जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Thursday 29 December 2011

HN508शोध-प्रविधि




A-Objectives

1- To teach how to systemize knowledge.

B-Outcome of the Course

1- Develop scientific attitude

UNITS

1) शोध की परिभाषा एवं महत्व

2) शोध के प्रकार

3) शोध के उपकरण

a) पुस्तकालय,  b)अन्तर्जाल

4) शोध-प्रविधि

5) शोध-पत्र लेखन - प्रक्रिया एवं प्रविधि


संदर्भ पुस्तकें

1- नवीन शोध-विज्ञान, डॉ तिलक सिंह, प्रकाशन संस्थान, दिल्ली

2- साहित्यिक अनुसंधान के आयाम, डॉ. रवीन्द्रकुमार जैन, नेश्नल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली

3- शोध स्वरूप एवं मानक व्यावहारिक कार्यविधि, बैजनाथ सिंहल, मैकमिलन कंपनी, दिल्ली

4- अनुसंधान- स्वरूप एवं प्रविधि, डॉ. रामगोपाल शर्मा दिनेश, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर







HN508शोध-प्रविधि




A-Objectives

1- To teach how to systemize knowledge.

B-Outcome of the Course

1- Develop scientific attitude

UNITS

1) शोध की परिभाषा एवं महत्व

2) शोध के प्रकार

3) शोध के उपकरण

a) पुस्तकालय,  b)अन्तर्जाल

4) शोध-प्रविधि

5) शोध-पत्र लेखन - प्रक्रिया एवं प्रविधि


संदर्भ पुस्तकें

1- नवीन शोध-विज्ञान, डॉ तिलक सिंह, प्रकाशन संस्थान, दिल्ली

2- साहित्यिक अनुसंधान के आयाम, डॉ. रवीन्द्रकुमार जैन, नेश्नल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली

3- शोध स्वरूप एवं मानक व्यावहारिक कार्यविधि, बैजनाथ सिंहल, मैकमिलन कंपनी, दिल्ली

4- अनुसंधान- स्वरूप एवं प्रविधि, डॉ. रामगोपाल शर्मा दिनेश, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर







Tuesday 27 December 2011

HIN510PT

इस नए सत्र के पाठ्यक्रम को अगर आप पढ़ें तो आपकी नज़र सबसे पहले उसके उद्देश्य(Objectives) तथा उसके परिणाम( Outcome of the course) की तरफ़ जाएगी। इसका कोर्स का उद्देश्य है कि विद्यार्थी स्व-अभिव्यक्ति को किस तरह प्रस्तुत करें इसे व्यावहारिक स्तर पर बताया जाए। और इसका उद्देश्य है कि उसकी नौकरी की संभावनाएं खुलें। विभाग उसे किस तरह उसीके पाठ्यक्रम में यह सुविधा देता है। जिस तरह आपने पिछले सेमिस्टर में विज्ञापन बनाना सीखा। हाँ ,पाठ्यक्रम आपको केवल उसकी भूमिका दे सकता है। आपको मेहनत तो स्वयं करनी होगी। यहाँ एक बात आपको बता देना चाहती हूँ कि आज सर्जनात्मकता की सबसे अधिक ज़रूरत है। जो इसमें प्राविणय प्राप्त करते हैं वे ही आज सफल होंगे। आपके पाठ्यक्रम में पढ़ी कहानियाँ इसमें मददरूप होंगी।

अब हम आएं अपने इस पाठ्यक्रम की बात करें। इस बात को मैं पहले के दो पोस्ट में हालांकि लिख चुकी हूँ परन्तु इसका थोड़ा अधिक विस्तार करना मुझे ज़रूरी लग रहा है। इसमें आपके पास तीन विकल्प हैं। पहला शोध-पत्र लेखन, दूसरा रूपांतर तथा तीसरा स्क्रिप्ट लेखन का। इसी सत्र में आप एक कोर्स शोध-प्रविधि का पढेंगे। यह कोर्स आपको इस कार्य की सैद्धांतिक भूमिका प्रदान करेगा। आप ने विभिन्न सेमिनारों में विषय-विशेषज्ञों को प्रपत्र पढ़ते हुए सुना होगा। अब आप अपने निर्देशक की मदद से कोई एक विषय चुनें। मसलन- आप एक विषय चुनें- गोदान का स्त्रीवादी अध्ययन। अब आप याद करें कि पहले सेमिस्टर में आपने काव्य शास्त्र के कोर्स के अन्तर्गत नारीवादी समीक्षा का परिचय पाया है। आपने गोदान उपन्यास भी पढ़ा है। उस दिशा में आप और आगे बढ़े। नारीवादी समीक्षा क्या होती है इतना जान लेने के बाद आप दुबारा नए सिरे से गोदान पढें। फिर गोदान के संदर्भ में आप क्या विशेष जान सकते हैं, किन पुस्तकों के आधार पर, उन्हें किस तरह संदर्भित कर सकते हैं, यह सब आपको लिखना है। आपको शोध प्रबंध नहीं लिखना है। आपको इसमें अध्याय नहीं बनाने हैं। परन्तु एक विस्तृत आलेख लिखना है। शोध-आलेख। आप अभी तक जो कोर्स में पढ़ते आए हैं उन पुस्तकों को भी शोध लेख का आधार बना सकते हैं। मसलन आपने कामायनी पढ़ा है , तो कामायनी के आधार पर एक नए दृष्टिकोण से आप लिख सकते हैं। आपने पिछली पोस्टों में देखा होगा कि हमने कामायनी का विस्थापन तथा नारीवादी दृष्टि से अध्ययन प्रस्तुत किया है। आप इस तरह भी लिख सकते हैं। अथवा अगर आपने कहानियों का विकल्प चुना होगा तो नयी कहानी के परिप्रेक्ष्य में आप किसी एक कहानीकार का मूल्यांकन भी कर सकते हैं। अथवा आपने लंबी कविता का विकल्प चुना हो तो आप किसी एक कविता का या दो कविताओं का अध्ययन कर सकते हैं। अगर आप अधिक कल्पनाशील तथा उद्यमी और उत्साही हैं तो आप एक हिन्दी तथा एक गुजराती की लंबी कविता का अध्ययन कर सकते हैं। अथवा पंत की प्रकृति/अरविंद विचार की कविता का गुजराती की उसी तरह की कविता( गुजराती कवि सुंदरम) को ध्यान में रख कर अध्ययन कर सकते हैं। अथवा इसी तरह कई प्रकार के पेपर लिख सकते हैं। आप चाहें तो हिन्दी की एक वर्तमान साहित्यिक पत्रिका और गुजराती की एक वर्तमान साहित्यिक पत्रिका का भी अध्ययन कर सकते हैं। आप चाहें तो अहमदाबाद से छपते एक हिन्दी अकबार तथा गुजराती अखबार की तुलना कर सकते हैं। आपको किसी मुद्दे पर दोनों अखबारों के दृष्टिकोण का अध्ययन करना होगा। इसके अलावा आप अनुवाद के कोर्स में अनुवाद मूल्यांकन पढ़ेंगे। मूल्यांकन के मापदंडों के आधार पर आप किसी अनूदित कृति का मूल्यांकन भी प्रस्तुत कर सकते हैं। आप देखेंगे कि हमारे पाठ्यक्रम में हर कोर्स , दूसरे कोर्स के साथ जुड़ा है। पूरा पाठ्यक्रम एक यूनिट है। यहाँ परीक्षा की दृष्टि से आप चाहें तो भूल सकते हैं। पर ज्ञान प्राप्ति की दृष्टि से अगर याद रखेंगे तो सब एक दूसरे से संबद्ध पाएंगे। आप अपने अपने अजनबी की अस्तित्ववादी शोध-परक समीक्षा कर सकते हैं। आपने अस्तित्ववाद पर पढ़ा है। आपने नारीवादी तथा दलित कृतियां पढ़ी हैं, इतिहास के कोर्स में उसके बारे में पढ़ा है , दलित सौन्दर्य शास्त्र पढ़ा है अतः इस क्षेत्र में भी आप शोध आलेख लिख सकते हैं।

यह प्रोजेक्ट आपको कंप्यटरीकृत करके देना होगा।

इसी तरह जो अन्य दो विकल्प है। तो आपने प्रयोजनमूलक में इनका सैद्धांतिक पक्ष पढ़ा है। अब आपको इनका प्रायोगिक पक्ष प्रस्तुत करना होगा। इसके भी दो एक उदाहरण आप देख सकते हैं। आपको जो कहानी नाट्यात्मक लगती है उसका आप नाट्य रूपांतरण कीजिए। जैसे ईदगाह कहानी का आप कर सकते हैं। जो छात्र इसका नाट्य रूपांतरण करे उसी का आप दृश्य अथवा श्रव्य माध्यम के लिए स्क्रिप्ट लेखन कर सकते हैं। आगे चल कर आप अथवा आपके बाद आने वाले विद्यार्थी इन रूपांतरणों को मंच पर अपनी कॉलेज के लिए अभिनीत भी कर सकते हैं। अब यो युनिवर्सिटी का रेडियो आ गया है। इनका उसके माध्यम से भी प्रसारण हो सकता है। एक तरह से आपका पोर्ट फोलियो बनना शुरु होगा।

इस पूरी प्रक्रिया से आपको लाभ यह होगा कि एम.ए कर लेने के बाद आप बजार में इन चीज़ों की जो संभावनाएं भरी पड़ी हैं उसमें औरों से बेहतर तरीक़े से स्र्पर्धा में ठहर सकते हैं। पर आपको इसके लिए मेहनत करनी होगी। पाठ्क्रम में तो केवल दिशा निर्देशन है।

लेकिन हम हिन्दी के विद्यार्थियों की सबसे बड़ी तक़लीफ़ यह है कि हम अपने विषय को उतनी गंभीरता से नहीं लेते जितना लेना चाहिए। किसी भी भाषा तथा साहित्य के अध्ययन में कंटेंट और एक्स्प्रेशन- ये दो पहलू होते हैं। आपका कंटेंट कितना भी बेहतर हो परन्तु आप अगर भाषा-अभिव्यक्ति में कुशल नहीं हैं, तो सब बेकार है। अतः आपके पाठ्यक्रम में इसकी भी व्यवस्था की है। इस संदर्भ में आप अगली पोस्ट में पढेंगे। इसका संबंध आपके कोर्स 507 से संबंद्ध है।

हाँ, एक बात और । शोध-पत्र लेखन में संदर्भों का विशेष महत्व है। आप जब उसे कंप्यूटरीकृत करवाएंगे तब अगर आप विंडो7 में काम कर रहे हैं, तो ऊपर रेफेरेंस लिखा होगा। आप अपने टाइपिस्ट से कहेंगे तो वह आपको इसमें मदद कर सकेगा। यूँ तो हमने पिछले सत्र में हिन्दी कंप्यूटिंग में हिन्दी में कैसे टाईप किया जाए इसके लिए भी गुंजाइश रखी थी । अगर आपने उसमें कुछ काम किया हो तो आप अपना शोध पत्र खुद टाईप कर सकते हैं।



Saturday 17 December 2011

अभी तो तीसरे सत्र की परीक्षा हुई ही है और अब आपको तुरंत चौथे सेमिस्टर की शुरुआत करनी होगी। एम.ए की पदवी का यह आपका अंतिम पड़ाव है। आप कुछ देर आराम से बैठें और सोचें कि इस सेमिस्टर पद्धति से आपको क्या लाभ हुआ और कहाँ आपको लगा कि इस सेमिस्टर पद्धति में कुछ और सुधार तथा परिवर्तन की आवश्यकता है। आप इस पद्धति के माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों की पहली बेच है। अतः आपका फीड़बैक बहुत अहम होगा। मैं चाहती हूँ कि आप निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें ताकि हम अपने पाठ्यक्रम में आवश्यक परिवर्तन कर सकें-
  •  पाठ्यक्रम का विस्तार- अधिक, ठीक, कम( आप सभी कोर्सेस को ध्यान में रख कर इसका जवाब दें)
  • पाठ्यक्रम में जिन विषयों को समेटा गया है क्या वे आपके लिए उपयोगी साबित हुए अथवा नहीं?
  • आपके पाठ्यक्रम में हर कोर्स के आरंभ में कोर्स का उद्देश्य तथा उससे प्राप्त होने वाले कौशल का उल्लेख किया गया है। क्या उन पाठ्यक्रमं को पढ़ते समय वे उद्देश्य पूरे हुए और क्या उस प्रकार का कौशल आप प्राप्त कर सके?
  • अगर ऐसा हुआ है तो उसके कारण क्या हैं?
  • अगर नहीं तो उसके कारण क्या हैं?
  • ऐसा कौन-सा कोर्स है जो आपकी दृष्टि से बहुत उपयोगी रहा और कौन-सा ऐसा जो आपकी दृष्टि से व्यर्थ था?
  • उपयोगी होने और व्यर्थ होने के कारण आपकी दृष्टि में क्या हैं ?
आप इन प्रश्नों के उत्तर भाषा भवन में डाक द्वारा भी भेज सकते हैं। आपका फीड़बैक बहुत बहुमूल्य होगा। अगली पोस्ट में चौथे सेमिस्टर के संबंध में कुछ बात करेंगे।

हिन्दी विभाग द्वारा आगामी शुक्रवार को एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया है। भारत भर से विद्वानों को आमंत्रित किया गया है।


