जिन खोजा तिन पाइयां

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Thursday 17 March 2011

कामायनी पुनर्पाठ

(कामायनी को हम विभिन्न दृष्टियों से पढ़ सकते हैं। उसकी कई व्याख्याएं मौजूद हैं। हमारे अपने समय की दृष्टि से यह भी उसकी एक व्याख्या है। नारीवाद में आती सिस्टरहुड की संकल्पना और विस्थापन के विमर्श को भी कामायनी प्रस्तुत करती है। अप इस पर सोचें और अपनी टिप्पणी अवश्य दें)


कोई भी रचना बड़ी इसलिए होती है कि वह हर युग में एक नया अर्थ देती है। इस बात की प्रतीति कामायनी पढ़ कर होती है। अगर मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण कामायनी के कथानक को युगीन संदर्भ से जोड़ते हैं या जिस तरह मुक्तिबोध ने उसकी व्याख्या की है, वह भी उसे अपने समय की मार्क्सवादी चेतना के साथ जोड़ देती है, तो हमारे अपने समय के संदर्भ भी उसमें जुड़े हुए दिखते हैं। इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि इडा के मन में जो अपराध भाव है वह मनु के साथ किए गए उसके अपने अथवा प्रजा के व्यवहार को ले कर नहीं है बल्कि एक अन्य स्त्री उसके कारण दुखी हुई है, यह देख कर होता है। यह इडा और श्रद्धा का एक तरह का बहनापे का भाव है। तभी अपनी संतान को इडा के भरोसे छोड़ कर वह (श्रद्धा) मनु की खोज में चल देती है। वह उसे चिर चढी कहती अवश्य है पर इडा के प्रति किसी विश्वास के कारण ही अपने पुत्र को उसके हवाले भी कर पाती है। यहाँ इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि अंत में जब इडा उस स्थान पर जाती है जहां श्रद्धा और मनु है , तब भी मनु के प्रति किए गए व्यवहार के लिए वह शर्मिन्दा नहीं है पर जहाँ मानव श्रद्धा के अंक में समाता है वहीं इडा श्रद्धा के चरणों में यह कहकर गिरती है कि उससे मिल कर वह कितनी कृतार्थ हुई है। श्रद्धा के प्रति कृतीरथता का बोध और अपने बचपने के प्रति सजगता तथा उसका श्रेय श्रद्धा को देना – एक अद्भुत बहनापे का बोध प्रकट करता है।
कामायनी को पढ़ते हुए मुझे इस बात की भी प्रतीति हुई कि इसमें विस्थापन का विमर्श भी है। मनु हमारा पहला विस्थापित है। देव-संस्कृति का अंतिम प्रतिनिधि और मानव संस्कृति का आरंभकर्ता मनु अपनी इच्छा से विस्थपित नहीं हुआ था। पर विस्थापन के जो अनेक कारण हैं, जिनमें प्राकृतिक आपदा भी एक कारण माना जाता है, मनु उसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हो कर हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठा हुआ अपनी बीती जिन्दगी को याद कर रहा है। वह अपने जीवन को ठीक वैसे ही आरंभ करता है, जैसे वह पहले जी रहा था। वहाँ उसके अलावा कोई था नहीं। अतः इस उम्मीद में कि शायद कोई और हो जीवित उसी की तरह वह अन्न-भाग रखता है। उसके पास कोई नया विकल्प नहीं था , जीवन के किसी नए प्रारूप पर सोचने के लिए कोई कारण या प्रेरणा भी नहीं थी। फिर उसकी भेंट श्रद्धा से होती है। श्रद्धा गंधर्व देश की रहने वाली है , इस उत्सुकता से वहाँ आ पहुँचती है कि – सीख लूं ललित कलाओं का ज्ञान- वह अपने पिता की प्यारी संतान है- अर्थात् अपने घर से किसी मजबूरी में या संकट में या दुखी हो कर नहीं चली थी पर अपने विकास के लिए चल पड़ी थी। विस्थापन का एक कारण यह भी है। इस तरह विस्थापित हो कर जो कहीं और जा कर रहते हैं वे ही प्रवासी भी कहलाते हैं।
श्रद्धा आयी तो थी ललित कलाओं का ज्ञान सीखने पर उसका जीवन किसी और दिशा में मुड़ जाता है। जैसा कि हम आगे चलकर देखते हैं कि मनु बहुत जल्दी ही श्रद्धा से विरत हो कर चला जाता है। वह अपनी इच्छा से , असंतुष्टि के कारण हिमप्रदेश छोड़ कर सारस्वत प्रदेश में आ पहुँचता है। वहाँ वह नव-निर्माण करता है, वर्ण जातियों का निर्माण करता है और फिर अपनी ही वृत्तियों के कारण अपना अंत भी देखता है। फिर एक बार वह वहाँ से चल देता है, परन्तु इस बार पलायन करता है और जैसा कि हम जानते हैं आनंद-लोक को प्राप्त होता है। अपनी अंतिम परिणति को प्राप्त करने तक मनु तीन बार विस्थापित होता है। श्रद्धा भी तीन बार विस्थापित होती है। परन्तु दोनों के कारण अलग-अलग हैं। दोनों के कारणों को अगर देखा जाए तो प्राकृतिक आपदा, नूतन ज्ञान की खोज, व्यक्तिगत अहं, स्वजन की चिंता, लज्जा और एक हद तक लोक भय- इन कारणों से विस्थापन हुआ देखा जा सकता है। अंत में मनु-श्रद्धा जहाँ होते हैं, जिसे अब उज्जवलतम और पावनतम तीर्थ कहा जाने लगा था,वहाँ इडा का सबको ले कर जाना एक तरह का सामूहिक एक्ज़ोडस(स्थानांतरण) ही कहा जा सकता है। इतिहास में प्रजाओं का ऐसा एक्ज़ोडस हुआ भी है। इडा सारस्वत प्रदेश के यात्रियों के साथ इसलिए जाती है कि-

