जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Friday 11 November 2011

मुक्त छन्द

सुमन आपने मुक्त छन्द पर कुछ और सामग्री माँगी थी। मैंने आपको इस विषय में आरंभिक जानकारी तो दी थी। आप के लिए एक लेख तैयार करने हेतु मैंने मन बनाया, पर इसी बीच प्रेरणा पत्रिका में भगवत रावतजी का आलेख पढ़ा। इस लेख का लिंक ब्लॉग पृष्ठ पर दाहिनी ओर दिया है। उस पर क्लिक करेंगे तो प्रेरणा खुल जाएगी। उसमें ऊपर की ओर पुराने अंकों की चित्र-पटी का स्क्रॉल आप देख सकेंगे। जैसे ही अगस्त २०१० का अंक प्रकट होगा आप उस पर क्लिक करे। पृष्ठ खुलते ही आलेकों की सूची होगी जिस पर क्लिक करने से आपको रावत जी का लेख मिलेगा। मुझे आशा है कि आपकी सारी जिज्ञासाएं इस लेख से शांत हो जाएंगी। रावत जी हमारे समय के बहुत महत्वपूर्ण कवि हैं। उनका लेख महत्वपूर्ण है।

Monday 7 November 2011

मिथक और सर्जनात्मक अर्थवत्ता- बाणभट्ट की आत्मकथा के संदर्भ में


(HIN502 में काव्य-शास्त्र के कोर्स में मिथक विषयक कुछ मुद्दे हैं। संभवतः उन मुद्दों को समझने में यह निम्नलिखित विश्लेषण आपके काम आ सकता है।)
साहित्य स-शब्द रचना है और शब्द की सार्थकता अर्थ की उपस्थिति में ही है क्योंकि निरर्थक शब्द-रचना मात्र विक्षिप्तता के अलावा और क्या है। अन-गढ़ ध्वनि भी कई बार सार्थक होती है जब किसी विशेष अवसर पर पशु-पंखी उसका प्रयोग करते हैं। साहित्य-कृति अर्थ की अपेक्षा जगाती ही है- इसे तो हमें मान कर चलना चाहिए। साहित्य पठन में एक सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि अर्थ का बोधन या अर्थ का ग्रहण कैसे होता है और कैसे किया जाए। क्या यह बोधन रचना की संरचना द्वारा, कथा द्वारा या उसके समसामयिकत्व द्वारा होता है। क्या यह रस द्वारा होता है, अलंकारों द्वारा, वक्रोक्ति द्वारा रीतियों द्वारा मिथकों द्वारा होता है। कृति और पाठक के बीच संप्रेषण की कितनी क्षमता है और यह भी एक मुद्दा है।

सही अर्थों में जिसे हम क्लासिक साहित्य कहते हैं वह हमारी साहित्यिक समझ के विकसित होने के साथ-साथ हमें अधिक समझ में आता है। उदाहरण के लिए बाणभट्ट की आत्मकथा कृति की बात लें। विद्वानों ने, शोध-कर्ताओं ने और आलोचकों ने इस कृति पर बहुत लिखा है। एक प्रसंग में नामवरजी ने बिना किसी विश्लेषण और टिप्पणी के इसे हजारीप्रसादजी का सबसे उत्तम उपन्यास बताया था। इस सूत्रात्मक आलोचना को आप क्रमशः यानी आपकी बुद्धि के क्रमशः विकास के साथ समझ सकते हैं।

बाणभट्ट् को पहली बार पढ़ा था जब मैं संभवतः कॉलेज में पढ़ती थी और सबसे पहले मैं उसकी भाषा के ज़बरदस्त प्रभाव में थी क्योंकि भाषा के कारण ही मुझे वह कम ही समझ में आया था, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उपन्यास ने मुझे प्रभावित किया था, मुझे वह अच्छा लगा था। हजारीप्रसादजी के प्रति मेरे मन में एक आदर का भाव जगा था। यहाँ इस बात का ध्यान रहे कि यह प्रतिक्रिया एक हिन्दीतरभाषी पाठक की है जो हिन्दीतर भाषी प्रदेश में रह रहा हो और अभी केवल स्नातक कक्षा में पढ़ रहा हो।

दूसरी बार उसे तब पढ़ा था जब एम.ए के पाठ्यक्रम में उसे शामिल किया गया था और तब मेरी समझ में आया था कि यह एक उदात्त किस्म की प्रेम कहानी है। आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है कि उसी वर्ष अज्ञेय का नदी के द्वीप भी एम.ए के पाठ्यक्रम में पढ़ा था पर न तो तब मुझे ऐसा लगा और संभवतः न ही मेरे अध्यापकों को, अथवा उन्होंने यह बात हमको नहीं बताई कि इन दोनों में साम्य भी है—वस्तु तथा शिल्प दोनों ही दृष्टियों से ।
यह बात तब मेरी समझ में आई जब तीसरी बार दो एक वर्ष के लिए विशेष साहित्यकार के रूप में हजारीप्रसाद को मैंने पढ़ाया। मुझे लगा कि मनोवैज्ञानिक शिल्प का उपयोग सबसे पहले तो बाणभट्ट में हमें मिलता है।