Saturday 10 December 2011

तुलनात्मक साहित्य की प्रासंगिकता

आपने यह प्रश्न किया था कि आपको तुलनात्मक साहित्य की प्रासंगिकता वाला मुद्दा समझ में नहीं आया। सबसे पहले आपको इस बात को समझना चाहिए कि हम प्रासंगिकता की बात क्यों कर रहे हैं। आपके मन में यह प्रश्न उठा होगा कि सूर,तुलसी या मध्यकालीन काव्य के अन्य अनेक रचनाकारों की प्रासंगिकता की चर्चा तो समझ में आती है अथवा छायावादी काव्य की प्रासंगिकता की भी बात समझ में आती है। फिर इस विषय पर सीधे-सीधे ऐसी कोई ऐसी पुस्तक मिली नहीं कि हम पढ़ कर समझ लें। ले दे कर एक इन्द्रनाथ चौधुरी जी की पुस्तक है। उसमें भी तो सीधे सीधे कुछ नहीं लिखा है। अभी तो ज्ञान का यह विषय नया है, फिर प्रासंगिकता का प्रश्न कहाँ उठता है।
लेकिन इस मुद्दे पर आपके पास सामग्री है। आपकी समझ में भी आ रहा कि इसका आशय क्या है। जो समस्या आपकी है वह यह कि हम इस सामग्री को प्रासंगिकता के संदर्भ में समझें कैसे और फिर उसे लिखें कैसे।
आपने तुलनात्मक साहित्य का ऐतिहासिक परिचय पाया होगा जिससे आपकी समझ में आ गया होगा कि यह ज्ञान - शाखा बीसवीं सदी की देन है। हालांकि तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन का आरंभ 19वीं सदी के अंत में हो चुका था। आप इस बात को भी जानते हैं कि विश्व साहित्य तथा तुलनात्मक साहित्य बहुत क़रीबी ज्ञान-शाखाएं हैं। उस पूरे परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए आप इस बात को याद करें कि तुलनात्मक साहित्य के जन्म के क्या कारण हैं। आप इस बात को भी न भूलें कि तुलनात्मक साहित्य एक तरह से पाश्चात्य साहित्य की वर्चस्ववादी वृत्ति के सामने एक सशक्त स्वर के रूप में उभरा था।
आपको इस बात का भी पता होगा कि पश्चिम के बहुसंस्कृति वाद के परिणाम स्वरूप विभिन्न धर्मों एवं समाजों तथा उनकी संस्कृतियों की ही यह एक तरह से अकादमिक आवश्यकता है। एक ऐतिहासिक बिन्दु पर बहुसंस्कृति वाद समय की आवश्यकता था तो आगे चल कर वही बहुसंस्कृतिवाद बाधा रूप भी लगने लगा। इसी बीच तुलनात्मक साहित्य पनपा है। अतः इसकी प्रांसगिकता पर विचार करते समय इन सब बातों पर सोचना आवश्यक है। मुझे मालूम है कि आप इतना पढ़ते हुए सोच रहे होंगे कि यह बहुसंस्कृतिवाद क्या है। बहुसंस्कृतिवाद के लिए अंग्रेज़ी में शब्द मल्टी कल्चरलिज़्म है। इसका आरंभ कनाड़ा में हुआ था। जब कनाड़ा में विभिन्न धर्म एवं राष्ट्रों के लोग आ कर बसे और आवश्यकता इस बात की थी कि कनाडा का विकास हो। यह तभी संभव था जब वहाँ रहने वाले विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच सौर्हाद्र कायम हो सके। यह बिना राजकीय दखल के संभव नहीं था। अतः ऐसा कानून पारित किया गया जिसमें प्रत्येक धर्म तथा देश के लोगों को समान अधिकार प्राप्त था। इसका आशय यह था कि सभी की कनाडा के विकास में समान भूमिका होगी। उस देश में सभी धर्मों एवं नस्लों के लोगों को संवैधानिक रूप से समान दर्ज़ा प्राप्त हुआ। इस राजकीय आवश्यकता से निर्मित बात को साहित्य के माध्यम स् अभिव्यक्ति आवश्यक थी। तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन की विधि इसमें बड़ी करागर साबित हुई। ।
यह अलग बात है कि बाद में चल कर इस मुद्दे पर विचार बदला और बहुसंस्कृतिवाद को ले कर प्रश्न उठे।
इस समग्र भूमिका को ध्यान में रखते हुए अब प्रश्न यह उठता है कि वे क्या करण हैं कि हमें आज उसकी प्रासंगिकता की चर्चा करनी पड़ रही है। इस मुद्दे को हम सुविधा के लिए कुछ मुद्दों में बाँट देंगे।
 हमारा पहला मुद्दा होगा- तुलनात्मक साहित्य की प्रासंगिकता साहित्य-अध्ययन के क्षेत्र में क्या है ?
 दूसरा मुद्दा है- तुलनात्मक साहित्य की विभिन्न प्रविधियों के संदर्भ में इसे किस तरह देखा जाए ?
 तीसरा मुद्दा है- भारतीय संदर्भ में तुलनात्मक साहित्य की विशेष आवश्यकता क्यों है ?
 चौथा मुद्दा है- विभिन्न राजकीय स्थितियां बदलने से क्या स्वरूप की प्रासंगिकता में परिवर्तन आता है ? परिवर्तन के बावजूद आवश्यकता क्या बनी रहती है ?
पहले मुद्दे के संदर्भ में बात करें तो यह स्पष्ठ हो जाता है कि तुलनात्मक साहित्य एकक(single literature) साहित्य अध्ययन से भिन्न है। एकक साहित्य का अध्ययन जहाँ साहित्य के सीमित अध्ययन की दिशा की ओर संकेत करता है, वहीं तुलनात्मक साहित्य हमें साहित्य के व्यापक अध्ययन की दिशा में ले जाता है। यहाँ तुलना इस बात की नहीं होती कि कौन-सा साहित्यकार श्रेष्ठ है बल्कि तुलना इस बात की होती है कि दोनों साहित्यकारों में समानता और भिन्नता के बिन्दु कौन-से हैं। कहाँ भाव-संवेदनाए-विचार-कला एक दूसरे के साथ मिलते हैं कहाँ अलग है। यह दूसरे को पहचानने तथा स्वीकार करने की दिशा में पाठक को ले जाता है। वर्तमान समय में इसकी विशेष आवश्यकता है। साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन व्यापक दृष्टि प्रदान करता है। संकीर्णता के विरोध में व्यापकता आज के विश्व-मनुष्य की आवश्यकता है।
दूसरे मुद्दे के संदर्भ में आपने तुलनात्मक साहित्य की विभिन्न प्रविधियों का अध्ययन किया है। इन प्विधियों के माध्यम से हमें पता चलता है कि इतिहास, सामाजिक तथा कला दृष्टि से विभिन्न भाषाओं के तथा विभिन्न देशों की विभिन्न भाषाओं के अध्ययन द्वारा विश्व के साहित्यों के अध्ययन में किस तरह व्यापकता आती है। आज के हमारे विश्व का चित्र कहीं व्यापकता को पुरुस्कृत करता है तो कहीं संकीर्णता की ओर ले जाता भी दिखाई पड़ता है। ऐसे में तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन विश्व को जीने लायक जगह बनाने की हमारी दृष्टि तथा प्रयत्म में हमारी मदद करता है।
तीसरे मद्दा भारतीय तुलनात्मक साहित्य से संबद्ध है। आज भारत में ही कई भाषाएं हैं और संस्कृतियाँ भी विद्यमान हैं। यों चाहे सभी भारतीय भाषाओं के बोलने वाले एक व्यापक भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं, परन्तु एक दूसरे की सही समझ के लिए आवश्यक है कि हम उनके साहित्य का अध्ययन करें और जानें कि हममें परस्पर समानता के बिन्दु कौन-से हैं जो हमें जोड़े रखते हैं और भेद के कौन हैं तथा क्यों हैं। क्यों का प्रश्न हमें इतिहास की परिस्थियिताँ जान कर मिल सकता है। इस जानकारी से एक-दूसरे के प्रति हमारी समझ तथा परिणामतः आत्मीयता बढ़ेगी।
इसी से जोड़ कर चौथा मुद्दा अगर देखें तो ता चलता है कि राजकीय परिस्थितियों तथा इतिहास से जुड़े मुद्दों के कारण अथवा सामजिक स्थितियों के कारण किस तरह भक्तिकाल का आविर्भव उत्तर तथा दक्षिण भारत में अगल अलग समय पर होता है। अथवा स्वतंत्रता संघर्ष के परिणाम स्वरूप दलित विमर्श का अस्तित्व प्रकट होता है परन्तु सामाजिक जागृति के परिणामस्वरूप वह महाराष्ट्र में पहले आता है तथा कालांतर में देश के उत्तरी हिस्से में वह प्रकट होता है। महाराष्ट्र की लोक-जागृति के कारण उसके इतिहास में ढूँढे जा सकते हैं जिस तरह उत्तर के राज्यों के पिछड़ेपन को उसके इतिहास में देखा जा सकता है। इस तरह साहित्य को देखने की दृष्टि साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से प्राप्त होती है। यह एकक साहित्य अध्ययन से संभव नहीं है। साहित्य को देखने की इस तरह की दृष्टि को विकसित करना ही आज सर्वाधिक प्रासंगिक है।
असल में इन्हीं मुद्दों पर आप विस्तृत चिंतन करेंगे तो आपको तुलनात्मक साहित्य की प्रासंगिकता के बारे में अधिक जानकारी मिल सकती है। इसे आप केवल चिंतन की एक दिशा मानें। एक बार आपने तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन संबंधी विभिन्न मुद्दों को समझ लिया तो उसकी प्रासंगिकता को समझना कठिन नहीं होगा।

Wednesday 16 November 2011





अभी अभी मैंने यूनिकोड संबंधी एक पोस्ट डाली है। आप यूनिकोड के बारे में गूगल सर्च इंजन में जा कर और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यह पाठ मैंने आपके लिए इसी प्रकार की सामग्री का उपयोग कर के बनाया है। इसमें विशेष रूप से बालेन्दु दाधीच का लेख बहुत उपयोगी हुआ। यूं भी दाधीचजी भारतीय भाषाओं के संबंध में नेट पर तथा कंप्यूटर पर अधिक से अधिक काम हो सके इस संबंध में एक दशक से अधिक समय से कार्यरत हैं। इस पाठ के लिए उनका विशेष आभार हमें मानना चाहिए।

HIN ५०३ प्रयोजनमूलक हिंदी

यूनिकोड संबंधी प्राथमिक जानकारीयूनिकोड क्या है
1. यूनिकोड एक पद्धति है।
2. सूचनाओं के भंडारण की आधुनिकतम पद्धति।
3. डेटा स्टोरेज संबंधी एनकोडिंग मानक।
4. डेटा कंप्यूटर के संचालन का केन्द्र बिंदु है।
एनकोडिंग का क्या अर्थ है
1. एनकोडिंग अर्थात् -अक्षरों अथवा पाठ्य सामग्री और कंप्यूटर पर स्टोर किए जाने वाले बाइनेरी डिजिट्स के बीच तालमेल बिठाने की प्रणाली।
2. एनकोडिंग टेबल (तालिका) के माध्यम से ही कंप्यूटर यह तय करता है कि फलाँ बाइनेरी कोड को फलां अक्षर या अंक के रूप में स्क्रीन पर प्रदर्शित किया जाए।
3. किस एनकोडिंग में कितने बाइनेरी अंक प्रयुक्त होते हैं इसी पर उसकी क्षमता और नामकरण निर्भर होते हैं।
उदाहरण देखें-
1. यूनिकोड के पहले जो लोकप्रिय एनकोडिंग था वह एस्की के नाम से जाना जाता है। इसे सात बिट का एनकोडिंग कहा जाता है, क्योंकि इसमें हर सूचना या संकेत के लिए सात बाइनेरी डिजिट का प्रयोग होता है।
2. (बिट= कंप्यूटर में प्रयुक्त बाइनेरी डिजिट का लघुतम हिस्सा (जैसे परमाणु))
3. इसके तहत इस तरह के अलग-अलग 128 संयोजन संभव हैं।
4. अर्थात इस एनकोडिंग के जरिए कंप्यूटर 128 अलग-अलग अक्षर या संकेत समझ सकता है।

अब हम जानें कि आखिर कंप्यूटर से हमें क्या काम लेना होता है-
1-लिखना 2- ध्वनि रिकार्डिंग 3-विडियो प्रोसेसिंग
इनसे हम क्या करते हैं
1. इनके माध्यम से या तो सूचनाएं देते हैं अथवा कंप्यूटर में पूर्व संचित सूचनाएं ग्रहण करते हैं। इन्हें इन-पुट तथा आउट-पुट कहते हैं। इन-पुट यानी सूचना प्रदान करना आउट-पुट यानी सूचनाएं ग्रहण करना।
2. ये सूचनाएं ही डेटा हैं। इन सूचनाओं को कंप्यूटर का डेटा कहते हैं।
3. यह डेटा कंप्यूटर में अंकों के रूप में संग्रहित होता है।
इसकी ख़ासियत क्या है
1. इस पद्धति से एक आम कंप्यूटर विश्व की सभी भाषाओं में काम करने में सक्षम हो जाता है।
2. बिना अंग्रेज़ी जाने कंप्यूटर की क्षमताओं का प्रयोग कर सकते हैं।
यह तथ्य जान लेना आवश्यक है
 कंप्यूटर केवल अंकों की भाषा जानता है। वह भी सिर्फ दो - 0 तथा 1(शून्य तथा एक)
इन दो अंको का भिन्न-भिन्न ढंग से, पारस्परिक बाइनरी संयोजन कर, अलग-अलग डेटा को कंप्यूटर पर रखा जा सकता है। मिसाल के तौर पर ०१०००००१ का अर्थ है अंग्रेजी का कैपिटल ए (A) अक्षर और ००११०००१ से तात्पर्य है १ (1) का अंक।
यूनिकोड से पहले क्या था
यूनिकोड के पूर्व कंप्यूटर एस्की एनकोडिंग की सीमा में बँधे हुए थे। इसीलिए भाषाओं के प्रयोग के लिए उन भाषाओं के फॉन्ट पर सीमित थे जो इन संकेतों को कंप्यूटर स्क्रीन पर अलग-अलग ढंग से प्रदर्शित करते हैं। यदि अंग्रेजी का फोंट इस्तेमाल करें तो ०१०००००१ संकेत को ए (A) अक्षर के रूप में दिखाया जाएगा। लेकिन यदि हिंदी फोंट का प्रयोग करें तो यही संकेत ग, च या किसी और अक्षर के रूप में प्रदर्शित किया जाएगा।
यूनिकोड के आने पर क्या हुआ
 एक क्रांति –सी हो गई।
सबसे पहले जानें कि ऐसा क्यों-
1. यह एक 16 बीट की एनकोडिंग व्यवस्था है।
2. अब यह व्यवस्था 32 और 64 तक भी चली गई है।
3. अभिव्यक्ति के लिए 16 बाइनेरी डिजिट्स का उपयोग होता है।
4. इसमें 65536 अद्वितीय संयोजन संभव हैं।(यूनिकोड 5.0.0 में लगभग 99000 संयोजन संभव हैं।) (इस हिसाब से 32 तथा 64 में तो कितने अधिक संयोजन संभव हैं।)
5. परिणामतः यूनिकोड हमारे कंप्यूटर में सहेजे गए डेटा को फॉन्ट की सीमाओं से बाहर निकाल देता है।
6. इस एनकोडिंग में किसी भी अक्षर, अंक या संकेत को सोलह अथवा अधिक बिट्स के अद्वितीय संयोजन के रूप में सहेजा जा सकता है।
7. चूँकि किसी एक भाषा में इतने सारे अद्वितीय(यूनिक) अक्षर मौजूद नहीं है अतः इस मानक में विश्व की सारी भाषाओं को शामिल कर लिया गया है।
8. हर भाषा में इन हज़ारों संयोजनों में से उसकी वर्णमाला संबंधी आवश्यकताओं के अनुसार स्थान दिया गया है।
9. इस व्यवस्था में सभी भाषाएं समान दर्ज़ा रखती हैं और सहजीवी हैं।
10. अर्थात- यूनिकोड आधारित कंप्यूटर पहले से ही विश्व की हर भाषा से परिचित है, बशर्ते आपके कंप्यूटर के ऑपरेटिंग सिस्टम में इसकी क्षमता हो।
11. फिर चहे वह हिंदी हो, पंजाबी हो, गुजराती हो या तमिळ।
12. वे प्राचीन भाषाएं भी, जो अब बोली नहीं जाती- जैसे प्राकृत अथवा पालि।
13. वे भाषाएं भी जो संकेत के रूप में प्रयुक्त होती हैं- जैसे गणितीय या वैज्ञानिक भाषाएं।
यूनिकोड के प्रयोग के लाभ
1. एक कंप्यूटर पर दर्ज़ किया गया पाठ (टेक्स्ट) विश्व के किसी भी अन्य यूनिकोड आधारित कंप्यूटर पर खोला जा सकता है।
2. उस भाषा के अलग फॉन्ट का इस्तेमाल करने की आवश्यकता नहीं रही।
(क्योंकि सिद्धांततः विश्व की हर भाषा के अक्षर यूनिकोड केंद्रित हर फॉन्ट में मौजूद हैं।)
3. कंप्यूटर में पहले से मौजूद इस क्षमता को सक्रिय करने की आवश्यकता है।
4. इसे सक्रिय इन ऑपरेटिंग व्यवस्था से किया जा सकता है-
 विंडोज एक्सपी, विंडोज 2003, विंडेज़ विस्ता, मैक एक्स10, रेड हेट लिनेक्स, उबन्तु लिनेक्स, ।
5. यूनिकोड व्यवस्था केवल देखने या पढ़ने तक सीमित नहीं है।
6. हिंदी जानने वाला व्यक्ति यूनिकोड आधारित किसी भी कंप्यूटर पर टाईप कर सकता है।
7. चाहे वह विश्व के किसी भी कोने में रह रहा हो।
8. केवल हिंदी ही नही, एक ही फाईल में एक ही फॉन्ट इस्तेमाल करते हुए आप विश्व की किसी भी भाषा में लिख कर सकते हैं।
9. इस प्रक्रिया में अंग्रेज़ी कहीं भी बाधा नहीं है।
10. भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में सूचना प्रौद्योगिकी का यह अपना अलग प्रकार का योगदान है।
यूनिकोड आधारित कंप्यूटर पर किसी भी भारतीय भाषा में काम संभव कैसे हो सकता है.
ऑपरेटिंग सिस्टम अथवा कंप्यूटर पर इन्स्टॉल किए गए सॉफ्टवेर यूनिकोड व्यवस्था का पालन करें। उदाहरण के लिए

 एम.एस का ऑफिस संस्करण. सन माक्रोसॉफ्ट का स्टर ऑफिस या फिर ओपन सोर्स पर आधारित ओपन ऑफिस. ऑर्ग जैसे सॉफ्टवेयर में शब्द संसाधक (वर्ड प्रोसेसर) तालिका आधारित सॉफ्ट वेयर(स्प्रेड शीट), प्रस्तुतु संबंधी सॉफ्टवेयर(पावरपॉइंट) में अंग्रेज़ी की ही तरह हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में काम हो सकता है।
यानी कि इतने काम हो सकते हैं अब, तो, भारतीय भाषाओं में क्या करना संभव है
 यूनिकोड आधारित वेबसाइट अथवा पोर्टल को देखने के लिए पाठक के पास संबंधित फॉन्ट होने की अनिवार्यता भी नहीं है। वह उन्हें देख सकता है, डाउनलोड भी कर सकता है। यह सुविधा सीमित अर्थों में डायनेमिक फॉंट टेकनोलॉजी के जरिए पहले भी मौजूद थी। लेकिन यह तभी हो सकता था जब कंप्यूटर पर संबंधित फॉन्ट मौजूद होते थे। अब ऐसा नहीं है। यह सीमा नहीं रही।
 यूनिकोड ने कंप्यूटर की संपूर्ण कार्य प्रणाली बदल दी है। अब वह अंग्रेज़ी का मोहताज नही रहा।
कार्य प्रणाली में कहाँ कहां परिवर्तन आए-
 डेटा का भंडारण, प्रोसेसिंग, प्रस्तुति।
समस्या कहाँ है
 विश्व के अधिकांश कंप्यूटर पुरानी व्यवस्था पर चलते हैं –(7 बिट के)
 यूनिकोड में 16 बिट्स हैं। अतः वे कंप्यूटर इसे समझ नहीं सकते।
क्या करना होगा
 ताजातरीन विंडोज, लिनक्स, अथवा मेक्स ऑपरेटिंग सिस्टम का प्रयोग
 पी-4, 2 गीगाहर्ट्ज श्रेणी का, कम से कम 40 जी बी हार्ड डिस्क 256 एम बी रैम (रैंडम एक्सेस मेमरी) से युक्त हो।
(गीगाहर्ट्स= फ्रीक्वंसी-अंतराल पी-4= पेंटीयम -4 ( एक तरह का प्रोसेसर)
जी बी= गीगीबाईट्स एम बी=मेगा बाईट्स)
 अतः आर्थिक बिंदु महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