सारस्वत नगर निवासी हम आए यात्रा करने
यह व्यर्थ रक्त – जीवनपट जीवन – पीयूष से भरने।
इस वृषभ-धर्मप्रतिनिधि को उत्सर्ग करेंगे जाकर
चिर-मुक्त रहे यह निर्भय स्वच्छन्द सदा सुख पाकर

इडा भूल से उस प्रदेश में आयी है जहाँ समरसता को प्राप्त श्रद्धा और मनु का निवास है। वह कृतार्थ है। मनु का यह कथन-

देखो कि यहाँ पर कोई भी नहीं पराया
हम अन्य न और कुटुंबी हम केवल एक हमीं हैं
तुम सब मेरे अवयव हो जिसमें कुछ नहीं कमी है।
शापित न यहाँ कोई है तापित पापी न यहाँ हैं
जीवन-वसुधा समतल है समरस है जो कि जहाँ है।

विस्थापित हो कर कहीं जा कर बसने वाले इसी बात के लिए लालायित रहते हैं कि उनका स्वीकार हो। इतने सारे विस्थापनों को भोग कर मनु इस भूमिका पर आते हैं।
इस तरह से इस रचना का यह एक और नया आयाम खुलता है। कामायनी आज अपनी भाषा के कारण नई पीढ़ी को हिन्दी की कम संस्कृत की रचना अधिक लगती है। अपने युगीन, अतः जटिल सौन्दर्यबोध के कारण क्लिष्ट भी लगती है, अतः उसकी टेक्स्ट को पढ़ना बहुत दूभर भी लग सकता है। परन्तु इस बात को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि कामायनी आधुनिक काल की ऐसी महत्वपूर्ण कृति के रूप में उभरती है जिसमें आने वाले युगों में भी नए संदर्भों के होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