लेकिन अब जब उसे पढ़े-पढ़ाए वर्षों हो गए तो अचानक मुझे यह समझ में आया कि बाणभट्ट की आत्मकथा के शिल्प में हजारीप्रसाद केवल एक औपन्यासिक छद्म नही रचते , वह केवल एक गल्प नहीं है, बल्कि एक ऐसी सुविचारित एवं सुगठित रचना है जो अपनी संरचना में ही मिथकीय है। भट्टिनी उस पृथ्वी की तरह है जो छोटे राजकुल के कीचड़ में फँसी हुई है। महावराह और कोई नहीं बल्कि बाणभट्ट ही है जो उसे इसमें से बाहर निकाल कर उसका उद्धार करता है। असल में देखा जाए तो यह मिथक ही इस उपन्यास का स्ट्रक्चर बनाता है, उसकी संरचना का निर्माण करता है। जैसे कोई अपनी मूल्यवान वस्तु को सात पर्दों में छिपा कर रखता है वैसे ही हजारीप्रसाद ने इसके स्ट्रकचर को रखा है।मज़े की बात तो यह है कि इस स्ट्रकचर के निर्माण में इतिहास उनकी मदद करता है। उपन्यास की इस मिथकीय संरचना को बनाने में इतिहास के साथ-साथ वर्तमान युगबोध उनकी मदद करता है। वराह अवतार से लेकर भक्ति-आंदोलन की पृष्ठभूमि के रूप में वैष्णव धर्म के प्रवेश के संकेत, बौद्ध धर्म,कापालिकों, दस्यु- यानी विदेशी ताकतों का आना, और वर्तमान युगबोध के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन के प्रभाव का चित्र इस उपन्यास का व्याप और विस्तार बनाता है जो इसकी बड़ी ताक़त है।

मिथक किस तरह यथार्थ में तब्दील हो सकता है और साथ ही हमें एक फैंटेसी लोक में ले जा सकता है, हमें भ्रमित कर सकता है, हम उसके निर्देशित झूठ को झूठ मान कर भी ख़ुश रह सकते हैं, उसे महान् बता सकते हैं- इसका उत्तम उदाहरण यह उपन्यास है।

अध्ययन की दृष्टि से इस उपन्यास में तीन बिन्दु हैं-
1-पुराण- प्रतीक (कथा में एक प्रसंग की तरह) मिथक के स्तर पर संरचना पक्ष
2-इतिहास (कथा का मुख्य अंश देश-काल) गल्प पक्ष
3-वर्तमान युगबोध (व्यंजना के स्तर पर) अर्थ पक्ष

हजारीप्रसादजी का कौशल यह है कि मध्य-बिन्दु (इतिहास तथा गल्प) ने संरचना और अर्थ दोनो को अवगुंठित कर दिया है। उन्होंने गल्प को ही रेखांकित किया है। और ऐसे किया है कि अगर आप छद्म पाठक हैं तो गल्प में ही प्रसन्न हो सकते हैं और लेखक की महानता पर आँच भी नहीं आती। वह निर्विवाद साबित हो जाती है। संभवतः यही भारतीयता का भी एक उदात्त लक्षण है-सत्य को अवगुंठन में रखना। हाँ, अगर आप साहित्य मर्मज्ञ हैं और सहृदय हैं तभी संपूर्ण अर्थ तक पहुँचने की दिशा में जा सकेंगे। श्रृंगार, अद्भुत्, करुणा, वीभत्स, हास्य वीर तथा शांत – इन सभी रसों और भावों से सिंचित यह कृति नए-नए अर्थ हमारे सामने खोलती है।

इस उपन्यास की जो प्रकट संरचना है वह तो यही कि लेखक को दीदी से बाणभट्ट की आत्मकथा मिली और फिर वह प्रकाशित हुई। यह इसकी संरचना का बाहरी पक्ष है। यही इतना लुभाने वाला है कि हम दीदी को कहीं भट्टिनी के साथ जोड़ने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। कहीं यह उनकी प्रेम-कहानी न हो, इत्यादि। लेकिन जैसे ही हम बाणभट्ट की आत्मकथा में प्रवेश करते हैं और कथा आगे बढ़ती है तो भट्टिनी का महावराह की उपासना करना आदि से हम परिचित होते हैं। बाण भट्ट में भट्टिनी महावराह की उपासना करती है। इस औपन्यासिक तथ्य को कई तरह से देख सकते हैं। लेखक ने तत्कालीन इतिहास के उन प्रसंगों का इतने सुचारु रूप से गुंफित किया है कि महावराह की उपासना को हम उस समय के ऐतिहासिक संदर्भ के रूप में ही लेते हैं। लेकिन उपन्यास में जिस तरह भट्टिनी और भट्टिनी का तरह ही अन्य स्त्रियों के अपहरण तथा शोषण की कथा आती है, निपुणिका जिस विश्वास से बाणभट्ट को भट्टिनी को बचा लेने के लिए प्रेमभरा आदेश ही (एक तरह से) देती है, हमें समझ में आता है कि पूरी कथा की संरचना ही महावराह का मिथक है। मिथक कृति के अर्थ को खोलने में मदद रूप इसी तरह होते हैं और साथ ही कृति के सर्जन तथा सौन्दर्य में भी अपनी भूमिका निभाते हैं। यह मिथक इस कृति की आंतरिक संरचना बन जाता है। हजारीप्रसादजी इस मिथक को इतिहास तथा वर्तमान के साथ जोड़ते हैं और उसमें एक नया अर्थ भरते हैं। इस मिथकीय संरचना के कारण कृति विशिष्ट बनी है। यह केवल ऐतिहासिक कथा-वस्तु वाला सामाजिक समस्या का निरूपण करता एक सपाट उपन्यास बनने से बच गया है। जिस समाज में स्त्रियाँ इस तरह का सामुहिक संकट झेलती हैं, वे अवश्य ही किसी न किसी महावराह की प्रतीक्षा करती हैं। महावराह संकट में पड़ी स्त्रियों की सामुहिक आकांक्षा का प्रतीक बन जाता है। अतः यह मिथक है।

