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Wednesday 29 September 2010

HIN403

(नेट पर ( प्रायः विकिपीडियी) से उपलब्ध सामग्री का यह हिन्दी अनुवाद है। इसे विशेष रूप से विद्यार्थियों के लिए ही अव्यवसायिक स्तर पर तैयार किया गया है। अगर इस संदर्भ में किसी को भी किसी भी तरह की कोई आपत्ति हो तो कृपया ब्लॉग के पते पर हमें सूचित करें। इसे तुरंत हटा लिया जाएगा।)

ईलेन शोवाल्टर (जन्म 21 जनवरी 1941) अमरीकी साहित्य की समीक्षक, नारीवादी, तथा सांस्कृतिक एवं सामाजिक मुद्दों पर लिखने वाली लेखिका के रूप में जानी जाती हैं। अमरीका के अकादमिक क्षेत्र में, साहित्यिक नारीवादी समीक्षा की नींव का पत्थर रखने वालों में उनकी गिनती विशेष रूप से होती है। ख़ास तौर पर वे गायनोसेंट्रिक्स की अवधारणा के सिद्धांत एवं व्यवहार पक्ष की स्थापक के रूप में पहचानी जाती हैं।
अकादमिक जगत के साथ-साथ वे लोकप्रिय सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी वे समान रूप से जानी-मानी तथा सम्मानीया हैं। नारीवादी साहित्यिक समीक्षा से ले कर फैशन तक के वैविध्य पूर्ण विषयों पर उन्होंने अनेक पुस्तकें तथा लेख लिखे हैं। इसी संदर्भ में उन्होंने कई पुस्तकों का संपादन भी किया है। कई बार उनके लेखों से विवाद भी जगे हैं, ख़ासकर बीमारी को लेकर उनके लेखों ने एक खलबली – सी मचा दी है। टेलीविज़न पर वे पीपल नामक पत्रिका के लिए समीक्षक के रूप में काम कर चुकी हैं और टेलीविज़न के साथ-साथ वे बी.बी.सी रेडियो पर कमेंटेटर भी रही चुकी हैं।

व्यक्तिगत जीवन
ईलेन शोवाल्टर का जन्म मैस्युचैस्ट के बॉस्टन में हुआ। उनका मूल नाम ईलेन कॉटलर है। अपने माता-पाता की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने अकादमिक क्षेत्र को अपने करीयर के रूप में चुना। ब्रायन माव्र कॉलेज में उन्होंने स्नातक की पदवी प्राप्त की , स्नातकोत्तर की पदवी ब्रांडीज़ युनिवर्सिटी से तथा युनिवर्सिटी ऑफ़ केलिफ़ोर्निया से 1970 में पीएच.डी की पदवी प्राप्त की। अध्यापक के रूप में उनकी पहली नियुक्ति रटगर विश्वविद्यालय के डगलस कॉलेज में हुई। 1984 में वे प्रिस्टन विश्वविद्यालय में फैकल्टी के रूप में जुड़ीं तथा 2003 में वहाँ से उन्होंने स्वेच्छया निवृत्त ले ली।
उनके पिता ऊन का व्यवसाय करते थे तथा उनकी माता एक सामान्य गृहिणी थीं। 21 वर्ष की उम्र में उन्होंने एक ग़ैर-यहूदी से विवाह किया जिसके फलस्वरूप उनके माता-पिता ने उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया। उनके पति इंग्लिश शोवाल्टर, येल में पढ़े थे तथा 18वीं शताब्दी के फ्रांसिसी साहित्य के अध्यापक हैं। शोवाल्टर दंपत्ति की दो संताने हैं। मैकल शोवाल्टर- एक अभिनेता एवं हास्य- कलाकार है तथा विंका(सा) शोवाल्टर ला फ़्लेयुर एक व्यावसायिक भाषण-लेखिका (लेखक) है।

व्यावसायिक जीवन