Sunday 13 November 2011

HIN 405

भारतीय साहित्य HIN405
हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आवश्यकता तथा अनुभव के परिणामस्वरूप ज्ञान का विस्तार होता है। अपने अनुभव तथा विचार में मनुष्य-समाज जितना व्यापक होता जाता है उतना ही उसके ज्ञान का विस्तार होता है। ज्ञान के विस्तार के साथ अध्ययन – अध्यापन के विषय-क्षेत्रों का भी विस्तार होता है। ज्ञान के जिन बिंदुओं को पहले हमने किसी एक नज़रिए से देखा था वही अध्ययन-अध्यापन का विषय हो जाता है तब एक भिन्न विस्तार पाता है। प्राचीन काल में साहित्य ज्ञान प्राप्ति का भी एक माध्यम था। तभी प्लेटो जैसे चिंतकों को साहित्यकारों के प्रति इतने कड़े निर्णय सुनाने पड़े। लेकिन जब साहित्य स्वयं अध्ययन-अध्यापन का विषय बना, तब पहले की अपेक्षा उसकी उपादेयता का क्षेत्र, अपने विस्तार में सीमित तथा गहराई में अधिक हो गया। इस अर्थ में कि साहित्य अब जीवनानुभव की व्यापकता से सिमट कर विषय-विशेष तक सीमित हो गया। उदाहरण के लिए अपने पाठ्यक्रम में भक्तिकाल को पढ़ कर हम न तो ईश्वर को, न ही मुक्ति को प्राप्त करना चाहते हैं। रामचरितमानस अगर साहित्य है तो केवल साहित्य की दृष्टि से उसे पढ़ा जाने लगा। उसके सभी साहित्येतर आशय हमारे अध्ययन की परिधि से बाहर होते हैं।
भाषाएं प्रायः साहित्य की अभिव्यक्ति का माध्यम रही हैं अतः साहित्य के अध्ययन के साथ ही भाषाएं भी एक निश्चित वर्ग एवं श्रेणी तक सीमित हो गयीं। हम हिन्दी भाषा में लिखा हिन्दी साहित्य, गुजराती भाषा में लिखा गुजराती साहित्य, बंगाली भाषा में लिखा बंगाली साहित्य इत्यादि दृष्टि से इन साहित्यों के विषय में सोचने लगे। समाज में आते परिवर्तन हमारे अध्ययन की आवश्यकता को निर्धारित करते हैं। अंग्रेजों के लिए भारतीय साहित्य अंग्रेज़ी साहित्य से अलगाने वाली एक संज्ञा थी। उनके सामने मुख्य रूप से संस्कृत साहित्य का विशाल भंडार था। अतः उनके लिए संस्कृत साहित्य ही भारतीय साहित्य था। प्राकृत, पाली तथा अन्य आधुनिक आर्य भाषाओं के साहित्य के विषय में उन्होंने गंभीरता से सोचा ही नहीं। इसका एक कारण जहाँ संस्कृत का विशाल समृद्ध भंडार वहीं दूसरी ओर इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि संस्कृत सत्ता की भाषा रही थी। अंग्रेज़ी भी सत्ता की भाषा थी। अतः अपनी बराबरी की भाषा तो अंग्रेज़ों के लिए संस्कृत ही थी।
साहित्यिक दृश्य तथा दृष्टिकोण जो स्वतंत्रता के पूर्व था, स्वतंत्रता के बाद तक आते-आते वह काफी बदल गया था। स्वतंत्रता के बाद भी अंग्रेज़ों द्वारा प्रदत्त दृष्टि से हम लंबे समय तक प्रभावित रहे। अब जा कर, लगभग पिछले दशक से हमारी इस सोच में अंतर आता हुआ दिखाई पड़ रहा है। सन् 2001 में यू.जी.सी ने जो नया पाठ्यक्रम बनाया उसमें एक नये प्रश्न-पत्र के रूप में भारतीय साहित्य को दाखिल किया गया। उस समय भारतीय साहित्य पर एक पुस्तक उपलब्ध थी, भारतीय साहित्य का समेकित इतिहास जिसके लेखक डॉ. नगेन्द्र हैं। तब भारतीय साहित्य के स्वरूप तथा अन्य मुद्दों को स्पष्ट कर सके ऐसी पुस्तकों का अभाव था। असल में इसे एक प्रश्नपत्र के रूप में पढ़ाने की समझ विकसित करने के लिए अध्यापकों के पास भी कोई विशेष सामग्री नहीं थी। 2002 में "भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएं" रामविलास शर्मा की पुस्तक आई। इस पुस्तक में रामविलासजी ने भारतीय साहित्य की इतिहास रचना के संदर्भ में कई महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं। भारतीय साहित्य की अवधारणा से संबंधित भाषा. राष्ट्र आदि प्रश्नों पर भी उन्होंने बड़ी समीक्षात्मक दृष्टि से सोचा है। सन् 2003 में के. सच्चिदानंदनजी की अंग्रेज़ी पुस्तक का अनुवाद "भारतीय साहित्य- स्थापनाएं और प्रस्थापनाएं" प्रकाशित हुई। इसी बीच दो-एक पुस्तकें यू.जी.सी के नए पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए लिखी गईं। (श्री मूलचंद गौतम तथा श्री.रामछबीला त्रिपाठी द्वारा लिखित "भारतीय साहित्य")। इसी बीच विमलेश कांति वर्मा की पुस्तक "भाषा संस्कृति और साहित्य" आई जो पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए तो नहीं लिखी गई परंतु भारतीय साहित्य विषयक समझ को विस्तृत करने वाली तो है ही। इस बीच केन्द्रीय साहित्य अकादमी, दिल्ली की बृहद योजना के अन्तर्गत भारतीय साहित्य के इतिहास (History of Indian Literature) के दो भाग भी प्रकाशित हुए । पहले आठवाँ भाग फिर पाँचवाँ। इन दोनों भागों में भारतीय इतिहास के दो महत्वपूर्ण काल-खंडों की बात है- भारतीय नवजागरण तथा भारतीय भक्तिकाल। श्री. सिसिरकुमार दास जी का यह ऐतिहासिक कार्य भारतीय साहित्य को समझने की दृष्टि से अतुलनीय है। एक ही पट पर एक ही कालखंड की विभिन्न भाषाओं के साहित्य को पढ़ना और जानना एक अद्भुत् अकादमिक अनुभव है।
इन सब पुस्तकों के अध्ययन-पठन के फलस्वरूप और बावजूद कुछ प्रश्न भारतीय साहित्य के विषय में हमेशा बने रहते हैं। कुछ ऐसे प्रश्न भी हैं जो हमें कोंचते रहते हैं। भारतीय साहित्य को पाठ्यक्रम में शामिल करने का यू .जी.सी का इरादा नेक ही रहा होगा, परन्तु यह भी विचारणीय प्रश्न है कि क्या इसे पाठ्यक्रम में शामिल करने से उसके (पाठ्यक्रम में) होने का उद्देश्य सफल हुआ, हो पाया? विद्यार्थियों के बीच भारतीय समाज का परिचय बढ़ा ? क्या युवा पीढ़ी अपने समाज और भाषा से इतर साहित्य और समाज के प्रति संवेदनशील हुआ है ? मेरा ऐसा विचार है कि यह एक धीमी तथा लंबी प्रक्रिया है और निश्चय ही एक दिन इसके अच्छे परिणाम हमें देखने को मिलेंगे। भारतीय साहित्य की अवधारणा के कारण अब तक साहित्य की जो पहचान अथवा अक्स हमारे भीतर था वह सहसा व्यापक हो जाता है। उदाहरण के लिए पहले कालीदास या भास, अथवा रवीन्द्रनाथ या कम्बन किसी और भारतीय भाषा के लेखक थे, परन्तु भारतीय साहित्य के अन्तर्गत वह किसी भी , बल्कि प्रत्येक भारतीय भाषा के लेखक बन जाते हैं।
भारतीय साहित्य का अध्यापन कराते हुए मुझे विद्यार्थियों के पक्ष से कुछ प्रश्नों का सामना करना पड़ा, कुछ ऐसे अनुभव भी हुए जिनके कारण भारतीय साहित्य से संबंधित मुद्दों पर मुझे नए सिरे से सोचने की आवश्यकता लगी है। मुझे यह भी लगा कि इस तरह के पाठ्यक्रम वाक़ई में बहुत आवश्यक हैं। मसलन भारतीयता की परिभाषा देते समय प्रायः उसके सांस्कृतिक संदर्भों में समझाने का किया जाता है जिसमें हम इस बात पर विशेष भार देते हैं कि भारत देश की बहु-भाषी तथा बहु-धर्मी प्रजा को भारतीयता की व्यापक समझ के अन्तर्गत रखना चाहिए। धर्म के प्रति बँधे बँधाए , परंपरागत विचारों के कारण तथा परिवार-प्रदत्त संस्कारों के अभाव अथवा संकीर्णता के कारण इस बात को संप्रेषित करना कई बार बहुत कठिन हो जाता है कि भारतीयता का संबंध किसी एक धर्म से नहीं है। भारत के बाहर रहने वाले हिंदुओं को भारतीय माना जाए या नहीं तथा अगर मुसलमान भी भारतीय है तो भारत बाहर के मुसलमान को क्या कहा जाए। अगर राष्ट्रीयता को भौगोलिक एवं राजनीतिक मर्यादा में रख कर व्याख्यायित करते हुए भारतीयता की पहचान की जाए तो मानवीयता के मुद्दे को किस तरह समझें। फिर भारत के बाहर रहने वाले समान धर्मी लोगों के षय में किस तरह सोचा जाए। फिर मानवीय दृष्टि तो हर साहित्य का लक्षण होती है, ऐसे में भारतीय साहित्य अलग कैसे पड़ता है, उसे अलग कैसे मानेंगे।' दुनिया के मज़ूर एक हो जाओ' की वैश्विक दृष्टि तथा राष्ट्रीय पहचान की( तथाकथित एवं तुलनात्मक दृष्टि से) संकीर्ण दृष्टि के बीच अब भारतीय साहित्य पर विचार करना इसलिए आवश्यक हो गया है कि भारतीय साहित्य पाठ्यक्रम का मुद्दा बन गया है। विचारधारा, राष्ट्रीयता, संस्कृति, मूल्य (इसमें भी विवाद के कई पेंच हैं) आदि मुद्दे प्रवहमान रहते हैं- अतः भारतीय साहित्य की संकल्पना अपनी गहराई में इतनी सरल नहीं है जितनी हमने अपने पाठ्यक्रमों में बना दिया है।
विश्व के फलक पर भारतीय साहित्य हमारी राजनैतिक आवश्यकता भी है, यह कहना बहुत गलत नहीं होगा। अकादमिक रूप से विश्व साहित्य तथा प्रादेशिक साहित्य के बीच की कड़ी के रूप में हम भारतीय साहित्य को देख सकते है और भारतीय तुलनात्मक साहित्य के समानांतर भी उसे समझा जा सकता है। फ़र्क दोनों में यही है कि भारतीय साहित्य के रूप में इन कृतियों को पढ़ने के आधार भिन्न हैं। इन्हीं कृतियों को तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत, अध्ययन के रूप में इन्हें जब पढ़ेंगे तो हमारे आधार अलग होंगे। इसमें भिन्नता और समानता इतनी ही है जितनी सूजी के हलवे तथा उपमा में होती है। मुख्य सामग्री समान है परन्तु उसमें डलने वाले पदार्थ तथा पकाने की प्रक्रिया भिन्न है।
जब कृतियों को भारतीय साहित्य के रूप में पढ़ते हैं तो हमारा ध्यान उसमें निहित भारतीयता को उजागर करना होता है। भाषा, मूल्य तथा संस्कृति की दृष्टि से , चिंतन तथा भाव-ग्रहण की दृष्टि से, सामाजिक व्यवहार तथा समाजिक संरचना की दृष्टि से निर्मित मूल्य-दृष्टि को ध्यान में रखते हुए हम कृति का मूल्यांकन करते हैं। यही सही तरीका भी है। उदाहरण के लिए रवीन्द्रनाथ या विजय तेंदुलकर या तुलसीदास या महाश्वेता देवी आदि किस भारतीय भाषा में लिखते हैं, उस भाषा की विशेषता क्या है। परन्तु हम चूंकि इन कृतियों को अनुवाद में पढ़ते हैं अतः उन भाषाओं के बारे में सीधे-सीधे जान नहीं सकते। यहाँ एक और बात हमारे सामने आती है कि भारतीय साहित्य के अध्ययन में अनुवाद की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन ये सभी कृतियाँ चूंकि भारतीय भाषाओं में हैं अतः यह संभावना बनी रहती है कि कभी हम इन भाषाओं को सीखने की ओर प्रवृत्त होंगे। हम यह भी देकने का प्रयत्न करेंगे कि इन कृतियों में किन भारतीय मूल्यों का स्थापन अथवा विस्थापन हुआ है। भारतीय संस्कृति की कौन-सी विलक्षणताएं इन कृतियों में दिखाई पड़ती हैं। अथवा तो भारतीय संस्कृति की विभिन्नताएं या विकृतियां इन कृतियों में हैं, यह भी हमारे अध्ययन का विषय हो सकते हैं। हमारी पारिवारिक संरचना हमारे पारिवारिक संबंध, हमारी सोच के कितने ही विभिन्न पहलू हमें इन पुस्तकों में दिखाई पड़ते हैं। अपनी बेटी को अपनी राजनीतिक महेच्छा के हेतु बलि चढ़ाने के बाद घासीराम के भीतर जगा अपराध-बोध उसी पारिवारिक संरचना को दर्शाता जो अपनी प्रकृति में भारतीय है। अथवा रवीन्द्रनाथ की असंख्य कविताओं में जो पारिवारिक संबंधों के संकेत है उन्हें भी इस तरह देखा जा सकता है। स्त्री के प्रति भारतीय समाज का दृष्टिकोण भी रवीन्द्रनाथ की कविताओं एवं तेंदुलकर के नाटक में स्पष्ट हो जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि भारतीय साहित्य का अध्ययन निश्चय ही हमारे भीतर अपने प्रति एक आत्मविश्वास जगाने का काम करता है।

Friday 11 November 2011

मुक्त छन्द

सुमन आपने मुक्त छन्द पर कुछ और सामग्री माँगी थी। मैंने आपको इस विषय में आरंभिक जानकारी तो दी थी। आप के लिए एक लेख तैयार करने हेतु मैंने मन बनाया, पर इसी बीच प्रेरणा पत्रिका में भगवत रावतजी का आलेख पढ़ा। इस लेख का लिंक ब्लॉग पृष्ठ पर दाहिनी ओर दिया है। उस पर क्लिक करेंगे तो प्रेरणा खुल जाएगी। उसमें ऊपर की ओर पुराने अंकों की चित्र-पटी का स्क्रॉल आप देख सकेंगे। जैसे ही अगस्त २०१० का अंक प्रकट होगा आप उस पर क्लिक करे। पृष्ठ खुलते ही आलेकों की सूची होगी जिस पर क्लिक करने से आपको रावत जी का लेख मिलेगा। मुझे आशा है कि आपकी सारी जिज्ञासाएं इस लेख से शांत हो जाएंगी। रावत जी हमारे समय के बहुत महत्वपूर्ण कवि हैं। उनका लेख महत्वपूर्ण है।

Monday 7 November 2011

मिथक और सर्जनात्मक अर्थवत्ता- बाणभट्ट की आत्मकथा के संदर्भ में


(HIN502 में काव्य-शास्त्र के कोर्स में मिथक विषयक कुछ मुद्दे हैं। संभवतः उन मुद्दों को समझने में यह निम्नलिखित विश्लेषण आपके काम आ सकता है।)
साहित्य स-शब्द रचना है और शब्द की सार्थकता अर्थ की उपस्थिति में ही है क्योंकि निरर्थक शब्द-रचना मात्र विक्षिप्तता के अलावा और क्या है। अन-गढ़ ध्वनि भी कई बार सार्थक होती है जब किसी विशेष अवसर पर पशु-पंखी उसका प्रयोग करते हैं। साहित्य-कृति अर्थ की अपेक्षा जगाती ही है- इसे तो हमें मान कर चलना चाहिए। साहित्य पठन में एक सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि अर्थ का बोधन या अर्थ का ग्रहण कैसे होता है और कैसे किया जाए। क्या यह बोधन रचना की संरचना द्वारा, कथा द्वारा या उसके समसामयिकत्व द्वारा होता है। क्या यह रस द्वारा होता है, अलंकारों द्वारा, वक्रोक्ति द्वारा रीतियों द्वारा मिथकों द्वारा होता है। कृति और पाठक के बीच संप्रेषण की कितनी क्षमता है और यह भी एक मुद्दा है।