इस उपन्यास में ऐतिहासिकता का महत्व इसलिए भी अधिक है कि इतिहास के देश और काल में मिथक भी रोपा गया है और लेखक का अपना वर्तमान युगबोध, जिसमें स्वतंत्रता संघर्ष का आवेश और जोश है- वह भी महामाया के माध्यम से रोपा गया है। इतिहास वह स्पेस है जहाँ वर्तमान और आदिम समय की सहोपस्थिति संभव हो सकती है।

वर्तमान बोध और मिथक के कारण ही यह ऐतिहासिक कृति हजारीप्रसाद के अन्य उपन्यासों से तुलना में श्रेष्ठ ही नहीं है अपितु अन्य ऐतिहासिक कथावस्तु वाले उपन्यासों में वह अपना एक अलग स्थान भी रखता है।

Sunday 6 November 2011

अल्लम प्रभु के वचनों का विश्लेषण


वचन साहित्य के विषय में अब तक आपने काफ़ी कुछ जान लिया है। हमने अपने पाठ्यक्रम में कुछ वचनकारों के वचनों को शामिल भी किया है। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि बसवण्णा या बसवेश्वर तथ अक्कमहादेवी के वचन अधिक चर्चित रहे हैं। परन्तु अन्य जितने भी शरण हुए, वचनकार हुए, सभी ने अपने विचारों तथा भावों को वचनों के माध्यम से प्रकट किया। जैसा कि हम जानते हैं कि वचन अपने आकार में बहुत छोटे होते हैं। अधिक –से अधिक तीस-चालीस शब्द। कुछ वचन बहुत दीर्घ भी मिले हैं। कुछ तो बहुत ही छोटे। परन्तु प्रायः वचनों की प्रकृति उनके लघु-आकार में ही निबद्ध है। कम शब्दों में कहे ये वचन आज तक कन्नड साहित्य की निधि के रूप में विद्यमान हैं। इन वचनों में तत्कालीन समय, समाज, सामाजिक –धार्मिक मान्यताएं तो हैं ही पर साथ ही वचनों की वह गंभीरता भी है जिसके कारण आज भी वे हमें प्रासंगिक लगते हैं। आज हम कुछ वचनकारों के वचनों को समझने का उपक्रम करेंगे।
इन वचनकारों में अल्लम प्रभु का विशेष महत्व है। अनुभव मंडप के शून्य सिंहासन पर शरणों ने आदर के साथ इन्हीं को बिठाया था, उसका भी अपना एक कारण है। और वह है उनके वचनों में प्राप्त दार्शनिकता तथा तत्कालीन शरणों के भीतर व्याप्त असमंजस की समझ तथा उसका विश्लेषण करने की क्षमता। उनके वचनों को समझने के लिए वीरशैव धर्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना आवश्यक है। अल्लम प्रभु की मुद्रिता गुहेश्वर है। ऐसी मान्यता है कि अल्लम प्रभु को साक्षात् शिव के दर्शन हुए थे, अतः उनकी मुद्रिका शिव के उस रूप की है, जिसका साक्षात्कार अल्लम प्रभु को हुआ था। उनका ऐसा दृढ मानना था कि जिस पर गुहेश्वर अर्थात् परम शिव की कृपा हो वही निर्भय हो सकता है।
अल्लम प्रभु के वचनों में वैष्णवों की कथाओं और प्रतीकों के संदर्भ मिलते हैं। प्रायः वे उसका समर्थन नहीं करते। अपने वचनों में अपने परम प्रभु शिव के समर्थन में वे उन संदर्भों को प्रश्नार्थ में रखते हैं। कहते नहीं हैं पर ध्वनित होते हैं। अपने वचनों में वे शिव के प्रति अपनी अनन्य निष्ठा को प्रकट करने के लिए इन संदर्भों का उपयोग करते हैं। वैष्णवों में तथा अन्य संप्रदायों में प्रभु की कृपा से सब कुछ संभव बताया गया है। परन्तु अल्लम प्रभु को इन बातों में संदेह है। वे कहते हैं कि बाघ के साथ अगर हिरन चरकर लौट आए तो यह विस्मय की बात है। अर्थात् ऐसा हो नहीं सकता। उसी तरह राक्षसी के घर जाकर कोई खर्राटे भर कर वापस आए तो यह भी अत्यंत विस्मय की बात है। उसी तरह यम के घर जा कर कोई जीवित लौट कर आए तो विस्मय बात है। यहाँ हनुमान, नचिकेता तथा उलट बासियों का संदर्भ( वचनकारों के पहले सिद्ध हुए थे तथा सिद्धों ने भी उलटबासियाँ लिखी थीं) स्पष्ट है। अल्लम प्रभु ऐसी बात में विस्मय का भाव प्रकट कर के वास्तव में तो अविश्वास ही प्रकट करते हैं। इससे पता चलता है कि उस समय वीरशैवों के समक्ष अन्य संप्रदायों की चुनौतियाँ भी थीं। अपने एक वचन में उन्होंने कहा भी है कि जो शरण संप्रदाय छोड़ कर स्थावर लिंग की पूजा करता है, तो यह योग्य नहीं है। उनके लिए यह चिंता का विषय था।( इसी बात को अंबिगर चौडय्या अलग ढंग से कहते हैं। वे कहते हैं कि जो ऐसा करे उसे जब्बर जूतों से ठोक-पीटना चाहिए) अल्लम प्रभु वीरशैव संप्रदाय के ऐसे आध्यात्मिक नेता थे जिनकी ज़िम्मेदारी अन्य शरणों की तुलना में कहीं अधिक थी। अपने संप्रदाय के सैद्धांतिक तथा दार्शनिक पक्ष की चिंता करना उनकी ज़िम्मेदारी थी।