कामायनी पुनर्पाठ

(कामायनी को हम विभिन्न दृष्टियों से पढ़ सकते हैं।




कोई भी रचना बड़ी इसलिए होती है कि वह हर युग में एक नया अर्थ देती है। इस बात की प्रतीति कामायनी पढ़ कर होती है। अगर मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण कामायनी के कथानक को युगीन संदर्भ से जोड़ते हैं या जिस तरह मुक्तिबोध ने उसकी व्याख्या की है, वह भी उसे अपने समय की मार्क्सवादी चेतना के साथ जोड़ देती है, तो हमारे अपने समय के संदर्भ भी उसमें जुड़े हुए दिखते हैं। इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि इडा के मन में जो अपराध भाव है वह मनु के साथ किए गए उसके अपने अथवा प्रजा के व्यवहार को ले कर नहीं है बल्कि एक अन्य स्त्री उसके कारण दुखी हुई है, यह देख कर होता है। यह इडा और श्रद्धा का एक तरह का बहनापे का भाव है। तभी अपनी संतान को इडा के भरोसे छोड़ कर वह (श्रद्धा) मनु की खोज में चल देती है। वह उसे चिर चढी कहती अवश्य है पर इडा के प्रति किसी विश्वास के कारण ही अपने पुत्र को उसके हवाले भी कर पाती है। यहाँ इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि अंत में जब इडा उस स्थान पर जाती है जहां श्रद्धा और मनु है , तब भी मनु के प्रति किए गए व्यवहार के लिए वह शर्मिन्दा नहीं है पर जहाँ मानव श्रद्धा के अंक में समाता है वहीं इडा श्रद्धा के चरणों में यह कहकर गिरती है कि उससे मिल कर वह कितनी कृतार्थ हुई है। श्रद्धा के प्रति कृतीरथता का बोध और अपने बचपने के प्रति सजगता तथा उसका श्रेय श्रद्धा को देना – एक अद्भुत बहनापे का बोध प्रकट करता है।
कामायनी को पढ़ते हुए मुझे इस बात की भी प्रतीति हुई कि इसमें विस्थापन का विमर्श भी है। मनु हमारा पहला विस्थापित है। देव-संस्कृति का अंतिम प्रतिनिधि और मानव संस्कृति का आरंभकर्ता मनु अपनी इच्छा से विस्थपित नहीं हुआ था। पर विस्थापन के जो अनेक कारण हैं, जिनमें प्राकृतिक आपदा भी एक कारण माना जाता है, मनु उसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हो कर हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठा हुआ अपनी बीती जिन्दगी को याद कर रहा है। वह अपने जीवन को ठीक वैसे ही आरंभ करता है, जैसे वह पहले जी रहा था। वहाँ उसके अलावा कोई था नहीं। अतः इस उम्मीद में कि शायद कोई और हो जीवित उसी की तरह वह अन्न-भाग रखता है। उसके पास कोई नया विकल्प नहीं था , जीवन के किसी नए प्रारूप पर सोचने के लिए कोई कारण या प्रेरणा भी नहीं थी। फिर उसकी भेंट श्रद्धा से होती है। श्रद्धा गंधर्व देश की रहने वाली है , इस उत्सुकता से वहाँ आ पहुँचती है कि – सीख लूं ललित कलाओं का ज्ञान- वह अपने पिता की प्यारी संतान है- अर्थात् अपने घर से किसी मजबूरी में या संकट में या दुखी हो कर नहीं चली थी पर अपने विकास के लिए चल पड़ी थी। विस्थापन का एक कारण यह भी है। इस तरह विस्थापित हो कर जो कहीं और जा कर रहते हैं वे ही प्रवासी भी कहलाते हैं।
श्रद्धा आयी तो थी ललित कलाओं का ज्ञान सीखने पर उसका जीवन किसी और दिशा में मुड़ जाता है। जैसा कि हम आगे चलकर देखते हैं कि मनु बहुत जल्दी ही श्रद्धा से विरत हो कर चला जाता है। वह अपनी इच्छा से , असंतुष्टि के कारण हिमप्रदेश छोड़ कर सारस्वत प्रदेश में आ पहुँचता है। वहाँ वह नव-निर्माण करता है, वर्ण जातियों का निर्माण करता है और फिर अपनी ही वृत्तियों के कारण अपना अंत भी देखता है। फिर एक बार वह वहाँ से चल देता है, परन्तु इस बार पलायन करता है और जैसा कि हम जानते हैं आनंद-लोक को प्राप्त होता है। अपनी अंतिम परिणति को प्राप्त करने तक मनु तीन बार विस्थापित होता है। श्रद्धा भी तीन बार विस्थापित होती है। परन्तु दोनों के कारण अलग-अलग हैं। दोनों के कारणों को अगर देखा जाए तो प्राकृतिक आपदा, नूतन ज्ञान की खोज, व्यक्तिगत अहं, स्वजन की चिंता, लज्जा और एक हद तक लोक भय- इन कारणों से विस्थापन हुआ देखा जा सकता है। अंत में मनु-श्रद्धा जहाँ होते हैं, जिसे अब उज्जवलतम और पावनतम तीर्थ कहा जाने लगा था,वहाँ इडा का सबको ले कर जाना एक तरह का सामूहिक एक्ज़ोडस(स्थानांतरण) ही कहा जा सकता है। इतिहास में प्रजाओं का ऐसा एक्ज़ोडस हुआ भी है। इडा सारस्वत प्रदेश के यात्रियों के साथ इसलिए जाती है कि-