सही अर्थों में जिसे हम क्लासिक साहित्य कहते हैं वह हमारी साहित्यिक समझ के विकसित होने के साथ-साथ हमें अधिक समझ में आता है। उदाहरण के लिए बाणभट्ट की आत्मकथा कृति की बात लें। विद्वानों ने, शोध-कर्ताओं ने और आलोचकों ने इस कृति पर बहुत लिखा है। एक प्रसंग में नामवरजी ने बिना किसी विश्लेषण और टिप्पणी के इसे हजारीप्रसादजी का सबसे उत्तम उपन्यास बताया था। इस सूत्रात्मक आलोचना को आप क्रमशः यानी आपकी बुद्धि के क्रमशः विकास के साथ समझ सकते हैं।

बाणभट्ट् को पहली बार पढ़ा था जब मैं संभवतः कॉलेज में पढ़ती थी और सबसे पहले मैं उसकी भाषा के ज़बरदस्त प्रभाव में थी क्योंकि भाषा के कारण ही मुझे वह कम ही समझ में आया था, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उपन्यास ने मुझे प्रभावित किया था, मुझे वह अच्छा लगा था। हजारीप्रसादजी के प्रति मेरे मन में एक आदर का भाव जगा था। यहाँ इस बात का ध्यान रहे कि यह प्रतिक्रिया एक हिन्दीतरभाषी पाठक की है जो हिन्दीतर भाषी प्रदेश में रह रहा हो और अभी केवल स्नातक कक्षा में पढ़ रहा हो।

दूसरी बार उसे तब पढ़ा था जब एम.ए के पाठ्यक्रम में उसे शामिल किया गया था और तब मेरी समझ में आया था कि यह एक उदात्त किस्म की प्रेम कहानी है। आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है कि उसी वर्ष अज्ञेय का नदी के द्वीप भी एम.ए के पाठ्यक्रम में पढ़ा था पर न तो तब मुझे ऐसा लगा और संभवतः न ही मेरे अध्यापकों को, अथवा उन्होंने यह बात हमको नहीं बताई कि इन दोनों में साम्य भी है—वस्तु तथा शिल्प दोनों ही दृष्टियों से ।
यह बात तब मेरी समझ में आई जब तीसरी बार दो एक वर्ष के लिए विशेष साहित्यकार के रूप में हजारीप्रसाद को मैंने पढ़ाया। मुझे लगा कि मनोवैज्ञानिक शिल्प का उपयोग सबसे पहले तो बाणभट्ट में हमें मिलता है।

लेकिन अब जब उसे पढ़े-पढ़ाए वर्षों हो गए तो अचानक मुझे यह समझ में आया कि बाणभट्ट की आत्मकथा के शिल्प में हजारीप्रसाद केवल एक औपन्यासिक छद्म नही रचते , वह केवल एक गल्प नहीं है, बल्कि एक ऐसी सुविचारित एवं सुगठित रचना है जो अपनी संरचना में ही मिथकीय है। भट्टिनी उस पृथ्वी की तरह है जो छोटे राजकुल के कीचड़ में फँसी हुई है। महावराह और कोई नहीं बल्कि बाणभट्ट ही है जो उसे इसमें से बाहर निकाल कर उसका उद्धार करता है। असल में देखा जाए तो यह मिथक ही इस उपन्यास का स्ट्रक्चर बनाता है, उसकी संरचना का निर्माण करता है। जैसे कोई अपनी मूल्यवान वस्तु को सात पर्दों में छिपा कर रखता है वैसे ही हजारीप्रसाद ने इसके स्ट्रकचर को रखा है।मज़े की बात तो यह है कि इस स्ट्रकचर के निर्माण में इतिहास उनकी मदद करता है। उपन्यास की इस मिथकीय संरचना को बनाने में इतिहास के साथ-साथ वर्तमान युगबोध उनकी मदद करता है। वराह अवतार से लेकर भक्ति-आंदोलन की पृष्ठभूमि के रूप में वैष्णव धर्म के प्रवेश के संकेत, बौद्ध धर्म,कापालिकों, दस्यु- यानी विदेशी ताकतों का आना, और वर्तमान युगबोध के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन के प्रभाव का चित्र इस उपन्यास का व्याप और विस्तार बनाता है जो इसकी बड़ी ताक़त है।

मिथक किस तरह यथार्थ में तब्दील हो सकता है और साथ ही हमें एक फैंटेसी लोक में ले जा सकता है, हमें भ्रमित कर सकता है, हम उसके निर्देशित झूठ को झूठ मान कर भी ख़ुश रह सकते हैं, उसे महान् बता सकते हैं- इसका उत्तम उदाहरण यह उपन्यास है।

अध्ययन की दृष्टि से इस उपन्यास में तीन बिन्दु हैं-
1-पुराण- प्रतीक (कथा में एक प्रसंग की तरह) मिथक के स्तर पर संरचना पक्ष
2-इतिहास (कथा का मुख्य अंश देश-काल) गल्प पक्ष
3-वर्तमान युगबोध (व्यंजना के स्तर पर) अर्थ पक्ष

हजारीप्रसादजी का कौशल यह है कि मध्य-बिन्दु (इतिहास तथा गल्प) ने संरचना और अर्थ दोनो को अवगुंठित कर दिया है। उन्होंने गल्प को ही रेखांकित किया है। और ऐसे किया है कि अगर आप छद्म पाठक हैं तो गल्प में ही प्रसन्न हो सकते हैं और लेखक की महानता पर आँच भी नहीं आती। वह निर्विवाद साबित हो जाती है। संभवतः यही भारतीयता का भी एक उदात्त लक्षण है-सत्य को अवगुंठन में रखना। हाँ, अगर आप साहित्य मर्मज्ञ हैं और सहृदय हैं तभी संपूर्ण अर्थ तक पहुँचने की दिशा में जा सकेंगे। श्रृंगार, अद्भुत्, करुणा, वीभत्स, हास्य वीर तथा शांत – इन सभी रसों और भावों से सिंचित यह कृति नए-नए अर्थ हमारे सामने खोलती है।

इस उपन्यास की जो प्रकट संरचना है वह तो यही कि लेखक को दीदी से बाणभट्ट की आत्मकथा मिली और फिर वह प्रकाशित हुई। यह इसकी संरचना का बाहरी पक्ष है। यही इतना लुभाने वाला है कि हम दीदी को कहीं भट्टिनी के साथ जोड़ने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। कहीं यह उनकी प्रेम-कहानी न हो, इत्यादि। लेकिन जैसे ही हम बाणभट्ट की आत्मकथा में प्रवेश करते हैं और कथा आगे बढ़ती है तो भट्टिनी का महावराह की उपासना करना आदि से हम परिचित होते हैं। बाण भट्ट में भट्टिनी महावराह की उपासना करती है। इस औपन्यासिक तथ्य को कई तरह से देख सकते हैं। लेखक ने तत्कालीन इतिहास के उन प्रसंगों का इतने सुचारु रूप से गुंफित किया है कि महावराह की उपासना को हम उस समय के ऐतिहासिक संदर्भ के रूप में ही लेते हैं। लेकिन उपन्यास में जिस तरह भट्टिनी और भट्टिनी का तरह ही अन्य स्त्रियों के अपहरण तथा शोषण की कथा आती है, निपुणिका जिस विश्वास से बाणभट्ट को भट्टिनी को बचा लेने के लिए प्रेमभरा आदेश ही (एक तरह से) देती है, हमें समझ में आता है कि पूरी कथा की संरचना ही महावराह का मिथक है। मिथक कृति के अर्थ को खोलने में मदद रूप इसी तरह होते हैं और साथ ही कृति के सर्जन तथा सौन्दर्य में भी अपनी भूमिका निभाते हैं। यह मिथक इस कृति की आंतरिक संरचना बन जाता है। हजारीप्रसादजी इस मिथक को इतिहास तथा वर्तमान के साथ जोड़ते हैं और उसमें एक नया अर्थ भरते हैं। इस मिथकीय संरचना के कारण कृति विशिष्ट बनी है। यह केवल ऐतिहासिक कथा-वस्तु वाला सामाजिक समस्या का निरूपण करता एक सपाट उपन्यास बनने से बच गया है। जिस समाज में स्त्रियाँ इस तरह का सामुहिक संकट झेलती हैं, वे अवश्य ही किसी न किसी महावराह की प्रतीक्षा करती हैं। महावराह संकट में पड़ी स्त्रियों की सामुहिक आकांक्षा का प्रतीक बन जाता है। अतः यह मिथक है।

इस उपन्यास में ऐतिहासिकता का महत्व इसलिए भी अधिक है कि इतिहास के देश और काल में मिथक भी रोपा गया है और लेखक का अपना वर्तमान युगबोध, जिसमें स्वतंत्रता संघर्ष का आवेश और जोश है- वह भी महामाया के माध्यम से रोपा गया है। इतिहास वह स्पेस है जहाँ वर्तमान और आदिम समय की सहोपस्थिति संभव हो सकती है।

वर्तमान बोध और मिथक के कारण ही यह ऐतिहासिक कृति हजारीप्रसाद के अन्य उपन्यासों से तुलना में श्रेष्ठ ही नहीं है अपितु अन्य ऐतिहासिक कथावस्तु वाले उपन्यासों में वह अपना एक अलग स्थान भी रखता है।

