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Tuesday 9 November 2010

HIN 404 लोकजागरण कालीन साहित्य (पद्य)

UNIT-4 (5) वचन- साहित्य की कन्नड भाषा साहित्य को देन
वचनकारों का कन्नड साहित्य पर क्या प्रभाव रहा अथवा वचनकारों ने कन्नड साहित्य में क्या योगदान दिया इस प्रश्न पर विचार करते हुए यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि इन वचनकारों के पूर्व कन्नड साहित्य किस तरह का था। इसके बाद ही यह बताया जा सकता है कि इन वचनकारों ने अपने साहित्य के द्वारा कन्नड साहित्य को क्या विशेष प्रदान किया जिसके फलस्वरूप इनका अद्वितीय महत्व स्वीकारा गया। इस बात को हम समाज में, साहित्य की भूमिका क्या रही है इस रूप में भी देख सकते हैं। अर्थात् साहित्य चूंकि समाज से ही अपनी ऊर्जा ग्रहण करता है अतः किसी भी भाषा का, किसी भी समय पर लिखा साहित्य किन विशेषताओं से भरा रहता है- विचार का एक मुद्दा यह भी है। कन्नड के वचनकारों पर इस दृष्टि से सोचते हुए हमें सबसे पहले वचनकारों के पूर्व कन्नड साहित्य किस तरह का था, इस पर पहले विचार कर लेना होगा। इस बात को हम अत्यंत संक्षेप में इस तरह देख सकते हैं :
कन्नड साहित्य का आरंभ ईसा की पाँचवीं शताब्दी से माना जाता है। सन् 500 ई से सन् 1200 ई तक का काल कन्नड साहित्य के इतिहास में प्राचीन तथा आरंभिक मध्यकाल का समय माना जाता है। कन्नड साहित्य के आरंभिक ग्रंथ 'कविराजमार्ग' तथा 'वड्डाराधना'' माने गए हैं। ये क्रमशः नौवीं तथा दसवीं शताब्दी की रचनाएं मानी जा सकती हैं तथा इन पर (क्रमशः) भाषा की दृष्टि से संस्कृतनिष्ठता तथा भाव की दृष्टि से जैनों का प्रभाव माना जाता रहा है। इसके बाद मुख्य रूप से कन्नड साहित्य के आदिकवि माने जाने वाले पंप कवि का नाम आता है। इस काल में कन्नड साहित्य में चंपू काव्य प्रकार अपने प्रौढत्व तक पहुँच चुका था। इस काल में धार्मिक तथा लौकिक - दोनों प्रकार के काव्य-रूप अस्तित्व में आए। लौकिक काव्यों में ऐतिहासिकता का तत्व भी मिल जाता है। लेकिन ये रचनाएं केवल पंडितवर्ग तक ही सीमित थीं। इस काल के अंत समय में हमें सुलभ एवं गद्य-बहुल चंपूरस काव्यों में कथा-साहित्य प्राप्त होता है। इसमें संस्कृत प्रधानता के विरूद्ध लोगों मंो एक आक्रोश दिखाई पड़ता है। इसी पृष्ठभूमि में बाद में आने वाले वचन साहित्य के बीज हमें पड़े हुए मिलते हैं। गद्य का लालित्य सभर तथा काव्यात्मक रूप बाद के वचन साहित्य में देखने को मिलता है।
12 वीं सदी में लिखा वचन साहित्य अपने आप में बहुत वैशिष्ट्य लिए हुए है। वचन साहित्य पढ़कर सबसे पहले यह विचार आता है कि इनका साहित्यिक स्वरूप क्या हो सकता है। "वचन एक विधा है। तीन से पंद्रह पंक्तियों के माध्यम से शिवशरणों ने सहज स्फूर्त और गहरे अनुभव के फलस्वरूप हृदय से उमड़ी भावनाओं और विचारों को हज़ारों वचनों में वाणी दी है। वचनों में विभिन्नता अवशमयभावी है। इनमें रहस्यानुभूति भी है