शोवाल्टर विक्टोरियन साहित्य तथा फिन-डे सियसिल ( 19 वीं शताब्दी के मोड़ पर) की विशेषज्ञ मानी जाती हैं। इस क्षेत्र में उनका सर्वाधिक उल्लेखनीय एवं सर्जनात्मक कार्य "साहित्य में हिस्टिरिया एवं पागलपन का अध्ययन- महिला लेखन एवं स्त्री चरित्रों के आलेखन के विशेष संदर्भ में- "माना जाता है।
वे एवेलॉन फाउंडेशन की प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं। उन्हें कई अकादमिक सम्मान मिले जिनमें विशेष उपल्बधियों के रूप में गुगनहेम फैलोशिप (1977-78) तथा रॉकफैलर ह्यूमैनिटीज़ फैलोशिप का उल्लेख किया जा सकता है। वे एम.एल.ए. (मॉडर्न लैंग्युएज एसोसिएशन ) की भूतपूर्व अध्यक्ष भी रह चुकी हैं। 2007 में ब्रिटन के अन्तर्राष्ट्रीय साहित्यिक सम्मान- मैन बूकर के निर्णायक मंडल की अध्यक्ष भी रही हैं।
शोवाल्टर की कुछ उल्लेखनीय एवं चर्चित कृतियाँ हैं- टूवर्ड्स ए फेमिनिस्ट पोएटिक्स(1979), दी फिमेल मेलडी- विमेन, मैडनेस एंड इंग्लिश कल्चर(1930-1980) सैक्शुएल एनार्की- जेंडर एंड कल्चर एट दी फिन-डे सियसिल(1990) हिस्टोरीज़- हिसेटेरिकल एपिडेमिक्स एंड मॉडर्न मीडिया(1997) तथा इनवेंटिंग हरसेल्फ- अ फेमिनिस्ट इंटलैक्च्युएल हेरिटेज( 2001)।
आलोचनागत महत्व
नारीवादी परंपरा के महत्व को समझने के लिए लंबे समय से जिस संवाद की आवश्यकता महसूस की जा रही थी, वह मानो शोवाल्टर की पुस्तक इन्वेंटिंग हर सेल्फ (2001) में आ कर पूरी हो जाती है। यह पुस्तक नारीवादी आदर्श मूर्तियों का एक प्रकार का सर्वेक्षण है। शोवाल्टर के आरंभिक निबंध और संपादन जो '70 एवं '80 के दशक के उत्तरार्द्ध में लिखे गए वे असल में साहित्यिक सिद्धांतों तथा समीक्षा के गुंजलक के भीतर नारीवादी परंपराओं का सर्वेक्षण है। शोवाल्टर वास्तव में एक ऐसे समय में नारीवाद के साहित्यिक सिद्धांतों और समीक्षा के क्षेत्र में काम कर रही थीं जब 1970 के दशक में विश्वविद्यालयों में इस विषय को अभी ताज़-ताज़ा गंभीर अध्ययन के रूप में स्वीकारा जा रहा था। ऐसे समय शोवाल्टर का लेखन इस तथ्य की गवाही देता है कि वे अपने विषय-क्षेत्र की समीक्षा हेतु उसकी प्राचीनता के नक़्शे को इस तरह खींच कर संप्रेषित करना चाह रही थी कि वह उसे एक ठोस सिद्धांत के रूप में नींव-बद्ध कर सकें। वे एक ऐसा ज्ञानाधार भी रचना चाह रही थीं जिससे भविष्य में इस क्षेत्र में जो काम होना है, उन्हें भी एक दृढ भूमि मिल सके।
टूवॉर्ड्स ए फेमिनिस्ट पोएटिक्स में शोवाल्टर महिला लेखन के इतिहास को रेखांकित करती हैं। उनके अनुसार इसके तीन तबके माने जा सकते हैं-
1- फेमिनिन- इस दौर में (1840-1880) स्त्रियों ने पुरुष-संस्कृति की बौद्धिक-क्षमता की उपलब्धियों के साथ स्पर्द्धा का भाव अनुभव करते हुए पुरुषों की स्त्री के बारे में जो मान्यताएँ थीं उन्हें मानों स्वीकार किया।