Sunday 6 November 2011

अल्लम प्रभु के वचनों का विश्लेषण


वचन साहित्य के विषय में अब तक आपने काफ़ी कुछ जान लिया है। हमने अपने पाठ्यक्रम में कुछ वचनकारों के वचनों को शामिल भी किया है। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि बसवण्णा या बसवेश्वर तथ अक्कमहादेवी के वचन अधिक चर्चित रहे हैं। परन्तु अन्य जितने भी शरण हुए, वचनकार हुए, सभी ने अपने विचारों तथा भावों को वचनों के माध्यम से प्रकट किया। जैसा कि हम जानते हैं कि वचन अपने आकार में बहुत छोटे होते हैं। अधिक –से अधिक तीस-चालीस शब्द। कुछ वचन बहुत दीर्घ भी मिले हैं। कुछ तो बहुत ही छोटे। परन्तु प्रायः वचनों की प्रकृति उनके लघु-आकार में ही निबद्ध है। कम शब्दों में कहे ये वचन आज तक कन्नड साहित्य की निधि के रूप में विद्यमान हैं। इन वचनों में तत्कालीन समय, समाज, सामाजिक –धार्मिक मान्यताएं तो हैं ही पर साथ ही वचनों की वह गंभीरता भी है जिसके कारण आज भी वे हमें प्रासंगिक लगते हैं। आज हम कुछ वचनकारों के वचनों को समझने का उपक्रम करेंगे।
इन वचनकारों में अल्लम प्रभु का विशेष महत्व है। अनुभव मंडप के शून्य सिंहासन पर शरणों ने आदर के साथ इन्हीं को बिठाया था, उसका भी अपना एक कारण है। और वह है उनके वचनों में प्राप्त दार्शनिकता तथा तत्कालीन शरणों के भीतर व्याप्त असमंजस की समझ तथा उसका विश्लेषण करने की क्षमता। उनके वचनों को समझने के लिए वीरशैव धर्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना आवश्यक है। अल्लम प्रभु की मुद्रिता गुहेश्वर है। ऐसी मान्यता है कि अल्लम प्रभु को साक्षात् शिव के दर्शन हुए थे, अतः उनकी मुद्रिका शिव के उस रूप की है, जिसका साक्षात्कार अल्लम प्रभु को हुआ था। उनका ऐसा दृढ मानना था कि जिस पर गुहेश्वर अर्थात् परम शिव की कृपा हो वही निर्भय हो सकता है।
अल्लम प्रभु के वचनों में वैष्णवों की कथाओं और प्रतीकों के संदर्भ मिलते हैं। प्रायः वे उसका समर्थन नहीं करते। अपने वचनों में अपने परम प्रभु शिव के समर्थन में वे उन संदर्भों को प्रश्नार्थ में रखते हैं। कहते नहीं हैं पर ध्वनित होते हैं। अपने वचनों में वे शिव के प्रति अपनी अनन्य निष्ठा को प्रकट करने के लिए इन संदर्भों का उपयोग करते हैं। वैष्णवों में तथा अन्य संप्रदायों में प्रभु की कृपा से सब कुछ संभव बताया गया है। परन्तु अल्लम प्रभु को इन बातों में संदेह है। वे कहते हैं कि बाघ के साथ अगर हिरन चरकर लौट आए तो यह विस्मय की बात है। अर्थात् ऐसा हो नहीं सकता। उसी तरह राक्षसी के घर जाकर कोई खर्राटे भर कर वापस आए तो यह भी अत्यंत विस्मय की बात है। उसी तरह यम के घर जा कर कोई जीवित लौट कर आए तो विस्मय बात है। यहाँ हनुमान, नचिकेता तथा उलट बासियों का संदर्भ( वचनकारों के पहले सिद्ध हुए थे तथा सिद्धों ने भी उलटबासियाँ लिखी थीं) स्पष्ट है। अल्लम प्रभु ऐसी बात में विस्मय का भाव प्रकट कर के वास्तव में तो अविश्वास ही प्रकट करते हैं। इससे पता चलता है कि उस समय वीरशैवों के समक्ष अन्य संप्रदायों की चुनौतियाँ भी थीं। अपने एक वचन में उन्होंने कहा भी है कि जो शरण संप्रदाय छोड़ कर स्थावर लिंग की पूजा करता है, तो यह योग्य नहीं है। उनके लिए यह चिंता का विषय था।( इसी बात को अंबिगर चौडय्या अलग ढंग से कहते हैं। वे कहते हैं कि जो ऐसा करे उसे जब्बर जूतों से ठोक-पीटना चाहिए) अल्लम प्रभु वीरशैव संप्रदाय के ऐसे आध्यात्मिक नेता थे जिनकी ज़िम्मेदारी अन्य शरणों की तुलना में कहीं अधिक थी। अपने संप्रदाय के सैद्धांतिक तथा दार्शनिक पक्ष की चिंता करना उनकी ज़िम्मेदारी थी।
जड़ प्रकृति को इच्छा शक्ति ही गतिशील बनाती है। इच्छा का स्थान मन में होता है। अतः माया भी मन में निवास करती है। प्रायः कंचन, कामिनी तथा माटी को माया समझा जाता है। पर असली माया तो मन है- मन में जगी अभिलाषाएं ही मनुष्य को विचलित करती हैं। नया कुछ भी निर्माण नहीं होता। सब पहले से ही विद्यमान है। इच्छा ही उसे गतिशील करती है। इच्छा से ही वह प्रस्फुटित होती है। यह संसार इसी तरह प्रकट हुआ है। शिव के भीतर रही सदिच्छा , उन्ही के भीतर विद्यमान विशिष्ट-शक्ति के माध्यम से इस सृष्टि निर्माण के लिए कारणीभूत है, ऐसा शरणों का विश्वास है। जीव शिव का अंश है। परन्तु अपने अज्ञान तथा अविद्या के कारण उस( शिव)से पृथक भी है। परन्तु इतनी अलग नहीं जितनी जड़-सृष्टि है। जीव में ज्ञान, क्रिया तथा चेतना शक्ति है। जड़-सृष्टि में ऐसा कुछ नहीं है। अतः कामिनी, माटी तथा कंचन अपनी इच्छा से जीव को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखते। जीव में इन तीन तत्वों को होने का कारण वही उनके प्रति आकृष्ट होता है। माया तो उसके मन की अभिलाषा ही है। वचनकारों की इस दार्शनिक मान्यता को अपने वचन में अल्लम प्रभु ने बहुत सरल तरीक़े से प्रस्तुत किया है।
वचन साहित्य में भवी उसे कहते हैं जो भक्त(शिव का) नहीं है। जो भक्त नहीं है वह भवचक्र के चक्कर से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। उसी को भवी कहा जाता है। शिव का भक्त अगर अपने मार्ग से विचलित हो जाए तो उसको कुछ भी कहने के लिए अल्लम प्रभु के पास कोई शब्द नहीं है। इस बात को समझाने के लिए अल्लम प्रभु सुंदर तथा योग्य उदाहरण हमारे सामने रखते हैं। वह पूछते हैं कि पहाड़ को यदि सर्दी लग जाए तो क्या ओढ़ाओगे उसे। ऐसी कल्पना ही असंभव है। क्योंकि एक तो पहाड़ को कुछ भी ओढ़ाना किसी के भी बस की बात नहीं है। दूसरे पहाड़ को सर्दी लगे, यह कल्पना ही असंभव है। उसी तरह वे आगे कहते हैं कि शून्य भी यदि नंगा हो जाए......शून्य यूं भी निर्गुण निराकार है- उसे वस्त्र पहनाना... कल्पना से परे की बात है, अतः उसे कुछ भी पहनाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। फिर यहाँ भी, शून्य के नंगे होने की कल्पना ही हमारी कल्पना से बाहर की बात है। उसी तरह अगर भक्त भवी बन जाए तो वह उतनी ही असंभव और कल्पनातीत बात है। फिर भी अगर ऐसा कुछ हो भी जाए तो अल्लम प्रभु के पास इस स्थिति का बयान करने के लिए शब्द नहीं हैं। उनके वचन में इस बात का संकेत है कि ऐसे असंभव प्रसंग संभवतः वचनकारों ने अनुभव किए होंगे और उस समय इस स्थिति का सामना करने के लिए वे निर्वाक-जैसे हो गए होंगे।
शक्तिविशिष्टाद्वैत के अनुसार इस सृष्टि का न आरंभ है न अंत। कुछ भी निर्मित नहीं होता अतः कुछ भी नष्ट नहीं होता। सब कुछ पराशिव में उसी तरह विद्यमान है जिस तरह मोर के अंडे के रस में मोर रे रंग और आकार। शक्ति के माध्यम से शिव अपनी इच्छा को कार्यरूप देते हैं। अतः पराशिव में जो सुप्त पड़ा है(निराकार) वही आकार ग्रहण करता है तथा इस सृष्टि में विभिन्न रूपों द्वारा प्रकट होता है। अतः निराकार भी स्वरूप है- परन्तु सुप्तावस्था में। और जब प्रकट होता है तब साकार हो उठता है। सृष्टि का नाश नहीं होता अपितु वह उसी पराशिव में विलीन हो जाती है। अतः सृष्टि का प्राकट्य आह्वान है तथा उसका लय हो जाना विसर्जन है। जब सृष्टि के विभिन्न पदार्थ प्रकट होते हैं, तो प्रकट होने की आकुलता ही मुख्य कारण है, जो शिव की इच्छा-शक्ति का परिणाम है। जब इस व्याकुलता का शमन हो जाता है तो वह निराकुल हो जाती है। यही उसका निराकार होना है। यही उसका विसर्जन है। लेकिन जिसे शिव में विश्वास है, जो उसकी शरण में है, वह न आकुल रहता है, न निराकुल ही। वह न साकार की चिंता करता है, न निराकार की, क्योंकि शिव भी न साकार हैं न निराकार हैं।
वचनकारों के वचनों पर उपनिषदों तथा वेदों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। अल्लम प्रभु की विशेषता यह है कि वे अपने समय के धार्मिक पाखंड को बहुत अच्छी तरह पहचानते थे तथा उनका पर्दाफाश करने में कतई हिचकते नहीं थे। वे समाज में व्याप्त धर्म के क्रमशः पतनशील चरित्र का बहुत ही संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। सभी धर्मों का मूल तो वेद ग्रंथ हैं। अतः वेदों को वे पठनीय वचन कहते हैं। (यहाँ इस बात को भी याद किया जा सकता है कि वेद की ऋचाएं भी आकार में वचनों की तरह संक्षिप्त ही हैं।) इन वेद-ग्रंथों से ही बाद में शास्त्र बने। शास्त्र क्यों बने- ताकि धर्म विशेष का व्यापार किया जा सके। शास्त्रों को मानने वाला समाज का वह वर्ग है जिसके हाथ में सत्ता है। जैसे बाज़ार में अपना माल बेचने के लिए हम उसकी प्रशंसा तथा विशेषताओं का बखान करते हैं, उसी तरह शास्त्रों ने वेद वचनों का बखान किया। फिर एक ऐसा वर्ग आया- लुच्चों का जिन्होंने पुराण तथा पोथियाँ बनाई और उन्हीं वेद वचनो का उपयोग अपने हित में किया। फिर तार्किक आए और परस्पर ऐसे लड़े जैसे बाज़र के बीच दो बकरे एक दूसरे पर सींगों से वार करते हैं। फिर आते हैं भक्त जिन्होंने इन्हीं वेद वचनों को आजीविका का साधन बनाया। परन्तु जो शिव में मानता है उसे इनमें से किसी की आवश्यकता नहीं है। वचनकार तो कायिक में मानते थे , श्रम का मूल्य पहचानते थे और दासोह में भी मानते थे अतः अपना कमाया हुआ औरों में बाँटते थे, उन्हें आजीविका के लिए ऐसे किसी मार्ग को अपनाने की आवश्यकता नहीं थी। यहाँ एक विलक्षण बात देखी जा सकती है। धर्म का बाज़ारी रूप और भक्ति के प्रदर्शनकर्ता तो आज भी हमारे बीच हैं। अतः इतने वर्षों पहले लिखे हुए ये वचन हमें आज भी प्रासंगिक लगते हैं। लेकिन इस पद की कठोरता भी दृष्टव्य है। किसी भी संप्रदाय के सिद्धांतकर का ऐसा कठोर होना अस्वाभाविक नहीं है। बल्कि यह तो उससे अपेक्षित ही है। अल्लम प्रभु के वचनों में अर्थ ध्वनित होता है। तभी उनके वचन बड़े मूल्यवान हैं। आप जब इन्हें पढ़ते हैं तो ध्वनित अर्थ सहसा प्रकट हो जाता है।
किसी भी धार्मिक संप्रदाय का दार्शनिक पक्ष होता है। पर उस दार्शनिक पक्ष को समझना इतना सरल नहीं होता। कवि इसी दार्शनिक पक्ष को सरल भाषा में कहते हैं। लेकिन यह फिर भी ज़रूरी नहीं कि वह ठीक-ठीक समझ में आ जाए। ऐसे पदों को समझने के लिए दार्शनिक पक्ष का समझना भी उतना ही आवश्यक है। अल्लम प्रभु ने अपने वचनों में ऐसा प्रयास किया है। इन वचनों से इतना तो समझ में आता है कि कवि अपने विश्वासों के दार्शनिक पक्ष की ओर सामान्य शरणों को उन्मुख अवश्य करते हैं। जहाँ वे किसी उदाहरण से बात को समझाते हैं- जैसे पहाड को कौन वस्त्र पहनाएगा आदि, तब तो बात तुरन्त समझ में आ जाती है, परन्तु जहाँ वे सूत्रात्मक शैली का प्रयोग करते हैं वहाँ दार्शनिक पक्ष की जानकारी आवश्यक बन जाती है।
शक्तिविशिष्टाद्वैत के अनुसार सभी कुछ शिव से निर्मित है और सभी कुछ उसीमें विसर्जित होता है। यह संसार, इसमें पल्लवित जीवन तथा इसमें रही भावनाएं सभी कुछ के निर्माण का कारण यह पराशिव ही है, जो शून्य है। शून्य से सभी कुछ निर्मित हुआ है- यह भारतीय समझ नयी नहीं है। अल्लम प्रभु कहते हैं कि शून्य का बीज है और शून्य की फसल है। अर्थात् शिव का बीज है और शिव की ही सृष्टि है। सभी जीवों में शिव का अंश है ही। जो कुछ इस सृष्टि में प्रकट है, दृश्यमान है वह उसी के रूप हैं। अंत में सभी कुछ इसी पराशिव में समाहित होता है। जो इस शून्य की आराधना करता है, उसकी मुक्ति तय है। वह फिर उस पराशिव में समाहित हो जाएगा। अतः अल्लम प्रभु कहते हैं कि हे गुहेश्वर तुझको मना कर, अपने विश्वास में लेकर, पतियाकर, मैं भी शून्य में समाहित हो जाऊँगा। अगर शिव शून्य है तो उसके अंश भी शून्य हैं। समाहित हो जाना इतना सरल नहीं है। जब तक गुहेश्वर की कृपा नहीं होगी, उसमें समाना संभव नहीं है और यह तभी संभव है जब कायक(श्रम) और दासोह( दूसरे को देना) को अपनाएंगे।
इस तरह आप देखेंगे कि अल्लम प्रभु अन्य वचनकारों में सब से अलग व्यक्तित्व वाले हैं। उनके वचन अन्य शरणों के वचनों की तरह नहीं है। दार्शनिकता, आध्यात्मिकता, वीरशैव संप्रदाय के प्रति सजगता, अन्य धार्मिक संप्रदायों के प्रति एक विश्लेषणात्मक वृत्ति तथा कथन की दृष्टि से ध्वन्यात्मकता उनके वचनों की विशेषता है।
हमारे पाठ्यक्र्म में अल्लम प्रभु के जिन वचनों ( 62, 66, 69, 77, 81 तथा 90) का समावेश हुआ है उनके आधार पर यह विश्लेषण आप को कैसा लगा और कितना समझ में आया , यह आप अवश्य बताएं, ताकि हम पाठ्यक्रम के अन्य वचनकारों की भी चर्चा कर सकते हैं।





