जिन खोजा तिन पाइयां

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Thursday 17 March 2011

कामायनी पुनर्पाठ

(कामायनी को हम विभिन्न दृष्टियों से पढ़ सकते हैं।




कोई भी रचना बड़ी इसलिए होती है कि वह हर युग में एक नया अर्थ देती है। इस बात की प्रतीति कामायनी पढ़ कर होती है। अगर मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण कामायनी के कथानक को युगीन संदर्भ से जोड़ते हैं या जिस तरह मुक्तिबोध ने उसकी व्याख्या की है, वह भी उसे अपने समय की मार्क्सवादी चेतना के साथ जोड़ देती है, तो हमारे अपने समय के संदर्भ भी उसमें जुड़े हुए दिखते हैं। इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि इडा के मन में जो अपराध भाव है वह मनु के साथ किए गए उसके अपने अथवा प्रजा के व्यवहार को ले कर नहीं है बल्कि एक अन्य स्त्री उसके कारण दुखी हुई है, यह देख कर होता है। यह इडा और श्रद्धा का एक तरह का बहनापे का भाव है। तभी अपनी संतान को इडा के भरोसे छोड़ कर वह (श्रद्धा) मनु की खोज में चल देती है। वह उसे चिर चढी कहती अवश्य है पर इडा के प्रति किसी विश्वास के कारण ही अपने पुत्र को उसके हवाले भी कर पाती है। यहाँ इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि अंत में जब इडा उस स्थान पर जाती है जहां श्रद्धा और मनु है , तब भी मनु के प्रति किए गए व्यवहार के लिए वह शर्मिन्दा नहीं है पर जहाँ मानव श्रद्धा के अंक में समाता है वहीं इडा श्रद्धा के चरणों में यह कहकर गिरती है कि उससे मिल कर वह कितनी कृतार्थ हुई है। श्रद्धा के प्रति कृतीरथता का बोध और अपने बचपने के प्रति सजगता तथा उसका श्रेय श्रद्धा को देना – एक अद्भुत बहनापे का बोध प्रकट करता है।
कामायनी को पढ़ते हुए मुझे इस बात की भी प्रतीति हुई कि इसमें विस्थापन का विमर्श भी है। मनु हमारा पहला विस्थापित है। देव-संस्कृति का अंतिम प्रतिनिधि और मानव संस्कृति का आरंभकर्ता मनु अपनी इच्छा से विस्थपित नहीं हुआ था। पर विस्थापन के जो अनेक कारण हैं, जिनमें प्राकृतिक आपदा भी एक कारण माना जाता है, मनु उसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हो कर हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठा हुआ अपनी बीती जिन्दगी को याद कर रहा है। वह अपने जीवन को ठीक वैसे ही आरंभ करता है, जैसे वह पहले जी रहा था। वहाँ उसके अलावा कोई था नहीं। अतः इस उम्मीद में कि शायद कोई और हो जीवित उसी की तरह वह अन्न-भाग रखता है। उसके पास कोई नया विकल्प नहीं था , जीवन के किसी नए प्रारूप पर सोचने के लिए कोई कारण या प्रेरणा भी नहीं थी। फिर उसकी भेंट श्रद्धा से होती है। श्रद्धा गंधर्व देश की रहने वाली है , इस उत्सुकता से वहाँ आ पहुँचती है कि – सीख लूं ललित कलाओं का ज्ञान- वह अपने पिता की प्यारी संतान है- अर्थात् अपने घर से किसी मजबूरी में या संकट में या दुखी हो कर नहीं चली थी पर अपने विकास के लिए चल पड़ी थी। विस्थापन का एक कारण यह भी है। इस तरह विस्थापित हो कर जो कहीं और जा कर रहते हैं वे ही प्रवासी भी कहलाते हैं।
श्रद्धा आयी तो थी ललित कलाओं का ज्ञान सीखने पर उसका जीवन किसी और दिशा में मुड़ जाता है। जैसा कि हम आगे चलकर देखते हैं कि मनु बहुत जल्दी ही श्रद्धा से विरत हो कर चला जाता है। वह अपनी इच्छा से , असंतुष्टि के कारण हिमप्रदेश छोड़ कर सारस्वत प्रदेश में आ पहुँचता है। वहाँ वह नव-निर्माण करता है, वर्ण जातियों का निर्माण करता है और फिर अपनी ही वृत्तियों के कारण अपना अंत भी देखता है। फिर एक बार वह वहाँ से चल देता है, परन्तु इस बार पलायन करता है और जैसा कि हम जानते हैं आनंद-लोक को प्राप्त होता है। अपनी अंतिम परिणति को प्राप्त करने तक मनु तीन बार विस्थापित होता है। श्रद्धा भी तीन बार विस्थापित होती है। परन्तु दोनों के कारण अलग-अलग हैं। दोनों के कारणों को अगर देखा जाए तो प्राकृतिक आपदा, नूतन ज्ञान की खोज, व्यक्तिगत अहं, स्वजन की चिंता, लज्जा और एक हद तक लोक भय- इन कारणों से विस्थापन हुआ देखा जा सकता है। अंत में मनु-श्रद्धा जहाँ होते हैं, जिसे अब उज्जवलतम और पावनतम तीर्थ कहा जाने लगा था,वहाँ इडा का सबको ले कर जाना एक तरह का सामूहिक एक्ज़ोडस(स्थानांतरण) ही कहा जा सकता है। इतिहास में प्रजाओं का ऐसा एक्ज़ोडस हुआ भी है। इडा सारस्वत प्रदेश के यात्रियों के साथ इसलिए जाती है कि-


सारस्वत नगर निवासी हम आए यात्रा करने
यह व्यर्थ रक्त – जीवनपट जीवन – पीयूष से भरने।
इस वृषभ-धर्मप्रतिनिधि को उत्सर्ग करेंगे जाकर
चिर-मुक्त रहे यह निर्भय स्वच्छन्द सदा सुख पाकर


इडा भूल से उस प्रदेश में आयी है जहाँ समरसता को प्राप्त श्रद्धा और मनु का निवास है। वह कृतार्थ है। मनु का यह कथन-


देखो कि यहाँ पर कोई भी नहीं पराया
हम अन्य न और कुटुंबी हम केवल एक हमीं हैं
तुम सब मेरे अवयव हो जिसमें कुछ नहीं कमी है।
शापित न यहाँ कोई है तापित पापी न यहाँ हैं
जीवन-वसुधा समतल है समरस है जो कि जहाँ है।


विस्थापित हो कर कहीं जा कर बसने वाले इसी बात के लिए लालायित रहते हैं कि उनका स्वीकार हो। इतने सारे विस्थापनों को भोग कर मनु इस भूमिका पर आते हैं।
इस तरह से इस रचना का यह एक और नया आयाम खुलता है। कामायनी आज अपनी भाषा के कारण नई पीढ़ी को हिन्दी की कम संस्कृत की रचना अधिक लगती है। अपने युगीन, अतः जटिल सौन्दर्यबोध के कारण क्लिष्ट भी लगती है, अतः उसकी टेक्स्ट को पढ़ना बहुत दूभर भी लग सकता है। परन्तु इस बात को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि कामायनी आधुनिक काल की ऐसी महत्वपूर्ण कृति के रूप में उभरती है जिसमें आने वाले युगों में भी नए संदर्भों के होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

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