जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Thursday 23 September 2010

सुमन पाल की टिप्पणी का उत्तरआपने यह जानना चाहा था कि पाश्चात्य काव्य-शास्त्र की विकास-रेखा के संदर्भ में सौन्दर्य, धर्म, राजनीति तथा दर्शन को किस तरह समझा जाए।
जब हम पाश्चात्य काव्य-शास्त्र की विकास रेखा कहते हैं तो कहीं-न-कहीं हमारे मन में प्लेटो से लेकर आज तक की काव्य-शास्त्रीय विकास रेखा का चित्र उभरता है। प्लेटो-अरस्तू-लोंगिनुस का समावेश प्राचीन काव्यशास्त्र के अन्तर्गत है, फिर क्लासिकी और उसके बाद स्वच्छंदतावादी, फिर आधुनिक और अंत में उत्तर-आधुनिकों को हम शामिल करते हैं। प्लेटो ने अच्छे नागरिकों की आवश्यकता को देख कर कला तत्व को बहुत तवज्जो नहीं दी। पर बाद में अरस्तू और लोंगिनुस ने अवश्य साहित्य के स्वरूप और उसके सौन्दर्य तथा संतुलन को ध्यान में रखा। तभी ट्रेजेडी में आकार( स्वरूप) का महत्व है और लोंगिनुस ने अलंकारों के औचित्य पर विशेष भार दिया है। साथ ही उसने भाषा के प्रयोग में, विचार की प्रस्तुति में तथा कृति की समग्रता में एक संतुलन का आग्रह उसका रहा है। लेकिन प्लेटो की नैतिकता का दबाव दूर तक पाश्चात्य काव्य-शास्त्र को प्रभावित करता रहा। अतः वहाँ इन मुद्दों की विशेष चर्चा होती रही कि कला कला के लिए अथवा जीवन के लिए। पाश्चात्य काव्य-चिंतन में जब-जब और जहाँ-जहाँ जर्मन तथा अप्रत्यक्ष रूप से यहूदी चिंतकों का प्रवेश होता है, दर्शन का भार बढ़ता है और जब-जब फ्रेंच का प्रभाव भारी दिखाई पड़ता है, वहाँ कलात्मकता सिर उठाती है। आधुनिकता तथा विशेष रूप से उत्तर-आधुनिकता तक आते आते जब विमर्शों का दौर आरंभ होता है तब अमरीका का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है एवं काव्य-शास्त्र में राजनीति अत्यन्त मुखर रूप से दिखाई पड़ती है। यह जितनी सरलता से कही गई बात लगती है वास्तव में बात इतनी इतनी सरल नहीं है, क्योंकि अन्य अनेक ऐसे कारण हैं जो इन सबके लिए ज़िम्मेदार हैं। परन्तु एक समझ बनाने के लिए इसे मैंने इस तरह लिखा है।
यों तो प्लेटो का कवियों को देश-निकाला देना अपने आप में राजनीति का ही हिस्सा है, पर तब नैतिकता का ज़ोर अधिक था। अब, यानी कि उत्तर-आधुनिक दौर में राजनीति का स्वरूप एवं विधि के बदल जाने से काव्य-शास्त्र का आधार पश्चिम में कला, दर्शन आदि न हो कर विभिन्न विमर्श हो गए हैं। इनके मूल में नृवंश-शास्त्र, संस्कृति, समाज-शास्त्र और नव्य इतिहासवाद है, या हम कहें इतिहास-लेखन की परंपरा है।। चाहे वह अश्वेत साहित्य हो, नारी-वादी साहित्य हो या फिर हमारा अपना दलित साहित्य। अब राजनीति नैतिकता की बात नहीं करती। बल्कि राजनीति पहचान के संकट पर केन्द्रित हो गई है, ऐसा लगता है। पहचान का संकट- इसका मतलब यह हुआ कि समाज में जो अब तक पहचाने नहीं जा रहे थे, वे अपनी पहचान को, अपने अधिकारों को अपनी भाषा में अपनी बात को कहने के लिए तैयार हैं। आपको उन्हें पहचानना ही होगा।