2- फेमिनिस्ट- यह दौर ( 1880-1920) पुरुषों द्वारा स्थापित मानदंडों और मूल्यों, के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले दौर के रूप में जाना जाता है। साथ ही नारी के अधिकार, मूल्य आदि मुद्दों की चर्चा केन्द्र में रही, जिसमें स्वायत्ता की माँग का समावेश भी हो जाता है।
3- फीमेल –(1920- ) यह दौर स्त्रियों की आत्म-खोज का माना जाता है। शोवाल्टर कहती हैं कि स्त्रियां अनुकरण और विरोध दोनों का ही अस्वीकार करती हैं, क्योंकि ये दोनों अवलंबन के ही प्रकार हैं। बल्कि वे स्वायत्त कला के स्रोत के रूप में स्त्री-अनुभव की ओर मुड़ती हैं। वे संस्कृति के स्त्री-वादी अभिगम को साहित्य के उपकरणों तथा स्वरूपों तक विस्तरित करती हैं।
परमपरागत एन्ड्रोसेंट्रिक मनोविश्लेषणवादी अथवा जैविक सिद्धांतो की अपेक्षा वर्तमान फीमेल दौर में अनुकरण और विरोध का अस्वीकार करते हुए शोवाल्टर सांस्कृतिक दृष्टिबिन्दु से एक नितांत नई एवं भिन्न नारीवादी समीक्षा की वकालत करती हैं। भूतकाल के नारीवादियों ने इन्हीं परंपरागत ढ़ाचों में रह कर या तो महिला प्रतिनिधित्व को सुधारा है अथवा तो उसकी आलोचना की है (फेमिनिस्ट और फेमिनिन दौर में) फेमिनिस्ट क्रिटिसिज़्म इन दी विल्डरनैस नामक अपने निबंध(1981) में शोवाल्टर कहती हैं- संस्कृति सिद्धांत यह स्वीकार करता है कि वर्ग, नस्ल, राष्ट्रीयता तथा इतिहास वे आधार-बिन्दु हैं जिनके ज़रिए लेखिका के रूप में स्त्री का अलग मूल्यांकन होना चाहिए। उनका मानना है कि एक लेखिका के रूप में स्त्री के साथ भेद बरता जाता है, ठीक वैसे ही जैसे समाज में उन्हें भेद-दृष्टि से देखा जाता है। बावजूद इसके समग्र सांस्कृतिक ढाँचे में स्त्री की सांस्कृति पहचान और अनुभव एक भिन्न सामूहिक अनुभव के रूप में हमारे सामने आता है। एक ऐसा अनुभव, जो महिला लेखकों को एक दूसरे से देश और काल के परे जा कर जोड़ता भी है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि शोवाल्टर एक समीक्षा सिद्धांत के बदले में दूसरे का प्रयोग करने की वकालत करती है। उदाहरण के लिए वे मनोविश्लेषण को सांस्कृतिक नृवंशशास्त्र के बदले में प्रयुक्त करने की बात नहीं करती। बल्कि वह यह सुझाती हैं कि महिला लेखन का विश्लेषण करने की अनेक मान्य पद्धतियों में से एक पद्धति सांस्कृतिक दृष्टि-बिन्दु की भी हो सकती है जो स्त्री-परंपराओं को उद्घटित करने में उपयोगी साबित हो सकती हैं। उनका मानना है कि सांस्कृतिक नृवंशशास्त्रीय तथा सामाजिक इतिहास की पद्धति अन्य पद्धतियों की तुलना में अधिक उपयोगी साबित इस अर्थ में हो सकती हैं कि वे हमें स्त्रियों की सांस्कृतिक स्थितियों विषयक संज्ञाओं तथा रेखांकनों से वाकिफ़ कराएँगी। शोवाल्टर की यह कैविएट (प्रतिरक्षात्मक कथन) है कि नारीवादी समीक्षकों को यह समझने के लिए भी कि स्त्रियाँ आखिर क्या लिख रही है, सांस्कृतिक विश्लेषण का सहारा लेना चाहिए।
