध्दति को समस्त विश्व में अत्यधिक महत्व प्रदान प्राप्त हुआ है। आशु अनुवाद को कई आलोचकों ने वार्तानुवाद के नाम से भी परिभाषित किया है। इसमें एक – दूसरे की भाषा न जाननेवाले दो या अधिक भिन्न भाषा – भाषी जब महत्वपूर्ण बात–चीत या चर्चा करते हैं,तब उनके विचारों और भावों को एक – दूसरे तक सम्प्रेषित करने का महत्तम कार्य दुभाषिया करता है। दुभाषिया अपने कार्य को आशु अनुवाद के माध्यम से ही सम्पन्न करता है। आशु अनुवादक अर्थात् दुभाषिया के लिए कुछ विशेष जिम्मेदारियॉं भी रहती है,जैसे दोनों भाषाओं के सुक्ष्मतम् ज्ञान के साथ उन भाषाओं की सामाजिक तथा सांस्क̨तिक प्रव̨त्तियों की समुचित जानकारी भी उसे होनी चाहिए। डॉ.भोलानाथ तिवारी ने इस तरह के अनुवाद को स्वतंत्र हैसियत नहीं दी है।

2- आदर्श अनुवाद और अनुवाद की समस्याएं
• आदर्श अनुवाद :- आदर्श अनुवाद को स्वाभाविक 'सटीक' अनुवाद भी कहा जाता है। आदर्श अनुवाद की परिभाषा देते हुए डॉ.भोलानाथ तिवारी लिखते हैं कि – "आदर्श अनुवाद वह है जो शब्दानुवाद तथा भावानुवाद दोनों पध्दतियों को यथावसर अपनाते हुए मूल भाव के साथ – साथ यथाशकित मूल शैली को भी अपने में उतार लेता है और साथ ही लक्ष्य भाषा की सहज प्रक̨ति को भी अक्षुण्ण बनाए रखता है।" आदर्श अनुवाद में अनुवादक मूल पाठ की मूल सामग्री का अनुवाद अर्थ तथा अभिव्यक्ति सहित लक्ष्य भाषा में निकट एवं स्वाभाविक समानकों (closest natural equivalent) द्वारा करता है। संक्षेप में अनुवाद मूल के अनुसार ही होता है और उसमें अनुवादक अपना व्यक्तित्व तथा व्यक्तिगत चिंतन आदि नहीं आने देता है। आदर्श अनुवाद मूल भाषा पाठ जैसा ही द̨ष्टिगत होता है। इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक को किसी प्रकार की छूट नहीं होती और वह स्त्रोत भाषा के मूल पाठ के साथ कोई ज्यादति या मनमानी नहीं कर सक्ता।
• अनुवाद की समस्याऍं :- अनुवाद करना बहुत ही कठिन कार्य है। क्योंकि क̨ति के शिल्प पक्ष पर मजबूत पकड़ होनी चाहिए, साथ ही साथ भाषा में गहरी पैठ तथा उसके टोटल स्ट्रकचर (समग्र ढाँचे) पर नियंत्रण भी होना चाहिए। अत: इन सबकी निपुणता हो तभी एक उमदा अनुवाद संभव हो सक्ता है।
      अनुवाद का मुख्य गुण मूलनिष्ठता माना जाता है। अनुवाद को पढ़कर मूल पुस्तक का आनंद मिलना चाहिए। अनुवाद की समस्या में प्रमुख समस्या अनुवादक की कम-समझी या नासमझ को माना जाएगा। जो अनुवादक, अनुवाद करते समय मुल क̨ति के हार्द को तथा उसके मुख्य भाव को समझ नहीं पाएगा तो वह उस क̨ति के साथ अन्याय कर सकता है। यह बात भी इतनी ही महत्वपूर्ण है कि अनगढ़, क̨त्रिम, अप्रत्याशित और कुटिल अनुवाद (अनुवाद के संदर्भ में कुटिल का अर्थ होगा जिसका संप्रेषण ठीक से न हो। यहाँ कुटिल शब्द का अर्थ उसी रूप में लेना चाहिए जैसे कुटिल लिपि में लिया जाता है। कुटिल अर्थात् जो सरलता से न समझ में आए।)- अक्षम और विडम्बनापूर्ण माना जाएगा। बनावटी शैली, बनावटी अभिव्यंजना, निरर्थक शब्द – योजनाऍं कथ्य के साथ खिलंदडपन, निष्क्रियता, संदर्भों को न पकड पाना आदि बातें अनुवाद की समस्या में गिनि जा सक्ती है।