सारस्वत नगर निवासी हम आए यात्रा करने
यह व्यर्थ रक्त – जीवनपट जीवन – पीयूष से भरने।
इस वृषभ-धर्मप्रतिनिधि को उत्सर्ग करेंगे जाकर
चिर-मुक्त रहे यह निर्भय स्वच्छन्द सदा सुख पाकर


इडा भूल से उस प्रदेश में आयी है जहाँ समरसता को प्राप्त श्रद्धा और मनु का निवास है। वह कृतार्थ है। मनु का यह कथन-


देखो कि यहाँ पर कोई भी नहीं पराया
हम अन्य न और कुटुंबी हम केवल एक हमीं हैं
तुम सब मेरे अवयव हो जिसमें कुछ नहीं कमी है।
शापित न यहाँ कोई है तापित पापी न यहाँ हैं
जीवन-वसुधा समतल है समरस है जो कि जहाँ है।


विस्थापित हो कर कहीं जा कर बसने वाले इसी बात के लिए लालायित रहते हैं कि उनका स्वीकार हो। इतने सारे विस्थापनों को भोग कर मनु इस भूमिका पर आते हैं।
इस तरह से इस रचना का यह एक और नया आयाम खुलता है। कामायनी आज अपनी भाषा के कारण नई पीढ़ी को हिन्दी की कम संस्कृत की रचना अधिक लगती है। अपने युगीन, अतः जटिल सौन्दर्यबोध के कारण क्लिष्ट भी लगती है, अतः उसकी टेक्स्ट को पढ़ना बहुत दूभर भी लग सकता है। परन्तु इस बात को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि कामायनी आधुनिक काल की ऐसी महत्वपूर्ण कृति के रूप में उभरती है जिसमें आने वाले युगों में भी नए संदर्भों के होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

