जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Sunday 13 November 2011

HIN 405

भारतीय साहित्य HIN405
हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आवश्यकता तथा अनुभव के परिणामस्वरूप ज्ञान का विस्तार होता है। अपने अनुभव तथा विचार में मनुष्य-समाज जितना व्यापक होता जाता है उतना ही उसके ज्ञान का विस्तार होता है। ज्ञान के विस्तार के साथ अध्ययन – अध्यापन के विषय-क्षेत्रों का भी विस्तार होता है। ज्ञान के जिन बिंदुओं को पहले हमने किसी एक नज़रिए से देखा था वही अध्ययन-अध्यापन का विषय हो जाता है तब एक भिन्न विस्तार पाता है। प्राचीन काल में साहित्य ज्ञान प्राप्ति का भी एक माध्यम था। तभी प्लेटो जैसे चिंतकों को साहित्यकारों के प्रति इतने कड़े निर्णय सुनाने पड़े। लेकिन जब साहित्य स्वयं अध्ययन-अध्यापन का विषय बना, तब पहले की अपेक्षा उसकी उपादेयता का क्षेत्र, अपने विस्तार में सीमित तथा गहराई में अधिक हो गया। इस अर्थ में कि साहित्य अब जीवनानुभव की व्यापकता से सिमट कर विषय-विशेष तक सीमित हो गया। उदाहरण के लिए अपने पाठ्यक्रम में भक्तिकाल को पढ़ कर हम न तो ईश्वर को, न ही मुक्ति को प्राप्त करना चाहते हैं। रामचरितमानस अगर साहित्य है तो केवल साहित्य की दृष्टि से उसे पढ़ा जाने लगा। उसके सभी साहित्येतर आशय हमारे अध्ययन की परिधि से बाहर होते हैं।
भाषाएं प्रायः साहित्य की अभिव्यक्ति का माध्यम रही हैं अतः साहित्य के अध्ययन के साथ ही भाषाएं भी एक निश्चित वर्ग एवं श्रेणी तक सीमित हो गयीं। हम हिन्दी भाषा में लिखा हिन्दी साहित्य, गुजराती भाषा में लिखा गुजराती साहित्य, बंगाली भाषा में लिखा बंगाली साहित्य इत्यादि दृष्टि से इन साहित्यों के विषय में सोचने लगे। समाज में आते परिवर्तन हमारे अध्ययन की आवश्यकता को निर्धारित करते हैं। अंग्रेजों के लिए भारतीय साहित्य अंग्रेज़ी साहित्य से अलगाने वाली एक संज्ञा थी। उनके सामने मुख्य रूप से संस्कृत साहित्य का विशाल भंडार था। अतः उनके लिए संस्कृत साहित्य ही भारतीय साहित्य था। प्राकृत, पाली तथा अन्य आधुनिक आर्य भाषाओं के साहित्य के विषय में उन्होंने गंभीरता से सोचा ही नहीं। इसका एक कारण जहाँ संस्कृत का विशाल समृद्ध भंडार वहीं दूसरी ओर इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि संस्कृत सत्ता की भाषा रही थी। अंग्रेज़ी भी सत्ता की भाषा थी। अतः अपनी बराबरी की भाषा तो अंग्रेज़ों के लिए संस्कृत ही थी।
साहित्यिक दृश्य तथा दृष्टिकोण जो स्वतंत्रता के पूर्व था, स्वतंत्रता के बाद तक आते-आते वह काफी बदल गया था। स्वतंत्रता के बाद भी अंग्रेज़ों द्वारा प्रदत्त दृष्टि से हम लंबे समय तक प्रभावित रहे। अब जा कर, लगभग पिछले दशक से हमारी इस सोच में अंतर आता हुआ दिखाई पड़ रहा है। सन् 2001 में यू.जी.सी ने जो नया पाठ्यक्रम बनाया उसमें एक नये प्रश्न-पत्र के रूप में भारतीय साहित्य को दाखिल किया गया। उस समय भारतीय साहित्य पर एक पुस्तक उपलब्ध थी, भारतीय साहित्य का समेकित इतिहास जिसके लेखक डॉ. नगेन्द्र हैं। तब भारतीय साहित्य के स्वरूप तथा अन्य मुद्दों को स्पष्ट कर सके ऐसी पुस्तकों का अभाव था। असल में इसे एक प्रश्नपत्र के रूप में पढ़ाने की समझ विकसित करने के लिए अध्यापकों के पास भी कोई विशेष सामग्री नहीं थी। 