3-अनुवादक के गुण

• अच्छे अनुवादक के गुण :- अनुवाद एक कला ही नहीं अपितु विज्ञान भी है। निरंतर अभ्यास, अनुशीलन तथा अध्ययन आदि से इसमें कार्य कुशलता की प्राप्ति होती है, क्योंकि उसके सामने अनुवाद के समय दो भाषाऍं होती है – स्रोत भाषा तथा लक्ष्य भाषा। स्रोत भाषा – अर्थात् जिस भाषा में से अनुवाद करना है और लक्ष्य भाषा अर्थात् जिस भाषा में अनुवाद ले जाना चाहिए। अर्थात अगर पन्नालाल पटेल की भवनी भवाई का अनुवाद हिन्दी में करना है तो गुजराती स्रोत भाषा यानी मूल भाषा और हिन्दी लक्ष्य भाषा होगी। उन दोनों भाषाओ के स्वरूप तथा मूल प्रक̨ति एवं प्रव̨त्ति का गहन अध्ययन एवं  अनुशीलन करना अनुवादक का प्रथम कार्य होता है।
      किसी भी परिनिष्ठित अनुवाद में अनुवाद की भूमिका केन्द्रवर्ती और महत्तम होती है। अगर अनुवाद कला है, तो अनुवादक कलाकार और अनुवाद अगर विज्ञान है,तो अनुवादक एक विज्ञानी। सफल अनुवाद कार्य के लिए अच्छे अनुवादक के कुछ गुण विद्वानों ने इस प्रकार प्रस्तुत किए हैं –
एक अच्छे अनुवादक को
1.      स्रोत और लक्ष्य भाषाओं का समुचित ज्ञान होना चाहिए।
2.      जिस पाठ, टैक्स्ट का अनुवाद करना है उससे सम्बन्धित विषय का सम्पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।
एक अच्छे अनुवादक में
3.      अनुवादक में स्वतंत्र विचार शक्ति होनी चाहिए।
4.      लोकोत्तर मेधा और आनंद कौशल होना चाहिए।
5.      अनुवाद विधा का पूरा का पूरा ज्ञान होना चाहिए।
6.      व्याकरण का ज्ञान होना ज़रुरी है।
7.      प्रामाणिकता और मौलिक्ता के गुणों का होना अति आवश्यक है।

• सहायक ग्रंथ :-
1). अनुवाद कला – डॉ.एन.ई.विश्वनाथ अय्यर, प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन,चावड़ी बाज़ार.दिल्ली – 6,संस्करण :-        1990
2). प्रयोजनमूलक हिन्दी की नयी भूमिका – डॉ.कैलाशनाथ पाण्डेय, प्रकाशक – लोकभारती प्रकाशन, 1- बी,नेताजी       सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली – 110002, संस्करण दूसरा,2009