जड़ प्रकृति को इच्छा शक्ति ही गतिशील बनाती है। इच्छा का स्थान मन में होता है। अतः माया भी मन में निवास करती है। प्रायः कंचन, कामिनी तथा माटी को माया समझा जाता है। पर असली माया तो मन है- मन में जगी अभिलाषाएं ही मनुष्य को विचलित करती हैं। नया कुछ भी निर्माण नहीं होता। सब पहले से ही विद्यमान है। इच्छा ही उसे गतिशील करती है। इच्छा से ही वह प्रस्फुटित होती है। यह संसार इसी तरह प्रकट हुआ है। शिव के भीतर रही सदिच्छा , उन्ही के भीतर विद्यमान विशिष्ट-शक्ति के माध्यम से इस सृष्टि निर्माण के लिए कारणीभूत है, ऐसा शरणों का विश्वास है। जीव शिव का अंश है। परन्तु अपने अज्ञान तथा अविद्या के कारण उस( शिव)से पृथक भी है। परन्तु इतनी अलग नहीं जितनी जड़-सृष्टि है। जीव में ज्ञान, क्रिया तथा चेतना शक्ति है। जड़-सृष्टि में ऐसा कुछ नहीं है। अतः कामिनी, माटी तथा कंचन अपनी इच्छा से जीव को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखते। जीव में इन तीन तत्वों को होने का कारण वही उनके प्रति आकृष्ट होता है। माया तो उसके मन की अभिलाषा ही है। वचनकारों की इस दार्शनिक मान्यता को अपने वचन में अल्लम प्रभु ने बहुत सरल तरीक़े से प्रस्तुत किया है।
वचन साहित्य में भवी उसे कहते हैं जो भक्त(शिव का) नहीं है। जो भक्त नहीं है वह भवचक्र के चक्कर से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। उसी को भवी कहा जाता है। शिव का भक्त अगर अपने मार्ग से विचलित हो जाए तो उसको कुछ भी कहने के लिए अल्लम प्रभु के पास कोई शब्द नहीं है। इस बात को समझाने के लिए अल्लम प्रभु सुंदर तथा योग्य उदाहरण हमारे सामने रखते हैं। वह पूछते हैं कि पहाड़ को यदि सर्दी लग जाए तो क्या ओढ़ाओगे उसे। ऐसी कल्पना ही असंभव है। क्योंकि एक तो पहाड़ को कुछ भी ओढ़ाना किसी के भी बस की बात नहीं है। दूसरे पहाड़ को सर्दी लगे, यह कल्पना ही असंभव है। उसी तरह वे आगे कहते हैं कि शून्य भी यदि नंगा हो जाए......शून्य यूं भी निर्गुण निराकार है- उसे वस्त्र पहनाना... कल्पना से परे की बात है, अतः उसे कुछ भी पहनाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। फिर यहाँ भी, शून्य के नंगे होने की कल्पना ही हमारी कल्पना से बाहर की बात है। उसी तरह अगर भक्त भवी बन जाए तो वह उतनी ही असंभव और कल्पनातीत बात है। फिर भी अगर ऐसा कुछ हो भी जाए तो अल्लम प्रभु के पास इस स्थिति का बयान करने के लिए शब्द नहीं हैं। उनके वचन में इस बात का संकेत है कि ऐसे असंभव प्रसंग संभवतः वचनकारों ने अनुभव किए होंगे और उस समय इस स्थिति का सामना करने के लिए वे निर्वाक-जैसे हो गए होंगे।
शक्तिविशिष्टाद्वैत के अनुसार इस सृष्टि का न आरंभ है न अंत। कुछ भी निर्मित नहीं होता अतः कुछ भी नष्ट नहीं होता। सब कुछ पराशिव में उसी तरह विद्यमान है जिस तरह मोर के अंडे के रस में मोर रे रंग और आकार। शक्ति के माध्यम से शिव अपनी इच्छा को कार्यरूप देते हैं। अतः पराशिव में जो सुप्त पड़ा है(निराकार) वही आकार ग्रहण करता है तथा इस सृष्टि में विभिन्न रूपों द्वारा प्रकट होता है। अतः निराकार भी स्वरूप है- परन्तु सुप्तावस्था में। और जब प्रकट होता है तब साकार हो उठता है। सृष्टि का नाश नहीं होता अपितु वह उसी पराशिव में विलीन हो जाती है। अतः सृष्टि का प्राकट्य आह्वान है तथा उसका लय हो जाना विसर्जन है। जब सृष्टि के विभिन्न पदार्थ प्रकट होते हैं, तो प्रकट होने की आकुलता ही मुख्य कारण है, जो शिव की इच्छा-शक्ति का परिणाम है। जब इस व्याकुलता का शमन हो जाता है तो वह निराकुल हो जाती है। यही उसका निराकार होना है। यही उसका विसर्जन है। लेकिन जिसे शिव में विश्वास है, जो उसकी शरण में है, वह न आकुल रहता है, न निराकुल ही। वह न साकार की चिंता करता है, न निराकार की, क्योंकि शिव भी न साकार हैं न निराकार हैं।
वचनकारों के वचनों पर उपनिषदों तथा वेदों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। अल्लम प्रभु की विशेषता यह है कि वे अपने समय के धार्मिक पाखंड को बहुत अच्छी तरह पहचानते थे तथा उनका पर्दाफाश करने में कतई हिचकते नहीं थे। वे समाज में व्याप्त धर्म के क्रमशः पतनशील चरित्र का बहुत ही संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। सभी धर्मों का मूल तो वेद ग्रंथ हैं। अतः वेदों को वे पठनीय वचन कहते हैं। (यहाँ इस बात को भी याद किया जा सकता है कि वेद की ऋचाएं भी आकार में वचनों की तरह संक्षिप्त ही हैं।) इन वेद-ग्रंथों से ही बाद में शास्त्र बने। शास्त्र क्यों बने- ताकि धर्म विशेष का व्यापार किया जा सके। शास्त्रों को मानने वाला समाज का वह वर्ग है जिसके हाथ में सत्ता है। जैसे बाज़ार में अपना माल बेचने के लिए हम उसकी प्रशंसा तथा विशेषताओं का बखान करते हैं, उसी तरह शास्त्रों ने वेद वचनों का बखान किया। फिर एक ऐसा वर्ग आया- लुच्चों का जिन्होंने पुराण तथा पोथियाँ बनाई और उन्हीं वेद वचनो का उपयोग अपने हित में किया। फिर तार्किक आए और परस्पर ऐसे लड़े जैसे बाज़र के बीच दो बकरे एक दूसरे पर सींगों से वार करते हैं। फिर आते हैं भक्त जिन्होंने इन्हीं वेद वचनों को आजीविका का साधन बनाया। परन्तु जो शिव में मानता है उसे इनमें से किसी की आवश्यकता नहीं है। वचनकार तो कायिक में मानते थे , श्रम का मूल्य पहचानते थे और दासोह में भी मानते थे अतः अपना कमाया हुआ औरों में बाँटते थे, उन्हें आजीविका के लिए ऐसे किसी मार्ग को अपनाने की आवश्यकता नहीं थी। यहाँ एक विलक्षण बात देखी जा सकती है। धर्म का बाज़ारी रूप और भक्ति के प्रदर्शनकर्ता तो आज भी हमारे बीच हैं। अतः इतने वर्षों पहले लिखे हुए ये वचन हमें आज भी प्रासंगिक लगते हैं। लेकिन इस पद की कठोरता भी दृष्टव्य है। किसी भी संप्रदाय के सिद्धांतकर का ऐसा कठोर होना अस्वाभाविक नहीं है। बल्कि यह तो उससे अपेक्षित ही है। अल्लम प्रभु के वचनों में अर्थ ध्वनित होता है। तभी उनके वचन बड़े मूल्यवान हैं। आप जब इन्हें पढ़ते हैं तो ध्वनित अर्थ सहसा प्रकट हो जाता है।
किसी भी धार्मिक संप्रदाय का दार्शनिक पक्ष होता है। पर उस दार्शनिक पक्ष को समझना इतना सरल नहीं होता। कवि इसी दार्शनिक पक्ष को सरल भाषा में कहते हैं। लेकिन यह फिर भी ज़रूरी नहीं कि वह ठीक-ठीक समझ में आ जाए। ऐसे पदों को समझने के लिए दार्शनिक पक्ष का समझना भी उतना ही आवश्यक है। अल्लम प्रभु ने अपने वचनों में ऐसा प्रयास किया है। इन वचनों से इतना तो समझ में आता है कि कवि अपने विश्वासों के दार्शनिक पक्ष की ओर सामान्य शरणों को उन्मुख अवश्य करते हैं। जहाँ वे किसी उदाहरण से बात को समझाते हैं- जैसे पहाड को कौन वस्त्र पहनाएगा आदि, तब तो बात तुरन्त समझ में आ जाती है, परन्तु जहाँ वे सूत्रात्मक शैली का प्रयोग करते हैं वहाँ दार्शनिक पक्ष की जानकारी आवश्यक बन जाती है।
शक्तिविशिष्टाद्वैत के अनुसार सभी कुछ शिव से निर्मित है और सभी कुछ उसीमें विसर्जित होता है। यह संसार, इसमें पल्लवित जीवन तथा इसमें रही भावनाएं सभी कुछ के निर्माण का कारण यह पराशिव ही है, जो शून्य है। शून्य से सभी कुछ निर्मित हुआ है- यह भारतीय समझ नयी नहीं है। अल्लम प्रभु कहते हैं कि शून्य का बीज है और शून्य की फसल है। अर्थात् शिव का बीज है और शिव की ही सृष्टि है। सभी जीवों में शिव का अंश है ही। जो कुछ इस सृष्टि में प्रकट है, दृश्यमान है वह उसी के रूप हैं। अंत में सभी कुछ इसी पराशिव में समाहित होता है। जो इस शून्य की आराधना करता है, उसकी मुक्ति तय है। वह फिर उस पराशिव में समाहित हो जाएगा। अतः अल्लम प्रभु कहते हैं कि हे गुहेश्वर तुझको मना कर, अपने विश्वास में लेकर, पतियाकर, मैं भी शून्य में समाहित हो जाऊँगा। अगर शिव शून्य है तो उसके अंश भी शून्य हैं। समाहित हो जाना इतना सरल नहीं है। जब तक गुहेश्वर की कृपा नहीं होगी, उसमें समाना संभव नहीं है और यह तभी संभव है जब कायक(श्रम) और दासोह( दूसरे को देना) को अपनाएंगे।
इस तरह आप देखेंगे कि अल्लम प्रभु अन्य वचनकारों में सब से अलग व्यक्तित्व वाले हैं। उनके वचन अन्य शरणों के वचनों की तरह नहीं है। दार्शनिकता, आध्यात्मिकता, वीरशैव संप्रदाय के प्रति सजगता, अन्य धार्मिक संप्रदायों के प्रति एक विश्लेषणात्मक वृत्ति तथा कथन की दृष्टि से ध्वन्यात्मकता उनके वचनों की विशेषता है।
हमारे पाठ्यक्र्म में अल्लम प्रभु के जिन वचनों ( 62, 66, 69, 77, 81 तथा 90) का समावेश हुआ है उनके आधार पर यह विश्लेषण आप को कैसा लगा और कितना समझ में आया , यह आप अवश्य बताएं, ताकि हम पाठ्यक्रम के अन्य वचनकारों की भी चर्चा कर सकते हैं।