अतः पश्चिम में कला के प्रति सजगता का वह रूप नहीं है जिस तरह भारतीय काव्य-शास्त्र में हम अपने काव्य-संप्रदायों के अध्ययन से जानते आए हैं। हमारे यहाँ दर्शन, राजनीति आदि कला में इस तरह दबी होती है कि उसे उकेर कर बाहर निकालना पड़ता है। वह अतिरिक्त है- केन्द्र में नहीं है। मैंने वर्ग आपको बताया था कि हमारे यहाँ रस-निष्पत्ति की प्रक्रिया महत्वपूर्ण है- उसकी चर्चा करने वाला प्रत्यभिज्ञा में मानता है – शैव है या बौद्ध है, वैष्णव है या जैन - ये बातें गौण हैं। साहित्य पदार्थ का कला या शोभा-स्वरूप मुख्य है।

Tuesday 21 September 2010

सुमन पाल की टिप्पणी का उत्तर



भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक आधार की बात जब हम करते हैं तब सबसे पहले हमें यह समझ लेना होगा कि किसी भी समाज या जाति के सांस्कृतिक आधार उसके साहित्य, कला और भाषा में निहित होता है। साथ ही इसका एक आधार उसकी धार्मिक एवं आध्यात्मिक विश्वासों के साथ भी जुड़ा है। जब हम भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक आधारों की बात करते हैं तो जैसा कि आपको याद होगा हमने प्रस्थान-त्रयी की बात की थी। आज तक का भारतीय साहित्य में अभी भी रामायण, महाभारत, पुराणों आदि के संदर्भ देखे जा सकते हैं। महाभारत एवं रामायण की रचना हुए अनेक वर्ष बीत जाने पर भी उसकी कथा एवं कथा प्रसंगों का आधार बना कर केवल तुलसीदास, दक्षिण के कम्बन आदि ने ही नहीं बल्कि आगे चल कर मैथिलीशरण गुप्त, निराला, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती नरेन्द्र कोहली, भगवान सिंह, बंगाली के रवीन्द्रनाथ टागोर, महाश्वेता देवी गुजराती के उमाशंकर जोशी आदि अनगिन साहित्यकारों ने लिखा और आज भी लिख रहे हैं। आप स्वयं इस बात का पता लगाएंगे तो आपको मालूम होगा कि यह सूची बहुत लंबी है। अर्थात् कथ्य के स्तर पर यह सांस्कृतिक आधार है।
हमारी कलाएँ, हमारी भाषा परंपरा का भी एक ऐसा ही आधार है। यही कारण है कि भारत में प्रायः कवि- लेखक द्विभाषी( दो भाषाएँ जानने वाले ) तो थे ही, बहुभाषी भी थे। तुलसीदास ने ब्रज अवधी दोनों में लिखा, मीरा ने राजस्थानी, ब्रज और गुजराती में लिखा,गुजराती के दयाराम ने ब्रज में भी लिखा- इस तरह भाषा भी एक आधार बनता है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि इतने वर्षों से चले आते हमारे मूल्यबोध भी हमारे सांस्कृतिक आधार हैं। अहिंसा, त्याग, परिवार भावना आदि इसी तरह के मूल्य हैं जो हमारे भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक आधार बनते हैं। मानवीय वृत्तियां तथा भाव मनुष्य-मात्र में समान हो सकते हैं। परन्तु उनकी प्रस्तुति पर समाज और विशेषकर संस्कृति का प्रभाव रहता है। सीतानुमा व्यवहार अ-भारतीय पाठक को विचित्र लग सकता है, पर भारतीय पाठक को नहीं। अतः जिन कृतियों को हम भारतीय कहते हैं उनमें हमारे सांस्कृतिक प्रभाव देखे जा सकते हैं।
किन्तु हमें यह भी याद रखना होगा कि भारतीय संस्कृति विभिन्नता से भरी हुई है अतः हमारे पास अनेक प्रकार के चरित्रों के रोल-मॉडल उपस्थित हैं। अतः स्वकीया सीता आदि के साथ-साथ परकीया राधा के प्रति भी हमारे मन में यथेष्ठ श्रद्धा है। इसीलिए तमाम सामजिक विरोध के बावजूद मीराँ के प्रेम को अथवा अक्क महादेवी के प्रेम को हम स्वीकार करते हैं।