जो कभी-कभी उलटबासियों के रूप में प्रकट हुई है। इनमें भक्ति की तीव्रताजन्य सांद्रता है तो कहीं ये आक्रोश से भरे हैं।" (डॉ अजयकुमार सिंह) इनमे एक प्रकार की गद्यात्मकता तो है ही पर इन्हे पढ़ कर काव्य के लालित्य का भी आनंद आता है। यह एक प्रकार का अनुभावी(अनुभव-जन्य) गद्य है। सच पूछा जाए तो इन्हें आध्यात्मिक भावगीत भी कह सकते हैं। विश्व साहित्य में इसकी तुलना और स्पर्द्धा का साहित्य शायद ही मिलेगा। कन्नड में तो यह अ-पूर्व ही है। अर्थात् इसके पहले इस प्रकार का गद्य नहीं लिखा गया । अत्यन्त सीधा एवं सरल इस साहित्य की तुलना संभवतः बाइबल के संवादों में अथवा मार्क्स के घोषणा-पत्र से की जा सकती है। परन्तु फिर भी जिस तरह वचन साहित्य के मूल में जिस अनुभव परकता को देखा जा सकता है वैसा इस साहित्य में नहीं मिलता। वचन साहित्य की विशेषता यह है कि इसे हम अनुभव परक गद्य कह सकते हैं। वचन साहित्य को केवल काव्यमय गद्य कह कर हमारा काम नहीं चल सकता । इसमें अनुभव की प्रगाढ़ता एवं सूक्ष्मता भरी पड़ी है। साथ ही उक्तियां सहजस्फूर्त एवं अलंकारयुक्त भी हैं। पंक्ति-दर-पंक्ति लौकिक दृष्टांत, लोकोक्तिनुमा कहावतों के माध्यम से सूक्ष्मानुभव एवं महान तत्वों को सामान्य मनुष्य तक सम्प्रेषित करने की क्षमता इन वचनों में है। कुछ वचनकारों में इष्ट देवता के समक्ष भक्ति से विनम्र हो कर अपने हृदय की भावनाओं को प्रकट करने का भाव है, तो साथ ही समाज के दोषों पर टीका करने का भी कुछ वचनकारों में सामर्थ्य है। कुछ वचनकारों ने अपने कायकानुसारी दृष्टांतों से परमार्थ का विवरण भी दिया है।
वचनों की विशेषता यह है कि वे साहित्य भी हैं और शास्त्र भी हैं। चूंकि उनमें स्वानुभव एवं सौन्दर्यदृष्टि है अतः साहित्य की श्रेणी मं इन्हें गिना जा सकता तथा एक निश्चित दर्शन एवं आचारधर्म युक्त होने के कारण इन्हें शास्त्र की कोटि में भी रखा जा सकता है। ( लगभग यही बात हम सूरदास के विषय में कह सकते हैं) यह सही है कि सभी वचनों को उत्तम साहित्य नहीं कहा जा सकता है। वचन एक तरह से कन्नड उपनिषद् कहे जा सकते हैं। एक अर्थ में ये अत्यन्त सुंदर वर्णन कहे जा सकते हैं। परन्तु उपनिषदों में जिस समाज-नीति, आचार-धर्म, साहित्य एवं शैली का अभाव है वह हमें वचनों में मिलते हैं। अतः यह शैली की दृष्टि से साहित्य हैं और भाव-गांभिर्य की दृष्टि से साहित्य हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि वचन साहित्य भारतीय एवं विश्व साहित्य को कन्नड साहित्य द्वारा दी गई एक अनमोल देन है।
इस काल में संस्कृतनिष्ठ कन्नड के स्थान पर बोलचाल की कन्नड साहित्य के निर्माण के लिए उपर्युक्त समझी गई और संस्कृत की काव्यशैली के बदले देशी छंदों को विशेष प्रोत्साहन दिया गया। इसका कारण यह भी रहा होगा कि वचन साहित्य के रचयिताओं में बहुत सारे रचनाकार निम्न जाति के तथा कम पढ़े-लिखे अथवा अनपढ़ थे। लेकिन यही कन्नड भाषा और साहित्य में वचनकारों का योगदान कहा जा सकता है। वचनकारों से पूर्व पिछली शताब्दियों में जैन मतावलंबियों का साहित्यक्षेत्र में सर्वाधिकार था। परन्तु इस युग में भिन्न-भिन्न मतावलंबियों ने साहित्य के निर्माण में योग दिया। साहित्य की श्रीवृद्धि में भक्ति एक प्रबल प्रेरक शक्ति के रूप में सहायक हुई। इस संदर्भ में विकेपिडिया में हमें यह जानकारी मिलती है :