Monday 14 March 2011

कामायनी पर एक टिप्पणी

कई बार लंबे समय के बाद मिलने पर जिस तरह पुराने परिचित आपको बिल्कुल नए और भिन्न लगते हैं और उन्हें वैसा पा कर आपको लगता है कि यह किसी नए व्यक्ति से मिलना हुआ है कुछ इस तरह वर्षों बाद पिछले दिनों कामायनी पढ़ने पर लगा। 1978 में एम.ए द्वितीय वर्ष में अध्ययन करते हुए कामायनी कोर्स में थी। हम लोग बहुत भाग्यवान थे कि डॉ. भोलाभाई पटेल कामायनी पढ़ाते थे। कामायनी का अर्थ कितना समझ में आया था नहीं कह सकती , परन्तु कामायनी का सौन्दर्य अभी भी उनकी अध्यापन मुद्राओं के साथ मन में सजीव है। अच्छे अध्यापक के मार्गदर्शन में अगर कविता पढ़ने को मिल जाए, तो विद्यार्थी जीवन सार्थक हो जाता है।
परन्तु अर्थ की गहराई और विस्तार को उतना ही समझ पाई थी जितना उस समय संभव था। बाद में उसे पढ़ने का कोई अवसर या कारण नहीं था, सो पुरानी सुखद स्मृतियों के साथ कामायनी मेरे भीतर हमेशा जीवित रही। एकाध बार कामायनी के अंग्रेज़ी अनुवाद को पढ़ते हुए उसका कुछ अंश पढ़ा था। तब गुजरात में भूकंप आया था, शहर अव्यवस्थित हो गया था इसलिए सारस्वत प्रदेश का वर्णन मुझे एकदम प्रासंगिक – सा लगा था। तब ऐसे ही उसे पढ़ लिया था।
अभी पिछले दिनों मैंने फिर जब कामायनी पढ़ा तो उसकी कुछ, बल्कि अनेक बातें मुझे बड़ी विलक्षण लगीं। रामचंद्र शुक्ल का चिंतामणी भाग-1 तथा कामायनी का रचना-समय तो एक ही है। अपने समय का सर्वश्रेष्ठ आलोचक जो आज भी अपने पद से डिगा नहीं है, मनोभावों का विश्लेषण गद्य में कर रहा था और अपने समय का इतना बड़ा कवि उन्हीं मनोभावों को काव्य के सौन्दर्य में वेष्टित कर रहा था। कामायनी और चिंतामणी में कोई समानता है ऐसा मैं नहीं कह रही , परन्तु यह एक विलक्षण बात है कि दोनों ही, एक प्रकार की बात कर रहे थे। एक ही विषय पर चिंतन कर रहे थे। एक में मनोभावों का सामाजिक स्वरूप और भूमिका दृष्टिगोचर होती है और दूसरे में मनोभावों का वैयक्तिक स्वरूप , जो आख़िरकार तो सामाजिक समरसता की बात करता है। कामायनी महाकाव्य में प्रसाद की विशेषता यह है कि उन्होंने इन मनोभावों को छायावादी सौन्दर्य के स्तर पर प्रस्तुत किया है। शुक्लजी के यहाँ मनोभावों का यह चित्रण जितना गुरु-गंभीर और वज़नदार लगता है , प्रसादजी के यहाँ उतना ही सुंदर, शोभामय और प्रीतिकर लगता है। एक ही कंटेंट मानों विभिन्न रूप धारण करता दिखाई पड़ता है। क्या यह अंतर इस बात की ओर इशारा नहीं करता कि मनोभावों का इस तरह विश्लेषण उस युग की अपनी विशेषता बन जाती है। आगे चलकर मनोवैज्ञानिक उपन्यासों का आरंभ भी, जैनेन्द्र, इलाचंद्र जोशी आदि के साथ हो ही जाता है। शुक्लजी पर तो रिचर्ड्स का प्रभाव माना जाता है परन्तु प्रसाद पर किसी का प्रभाव था, यह नहीं कहा जा सकता , यह शोध का विषय है।
गोदान तक आते-आते यह कहा जाने लगा कि उपन्यास महाकाव्य का स्थानापन्न है। क्या ऐसा नहीं लगता कि भाषा-विन्यास को अगर एक क्षण के लिए विस्मृत कर दें तो कामायनी का स्ट्रक्चर औपन्यासिक है। इसमें नाट्यात्मकता भी है, एक औत्सुक्य भी है। कामायनी की कथा जिस तरह गूँथी गई गयी है, एक के बाद एक प्रसंग का आयोजन हुआ है, ऐसा लगता है कि कविता में लिखा एक उपन्यास है। परन्तु ज़ाहिर है कि है तो यह एक महाकाव्य ही , क्योंकि कृति के अंत में जीवन के महान् सत्य को महाकाव्य का नायक(उत्तम कुलोत्पन्न) फल के रूप में प्राप्त करता है। यह महाकाव्य ही है क्योंकि इसका नायक महाकाव्यात्मक श्रेणी का है। इसमें मध्यवर्ग की कोई गाथा नहीं है, बल्कि मनुष्य मात्र की भूलों – उसके अहं, अधिकार भवना का वर्णन, उसके परिणाम और उनसे मुक्ति के उपाय कवि ने दिए हैं। परन्तु फिर भी कामायनी की बुनावट और प्रसंग- आयोजन औपन्यासिक हैं।