अल्लम प्रभु के वचनों का विश्लेषण


वचन साहित्य के विषय में अब तक आपने काफ़ी कुछ जान लिया है। हमने अपने पाठ्यक्रम में कुछ वचनकारों के वचनों को शामिल भी किया है। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि बसवण्णा या बसवेश्वर तथ अक्कमहादेवी के वचन अधिक चर्चित रहे हैं। परन्तु अन्य जितने भी शरण हुए, वचनकार हुए, सभी ने अपने विचारों तथा भावों को वचनों के माध्यम से प्रकट किया। जैसा कि हम जानते हैं कि वचन अपने आकार में बहुत छोटे होते हैं। अधिक –से अधिक तीस-चालीस शब्द। कुछ वचन बहुत दीर्घ भी मिले हैं। कुछ तो बहुत ही छोटे। परन्तु प्रायः वचनों की प्रकृति उनके लघु-आकार में ही निबद्ध है। कम शब्दों में कहे ये वचन आज तक कन्नड साहित्य की निधि के रूप में विद्यमान हैं। इन वचनों में तत्कालीन समय, समाज, सामाजिक –धार्मिक मान्यताएं तो हैं ही पर साथ ही वचनों की वह गंभीरता भी है जिसके कारण आज भी वे हमें प्रासंगिक लगते हैं। आज हम कुछ वचनकारों के वचनों को समझने का उपक्रम करेंगे।
इन वचनकारों में अल्लम प्रभु का विशेष महत्व है। अनुभव मंडप के शून्य सिंहासन पर शरणों ने आदर के साथ इन्हीं को बिठाया था, उसका भी अपना एक कारण है। और वह है उनके वचनों में प्राप्त दार्शनिकता तथा तत्कालीन शरणों के भीतर व्याप्त असमंजस की समझ तथा उसका विश्लेषण करने की क्षमता। उनके वचनों को समझने के लिए वीरशैव धर्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना आवश्यक है। अल्लम प्रभु की मुद्रिता गुहेश्वर है। ऐसी मान्यता है कि अल्लम प्रभु को साक्षात् शिव के दर्शन हुए थे, अतः उनकी मुद्रिका शिव के उस रूप की है, जिसका साक्षात्कार अल्लम प्रभु को हुआ था। उनका ऐसा दृढ मानना था कि जिस पर गुहेश्वर अर्थात् परम शिव की कृपा हो वही निर्भय हो सकता है।
अल्लम प्रभु के वचनों में वैष्णवों की कथाओं और प्रतीकों के संदर्भ मिलते हैं। प्रायः वे उसका समर्थन नहीं करते। अपने वचनों में अपने परम प्रभु शिव के समर्थन में वे उन संदर्भों को प्रश्नार्थ में रखते हैं। कहते नहीं हैं पर ध्वनित होते हैं। अपने वचनों में वे शिव के प्रति अपनी अनन्य निष्ठा को प्रकट करने के लिए इन संदर्भों का उपयोग करते हैं। वैष्णवों में तथा अन्य संप्रदायों में प्रभु की कृपा से सब कुछ संभव बताया गया है। परन्तु अल्लम प्रभु को इन बातों में संदेह है। वे कहते हैं कि बाघ के साथ अगर हिरन चरकर लौट आए तो यह विस्मय की बात है। अर्थात् ऐसा हो नहीं सकता। उसी तरह राक्षसी के घर जाकर कोई खर्राटे भर कर वापस आए तो यह भी अत्यंत विस्मय की बात है। उसी तरह यम के घर जा कर कोई जीवित लौट कर आए तो विस्मय बात है। यहाँ हनुमान, नचिकेता तथा उलट बासियों का संदर्भ( वचनकारों के पहले सिद्ध हुए थे तथा सिद्धों ने भी उलटबासियाँ लिखी थीं) स्पष्ट है। अल्लम प्रभु ऐसी बात में विस्मय का भाव प्रकट कर के वास्तव में तो अविश्वास ही प्रकट करते हैं। इससे पता चलता है कि उस समय वीरशैवों के समक्ष अन्य संप्रदायों की चुनौतियाँ भी थीं। अपने एक वचन में उन्होंने कहा भी है कि जो शरण संप्रदाय छोड़ कर स्थावर लिंग की पूजा करता है, तो यह योग्य नहीं है। उनके लिए यह चिंता का विषय था।( इसी बात को अंबिगर चौडय्या अलग ढंग से कहते हैं। वे कहते हैं कि जो ऐसा करे उसे जब्बर जूतों से ठोक-पीटना चाहिए) अल्लम प्रभु वीरशैव संप्रदाय के ऐसे आध्यात्मिक नेता थे जिनकी ज़िम्मेदारी अन्य शरणों की तुलना में कहीं अधिक थी। अपने संप्रदाय के सैद्धांतिक तथा दार्शनिक पक्ष की चिंता करना उनकी ज़िम्मेदारी थी।