अल्लम प्रभु के वचनों का विश्लेषण


वचन साहित्य के विषय में अब तक आपने काफ़ी कुछ जान लिया है। हमने अपने पाठ्यक्रम में कुछ वचनकारों के वचनों को शामिल भी किया है। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि बसवण्णा या बसवेश्वर तथ अक्कमहादेवी के वचन अधिक चर्चित रहे हैं। परन्तु अन्य जितने भी शरण हुए, वचनकार हुए, सभी ने अपने विचारों तथा भावों को वचनों के माध्यम से प्रकट किया। जैसा कि हम जानते हैं कि वचन अपने आकार में बहुत छोटे होते हैं। अधिक –से अधिक तीस-चालीस शब्द। कुछ वचन बहुत दीर्घ भी मिले हैं। कुछ तो बहुत ही छोटे। परन्तु प्रायः वचनों की प्रकृति उनके लघु-आकार में ही निबद्ध है। कम शब्दों में कहे ये वचन आज तक कन्नड साहित्य की निधि के रूप में विद्यमान हैं। इन वचनों में तत्कालीन समय, समाज, सामाजिक –धार्मिक मान्यताएं तो हैं ही पर साथ ही वचनों की वह गंभीरता भी है जिसके कारण आज भी वे हमें प्रासंगिक लगते हैं। आज हम कुछ वचनकारों के वचनों को समझने का उपक्रम करेंगे।
इन वचनकारों में अल्लम प्रभु का विशेष महत्व है। अनुभव मंडप के शून्य सिंहासन पर शरणों ने आदर के साथ इन्हीं को बिठाया था, उसका भी अपना एक कारण है। और वह है उनके वचनों में प्राप्त दार्शनिकता तथा तत्कालीन शरणों के भीतर व्याप्त असमंजस की समझ तथा उसका विश्लेषण करने की क्षमता। उनके वचनों को समझने के लिए वीरशैव धर्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना आवश्यक है। अल्लम प्रभु की मुद्रिता गुहेश्वर है। ऐसी मान्यता है कि अल्लम प्रभु को साक्षात् शिव के दर्शन हुए थे, अतः उनकी मुद्रिका शिव के उस रूप की है, जिसका साक्षात्कार अल्लम प्रभु को हुआ था। उनका ऐसा दृढ मानना था कि जिस पर गुहेश्वर अर्थात् परम शिव की कृपा हो वही निर्भय हो सकता है।
अल्लम प्रभु के वचनों में वैष्णवों की कथाओं और प्रतीकों के संदर्भ मिलते हैं। प्रायः वे उसका समर्थन नहीं करते। अपने वचनों में अपने परम प्रभु शिव के समर्थन में वे उन संदर्भों को प्रश्नार्थ में रखते हैं। कहते नहीं हैं पर ध्वनित होते हैं। अपने वचनों में वे शिव के प्रति अपनी अनन्य निष्ठा को प्रकट करने के लिए इन संदर्भों का उपयोग करते हैं। वैष्णवों में तथा अन्य संप्रदायों में प्रभु की कृपा से सब कुछ संभव बताया गया है। परन्तु अल्लम प्रभु को इन बातों में संदेह है। वे कहते हैं कि बाघ के साथ अगर हिरन चरकर लौट आए तो यह विस्मय की बात है। अर्थात् ऐसा हो नहीं सकता। उसी तरह राक्षसी के घर जाकर कोई खर्राटे भर कर वापस आए तो यह भी अत्यंत विस्मय की बात है। उसी तरह यम के घर जा कर कोई जीवित लौट कर आए तो विस्मय बात है। यहाँ हनुमान, नचिकेता तथा उलट बासियों का संदर्भ( वचनकारों के पहले सिद्ध हुए थे तथा सिद्धों ने भी उलटबासियाँ लिखी थीं) स्पष्ट है। अल्लम प्रभु ऐसी बात में विस्मय का भाव प्रकट कर के वास्तव में तो अविश्वास ही प्रकट करते हैं। इससे पता चलता है कि उस समय वीरशैवों के समक्ष अन्य संप्रदायों की चुनौतियाँ भी थीं। अपने एक वचन में उन्होंने कहा भी है कि जो शरण संप्रदाय छोड़ कर स्थावर लिंग की पूजा करता है, तो यह योग्य नहीं है। उनके लिए यह चिंता का विषय था।( इसी बात को अंबिगर चौडय्या अलग ढंग से कहते हैं। वे कहते हैं कि जो ऐसा करे उसे जब्बर जूतों से ठोक-पीटना चाहिए) अल्लम प्रभु वीरशैव संप्रदाय के ऐसे आध्यात्मिक नेता थे जिनकी ज़िम्मेदारी अन्य शरणों की तुलना में कहीं अधिक थी। अपने संप्रदाय के सैद्धांतिक तथा दार्शनिक पक्ष की चिंता करना उनकी ज़िम्मेदारी थी।
जड़ प्रकृति को इच्छा शक्ति ही गतिशील बनाती है। इच्छा का स्थान मन में होता है। अतः माया भी मन में निवास करती है। प्रायः कंचन, कामिनी तथा माटी को माया समझा जाता है। पर असली माया तो मन है- मन में जगी अभिलाषाएं ही मनुष्य को विचलित करती हैं। नया कुछ भी निर्माण नहीं होता। सब पहले से ही विद्यमान है। इच्छा ही उसे गतिशील करती है। इच्छा से ही वह प्रस्फुटित होती है। यह संसार इसी तरह प्रकट हुआ है। शिव के भीतर रही सदिच्छा , उन्ही के भीतर विद्यमान विशिष्ट-शक्ति के माध्यम से इस सृष्टि निर्माण के लिए कारणीभूत है, ऐसा शरणों का विश्वास है। जीव शिव का अंश है। परन्तु अपने अज्ञान तथा अविद्या के कारण उस( शिव)से पृथक भी है। परन्तु इतनी अलग नहीं जितनी जड़-सृष्टि है। जीव में ज्ञान, क्रिया तथा चेतना शक्ति है। जड़-सृष्टि में ऐसा कुछ नहीं है। अतः कामिनी, माटी तथा कंचन अपनी इच्छा से जीव को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखते। जीव में इन तीन तत्वों को होने का कारण वही उनके प्रति आकृष्ट होता है। माया तो उसके मन की अभिलाषा ही है। वचनकारों की इस दार्शनिक मान्यता को अपने वचन में अल्लम प्रभु ने बहुत सरल तरीक़े से प्रस्तुत किया है।
वचन साहित्य में भवी उसे कहते हैं जो भक्त(शिव का) नहीं है। जो भक्त नहीं है वह भवचक्र के चक्कर से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। उसी को भवी कहा जाता है। शिव का भक्त अगर अपने मार्ग से विचलित हो जाए तो उसको कुछ भी कहने के लिए अल्लम प्रभु के पास कोई शब्द नहीं है। इस बात को समझाने के लिए अल्लम प्रभु सुंदर तथा योग्य उदाहरण हमारे सामने रखते हैं। वह पूछते हैं कि पहाड़ को यदि सर्दी लग जाए तो क्या ओढ़ाओगे उसे। ऐसी कल्पना ही असंभव है। क्योंकि एक तो पहाड़ को कुछ भी ओढ़ाना किसी के भी बस की बात नहीं है। दूसरे पहाड़ को सर्दी लगे, यह कल्पना ही असंभव है। उसी तरह वे आगे कहते हैं कि शून्य भी यदि नंगा हो जाए......शून्य यूं भी निर्गुण निराकार है- उसे वस्त्र पहनाना... कल्पना से परे की बात है, अतः उसे कुछ भी पहनाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। फिर यहाँ भी, शून्य के नंगे होने की कल्पना ही हमारी कल्पना से बाहर की बात है। उसी तरह अगर भक्त भवी बन जाए तो वह उतनी ही असंभव और कल्पनातीत बात है। फिर भी अगर ऐसा कुछ हो भी जाए तो अल्लम प्रभु के पास इस स्थिति का बयान करने के लिए शब्द नहीं हैं। उनके वचन में इस बात का संकेत है कि ऐसे असंभव प्रसंग संभवतः वचनकारों ने अनुभव किए होंगे और उस समय इस स्थिति का सामना करने के लिए वे निर्वाक-जैसे हो गए होंगे।
शक्तिविशिष्टाद्वैत के अनुसार इस सृष्टि का न आरंभ है न अंत। कुछ भी निर्मित नहीं होता अतः कुछ भी नष्ट नहीं होता। सब कुछ पराशिव में उसी तरह विद्यमान है जिस तरह मोर के अंडे के रस में मोर रे रंग और आकार। शक्ति के माध्यम से शिव अपनी इच्छा को कार्यरूप देते हैं। अतः पराशिव में जो सुप्त पड़ा है(निराकार) वही आकार ग्रहण करता है तथा इस सृष्टि में विभिन्न रूपों द्वारा प्रकट होता है। अतः निराकार भी स्वरूप है- परन्तु सुप्तावस्था में। और जब प्रकट होता है तब साकार हो उठता है। सृष्टि का नाश नहीं होता अपितु वह उसी पराशिव में विलीन हो जाती है। अतः सृष्टि का प्राकट्य आह्वान है तथा उसका लय हो जाना विसर्जन है। जब सृष्टि के विभिन्न पदार्थ प्रकट होते हैं, तो प्रकट होने की आकुलता ही मुख्य कारण है, जो शिव की इच्छा-शक्ति का परिणाम है। जब इस व्याकुलता का शमन हो जाता है तो वह निराकुल हो जाती है। यही उसका निराकार होना है। यही उसका विसर्जन है। लेकिन जिसे शिव में विश्वास है, जो उसकी शरण में है, वह न आकुल रहता है, न निराकुल ही। वह न साकार की चिंता करता है, न निराकार की, क्योंकि शिव भी न साकार हैं न निराकार हैं।
वचनकारों के वचनों पर उपनिषदों तथा वेदों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। अल्लम प्रभु की विशेषता यह है कि वे अपने समय के धार्मिक पाखंड को बहुत अच्छी तरह पहचानते थे तथा उनका पर्दाफाश करने में कतई हिचकते नहीं थे। वे समाज में व्याप्त धर्म के क्रमशः पतनशील चरित्र का बहुत ही संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। सभी धर्मों का मूल तो वेद ग्रंथ हैं। अतः वेदों को वे पठनीय वचन कहते हैं। (यहाँ इस बात को भी याद किया जा सकता है कि वेद की ऋचाएं भी आकार में वचनों की तरह संक्षिप्त ही हैं।) इन वेद-ग्रंथों से ही बाद में शास्त्र बने। शास्त्र क्यों बने- ताकि धर्म विशेष का व्यापार किया जा सके। शास्त्रों को मानने वाला समाज का वह वर्ग है जिसके हाथ में सत्ता है। जैसे बाज़ार में अपना माल बेचने के लिए हम उसकी प्रशंसा तथा विशेषताओं का बखान करते हैं, उसी तरह शास्त्रों ने वेद वचनों का बखान किया। फिर एक ऐसा वर्ग आया- लुच्चों का जिन्होंने पुराण तथा पोथियाँ बनाई और उन्हीं वेद वचनो का उपयोग अपने हित में किया। फिर तार्किक आए और परस्पर ऐसे लड़े जैसे बाज़र के बीच दो बकरे एक दूसरे पर सींगों से वार करते हैं। फिर आते हैं भक्त जिन्होंने इन्हीं वेद वचनों को आजीविका का साधन बनाया। परन्तु जो शिव में मानता है उसे इनमें से किसी की आवश्यकता नहीं है। वचनकार तो कायिक में मानते थे , श्रम का मूल्य पहचानते थे और दासोह में भी मानते थे अतः अपना कमाया हुआ औरों में बाँटते थे, उन्हें आजीविका के लिए ऐसे किसी मार्ग को अपनाने की आवश्यकता नहीं थी। यहाँ एक विलक्षण बात देखी जा सकती है। धर्म का बाज़ारी रूप और भक्ति के प्रदर्शनकर्ता तो आज भी हमारे बीच हैं। अतः इतने वर्षों पहले लिखे हुए ये वचन हमें आज भी प्रासंगिक लगते हैं। लेकिन इस पद की कठोरता भी दृष्टव्य है। किसी भी संप्रदाय के सिद्धांतकर का ऐसा कठोर होना अस्वाभाविक नहीं है। बल्कि यह तो उससे अपेक्षित ही है। अल्लम प्रभु के वचनों में अर्थ ध्वनित होता है। तभी उनके वचन बड़े मूल्यवान हैं। आप जब इन्हें पढ़ते हैं तो ध्वनित अर्थ सहसा प्रकट हो जाता है।
किसी भी धार्मिक संप्रदाय का दार्शनिक पक्ष होता है। पर उस दार्शनिक पक्ष को समझना इतना सरल नहीं होता। कवि इसी दार्शनिक पक्ष को सरल भाषा में कहते हैं। लेकिन यह फिर भी ज़रूरी नहीं कि वह ठीक-ठीक समझ में आ जाए। ऐसे पदों को समझने के लिए दार्शनिक पक्ष का समझना भी उतना ही आवश्यक है। अल्लम प्रभु ने अपने वचनों में ऐसा प्रयास किया है। इन वचनों से इतना तो समझ में आता है कि कवि अपने विश्वासों के दार्शनिक पक्ष की ओर सामान्य शरणों को उन्मुख अवश्य करते हैं। जहाँ वे किसी उदाहरण से बात को समझाते हैं- जैसे पहाड को कौन वस्त्र पहनाएगा आदि, तब तो बात तुरन्त समझ में आ जाती है, परन्तु जहाँ वे सूत्रात्मक शैली का प्रयोग करते हैं वहाँ दार्शनिक पक्ष की जानकारी आवश्यक बन जाती है।
शक्तिविशिष्टाद्वैत के अनुसार सभी कुछ शिव से निर्मित है और सभी कुछ उसीमें विसर्जित होता है। यह संसार, इसमें पल्लवित जीवन तथा इसमें रही भावनाएं सभी कुछ के निर्माण का कारण यह पराशिव ही है, जो शून्य है। शून्य से सभी कुछ निर्मित हुआ है- यह भारतीय समझ नयी नहीं है। अल्लम प्रभु कहते हैं कि शून्य का बीज है और शून्य की फसल है। अर्थात् शिव का बीज है और शिव की ही सृष्टि है। सभी जीवों में शिव का अंश है ही। जो कुछ इस सृष्टि में प्रकट है, दृश्यमान है वह उसी के रूप हैं। अंत में सभी कुछ इसी पराशिव में समाहित होता है। जो इस शून्य की आराधना करता है, उसकी मुक्ति तय है। वह फिर उस पराशिव में समाहित हो जाएगा। अतः अल्लम प्रभु कहते हैं कि हे गुहेश्वर तुझको मना कर, अपने विश्वास में लेकर, पतियाकर, मैं भी शून्य में समाहित हो जाऊँगा। अगर शिव शून्य है तो उसके अंश भी शून्य हैं। समाहित हो जाना इतना सरल नहीं है। जब तक गुहेश्वर की कृपा नहीं होगी, उसमें समाना संभव नहीं है और यह तभी संभव है जब कायक(श्रम) और दासोह( दूसरे को देना) को अपनाएंगे।
इस तरह आप देखेंगे कि अल्लम प्रभु अन्य वचनकारों में सब से अलग व्यक्तित्व वाले हैं। उनके वचन अन्य शरणों के वचनों की तरह नहीं है। दार्शनिकता, आध्यात्मिकता, वीरशैव संप्रदाय के प्रति सजगता, अन्य धार्मिक संप्रदायों के प्रति एक विश्लेषणात्मक वृत्ति तथा कथन की दृष्टि से ध्वन्यात्मकता उनके वचनों की विशेषता है।
हमारे पाठ्यक्र्म में अल्लम प्रभु के जिन वचनों ( 62, 66, 69, 77, 81 तथा 90) का समावेश हुआ है उनके आधार पर यह विश्लेषण आप को कैसा लगा और कितना समझ में आया , यह आप अवश्य बताएं, ताकि हम पाठ्यक्रम के अन्य वचनकारों की भी चर्चा कर सकते हैं।





Tuesday 25 October 2011

शुभकामनाएं

दीप उत्सव तथा नववर्ष की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ।


आशा है इस वर्ष आपका ज्ञान बढ़ेगा


तथा


अच्छे बुरे के विवेक से आप संपन्न होंगे।


हम सब साहित्य के विद्यार्थी हैं


और


सद्-साहित्य हमें जीवन की बेहतर राहों की ओर ले जाता है।


आइए, इस दिशा में


हम कुछ और कदम बढ़ाएं।

Tuesday 27 September 2011

बेनामी के प्रश्न का उत्तर

कोर्स 506S में मिथक के संदर्भ में काम करना सरल है। कोर्स 502 में आपको मिथक के बारे में पढ़ाया गया होगा। इसका मतलब यह हुआ कि मिथक की परिभाषा , स्वरूप और काव्य में वह किस प्रकार अर्थ और सर्जनात्मकता में मददरूप होता है इसकी जानकारी तो आपको उस कोर्स में मिल गयी होगी। सेमीनार के कोर्स में आप को किसी एक गद्य एवं पद्य कृति को चुनकर यह बताना है कि मिथक केप्रयोग से उस कृति में क्या विशेष बात जुड़ जाती है। इसके लिए ज़रूरी नहीं है कि आपको कोई नयी कृति ही लेनी होगी। पिछले वर्ष आप कामायनी पढ़ चुके हैं। आप कामायनी के उदाहरण से भी अपनी बात कर सकते हैं। अथवा रामायण महाभारत पर आधारित कोई भी आधुनिक कविता , उपन्यास कहानी आदि को ले सकते हैं। उदाहरण के लिए आप नरेश मेहता की कोई प्रबंध कृति लेंगे तो आपको बताना है कि उसमें मिथक होते हुए , बल्कि मिथक होने के कारण आधुनिक बोध को कवि कितने बेहतर ढंग से प्रकट कर पाया है। इसके विपरीत आप किसी ऐसी कृति का उदाहरण भी ले सकते हैं जिसमें मिथक का विनियोग ठीक से नहीं हुआ है। इस पाठ्यक्रम में यह मुद्दा रखने का आशय यही है कि आपने जो अभ तक पढ़ा है उसे आप सही अर्थों में किस तरह समझ सके हैं। फिर आफको कोई बहुत लंबी कथा कहानी नहीं लिखनी। आपको तो एख-डेढ़ पृष्ठ में उस मिथक की समझ और कृति में उसके विनियोग के बारे में ही लिखना है। आपको यह पता ही है कि इस बार सेमीनार के कोर्स में पाँचों चीज़ों को आपको लिख कर देना है। परन्तु ये सभी आपके पाठ्यक्रम में अन्य कोर्स में तो पढ़ायी ही जा चुकी हैं। इसमें नया कुछ नहीं करना है।

बेनामी के प्रश्न का उत्तर

कोर्स 506S में मिथक के संदर्भ में काम करना सरल है। कोर्स 502 में आपको मिथक के बारे में पआ कि आप ढ़ाया होगा। इसका मतलब यह हुआ कि मिथक की परिभाषा , स्वरूप और काव्य में वह किस प्रकार अर्थ और सर्जनात्मकता में मददरूप होता है इसकी जानकारी तो आपको उस कोर्स में मिल गयी होगी। सेमीनार के कोर्स में आप को किसी एक गद्य एवं पद्य कृति को चुनकर यह बताना है कि मिथक केप्रयोग से उस कृति में क्या विशेष बात जुड़ जाती है। इसके लिए ज़रूरी नहीं है कि आपको कोई नयी कृति ही लेनी होगी। पिछले वर्ष आप कामायनी पढ़ चुके हैं। आप कामायनी के उदाहरण से भी अपनी बात कर सकते हैं। अथवा रामायण महाभारत पर आधारित कोई भी आधुनिक कविता , उपन्यास कहानी आदि को ले सकते हैं। उदाहरण के लिए आप नरेश मेहता की कोई प्रबंध कृति लेंगे तो आपको बताना है कि उसमें मिथक होते हुए , बल्कि मिथक होने के कारण आधुनिक बोध को कवि कितने बेहतर ढंग से प्रकट कर पाया है। इसके विपरीत आप किसी ऐसी कृति का उदाहरण भी ले सकते हैं जिसमें मिथक का विनियोग ठीक से नहीं हुआ है। इस पाठ्यक्रम में यह मुद्दा रखने का आशय यही है कि आपने जो अभ तक पढ़ा है उसे आप सही अर्थों में किस तरह समझ सके हैं। फिर आफको कोई बहुत लंबी कथा कहानी नहीं लिखनी। आपको तो एख-डेढ़ पृष्ठ में उस मिथक की समझ और कृति में उसके विनियोग के बारे में ही लिखना है। आपको यह पता ही है कि इस बार सेमीनार के कोर्स में पाँचों चीज़ों को आपको लिख कर देना है। परन्तु ये सभी आपके पाठ्यक्रम में अन्य कोर्स में तो पढ़ायी ही जा चुकी हैं। इसमें नया कुछ नहीं करना है।

Thursday 22 September 2011

हिन्दी सप्ताह में भवन में इस वर्ष दो कार्यक्रम हुए। 14 को डॉ. किशोर वासवानीजी ने हिन्दी उद्योग और दृश्य-श्रव्य की भाषा पर बड़ा मननीय व्याख्यान दिया। विद्यार्थी उनके इस व्याख्यान से लाभान्वित हुए। 19-9 को भवन के विद्यार्थियों ने हिन्दी से जुडा एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया। यह सप्ताह भवन के विद्यार्थियों के लिए बड़ा उत्साहवर्द्धक रहा। आज आदिपुर कॉलेज के प्राचार्य डॉ सुशील धर्माणी ने दृश्य-श्राव्य माध्यम तथा मल्टी मीडिया पर बहुत ही सारगर्भित प्रस्तुति दी। विद्यार्थी उनके व्याख्यान से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्हें इस विषय की समझ बहुत विस्तार तथा गहराई से मिली। कल सुबह 11 बजे एक्सेल की साहित्यिक शोध में उपयोगिता पर भाषा भवन के निदेश डॉ वसंतकुमार भट्टजी की व्याख्यान- प्रस्तुति होगी। दोपहर 2.30 बजे से ब्लॉग निर्माण पर श्री शिवांग भावसार की व्याख्यान प्रस्तुति रहेगी।

इस नए प्रकार के पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों को बहुत लाभ हो रहा है। यह विभाग के लिए प्रसन्नता की बात है।

Sunday 28 August 2011

हिन्दी विभाग की नई पहल


हमारे लिए यह एक प्रसन्नता तथा ज़िम्मेदारी का काम है कि युनिवर्सिटी ने हमारे सेमीनार के प्रस्ताव को स्वीकार किया। हमारा विभाग २३-२४ दिसंबर २०११ को एक राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन कर रहा है। इसमें हिस्सा लेने के लिए तथा उसके विषय में में आपको जानकारी मिले इस हेतु हमने एक पोस्ट डाली है। इस ब्लॉग पर आप जहाँ सेमीनार फॉर्म लिखा हुआ देखेंगे वहाँ क्लिक करेंगे तो सेमीनार की जानकारी तथा फॉर्म आप डाउनलोड कर सकते हैं। मुझो विश्वास है कि आप इसे देखेंगे और अपनी हिस्सेदारी दर्ज़ करवाएंगे।

राष्ट्रीय संगोष्ठी

राष्ट्रीय संगोष्ठी फॉर्म

राष्ट्रीय संगोष्ठी

https://docs.google.com/viewer?a=v&pid=explorer&chrome=true&srcid=0B2o4qH5sVXmHNDMwMmE1NWUtMzE4NC00ODc0LWI0NjctMjczZDk0OWMzOTQ3&hl=en

Friday 19 August 2011

अपरिचित मगर उपयोगी

कोर्स ५०३ में आप लोगों को काफी दिक्कतें आ रही होंगी। जैसा कि अरुणा माली ने अपनी दिक्कतें बताईं। परन्तु हिन्दी कंप्यूटिंग वाले यूनिट को छोड़ दें तो इस पर बहुत सामग्री मिलती है। आपके अध्यापक भी यह सामग्री आपको मुहैया करा सकते हैं। जहाँ तक ब्लॉग वाला कंपोनंट तथा एक्सेल वाला कंपोनंट है जब हम अपने यहाँ इस पर कोई विशेष व्याख्यान रखेंगे तब आपको ब्लॉग पर सूचना मिल जाएगी। इस के अलावा आप अपने अध्यापकों से कह सककते हैं कि वे कॉलेज में इसके लिए विशेष व्याख्यान का आयोजन करें। इस विषय के विशेषज्ञ यहीं अहमदाबाद में हैं। यह कोर्स अपरिचित अवश्य है पर आज के समय को देखते हुए बहुत ही उपयोगी है।