महाकाव्य के आरंभ में बाढ़( प्रलय) के उतर जाने के बाद बचे हुए एक मनुष्य का का चित्रण है। देव संस्कृति का शेष बचा हुआ प्रतिनिधि यह पुरुष जिसका नाम मनु है अपने बीते कल की समृद्धि को याद करते हुए चिंता करता है। इस सौरचक्र में आवर्त्तन होता रहता है.... कामायनी के आरंभ में ऐसा ही एक आवर्त्तन हुआ और मनु बच गया है- अकेला। निर्जनता में कही गयी उसकी विषाद-वार्ता को केवल पवन पी रहा है। एकान्त क्रंदन करता हुआ मनु चिंता से भरा हुआ हमारे समक्ष उपस्थित है। अकेलेपन की चिंता और देव-सृष्टि के विलास की स्मृतियां मनु की बेचैनी का मुख्य कारण है। लेकिन फिर प्रलय-निशा का प्रात होता है। कामायनी में मनु की चिंता भरी स्थिति के बाद जिस तरह श्रद्धा की उससे भेंट होती है, श्रद्धा के प्रति उसका आकर्षण , श्रद्धा के मन में मनु के प्रति सहज आकर्षण फिर अकेलापन दूर होने के बाद मनु का और बातों में रुचि लेना, किरात-अकुलि के साथ मिल कर उसी नष्ट हुई देव संस्कृति को फिर जीवित करने का उपक्रम, आरंभिक आकर्षण का क्रमशः कम होते जाना, देव-दंभ तथा अहं और सत्ता-भाव का फिर उदय होना, मानव के जन्म की संभावनाओं के फलस्वरूप श्रद्धा का उसकी तैयारी में लग जाना , मनु का श्रद्धा को उसी के हाल पर (गर्भवती श्रद्धा को)छोड़ कर कहीं दूर चले जाना , इडा के सारस्वत प्रदेश में जा कर नव निर्माण करना, अधिकार भाव को पुष्ट और पुष्टतर करते जाना, प्रजा पर अत्याचार, इडा पर अधिकार जमाना, जन-विद्रोह का सामना करना, श्रद्धा का वहाँ आना, मनु को इस हाल में देखना, मनु का वहाँ से चुपचाप चल देना , श्रद्धा द्वारा इडा के पास मानव को छोड़ कर, मनु की खोज में जाना और तीन लोकों की यात्रा कराते हुए फिर जीवन को जीने की गति में लाना, मानव तथा सारस्वत प्रदेश के लोगों के साथ इडा का मनु और श्रद्धा से मिलना और सामरस्य के संदेश के साथ कृति का अंत होना।
प्रसाद ने सामाजिक समस्याओं को केन्द्र में रखते हुए कंकाल और तितली उपन्यास लिखे। 1936 तक मनोवैज्ञानिक उपन्यास लिखने का आरंभ तो हो चुका था । प्रसाद की मृत्यु बहुत जल्दी हो गई थी। परन्तु कामायनी में क्या एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास का बीज नहीं हैं? हो सकता है कि प्रसाद अगला कोई उपन्यास मनोबैज्ञानिक ही लिखते। हालाँकि यह एक हायपोथिटीकल विधान है, पर ऐसा सोचा तो जा ही सकता है। अहं और अधिकार भाव मनु का निर्माण करते हैं- जिससे उसका विकास और पतन दोनों ही होता है। सारस्वत देश का निर्माण और' सब कुछ मेरा है और मेरे लिए बना है'- का उद्दाम भाव उसके पतन का कारण बनता है। इसमें स्वप्न की टेकनीक का प्रयोग किया गया है। वरना श्रद्धा को उस स्थल तक पहुँचाना कठिन था, जहाँ मनु था। इसमें अपराध भाव है, इडा और मनु दोनों में इसे देखा जा सकता है। श्रद्धा की उपस्थिति से इडा को अपने किए के प्रति अपराध इसलिए होता है कि एक अन्य स्त्री की पीड़ा और दुख में उसकी भूमिका निश्चित ही थी। यह पॉज़िटिव अपराध भाव है जिसके कारण वह मानव की देखभाल करने का तथा पुनः नगर निर्माण की दिशा में बढ़ती है। पर मनु में स्यूडो- अपराध भाव है, जिसके कारण वह पलायन कर जाता है। और फिर यह तीनों लोकों की यात्रा क्या है ? यह श्रद्धा द्वारा मनु का मनोवैज्ञानिक इलाज ही तो है। मनु यथार्थ का सामना नहीं करना चाहता। वह इतना साहसी नहीं है , पर श्रद्धा उसे ढूँढ़ती है और वह सब दिखाती है जो उसने किया और ग़लत था। उसे अपने स्मृति पथ की यात्रा करवाती है। जैसे हिप्नोटीज़ कर के कोई डॉक्टर मरीज़ को उसके अवचेतन के अनेक स्तरों की यात्रा करवाता है , कुछ इस तरह प्रसाद यहाँ करते हैं। पर प्रसाद जब इसे लिख रहे थे तब हिन्दी में मनोविज्ञान अथवा मनोविश्लेषण की थियोरी अभी आयी नहीं थी। फ़ेथ इज़ दी बेस्ट हीलर--- श्रद्धा ही वह काम करवा सकती थी। कामायनी में यह पूरा प्रसंग इसलिए रहस्यमय और दार्शनिक लगता है कि कवि ने उसे वैसा रूप दिया । इसी बात को प्रसाद प्रत्यभिज्ञा के माध्यम से बताते हैं। परम तत्व को देखने के लिए किसी मीडीएटर(मध्यस्थ) की आवश्यकता होती है। प्रत्यभिज्ञा की दृष्टि से श्रद्धा वह मीडिएटर है।
कामायनी अपने आरंभ से ले कर अंत तक प्रत्यभिज्ञा दर्शन से इस तरह आवेष्टित है कि जयशंकर प्रसाद के काव्यत्व के प्रति आदर भाव जागता है। इसमें बड़ी बात यह भी है कि प्रत्यभिज्ञा दर्शन के पूर्ण ज्ञान के अभाव में भी इस काव्य का आनंद उठाया जा सकता है। यहाँ हमें भक्तिकाल की उन रचनाओं का स्मरण आ जाता है जिनके दार्शनिक आधारों को जाने बिना भी काव्य का आनंद उठाया जा सकता है। उदाहरण के लिए सूरदास की रचनाओं को बिना पुष्टिमार्ग के सैद्धांतिक पक्ष के ज्ञान के भी उतनी ही प्रिय लगती है।
प्रत्यभिज्ञा दर्शन या समरसता दर्शन का परिचय कामायनी के प्रथम छन्द से ही हो जाता है। इस संदर्भ में इस उद्धरण को देखा जा सकता है-
कश्मीर के शैवाद्वैत दर्शन के अनुसार चिति या चैतन्य संज्ञक एक आत्मा ही नाना रूपों में (विश्वात्मक रूप में) सर्वत्र विद्यमान है, उस चिति या आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी कहीं भी नहीं है। अस्तित्व है तो केवल आत्म-रूप का हैं। इस कारण जड और चेतन दोनों ही चैतन्य रूप हैं। दोनों प्रकृति में, स्व-भाव में एक-दूसरे से पृथक नहीं है। उनमें अन्तर (भेद) केवल प्रकाश या चैतन्य की मात्रा का है। जैसे नदी संज्ञक परिमित जलराशि सागर संज्ञक अपरिमित जलराशि को पाकर उसमें लय हो जाती है अर्थात् समरसत्व को प्राप्त होती है वैसे ही जड संज्ञक परिच्छिन्न प्रकाश या परिमित चैतन्य चेतन संज्ञक अपरिमित चैतन्य में (साधना, गुरु कृपा, शक्तिपात आदि के द्वारा) लय हो जाता है, समरसीभूत होता है। इस प्रकार जड और चेतन के सामरस्य से सर्वत्र एक ही तत्त्व की स्थिति हो जाती है। सारांश यह है कि कामायनी की आरम्भिक पंक्तियों में महाकवि प्रसाद द्वारा प्रयुक्त जड और चेतन शब्द कश्मीर के शैवागम शास्त्र के पारिभाषिक शब्द हैं तथा वहाँ जो दृश्य है अर्थात् जो जड है वह और जो चेतन द्रष्टा मनु है, दोनों के समरसीभाव से कवि-कथन एक तत्त्व की ही प्रधानता की सत्यता स्पष्ट हो जाती है। (जोशी)
महाकाव्य के आरंभ में ही मनु हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर शिला की शीतल छांह में बैठे प्रलय का प्रवाह देख रहे हैं। ऊपर और नीचे दोनों ही दिशाएँ जल-मग्न हैं- एक तरल है एक सघन उसे चाहे जड़ कहो या चेतन एक ही तत्व प्रधान है- ऐसा कवि कहते हैं। सामान्य व्यक्ति जल के तरल एवं जड रूप के अर्थ में इसका आनंद उठाते हैं। अर्थ-घटन करते हैं। कोई दिक्कत नहीं आती । पर जल चाहे जिस रूप में हो, जड ही है। चेतन तो मनु है । मनु जो दृष्टा है, वह चेतन है। अतः जल एवं मनु दोनों ही एक हैं। लेकिन अभी इसमें श्रद्धा का प्रवेश नहीं हुआ है अतः वह समरसी भाव को प्राप्त नहीं हुआ है।