यह संभव है कि पहली नज़र में हमें यह लगे कि शोवाल्टर का नज़रिया एकांतवादी है, पर वे पुरुष परंपरा को स्त्री परंपरा से अलगाने की बात नहीं करतीं। उनका तर्क यह है कि स्त्रियों को भीतर –बाहर से (साहित्य के भीतर और साहित्य के बाहर) पुरुष परंपराओं पर एक ही साथ काम करना चाहिए। शोवाल्टर का दृढ मानना है कि अपने सम-काल में उपस्थित पुरुष-परंपरा में विद्यमान स्त्रीवादी परंपरा का भविष्य संबंधी सर्वाधिक सर्जनात्मक नज़रिया यही हो सकता है कि स्त्रीवादी परंपरा को एक नए फेमिनिन कल्चरल दृष्टिबिन्दु पर केन्द्रित हो जाना चाहिए- जिसमें न वह परावलंबी है न जवाबदेह ही।

गायनोक्रिटिक्स
नारीवादी दृष्टिबिन्दु से की जाने वाली समीक्षा के लिए शोवाल्टर ने गायनोक्रिटिक्स संज्ञा का इजाद किया। इस संज्ञा का सर्वोत्तम विवरण एवं समझ उन्होंने अपनी पुस्तक टूवर्ड्स ए फेमिनिस्ट पोएटिक्स में दिया है-
राग-द्वेष केन्द्री पुरुष साहित्य के विपरीत गायनोक्रिटीक्स स्त्री-साहित्य के विश्लेषण के लिए बने-बनाए पुरुष-ढांचों तथा सिद्धांतो को जस-का-तस स्वीकार करने की अपेक्षा एक स्त्री ढाँचा (बन्द) रचती हैं जिससे स्त्री-अनुभवों के विश्लेषण के आधार पर नए प्रारूप रचे जा सकें। जिस बिन्दु पर हम अपने आप को पुरुष साहित्यिक इतिहास के रेखीय और अंतिमवाद से मुक्त करते है, पुरुषवादी परंपरा के क्रम में स्त्रियों की गोट बिठाने की कोशिश के बजाय हम स्त्री-परंपरा के नव-दृश्यमान विश्व पर केन्द्रित होने की शुरुआत करते हैं उसी बिन्दु पर गायनोक्रिटिक्स की शुरुआत होती है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि गायनोक्रिटिक्स का उद्देश्य स्त्री और पुरुष-लेखन के भेद को मिटाना है ; गायनोक्रिटिक्स उस प्रोमिस्ड लैंड( वचनित भूमि) की तीर्थ-यात्रा पर नहीं निकली है जहाँ जेंडर अपना अधिकार खो देगा, जहाँ सभी पाठ देवदूतों की तरह अ-लिंगी तथा समान हो जाएँगे। सच तो यह है कि गायनोक्रिटिक्स का आशय स्त्री लेखन को सेक्स के उत्पाद की बनिस्बत स्त्री-अस्तित्व के मूलभूत लक्षण के रूप में उसकी विशेषताओं को समझना है।
फेमिनिस्ट क्रिटिसिज़्म इन विल्डरनैस में शोवाल्टर यह स्वीकार करती हैं कि स्त्री-लेखन के लाक्षणिक अंतर को पहचान पाना कठिन है, जो, उनके अनुसार एक फिसलन भरा और कष्टकर काम है। उनका कहना है कि स्त्री लेखन के विशेष अंत को पहचान पाने में अथवा स्त्री - लेखन परंपरा की पहचान को रेखांकित करने की समझ बनाने में गायनोक्रिटिक्स संभवतः कभी सफल नहीं हो सकेंगे। पर जैसे-जैसे सिद्धांत और ऐतिहासिक शोध की भूमि दृढ बनती जाएगी, शोवाल्टर का स्पष्ट मानना है कि, गायनोक्रिटिसिज़्म साहित्यिक संस्कृति से स्त्री के संबंध को पहचानने का एक ठोस, स्थायी और सही तरीका साबित हो सकता है। वह इस बात पर विशेष भार देती हैं कि हमें पुरुष साहित्यिक इतिहास के रेखीय अंतिमवादी दृष्टिकोण से मुक्त होना चाहिए। यही वह बिन्दु है जहाँ से गायनोक्रिटिक्स का आरंभ होता है।