Monday 30 December 2013

सेमीनार 2014

हिन्दी विभाग, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदाबाद एवं विदेश अध्ययन कार्यक्रम (STUDY ABROAD PROGRAMME) गुजरात युनिवर्सिटी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित
एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी
3 फरवरी 2014
संस्कृति की साहित्य में विभिन्न अभिव्यक्तियाँ : भारतीय एवं विदेशी भाषाओं के विशेष संदर्भ में
संगोष्ठी की संकल्पना
संसार भर की भाषाओं में लिखा साहित्य आखिरकार किस लक्ष्य की ओर अग्रसर हैं? आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो- मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है । तो पिर दूसरा प्रश्न उठता है - किस तरह का मनुष्य साहित्य का लक्ष्य हो सकता है? वह जो संघर्ष करता है जैसे प्रेमचंद की धनिया; वह जो क्रांति और बदलाव की प्रेरणा देता है जैसे गोर्की की माँ; वह जो तंत्र के भीतर रह कर अगर कुछ भी न कर सके तो कम-से-कम दम्भ तो नहीं करता और त्यागपत्र दे देता है जैसे जैनेन्द्र के त्यागपत्र का प्रमोद; या प्राईड एंड प्रेज्युडाईस की नायिका एलिज़ाबेथ बैनेट जो एक स्वतंत्र-मिजाज़ की ईमानदार और साहसी स्त्री है, जो भूलें करती है और उन्हें स्वीकार करती है और अपनी भूलों से सीखती भी है; यह सूची लंबी हो सकती है, जिस पर हम काम कर सकते हैं।
ये सारे 'मनुष्य' साहित्य का लक्ष्य हैं और इनकी चर्चा करना भाषा-साहित्य के अध्यापकों एवं विद्यार्थियों के लिए एक अनिवार्य प्रीतिकर काम है, होना चाहिए, क्योंकि अपने लक्ष्य में व्यक्ति तभी सफल हो सकता है जब वह बार-बार अपने उद्देश्य का स्मरण करे और उसे कार्यान्वित करे। एक अच्छे मनुष्य का निर्माण ही एक अच्छे और बेहतर समाज की संभावना खड़ी करता है।
संस्कृति और साहित्य अपने में मौखिक तथा लिखित विभिन्न परंपराओं को समेटे हुए है। पृथ्वी के विशाल पट पर (जो अब पर्यावरणीय संकट में बद्ध है) खड़े मित्र-सम पेड़, नदियाँ और अन्न उगाने वाली मिट्टी भी संस्कृति के ही प्रतिनिधि हैं, उस शिल्प, संगीत, चित्र और स्थापत्य के साथ जिन्हें मनुष्य ने निर्मित किया है और बड़े एहतियात के साथ उनकी महिमा को अपने ग्रंथों में सुरक्षित किया है।
संसार की विभिन्न भाषाओं में ये अभिव्यक्तियां विभिन्न स्वरूपों में देखी जा सकती हैं जिन्हें बार-बार स्मरण करना इस तेज़ दौड़ती दुनिया में इसलिए ज़रूरी है क्योंकि गति जहाँ आगे ले जाती है वहीं कई चीज़ों का  विस्मरण भी कराती है। जितना हम याद रखेंगे उतना ही हम परस्पर संबंध जोड़ सकेंगे। वे संबंध जो हमारी इन भाषाओं की ध्वनियों, स्वरों व्यंजनों, भावों और सोच में भी है ; समानता और विभिन्नता के बीच अपने संबंधों को पुनः एक  बार परखना  इस संगोष्ठी का प्रधान हेतु है।
संगोष्ठी के उपविषय-
भारतीय भाषाओं / विदेशी भाषाओं के साहित्य में प्रकृति के सांस्कृतिक संदर्भ (इसमें हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय के निबंधों के संदर्भ में बात हो सकती है।)
·       मानवीयता की गरिमा की रक्षा करते हुए पात्रों की चर्चा।
·       विदेशी भाषा की कृतियों के अनुवादों का मूल्यांकन भारतीय सांस्कृतिक संदर्भों में करना । इसमें दोनों भाषाओं में समानता का बिन्दु महत्वपूर्ण है।
·       मूल्य किस प्रकार सांस्कृतिक धरोहर हैं और विभिन्न भारतीय एवं विदेशी भाषाओं के साहित्य में वे किस तरह प्रकट हुए हैं।
·       साहित्यिक स्वरूप का तत्-देशीय सांस्कृतिक संबंध एवं संदर्भ- यथा नाटक, उपन्यास ,हाइकू अथवा भक्ति-काव्यों की संरचना पर बात हो सकती है।
·       साहित्य के विभिन्न स्वरूपों के  कथानकों में किस तरह संस्कृति का दर्शन होता है।