कवि कहता है - हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह, एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय-प्रवाह। नीचे जल था, ऊपर हिम था एक तरल था, एक सघन, एक तत्त्व की ही प्रधानता कहो उसे जड या चेतन। वे शंका करने वाले कहते हैं कि नीचे जल और ऊपर हिम ये दोनों तो तत्त्वतः एक ही तत्त्व हैं क्योंकि जल और हिम दोनों में जल तत्त्व हैं। हिम के पिघल कर जल बन जाने पर और फिर उस हिम-जल का प्रलय-सागर की विस्तृत, अपरिमित जलराशि में लय हो जाने पर एक तत्त्व की स्थिति सिद्ध हो जाती है, किन्तु हिम और जल का उक्त प्रकार से द्वैत समाप्त हो जाने पर भी उस दृश्य (हिम और जल) का द्रष्टा मनु तो उस दृश्य से पृथक बचा रहता है तब वहाँ कवि-कथित एक तत्त्व की प्रधानता कैसे हुई? दूसरे, वह दृश्य (हिम और जल) तो जड है, किन्तु उस दृश्य का द्रष्टा जो मनु है वह तो चेतन है। इस तरह जड और चेतन का द्वैत विद्यमान रहने पर पर भी ही से जोर देकर कवि के द्वारा एक तत्त्व की प्रधानता बताना पहेली जैसा लगता है। यह शंका एक प्रकार से स्वाभाविक भी है, क्योंकि कामायनी काव्य पर अब तक जितनी टीकाएँ, भाष्य या व्याख्याएँ लिखी गई हैं और जितने शोध-ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं उनमें से किसी में भी उक्त उलझन को सुलझाने का प्रयत्न दृष्टिगत नहीं होता। इसका कारण यह नहीं समझा जाए कि कवि का उपर्युक्त विरोधाभासी कथन महत्त्वपूर्ण नहीं है, इसलिए किसी विद्वान् ने इस पर ध्यान नहीं दिया। ऐसा समझना निश्चय ही भारी भूल होगी, क्योंकि कामायनी का बीज-स्थानीय कवि का कथन वस्तुतः बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसलिए उस पर विचार करना भी आवश्यक है। पहेली जैसा बताये जाने वाले कवि-कथन की स्पष्टता के लिए कामायनी के अन्तिम छन्द में व्यक्त कवि का वह निष्कर्ष सहायक हो सकेगा जिसमें जड और चेतन के समरस होने पर सर्वत्र एक चेतनता को विलसित बताया गया है - समरस थे जड या चेतन सुन्दर साकार बना था चेतनता एक विलसती (जोशी) यहाँ तक आते आते श्रद्धा मनु के भीतर के द्वैत को अद्वैत में बदलने में अपनी भूमिका निभाती है।
कामायनी का कथा विन्यास भी समरसता दर्शन पर आधारित है। प्रथम सर्ग में मनु चिंता से ग्रस्त है। सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद मनु पुनः जीवन आरंभ करता है। कथा तो हम सब जानते हैं। परन्तु अंत में इडा सारस्वत नगर के वासियों के साथ मनु और श्रद्धा के पास जाते हैं । मनु सभी को वह दिखाते हैं जिसका दर्शन वे कर चुके थे। यहाँ आनंद का भाव विलसता हुआ दिखाई पड़ता है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में सामुहिक मुक्ति की बात है। अतः कथा के आरंभ से अंत तक कवि, प्रत्यभिज्ञा दर्शन को अपनी कृति का आधार बनाते हैं।
कई बार यह सवाल भी उठता है कि छायावाद के पंत और प्रसाद दोनों ने दार्शनिक महाकाव्य के रचयिता हैं , पर 'कामायनी' आज भी उतना ही प्रभावित करती है और 'लोकायतन' कितने लोगों ने पढ़ा है , यह एक प्रश्न तब भी था और आज भी है। दर्शन को कथा के साथ काव्य सौन्दर्य के साथ कामायनी में इस तरह घुला दिया गया है कि पढ़ते ही बनता है। फिर मनु के चरित्र का जो आलेखन किया है उससे आप चाहे नारी विमर्श कर लें या मानव विमर्श कह लें – सभी अर्थ प्रकट होते हैं। कामायनी पर कई तरह से विवेचना हुई है। गजानन माधव मुक्तिबोध जब 'कामायनी एक पुनर्विचार' लिखते हैं तब वे सामन्ती शोषण के पक्ष को भी उजागर करते हैं। रमेश कुंतल मेघ- 'कामायनी-एक युटोपिया' अथवा 'अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा' अथवा मिथक की दृष्टि से उस पर विचार करते हैं तो कामायनी का एक नया पहलू हमारे सामने आता है। यह एक ऐसी रचना है, जो अपने विचार और सौन्दर्य के कारण हमेशा ही महत्वपूर्ण रहेगी।
रंजना अरगडे