जड़ प्रकृति को इच्छा शक्ति ही गतिशील बनाती है। इच्छा का स्थान मन में होता है। अतः माया भी मन में निवास करती है। प्रायः कंचन, कामिनी तथा माटी को माया समझा जाता है। पर असली माया तो मन है- मन में जगी अभिलाषाएं ही मनुष्य को विचलित करती हैं। नया कुछ भी निर्माण नहीं होता। सब पहले से ही विद्यमान है। इच्छा ही उसे गतिशील करती है। इच्छा से ही वह प्रस्फुटित होती है। यह संसार इसी तरह प्रकट हुआ है। शिव के भीतर रही सदिच्छा , उन्ही के भीतर विद्यमान विशिष्ट-शक्ति के माध्यम से इस सृष्टि निर्माण के लिए कारणीभूत है, ऐसा शरणों का विश्वास है। जीव शिव का अंश है। परन्तु अपने अज्ञान तथा अविद्या के कारण उस( शिव)से पृथक भी है। परन्तु इतनी अलग नहीं जितनी जड़-सृष्टि है। जीव में ज्ञान, क्रिया तथा चेतना शक्ति है। जड़-सृष्टि में ऐसा कुछ नहीं है। अतः कामिनी, माटी तथा कंचन अपनी इच्छा से जीव को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखते। जीव में इन तीन तत्वों को होने का कारण वही उनके प्रति आकृष्ट होता है। माया तो उसके मन की अभिलाषा ही है। वचनकारों की इस दार्शनिक मान्यता को अपने वचन में अल्लम प्रभु ने बहुत सरल तरीक़े से प्रस्तुत किया है।
वचन साहित्य में भवी उसे कहते हैं जो भक्त(शिव का) नहीं है। जो भक्त नहीं है वह भवचक्र के चक्कर से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। उसी को भवी कहा जाता है। शिव का भक्त अगर अपने मार्ग से विचलित हो जाए तो उसको कुछ भी कहने के लिए अल्लम प्रभु के पास कोई शब्द नहीं है। इस बात को समझाने के लिए अल्लम प्रभु सुंदर तथा योग्य उदाहरण हमारे सामने रखते हैं। वह पूछते हैं कि पहाड़ को यदि सर्दी लग जाए तो क्या ओढ़ाओगे उसे। ऐसी कल्पना ही असंभव है। क्योंकि एक तो पहाड़ को कुछ भी ओढ़ाना किसी के भी बस की बात नहीं है। दूसरे पहाड़ को सर्दी लगे, यह कल्पना ही असंभव है। उसी तरह वे आगे कहते हैं कि शून्य भी यदि नंगा हो जाए......शून्य यूं भी निर्गुण निराकार है- उसे वस्त्र पहनाना... कल्पना से परे की बात है, अतः उसे कुछ भी पहनाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। फिर यहाँ भी, शून्य के नंगे होने की कल्पना ही हमारी कल्पना से बाहर की बात है। उसी तरह अगर भक्त भवी बन जाए तो वह उतनी ही असंभव और कल्पनातीत बात है। फिर भी अगर ऐसा कुछ हो भी जाए तो अल्लम प्रभु के पास इस स्थिति का बयान करने के लिए शब्द नहीं हैं। उनके वचन में इस बात का संकेत है कि ऐसे असंभव प्रसंग संभवतः वचनकारों ने अनुभव किए होंगे और उस समय इस स्थिति का सामना करने के लिए वे निर्वाक-जैसे हो गए होंगे।
शक्तिविशिष्टाद्वैत के अनुसार इस सृष्टि का न आरंभ है न अंत। कुछ भी निर्मित नहीं होता अतः कुछ भी नष्ट नहीं होता। सब कुछ पराशिव में उसी तरह विद्यमान है जिस तरह मोर के अंडे के रस में मोर रे रंग और आकार। शक्ति के माध्यम से शिव अपनी इच्छा को कार्यरूप देते हैं। अतः पराशिव में जो सुप्त पड़ा है(निराकार) वही आकार ग्रहण करता है तथा इस सृष्टि में विभिन्न रूपों द्वारा प्रकट होता है। अतः निराकार भी स्वरूप है- परन्तु सुप्तावस्था में। और जब प्रकट होता है तब साकार हो उठता है। सृष्टि का नाश नहीं होता अपितु वह उसी पराशिव में विलीन हो जाती है। अतः सृष्टि का प्राकट्य आह्वान है तथा उसका लय हो जाना विसर्जन है। जब सृष्टि के विभिन्न पदार्थ प्रकट होते हैं, तो प्रकट होने की आकुलता ही मुख्य कारण है, जो शिव की इच्छा-शक्ति का परिणाम है। जब इस व्याकुलता का शमन हो जाता है तो वह निराकुल हो जाती है। यही उसका निराकार होना है। यही उसका विसर्जन है। लेकिन जिसे शिव में विश्वास है, जो उसकी शरण में है, वह न आकुल रहता है, न निराकुल ही। वह न साकार की चिंता करता है, न निराकार की, क्योंकि शिव भी न साकार हैं न निराकार हैं।
वचनकारों के वचनों पर उपनिषदों तथा वेदों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। अल्लम प्रभु की विशेषता यह है कि वे अपने समय के धार्मिक पाखंड को बहुत अच्छी तरह पहचानते थे तथा उनका पर्दाफाश करने में कतई हिचकते नहीं थे। वे समाज में व्याप्त धर्म के क्रमशः पतनशील चरित्र का बहुत ही संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। सभी धर्मों का मूल तो वेद ग्रंथ हैं। अतः वेदों को वे पठनीय वचन कहते हैं। (यहाँ इस बात को भी याद किया जा सकता है कि वेद की ऋचाएं भी आकार में वचनों की तरह संक्षिप्त ही हैं।) इन वेद-ग्रंथों से ही बाद में शास्त्र