"12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बसवेश्वर का आविर्भाव हुआ। उन्होंने वीरशैव मत का पुन: संघटन करके कर्नाटक के धार्मिक एवं सामाजिक जीवन में बड़ी उथल पुथल मचाई। बसव तथा उनके अनुयायियों ने अपने मत के प्रचार के लिए बोलचाल की कन्नड को माध्यम बनाया। वीरशैव भक्तों ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार एवं नीति पर निराडंबर शैली में अपने अनुभवों की बातें सुनाई, जो वचन साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुई। इन वीरशैव भक्तों अथवा शिवशरणों के वचन एक प्रकार के गद्यगीत हैं। शिवशरणों ने साहित्य के लिए साहित्य नहीं रचा। उनका मुख्य उद्देश्य अपने विचारों का प्रचार करना ही था। उनके विचारों में सरलता थी, सचाई थी और सच्चे जिज्ञासु की रसमग्नता था। इसलिए उनकी वाणी में साहित्यिक सौष्ठव अपने आप आ गया। इन शिवशरणों के वचनों ने कर्नाटक में वही कार्य किया जो कबीर तथा उनके अनुयायियों ने उत्तर भारत में किया।
बसव ने भक्ति का उपदेश दिया और इस भक्ति की साधना में वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा, जाति पाँति का भेदभाव, अवतारवाद, अंधश्रद्धा आदि को बाधक ठहराया। जातिरहित, वर्णरहित, वर्गरहित समाज के निर्माण द्वारा उन्होंने आध्यात्मिक साधन का मार्ग सर्वसुलभ बनाना चाहा। बसव के समकालीन वीरशैव भक्तों में अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चेन्न-बंसव तथा सिद्धराम प्रमुख हैं।" ( विकेपिडिया से साभार)
अल्लम प्रभू जैसे वचनकारों के कारण कन्नड भाषा में इस तरह की अभिव्यक्तियाँ संभव हुईं जो पहले कन्नड-साहित्य में कभी नहीं थीं। अल्लम प्रभू नें अपने आध्यात्मिक अनुभवों को जिस भाषा में व्यक्त किया वह कन्नड काहित्य तथा भाषा में अ-पूर्व ही माना जा सकती है। तत्कालीन धार्मिक रूढ़िचुस्तता तथा आतंककारी प्रभाव एवं स्वानुभव जनित भक्ति रस को जिन सहज उपमाओं द्वारा इन वचनकारों ने प्रकट किया है उससे कन्नड भाषा की शक्ति का एक नया परिचय मिलता है। वचनकारों में श्रेष्ठ में से एक ऐसे अल्लम प्रभू के वचन एक प्रकार से मंत्र का दर्ज़ा प्राप्त करते हैं। शब्द की अभिव्यक्ति क्षमता में जो भाव न आते हों तथा शब्दों द्वारा जो न कहा जा सके ऐसा अनुभव वचनकारों के यहाँ हमें मिलता है। "न समझ में आने वाले भाव को समझने वाले, नासमझों की तरह रहते हैं-" "जो दिखता है उसे न थाम कर जो न दिखता है उसे जब थामने की कोशिश करते हैं, तब न मिलने की व्यथा जागती है।" ये वचनकार, विशेषकर अल्लम प्रभू कहते हैं