Sunday 14 August 2011



मेरे लिए यह बहुत ख़ुशी की बात है कि आपने विज्ञापन बनाने में रुचि ली। भाषा भवन के हिन्दी विभाग की छात्रा हिना कापडिया ने जूठन पर एक विज्ञापन बनाया। यह सामाजिक जागृति से जुड़ा विज्ञापन है। जूठन दलितों के प्रति अत्याचार और उनके संघर्ष को उद्घटित करती आत्मकथा है। इसमें निहित चुनौति का स्वर विज्ञापन में आया है। सवर्णों के दलितों के प्रति व्यवहार को हिना ने एक चित्र के द्वारा स्पष्ट किया है।


बधायी हिना कि तुम अब इस फॉर्मेट में काम कर रही हो।


इस निज्ञापन का विस्तृत आकार ब्लॉग में नीचे की ओर दिया है। आप स्क्रॉल करेंगे तो उस विज्ञापन को देख पाएँगे।


पुनः बधायी

Thursday 4 August 2011

Course HIN 506S


उपरोक्त कोर्स में यूनिट क्रमांक-5 में आपको बिम्ब अथवा अलंकार प्रधान रचना की समीक्षा करनी है। आपने अब तक कोई न कोई कविता तो ढूँढ ही ली होगी। आपको सबसे पहले कविता के उन अंशों को रेखांकित करना है जो चित्रात्मक रूप में सौन्दर्य प्रधान हों। यानी आप जब इस प्रक्रिया में उतरेंगे तो बिम्बों, अलंकारों एवं प्रतीकों से साक्षात्कार करेंगे। अब आपको यह पता करना है कि आपने जो ढूँढा वह बिम्ब है , प्रतीक है अथवा अलंकार। अगर वह सौन्दर्यप्रद चित्र उपमान एवं उपमेय को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से भी प्रकट करता है तब तो वह अलंकार है। जैसे नील परिधान बीच सुकुमार खिल रहा मृदुल अधखुला अंग/ खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघवन बीच गुलाबी रंग। एक तो ज्यों के कारण और दूसरे नील परिधान पहने श्रद्धा की वर्णन है- तो मेधों का वन=नील परिधान, गुलाबी रंग का बिजली का फूल=श्रद्धा की दिपदिपाती खिली खिली गुलाबी त्वचा । श्रद्धा उपमेय है तो वह जैसी लगती है वह वर्णन उपमान है। अब इसके सौन्दर्य को आप और बारीकी से विश्लेषित कर सकते हैं। उसी तरह एक पीली शाम कविता में आप देखिए तुम्हारा मुख-कमल कृश म्लान हारा –सा ( कि मैं हूँ वह मौन दर्पण में तुम्हारे कहीं) मुख-कमल में तो स्पष्ट रूपक अलंकार है ही। पर कि मैं हूँ वह मौन दर्पण में तुम्हारे कहीं... में अपन्हुति अलंकार भी है। अथवा विजन-वन वल्लरी पर सोती थी सुहाग भरी / स्नेह स्वप्न मग्न ... पढ़ते ही हमें मानवीकरण अलंकार की प्रतीति होती है क्योंकि उस पूरी कविता में जूही की कली को एक युवती के रूप में बताया गया है। श्रद्धा के वर्णन में प्रयुक्त अलंकार तथा जूही की कली के मानवीकरण को पढ़ते हुए उनका चित्र तो हमारे सामने आता ही है परन्तु सौन्दर्य का बोध हमें अलंकारों के माध्यम से होता है। हमारा ध्यान उपमानों तथा उपमेयों की तरफ़ जाता है। जबकि दिवस का अवसान समीप था गगन था कुछ लोहित हो चला/ तरु शिखा पर थी अब राजति/ कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा – में शाम का सुंदर चित्र अंकित है। इसमें उपमान-उपमेय का कोई मुद्दा नहीं है। इसी तरह की और भी कई कविताएं हैं जहाँ विशुद्ध प्रकृति वर्णन है। ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।
परन्तु जब आप ऊषा जैसी कविताओं से साक्षात्कार करते हैं, तो सौन्दर्य बोध का अनुभव अलग होता है। यह कविता आपने पिछले सेमिस्टर में पढ़ी है। प्रता नभ था। पहला वाक्य एक स्टेटमैंट हैं। फिर बहुत नीला शंख जैसे भोर का नभ। यह बात ऊषा के वर्णन के अन्तर्गत है। भोर का नभ नीले शंख के समान है। आप कहेंगे कि यह भी तो उपमान और उपमेय ही है। नीला शंख उपमान और भोर का नभ उपमेय है। बिल्कुल सही । उसके बाद राख से लीपा हुआ चौका(अभी गीला पड़ा है) / बहुत काली सिल ज़रा-से लाल केसर से कि जैसे धुल गयी हो/ स्लेट पर या लाल खडिया चाक मल दी हो किसी ने/ नील जल में या किसी की गौर झिलमिल देह जैसे हिल रही हो.....तक आते-आते तो हम भूल जाते हैं कि यह भोर के नभ की बात है। एक के बाद एक आते चित्र हमारी इंद्रियों से सौन्दर्य की अनुभूति करते हुए हमें प्रभावित करते हुए, हम पर जादू डालते हैं। आप कहेंगे कि यह तो कवि का मायाजाल है ( हमारी रोज़-बरोज़ की भाषा में इसे हम चीटिंग भी कहेंगे) पर फिर कवि स्वयं इस ऊषा का जादू तोड़ते हुए कहते हैं कि सूर्योदय हो रहा है। इस कविता में सौन्दर्यबोध के लिए उपमान उपमेय से अधिक इंद्रीयगत संवेदना प्रमुख हो जाती है। जब कभी सौन्दर्य की अनुभूति उपमान-उपमेय का संबल छोड़ कर अपने आप बिम्बित होते हुए इन्द्रियानुभूत होती है, तब वह बिम्ब का स्वरूप धारण करता है। कई बार कविता बिना किसी उपमान उपमेय से अथवा वर्णन से इस तरह शुरु होती है
एक नीला दरिया बरस रहा है और बहुत चौड़ी हवाएं हैं.....इस पंक्ति को पढ़ते ही हमारी समझ में आता है कि अब न तो अलंकार , न प्रतीक न चित्र.. कुछ भी तो सौन्दर्य की प्रतीति नहीं करा रहे। दिवस का अवसान समीप था / गगन था कुछ लोहित हो चला में शुद्ध चित्रात्मकता है। दिवसावसान का समय/मेघमय आसमान से उतर रही वह संध्या सुंदरी परी-सी में मानवीकरण है पर यहाँ नीले दरिये के बरसने और हवाओं के चौड़े होने को आपको अपनी इंद्रियों से महसूस करना पड़ता है। आप एक सुंदर-सी काव्यात्मक अनुभूति से जकड़ लिए जाते हैं जो आगे की पंक्तियों में आपको और अधिक आकर्षक उलझाव में डालती हैं जब कवि कहता है- मक़ानात हैं मैदान/ किस तरह उबड़-खाबड. । हवा तो त्वचा पर महसूस होती है जिसे कवि आँखों से दिखाना चाहता है जैसे अपनी ही एक और कविता में कवि कहता है- हवा –सी पतली ...कि आर-पार देख लो...। कवि इंद्रिय व्यत्यय द्वारा चित्र खड़ा करता है। मैदान आँखों से दिखते हैं जिसे कवि त्वचा से – स्पर्श से महसूस करवा रहे हैं ........ ऊबड़-खाबड़।
बिम्ब इसी तरह अलंकारों वर्णनों तथा प्रतीकों से अलग होते हैं।
आप भी कुछ कविताओं के माध्यम से देखें कि आपको यह कितना समझ में आ सका।

Wednesday 3 August 2011

दलित लेखन- चर्चा

504EA
ओम्प्रकाश वाल्मिकी की रचना जूठन हमारे पाठ्यक्रम में है। सेमिस्टर दो में उसे हमने उसके बारे में इतिहास वाले कोर्स के अन्तर्गत पढ़ा था। तब एक विवाद भी जगा था कि जूठन तो आत्मकथा है फिर उसे उपन्यास क्यों कहा गया। उसके संबंध में एक पोस्ट मैंने लिखी थी। उसमें मैंने विचारों को आमंत्रित किया था परन्तु किसी ने अपने विचारों को विनिमय के लिए प्रस्तुत नहीं किया था। ज़ाहिर है कि इस वर्ष जिन केन्द्रों मंव दलित लेखन विकल्प के रूप में चुना गया है वहाँ यह बात फिर उठेगी ही। अर्थात् एक वर्ष किसी कृति को हम उपन्यास की केटेगरी में पढें और दूसरे वर्ष उसे हम एक आत्मकथा के रूप में पढें। अतः इस संबंध में कुछ कहना मुझे ज़रूरी लगता है।
इस दौर में सहित्यिक विधाओं का परस्पर गड्ड मड्ड हो जाना साहित्यिक परिदृश्य का एक लक्षण भी है। जब हम किसी कृति को उपन्यास के रूप में पहचानते हैं तब हमारी दृष्टि तथा जब उसे अन्य स्वरूप में पहचानते हैं तो हमारी दृष्टि भिन्न प्रकार की होती है। कृति को उसके लक्षणों से ही पहचाना जाता है। लेकिन जब लक्षणों में उतनी चुस्ती नही रह गयी है तब इस प्रकार के प्रश्न उठते हैं।
अगर हम सीध-सीधे मुख्य मुद्दे पर आएं तो –
1- जूठन को उपन्यास कहने से लेखक के द्वारा वर्णित पीड़ाएं वास्तविक होते हुए भी सृजित की कैटेगरी में आ सकती हैं। अतः लेखक द्वारा सवर्ण समाज के अत्याचारों तथा उसके परिणामस्वरूप दलित समाज द्वारा भोगी गयी यातनाएं वह चुभन या मार नहीं देती जो दलित साहित्य द्वारा अपेक्षित है। सवर्ण पाठक उसे पढ़ कर अपने आप को दोषी मानने की ज़लालत से बचा सकता है। उसके मन में करुणा आदि भाव उठेंगे , सहानुभूति भी जगेगी, वैसी ही जैसी अ-दलित रचनाकारों की दलित चरित्रों संबंधी रचनाओं के द्वारा जागती है। पाठक अपने को उस व्यवस्था का अंग तथा अंश न मानने के लिए स्वतंत्र हो जाता है जो दलितों के अत्याचार के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया है। तब आत्मकथा का लेखक कृति का नायक बन जाता है। और नायक तो जगदीशचंद्र के उपन्यास धरती धन न अपना का भी था, जिसे हमने पूरी संवेदना के साथ पढ़ा था किन्तु हमने कहीं भी अपने आप को अत्याचारियों का वंशज नहीं माना था।
2- जूठन को आत्मकथा कह देने पर बात बदल जाती है। एक अदृश्य उँगली हमारी ओर भी उठी रहती है जो हमें चैन से जीने नहीं देती। हम व्यक्ति के रूप में चाहे ज़िम्मेदार न हों परन्तु अत्याचारी(?)समाज के एक भाग के रूप में हम अपने को भी दोषी समझने लगते हैं। दलित साहित्य का यही आशय भी है। अगर वह एक ओर दलित समाज में संघर्ष का माद्दा तथा अपने प्रति सदियों से हुए अत्याचारों के प्रति जागृति पैदा करना चाहता है तो दूसरी ओर सवर्ण समाज को भी कहीं न कहीं यह महसूस कराना चाहते हैं कि उनकी बदहाली के लिए वे भी ज़िम्मेदार हैं। भारतीय समाज का जो ढाँचा है उसे चाहे किसी क. ख. ग. ने नहीं बनाया, परन्तु जो भी कोई उस वर्ग से संबंधित है, वह इसीलिए ज़िम्मेदार है क्योंकि वह उस वर्ग का है। हमारी उस कहानी की तरह कि 'तूने नहीं तो तेरे पुरखों ने इस पानी को जूठा किया होगा'। दलित विमर्श में कहानी का शेर दलित है जबकि जीवन की मुख्यधारा में वह अपने को मेमना पाता है। सारा संघर्ष इस बात का ही है कि जीवन की मुख्यधारा में ही शेर बनना है।
इस पोस्ट में इतना ही। आगे भी हम दलित विमर्श तथा जूठन से जुडी बातों की चर्चा करेंगे। मुख्यतः इसके सौन्दर्यशास्त्र से संबंधित।

Friday 29 July 2011

विज्ञापन क्र-1

नो मुटापा नो कॉलॉस्ट्रॉल नो टेंशन
अब आ गयी है
आपकी जेब की रेंज में
सुर्लेप बरतनों की पूरी रेंज
समय की बचत स्वास्थ्य
का लाभ

विज्ञापन क्र-2


भाभी मेरी जादूगरनी


पहला सीन

भाभी के साथ मज़ाक़ करने के मूड़ में देवर। बरतन में घी कम


है।


दूसरा सीन
देवर - भाभी मालपुए बनाओ न!

तीसरा सीन
भाभी घी ढूँढ़ती है। घी बहुत थोड़ा है ।


चौथा सीन
देवर का इरादा भाभी की समझ में आ जाता है

पाँचवाँ सीन
देवर भाभी की खिंचाई के लिए तत्पर होता है

छठा सीन
भाभी मालपुए बना कर ले कर आती है

सातवाँ सीन
देवर भौंचक्का, भाभी मुस्काराती है
सुर्लेप तवे का राज़ खोलती है

आठवाँ सीन
देवर कान पकड़ लेता है- भाभी मेरी जादूगरनी


नौवाँ सीन
पति मूछों पर ताव दे कर गर्व से मुस्कुराता है

(फैमिली फोटो- देवर, भाभी, पति, ससुर)
(ये दोनों विज्ञापन बड़े घर की बेटी कहानी के आधार पर निर्मित हैं)

Thursday 28 July 2011

HIN 506
आपने अब तक विज्ञापन वाला लेख पढ़ लिया होगा। आज जिस तरह हमने वर्ग में विज्ञापन निर्माण की बात की उससे आपको यह समझ में आ गया होगा कि यह पूरी प्रक्रिया कितनी रोचक है। इस पूरी प्रक्रिया को अगर हम दुबारा याद करें तो-
सबसे पहले हमने एक कहानी पुस्तकालय में जा कर ढूँढी। निशी ने कुछ कहानियाँ ढूँढ़ी और उन कहानियों में से उसे प्रेमचंद की बड़े घर की बेटी अच्छी लगी। हमने इस कहानी में निहित संकल्पना को कैसे ढूँढ़ा जाए इसे जानने की कोशिश की। इस प्रक्रिया में निशी ने कहानी की मूल बातें बताई।
 आनंदी कहानी की नायिका
 बड़े घर की पुत्री, छोटे घर में ब्याही
 पति बाहर कहीं नौकरी करता है
 घर में ससुर तथा देवर
 देवर ने माँस खाने की इच्छा
 आनंदी ने माँस पकाया
 जितना था सभी घी का उपयोग
 खाने के समय देवर ने दाल में घी माँगा
 घी न होने की बात सुन कर भाभी को लाठी दिखाई
 ससुर से शिकायत की तो देवर का पक्ष लिया
 आनंदी ने बवाल मचाया
 पति के लौटने पर शिकायत
 पति ने घर छोड़ कर कहीं और जाने का निर्णय सुनाया
 आनंदी ने स्थिति को संभालते हुए कहा कि साथ रहने का संस्कार मिला है।
 बड़े घर की बेटी वही होती है जो परिवार को एक रखे।
अब इस कहानी में से आपको संकल्पना ढूँढ़नी है। संकल्पना ढूँढ़ने की प्रक्रिया यह है कि आप देखेंगे कि क्या वस्तु बदल देने से कोई फ़र्क पड़ता है?
 कहानी की नायिका आनंदी आनंदी के स्थान पर सुशीला भी हो सकती है।
 बड़े घर की पुत्री, छोटे घर में ब्याही एक ही स्तर के, अथवा छोटे घर की बड़े घर में
 पति बाहर कहीं नौकरी करता है स्त्री भी नौकरी कर सकती है
 घर में ससुर तथा देवर ससुर तथा देवर बेटे के साथ रह सकते हैं
 देवर ने माँस खाने की इच्छा किसी भीमहँगी चीज़ को खरीदने की बात
 आनंदी ने माँस पकाया हैसियत से अधिक खर्च करना