बने। शास्त्र क्यों बने- ताकि धर्म विशेष का व्यापार किया जा सके। शास्त्रों को मानने वाला समाज का वह वर्ग है जिसके हाथ में सत्ता है। जैसे बाज़ार में अपना माल बेचने के लिए हम उसकी प्रशंसा तथा विशेषताओं का बखान करते हैं, उसी तरह शास्त्रों ने वेद वचनों का बखान किया। फिर एक ऐसा वर्ग आया- लुच्चों का जिन्होंने पुराण तथा पोथियाँ बनाई और उन्हीं वेद वचनो का उपयोग अपने हित में किया। फिर तार्किक आए और परस्पर ऐसे लड़े जैसे बाज़र के बीच दो बकरे एक दूसरे पर सींगों से वार करते हैं। फिर आते हैं भक्त जिन्होंने इन्हीं वेद वचनों को आजीविका का साधन बनाया। परन्तु जो शिव में मानता है उसे इनमें से किसी की आवश्यकता नहीं है। वचनकार तो कायिक में मानते थे , श्रम का मूल्य पहचानते थे और दासोह में भी मानते थे अतः अपना कमाया हुआ औरों में बाँटते थे, उन्हें आजीविका के लिए ऐसे किसी मार्ग को अपनाने की आवश्यकता नहीं थी। यहाँ एक विलक्षण बात देखी जा सकती है। धर्म का बाज़ारी रूप और भक्ति के प्रदर्शनकर्ता तो आज भी हमारे बीच हैं। अतः इतने वर्षों पहले लिखे हुए ये वचन हमें आज भी प्रासंगिक लगते हैं। लेकिन इस पद की कठोरता भी दृष्टव्य है। किसी भी संप्रदाय के सिद्धांतकर का ऐसा कठोर होना अस्वाभाविक नहीं है। बल्कि यह तो उससे अपेक्षित ही है। अल्लम प्रभु के वचनों में अर्थ ध्वनित होता है। तभी उनके वचन बड़े मूल्यवान हैं। आप जब इन्हें पढ़ते हैं तो ध्वनित अर्थ सहसा प्रकट हो जाता है।
किसी भी धार्मिक संप्रदाय का दार्शनिक पक्ष होता है। पर उस दार्शनिक पक्ष को समझना इतना सरल नहीं होता। कवि इसी दार्शनिक पक्ष को सरल भाषा में कहते हैं। लेकिन यह फिर भी ज़रूरी नहीं कि वह ठीक-ठीक समझ में आ जाए। ऐसे पदों को समझने के लिए दार्शनिक पक्ष का समझना भी उतना ही आवश्यक है। अल्लम प्रभु ने अपने वचनों में ऐसा प्रयास किया है। इन वचनों से इतना तो समझ में आता है कि कवि अपने विश्वासों के दार्शनिक पक्ष की ओर सामान्य शरणों को उन्मुख अवश्य करते हैं। जहाँ वे किसी उदाहरण से बात को समझाते हैं- जैसे पहाड को कौन वस्त्र पहनाएगा आदि, तब तो बात तुरन्त समझ में आ जाती है, परन्तु जहाँ वे सूत्रात्मक शैली का प्रयोग करते हैं वहाँ दार्शनिक पक्ष की जानकारी आवश्यक बन जाती है।
शक्तिविशिष्टाद्वैत के अनुसार सभी कुछ शिव से निर्मित है और सभी कुछ उसीमें विसर्जित होता है। यह संसार, इसमें पल्लवित जीवन तथा इसमें रही भावनाएं सभी कुछ के निर्माण का कारण यह पराशिव ही है, जो शून्य है। शून्य से सभी कुछ निर्मित हुआ है- यह भारतीय समझ नयी नहीं है। अल्लम प्रभु कहते हैं कि शून्य का बीज है और शून्य की फसल है। अर्थात् शिव का बीज है और शिव की ही सृष्टि है। सभी जीवों में शिव का अंश है ही। जो कुछ इस सृष्टि में प्रकट है, दृश्यमान है वह उसी के रूप हैं। अंत में सभी कुछ इसी पराशिव में समाहित होता है। जो इस शून्य की आराधना करता है, उसकी मुक्ति तय है। वह फिर उस पराशिव में समाहित हो जाएगा। अतः अल्लम प्रभु कहते हैं कि हे गुहेश्वर तुझको मना कर, अपने विश्वास में लेकर, पतियाकर, मैं भी शून्य में समाहित हो जाऊँगा। अगर शिव शून्य है तो उसके अंश भी शून्य हैं। समाहित हो जाना इतना सरल नहीं है। जब तक गुहेश्वर की कृपा नहीं होगी, उसमें समाना संभव नहीं है और यह तभी संभव है जब कायक(श्रम) और दासोह( दूसरे को देना) को अपनाएंगे।
इस तरह आप देखेंगे कि अल्लम प्रभु अन्य वचनकारों में सब से अलग व्यक्तित्व वाले हैं। उनके वचन अन्य शरणों के वचनों की तरह नहीं है। दार्शनिकता, आध्यात्मिकता, वीरशैव संप्रदाय के प्रति सजगता, अन्य धार्मिक संप्रदायों के प्रति एक विश्लेषणात्मक वृत्ति तथा कथन की दृष्टि से ध्वन्यात्मकता उनके वचनों की विशेषता है।
हमारे पाठ्यक्र्म में अल्लम प्रभु के जिन वचनों ( 62, 66, 69, 77, 81 तथा 90) का समावेश हुआ है उनके आधार पर यह विश्लेषण आप को कैसा लगा और कितना समझ में आया , यह आप अवश्य बताएं, ताकि हम पाठ्यक्रम के अन्य वचनकारों की भी चर्चा कर सकते हैं।