कि प्रत्येक शिशु का एक नाम होता है। परन्तु जो शिशु 'निराला' है, उसका क्या कोई नाम हो सकता है ? उसका वर्णन करने की क्षमता शब्दों में भी नहीं है। परन्तु जब शब्दों को ये काम सौंपा जाता है तो वे शरमा जाते हैं, संकोच करते हैं। शब्द अपनी मर्यादा समझते हैं। किन्तु जिस प्रकार विवाह का नयापन धीरे धीरे समाप्त होता है और एक लाजहीनता की स्थिति आती है उसी प्रकार शब्द भी धीरे-धीरे लाजहीन हो कर अनुभवों का वर्णन करते हैं।" इस प्रकार की उक्तिया इसके पहले कन्नड भाषा और साहित्य में नहीं मिलती हैं। अनुभव की गहराई तथा ज्ञान के शिखर पर से बोले जाने वाले ये वचन इसीलिए मंत्र की संज्ञा पाते हैं।
वचनकारों ने इस प्रकार भाषा में एक नयी क्रांति ला दी। यही योगदान भाषा एवं अभिव्यक्ति के स्तर पर कन्नड साहित्य को इन वचनकारों का है।
जहाँ तक विषय की नवीनता का प्रश्न है वचनकारों ने कई नई मंज़िलों को प्राप्त किया। वीरशैव धर्म की आधारभूमि पर खड़ा यह साहित्य सामाजिक दूषणों तथा असमानता को भक्ति के दायरे में लाने में कामयाब रहा। उसी तरह नारी स्वतंत्रता का मुद्दा पहली बार वचनकारों के माध्यम से कन्नड साहित्य को प्राप्त हुआ। अक्कमहादेवी मुक्त्यक्का जैसी शरणियों द्वारा लिखा साहित्य काफ़ी प्रसिद्ध हुआ। साहित्य रचना एवं भक्ति का आचरण एक आंदोलन के रूप में संभव है, यह भी प्रथम बार वचन साहित्य के द्वारा कन्नड साहित्य में उजागर हुआ। मात्र कन्नड साहित्य ही नहीं पूरे विश्व साहित्य में इस प्रकार की घटना देखने में नहीं आती । यह वचन साहित्य का एक विशिष्ट लक्षण कहा जा सकता है। कायक और दासोह जैसी समाज-केन्द्री संकल्पनाएं भी इस साहित्य की विशेष देन है। समाज के लिए पसीना बहाना लोकमंगल के लिए परिश्रम कर कार्य करना तथा अपने कार्य को शिव के प्रति समर्पित करना कायक कहा जाता है और कायक द्वारा अर्जित धन को समाज में वितरित करना दासोह कहलाता है। पहली बार जैसे सामान्य मनुष्य का श्रम तथा उसका स्वमान एवं सामाजिक जीवन काव्य में गौरवपूर्ण स्थान पाता है। भक्ति को सामाजिकता के साथ तथा आम आदमी की भावना के साथ जोड़ने का कार्य प्रथम बार वचन साहित्य के माध्यम से संभव हुआ।
12 वीं सदी के वचनकारों के तीन महत्वपूर्ण कन्नड कवियों- हरिहर, राघवांक तथा पद्मरस पर इन वचनकारों का प्रभाव पड़ा। इन कवियों ने वचनकारों से ली। यह अलग बात है कि इन कवियों ने शैली तथा भावाभिव्यक्ति में नया रास्ता अपनाया। परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि वचनकारों का प्रभाव बाद में आने वाले साहित्यकारों पर प्रेरणा के रूप में हुआ।

(इस सामग्री को तैयार करने के लिए वचन की भूमिका, रं. श्री. मुगळी के कन्नड साहित्य का इतिहास तथा विकेपीडिया से सामग्री का उपयोग किया गया है। इसके अलावा आप डॉ.काशीनाथ अंबालगे की पुस्तक बसवेश्वर की भूमिका में भी इसके संदर्भ में सामग्री प्राप्त कर सकते हैं, और अपने ब्लॉग पर ही यह उपलब्ध है।)