आलोचना और विवाद
फेमिनिस्ट सिद्धांत और आलोचना
शोवाल्टर की नारीवादी साहित्यिक सिद्धांतो की सबसे कठोर समीक्षक ड्यूक युनिवर्सिटी की टोरिल मोई हैं, जिन्होंने अपनी 1985 में लिखी पुस्तक सैक्शुएल/टेक्सचुएल पॉलिटिक्स में शोवाल्टर पर यह आरोप लगाया है कि स्त्रियों के प्रति उनका नज़रिया बहुत सीमित तथा मताग्रही( तत्ववादी- Essentialist) किस्म का है। मोई ने खास तौर पर शोवाल्टर के फीमेल दौर के विचारों का विरोध किया है। स्त्रियों की एकल स्वायत्तता तथा फीमेल आइडेंटिटि (स्त्री अस्मिता) के लिए अनिवार्य भीतरी खोज के विचारों से भी वह सहमत नहीं हैं। इस बहदांश उत्तर संरचनावादी दौर में जहाँ यह मान लिया गया है कि अर्थ अनिवार्य रूप से संदर्भ (कॉन्टेक्स्ट) एवं इतिहास से ही संबद्ध होते हैं और पहचान, सामाजिक तथा भाषिक रूप से रचित होती है, मोई का कहना यह है कि स्त्री की अपनी कोई मूलभूत पहचान नहीं हो सकती( फंडामेंटल सेल्फ)।
मोई के अनुसार साहित्यिक सिद्धांतों में समानता की समस्या इस तथ्य में निहित नहीं है कि साहित्य की मुख्यधारा(कैनन) मूलभूत रूप से पुरुष केन्द्री है और स्त्री-परंपरा का प्रतिनिधित्व नहीं करती, परन्तु मुख्यधारा का होना ही एक समस्या है। मोई का तर्क यह है कि एक स्त्री-वादी मुख्यधारा भी पुरुष मुख्यधारा की तुलना में कम दमन-युक्त न होगी, क्योंकि वह अनिवार्य रूप से एक विशेष सामाजिक वर्घ का प्रतिनिधित्व करने वाली होगी ; वह निश्चित रूप से सभी स्त्रियों का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा क्योंकि स्त्री-परंपराएँ भी अनेक हैं, जो वर्ग, नस्ल, सामाजिक मूल्य तथा लिंग-भेद पर आधारित होती हैं। स्त्री-चेतना के अस्तित्व का कोई एक कारण नहीं होता। मोई को शोवाल्टर की मताग्रही स्थिति के प्रति आपत्ति है- अर्थात् वह (शोवाल्टर) पहचान के निर्धारण के लिए लिंगीय आधार को स्वीकार नहीं करती। तत्ववादियों( Essentialists) तथा उत्तर-आधुनिकों के बीच चली व्यापक बहस में मोई की समीक्षा का काफी प्रभाव एवं महत्व रहा था।
हिस्टीरिया एंड मॉडर्न इलनैसेस
मल्टीपल पर्सनैलिटी डिस्ऑर्डर जैसी बीमारियों के संबंध में शोवाल्टर के मंतव्य भी काफी विवादित रहे हैं। उनकी पुस्तक हिस्टोरीज़- हिस्टेरिकल एपिडेमिक्स एंड मॉडर्न मीडिया (1997) में उन्होंने गल्फ वॉर सिन्ड्रोम तथा क्रॉनिक फैटिग सिंड्र्रम की बात की है जिससे स्वास्थ्य-व्यवसाय से जुडे तथा वे लोग जो इस तरह की बीमारियों से पीड़ित थे, बहुत नाराज़ हुए। न्यू यॉर्क टाइम्स मे लिखते हुए मनोवैज्ञानिक कारलो तार्विस ने टिप्पणी की है कि-" चिकित्सकीय निश्चितता के अभाव में ऐसा कहना और यह विश्वास कर लेना कि ऐसे सभी लक्षण मूल में मनोवैज्ञानिक होते हैं, इस विश्वास से कहीं भी बेहतर नहीं है कि ऐसा नहीं होता।" शोवाल्टर (जिन्हें किसी प्रकार का औपचारिक चिकित्सकीय प्रशिक्षण प्राप्त नहीं था) यह स्वीकार करती हैं कि उन्हें काफी सारे हेट-मेल्स (भर्त्सना करते हुए पत्र) मिले हैं, पर फिर भी वे अपने इस मत से बिलकुल भी डिगी नहीं हैं कि ये स्थितियाँ हिस्टीरिया के समकालिक चिह्न हैं।