 जितना था सभी घी का उपयोग महिने की अर्थ-व्यवस्था डगमगा सकती है
 खाने के समय देवर ने दाल में घी माँगा देवर ने पैसे माँगे
 घी न होने की बात सुन कर भाभी को लाठी दिखाई न देने पर भला बुरा कहा
 ससुर से शिकायत की तो देवर का पक्ष लिया ससुर ने बेटे का पक्ष लिया
 आनंदी ने बवाल मचाया आनंदी को आपत्ति हुई
 पति के लौटने पर शिकायत पति से शिकायत
 पति ने घर छोड़ कर कहीं और रहने जाने का निर्णय पिता तथा भाई को घर से निकालने का निर्णय
आनंदी ने स्थिति को संभालते हुए कहा कि साथ रहने का संस्कार मिला है।
बड़े घर की बेटी वही होती है जो परिवार को एक रखे।
अब इस कहानी से जो संकल्पना निकल कर आती है वह यह कि
1- पारिवारिक एकता को टिकाए रखने के लिए छोटी बातों की अपेक्षा महद् मूल्यों की अधिक आवश्यकता है।
2-इस कहानी की मुख्य घटना माँस पकाने में घी के इस्तेमाल की है। अतः घी को ध्यान में रखते हुए आज के संदर्भ में कौन-सा विज्ञापन बन सकता है?
पहली बात को ध्यान में रखें तो इस पर से एक राष्ट्रीय एकता संबंधी विज्ञापन बन सकता है। आपसी भेद भाव मिटा कर एक बने रहना। जाति, धर्म भाषा के भेद भुला कर राष्ट्र को एक बनाए रखना। आपको इस संबंध में कॉपी राइटिंग करनी है। अब आप अपना टार्गेट ऑडियंस देखें। फिर प्रचारात्मक विज्ञापन है तो भाषा का एक अंदाज़ होगा। इस विज्ञापन में कुछ बेचना नहीं है परन्तु मूल्यों की स्थापना करनी है।
दूसरे मुद्दे में - कलह का कारण घी है। आज यूँ भी घी के प्रति लोगों के मन में आशंका है। अतः इस पर से आप किस उत्पाद का विज्ञापन बना सकते हैं ? तो नॉन-स्टिक बर्तन बनाने की कंपनी का। अगर आपको मुद्रित विज्ञापन बनाना है तो कैसे बनाएंगे और दृश्य-श्राव्य माध्यम में बनाना हो तो कैसे बन सकता है।
इसके दो तरीक़े हैं- एक में आप कहानी को भूल जाएं और संकल्पना पर काम करें। दूसरा तरीक़ा यह है कि कहानी को मॉडिफ़ाय करते हुए विज्ञापन बनाएं।
तो अब आप बना कर देखिए। अगली बार हम इसके संभवित कॉपी राईटिंग पर विचार करेंगे।





इस पोस्ट में सेमिस्टर १ तथा सेमिस्टर-३ के छात्रों के लिए एक आवश्यक सूचना है। सेमिस्टर ३ के विद्यार्थियों तथा अध्यापकों के अनुभव से हमने कोर्स ४०१ को थोड़ा व्यवस्थित किया है। इस कोर्स के विषय में तथा कोर्स ५०५ के संदर्भ में कुछ परिवर्तन किया गया है जो यहाँ दिया जा रहा है।
HIN – 401 स्वांतत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास
UNIT ONE - हिन्दी साहित्य में इतिहास लेखन
1-1 हिन्दी साहित्य का इतिहास: पुनर्लेखन की समस्याएँ
 आवश्यकता
 साहित्य चेतना का विकास
 नवीन शोध – परिणाम
 हिन्दी का स्वरूप – विस्तार*
 साहित्य की सीमा
1-2 आधार–स्रोत
1-3 इतिहास के क्षेत्र में मौलिकता
 इतिहास, अर्थ एवं स्वरूप*
1-4 - इतिहास दर्शन की रूपरेखा एवं साहित्य का इतिहास दर्शन
 भारतीय दृष्टि कोण
 पाश्चात्य दृष्टि कोण
1.5- हिन्दी साहित्येतिहास की परम्परा और उसके आधार
 काल विभाजन और नामकरण
 नामकरण की समस्याएँ
(सूचना – उपरोक्त पाठ्यक्रम को समझने के लिए 1- हिन्दी का स्वरूप – विस्तार तथा इतिहास अर्थ एंव स्वरूप मुद्दों की मात्र चर्चा करनी हैं प्रश्न नहीं पूछने हैं) इस यूनिट के लिए 'हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ.नगेन्द्र' की पुस्तक को संदर्भ ग्रंथ के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। )
UNIT TWO – स्वांतत्र्योत्तर हिन्दी कविता
2-1 – प्रयोगवाद
 ऐतिहासिक परिवृत्त
 तार सप्तक (पूर्ण)
 प्रयोगवादी काव्य का घोषणा- पत्र
 नकेन – एक अतिवादी प्रयोग
 प्रयोगवादी काव्य की उपलब्धियाँ
2-2 नई कविता
 काव्यांदलोन की प्रवृति
 ऐतिहासिक आधार
 नई कविता का प्रयोग और प्रतिमान
 सामयिक परिवेश और नयी कविता
 नयी कविता की उपलब्धि और सीमाएँ
UNIT THREE – साठोत्तरी हिन्दी कविता
 कुछ प्रमुख काव्य आंदोलन और साठोत्तरी कविता
 अंतराष्ट्रीय स्थितियाँ और साठोत्तरी कविता
 अनियत कालीन पत्रिकाएँ और साठोत्तरी कविता
 साठोत्तरी कविता की उपलब्धियाँ
 हिप्पी संस्कृति और साठोत्तरी कविता
UNIT FOUR – स्वांतत्र्योत्तर हिन्दी नाटक
4–1 स्वांतत्र्योत्तर हिन्दी नाटककार
 मोहन राकेश
 लक्ष्मीनारयण लाल
 स्वांतत्र्योत्तर हिन्दी नाटक
 अंजो दीदी (उप्रेन्द्रनाथ)
 बिना दीवारों का घर (मन्नुभंङारी)
4-2 प्रयोगशील नाटक और नाटककार
 द्रौपदी (सुरेन्द्र वर्मा )
 खोए हुए आदमी की खोज (विपिनकुमार)
 जगदीशचन्द्र माथुर
 हबीब तनवीर
4 -3 काव्य नाटक
 धर्मवीर भारती का काव्य – नाटक –अंधायुग ।
 दुष्यंत कुमार का काव्य -नाटक – एक कंठ विषपायी
UNIT FIVE - नुक्कड नाटक एवं एकांकी
5- नुक्कड नाटक
 नुक्कङ नाटककार गुरूशरण सिंह
 नुक्कङ नाटककार असगर वजाहत
5.1 –एंकाकी का विकास
 एंकाकीकार रामकुमार वर्मा
 एंकाकीकार उदयशंकर भट्ट
5.2- एकांकी
 सीमा रेखा (विष्णु प्रभाकर)
 यहाँ रोना मना है। (ममता कालिया )
HIN505EC
सेमेस्टर-3 में कोर्स संख्या- 505EC में तुलनात्मक अध्ययन में कंब रामायण तथा रामचरितमानस में से परीक्षा के लिए केवल दो कांड रहेंगे। अर्थात् कंब रामयाण से दो कांड एवं रामचरितमानस से दो कांड। ये दो कांड होंगे- बाल कांड एवं अयोध्या कांड। अर्थात् जिन युनिट्स में तुलना संबंधी अध्ययन करना है तथा टेक्स्ट का अध्ययन करना है उसमें इन्हीं दो कांडों में से प्रश्न पूछे जाएंगे। आप को इन्हीं कांडों की वस्तु तथा महत्व आदि की तुलना करनी है। 7, 4, तथा 3 प्रश्नों के उत्तर इन्हीं कांडों में से पूछे जाएंगे। जहां सैद्धांतिक मुद्दों का अध्ययन करना है तो प्रश्न पाठ्यक्रम में दिए मुद्दों के आधार पर पूछे जाएंगे। इन दोनों ग्रंथो के विषय में विस्तार से जानकारी अपेक्षित है परन्तु परीक्षा के लिए इतना ही हिस्सा तय किया गया है। अध्यापक अपनी तरफ से यह जानकारी दें अथवा विद्यार्थी स्वयं इसे प्राप्त कर सकते हैं।









Sunday 24 July 2011

कल्पना की अवधारणा

सर्जन प्रक्रिया
सेमिस्टर-3 में आपको कोर्स नं 502 में फिर एक बार काव्यशास्त्र पढ़ना है। इस कोर्स के अन्तर्गत आज हम यूनिट-2 की बात करेंगे। इस यूनिट में जिस सामग्री का हमें अध्ययन करना है उसे 'सर्जन-प्रक्रिया' शीर्षक के अन्तर्गत रखा गया है। इसमें शामिल मुद्दे इस प्रकार हैं- कल्पना की अवधारणा, कांट, सहृदय, प्रतिभा- विवेचन, साधारणीकरण, विरेचन, लोक-मंगल। आपने सेमिस्टर-1 में कोर्स 403 के यूनिट 5 में कॉलरिज तो पढ़ा ही होगा अतः आप सबको कल्पना संबंधी उनकी परिभाषा का तो पता ही होगा। आप यह सोच रहे होंगे कि एक बार तो पढ़ लिया, अब इसमें अधिक क्या करना है। इस सेमिस्टर में अब आपको यह समझना होगा कि उपरोक्त मुद्दे (कल्पना आदि) जिनको आपने परिभाषा में जाना था वह काव्य की सर्जनात्मकता में कैसे काम करते हैं।
कॉलरिज के लिए कल्पना शक्ति आकारदायिनी और रूपांतरकारी है। जो कल्पना हमें सौन्दर्यानुभूति की अवस्था तक ले जाती है , वह निर्माणात्मक होती है। उनके अनुसार कल्पना शक्ति संश्लेषणात्मक शक्ति है। असल में कल्पना शक्ति का संबंध मानवीय बोध(understanding) से जुड़ा है। मनुष्य में अगर समझ है तो इसका कारण यही है कि उसमें कल्पना शक्ति है। यह शक्ति तो सब मनुष्यों में होती है। कुछ-कुछ हमारी भावयित्री प्रतिभा के निकट ही समझिए इसे।
जैसा कि आप जानते हैं कि कॉलरिज ने गौण कल्पना को सर्जनात्मकता के लिए अनिवार्य माना है। अर्थात् यह गौण कल्पना शक्ति ही है जिसके कारण कविता रची जाती है। अब सवाल यह है कि 'कविता रची जाती है' से हमारा क्या मतलब होता है। कविता में बाहरी पदार्थ जगत और भीतरी भावों का सम्मिलन, संयोजन अथवा ग्रंथन होता है। My Love is like a red red rose में लाल गुलाब [( बाहरी पदार्थ (वस्तुजगत)] का ग्रंथन भीतरी तत्व, भाव- प्रेम से होता है। अर्थात् कविता बाहर-भीतर का समन्वय है। संग्रथन है। कविता की रचना-प्रकिया में कवि के बाहर का वस्तुजगत उसके भीतर के भाव-जगत के साथ जुड़ता है। यह जुड़ना भी कैसा – जैसे एक दूसरे में इस तरह समाहित हो जाना कि परिचित वस्तु-जगत अपरिचित (नया-सा) बन जाता है और गोपन एवं अजाने भाव-बोध पहचाने-से दृष्टिगोचर होने लगते हैं। अर्थात् अगर कल्पना शक्ति है, तभी यह मिलन, समन्वय संग्रथन आदि होता है। इनके-यानी वस्तु-जगत एवं भाव-जगत के समन्वय, सम्मिलन आदि का क्षण ही सर्जनात्मकता का क्षण है। कॉलरिज अपनी परिभाषा में यह स्पष्ट करते हैं कि किन का सम्मिलन आदि कल्पना-शक्ति द्वारा संभव होता है। विचार का बिम्ब के साथ, सामान्य का विशेष के साथ, मानव-निर्मित का प्रकृति-प्रदत्त के साथ सम्मिलन संग्रथन आदि। यह सूची आपको साहित्य सिद्धांतों के इतिहास संबंधी पुस्तक में मिल जाएगी।
इस बात को हम एक कविता के द्वारा समझ सकते हैः कविता का शीर्षक है- 'एक पीली शाम'

एक पीली शाम
पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्ता
शान्त ।
मेरी भावनाओं में तुम्हारा मुखकमल
कृश-म्लान हारा-सा
(कि मैं हूँ वह मौन दर्पण में
तुम्हारे कहीं ....)
वासना डूबी
शिथिल पल में
स्नेह काजल में
लिए अद्भुत् रूप कोमलता
अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू सान्ध्य तारक-सा
अतल में.......

कॉलरिज जिस कल्पना शक्ति की बात करते हैं उसे इस कविता के माध्यम से जब समझने का उपक्रम करते हैं तो पाते हैं कि कविता के आरंभ में पतझर की पीली शाम में किसी पेड़ पर अटके हुए किसी पत्ते का चित्र कवि हमारे सामने रखते हैं। यहाँ शाम वस्तु-जगत है। पर यह कोई भी या हर कोई शाम नहीं है। यह एक पीली शाम है। सामान्य शाम को विशेष शाम में बदलने का काम कल्पना करती है। इस शाम रूपी वस्तु-जगत को कविता में आगे जा कर एक विशेष व्यक्तिगत संदर्भ में रूपांतरित करना है अतः यह कोई एक विशेष शाम है। यहाँ ज़रा शब्द पर भी ध्यान दें क्योंकि यह अब गिरा अब गिरा जितना ही अटका हुआ है। अब यह पीली पतझर की शाम जो वस्तुजगत , पदार्थ है उसे कवि अपने हृदय में स्थित किसी व्यक्ति के स्मरण से जोड़ता हैः मेरी भावनाओं में तुम्हारा मुखकमल। कवि को शाम देख कर याद नहीं आई है , परन्तु कृश-म्लान मुखकमल कवि के भाव-जगत का स्थायी सदस्य/भाव ही है, गोया। वह मुख जो किसी समय कमल की तरह था अब कृश-म्लान-हारा-सा है। कल्पना शक्ति के बल पर ही यह संभव होता है कि अभी तक शाम वस्तु-जगत थी, अब कृश-म्लान चेहरा वस्तु-जगत बन जाता है और नायिका के मौन-दर्पण में रहा कवि का प्रतिबिंब भाव-जगत बन जाता है। कवि को लगता है कि उनके हृदय के भाव-जगत में नायिका का जो चेहरा है, उस नायिका के हृदय में स्वयं उन्हीं का प्रतिबिंब है। अर्थात् प्रेमिका के हृदय के मौन-दर्पण में स्वंय कवि या नायक की छवि। इससे इस कविता की सर्जनात्मकता के लिए आवश्यक कल्पना शक्ति द्विगुणित हो जाती है। हृदय में रहे नायिका के भाव-चित्र को शाम के साथ जोड़ना और नायिका के हृदय में अपनी छवि को पिघलाना , यूँ शाम को देख कर कृश-म्लान नायिका के प्रति रहे उदासी के भाव को कवि इसलिए इतने कम स्पेस में अत्यन्त सुगठित तरीके से रख पाया है क्योंकि उनमें सृजन के लिए अत्यन्त अनिवार्य ऐसी कल्पना शक्ति बहुत गहरी है।
पीली शाम में ज़रा अटका हुआ पत्ता के चित्र को कृश-म्लान यानी बीमार और इसीलिए पीले नायिका के चेहरे पर अटके हुए आँसूं को जोड़ने का काम भी कल्पना-शक्ति के द्वारा होता है। अगर पीली शाम है तो आसमान में तारा भी है। इस तारे को आँसूं से और इन दोनों को पीले पत्ते से कवि जोड़ता है। अब आपके सामने यह चित्र उपस्थित होगा- प्रेम से भरे कवि के हृदय में स्थित नायिका का उदास-पीला चेहरा जिस पर एक अटका हुआ आँसू जो ज़रा से अटके हुए पत्ते की तरह है जो अतल में गिरते तारे के समान है । नायिका भी शीघ्र ही अतल में गिरने ही वाली है- यह संकेत भी मिलता है। अब गिरा अब गिरा की स्थिति में आँसू-पत्ता-तारा । बाहर उदास शाम और भीतर उदास पीला चेहरा। आँसू भीतर और तारा-पत्ता बाहर। भावनाओं के सैलाब में वासना का स्नेह काजल में डूबना यानी भावनाओं की बेतरतीबी को व्यवस्था एवं तरतीबी देना। अभिव्यक्ति की व्यवस्था और भावावेगों को संतुलित करने का काम भी कल्पना शक्ति ही करती है। जिस कविता में यह संतुलन जितना अधिक होगा, उतनी ही कल्पना-शक्ति दृढ़ एवं समृद्ध है, ऐसे माना जा सकता है। कल्पना शक्ति के अभाव में भावावेग प्रलाप बन जाते हैं और कल्पना शक्ति के कारण वे कविता बनते हैं।
इस तरह आप देख सकते हैं कि कल्पना शक्ति सृजन प्रक्रिया में किस तरह काम करती है।