( कॉन्टम्परेरी मेनिफेस्टेशन)

लोकप्रिय संस्कृति
1990 के उत्तरार्द्ध में शोवाल्टर ने लोकप्रिय संस्कृति पर भी लिखा जो पीपल एंड वोग जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ और उन्हें उसके लिए विरोध का भी सामना करना पड़ा था। अमरीकी पत्रिका दी नेशन में डायर्ड्रे इंगलिश ने लिखा है-
जैसे - जैसे पहचान की राजनीति की उत्तर-संरचनावादी समीक्षा प्रमुख बनती गई , विचार तथा वेष में इसकी फैशन अब नहीं रही। ऐसा लगता है कि फीमेल की बात करने वाली आवाँ-गार्द प्रोफेसरा महोदया तो अपने आप को पुरुष अथवा स्त्री जोड़ कर अपनी पहचान बना रही हैं।
इंगलिश शोवाल्टर के वोग में प्रकाशित 1997 के विवादास्पद लेख में से उद्धृत करते हैं-
" मैरी वॉलस्टोनक्राफ्ट से लेकर नाओमी वुल्फ तक – नारीवाद ने अक्सर फैशन, खरीददारी और समग्र सौन्दर्य उपादानों पर बड़ा कड़ा रुख अख्तियार किया है...... पर हमारी वे बहने जो वेलकम यॉर फेसलिफ्ट को दी सैकंड सैक्स के भीतर छिपाए रखती हैं, फैशन के प्रति एक किस्म का उन्माद कई बार उनके लिए एक शर्मनाक गोपनीय जीवन ( का हिस्सा) हो सकता है..... मुझे लगता है कि मुझे बन्द दरवाजों के बाहर तो आना ही पड़ेगा"।
परंपरागत नारीवाद तथा उपभोक्तावादी पूँजीवाद के पितृसत्तात्मक प्रतीकों के लिए शोवाल्टर को उनके अकादमिक साथियों ने बहुत लताड़ा। शोवाल्टर का उत्तर था- हमें उत्तर-आधुनिक हताशा के वश में होने की कोई आवश्यकता नहीं है जो राजनीतिक कार्यों की व्यर्थता की बात करता है। साथ ही न ही हमें सैद्धांतिक औचित्य की असंभाव्यता को कार्य की पूर्व-शर्त मानने की आवश्कता ही है।

एकेडेमिक टीचिंग
सन् 2006 में प्रकाशित टीचिंग लिटरेचर पर बहुत व्यापक और सकारात्मक समीक्षाएँ लिखी गईं, विशेष रूप से अमरीकी जर्नल पेडॉगॉगी में। इस पत्रिका में, पुस्तक पर तीन समीक्षाएँ प्रकाशित हुईं और यह कहा गया- कि यह एक ऐसी पुस्तक है जो हम चाहते कि हमारे पास होती जब हमने पढ़ाना आरंभ किया। जॉन राउस ने भी इस किताब की बड़ी कड़ी समीक्षा की थी। शोवाल्टर की अध्यापन पद्धति पर भी उसने इस अंदाज़ में समीक्षा की कि जैसे शोवाल्टर की समीक्षा साहित्य का कोई नया स्वरूप हो।

(इस सामग्री को प्राप्त कराने, सुझाव देने एवं अनुवाद-परीक्षण कर आप तक पहुँचाने का लिए हम आभारी हैं- डॉ. इंदिराबेन नित्यानंदन, श्री जगदीश आणेराव, डॉ. नीरजा अरुण, डॉ.महावीर सिंह चौहाण, डॉ रोहिणी अग्रवाल एवं डॉ. सुरेश पटेल के)