2002 में "भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएं" रामविलास शर्मा की पुस्तक आई। इस पुस्तक में रामविलासजी ने भारतीय साहित्य की इतिहास रचना के संदर्भ में कई महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं। भारतीय साहित्य की अवधारणा से संबंधित भाषा. राष्ट्र आदि प्रश्नों पर भी उन्होंने बड़ी समीक्षात्मक दृष्टि से सोचा है। सन् 2003 में के. सच्चिदानंदनजी की अंग्रेज़ी पुस्तक का अनुवाद "भारतीय साहित्य- स्थापनाएं और प्रस्थापनाएं" प्रकाशित हुई। इसी बीच दो-एक पुस्तकें यू.जी.सी के नए पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए लिखी गईं। (श्री मूलचंद गौतम तथा श्री.रामछबीला त्रिपाठी द्वारा लिखित "भारतीय साहित्य")। इसी बीच विमलेश कांति वर्मा की पुस्तक "भाषा संस्कृति और साहित्य" आई जो पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए तो नहीं लिखी गई परंतु भारतीय साहित्य विषयक समझ को विस्तृत करने वाली तो है ही। इस बीच केन्द्रीय साहित्य अकादमी, दिल्ली की बृहद योजना के अन्तर्गत भारतीय साहित्य के इतिहास (History of Indian Literature) के दो भाग भी प्रकाशित हुए । पहले आठवाँ भाग फिर पाँचवाँ। इन दोनों भागों में भारतीय इतिहास के दो महत्वपूर्ण काल-खंडों की बात है- भारतीय नवजागरण तथा भारतीय भक्तिकाल। श्री. सिसिरकुमार दास जी का यह ऐतिहासिक कार्य भारतीय साहित्य को समझने की दृष्टि से अतुलनीय है। एक ही पट पर एक ही कालखंड की विभिन्न भाषाओं के साहित्य को पढ़ना और जानना एक अद्भुत् अकादमिक अनुभव है।
इन सब पुस्तकों के अध्ययन-पठन के फलस्वरूप और बावजूद कुछ प्रश्न भारतीय साहित्य के विषय में हमेशा बने रहते हैं। कुछ ऐसे प्रश्न भी हैं जो हमें कोंचते रहते हैं। भारतीय साहित्य को पाठ्यक्रम में शामिल करने का यू .जी.सी का इरादा नेक ही रहा होगा, परन्तु यह भी विचारणीय प्रश्न है कि क्या इसे पाठ्यक्रम में शामिल करने से उसके (पाठ्यक्रम में) होने का उद्देश्य सफल हुआ, हो पाया? विद्यार्थियों के बीच भारतीय समाज का परिचय बढ़ा ? क्या युवा पीढ़ी अपने समाज और भाषा से इतर साहित्य और समाज के प्रति संवेदनशील हुआ है ? मेरा ऐसा विचार है कि यह एक धीमी तथा लंबी प्रक्रिया है और निश्चय ही एक दिन इसके अच्छे परिणाम हमें देखने को मिलेंगे। भारतीय साहित्य की अवधारणा के कारण अब तक साहित्य की जो पहचान अथवा अक्स हमारे भीतर था वह सहसा व्यापक हो जाता है। उदाहरण के लिए पहले कालीदास या भास, अथवा रवीन्द्रनाथ या कम्बन किसी और भारतीय भाषा के लेखक थे, परन्तु भारतीय साहित्य के अन्तर्गत वह किसी भी , बल्कि प्रत्येक भारतीय भाषा के लेखक बन जाते हैं।
भारतीय साहित्य का अध्यापन कराते हुए मुझे विद्यार्थियों के पक्ष से कुछ प्रश्नों का सामना करना पड़ा, कुछ ऐसे अनुभव भी हुए जिनके कारण भारतीय साहित्य से संबंधित मुद्दों पर मुझे नए सिरे से सोचने की आवश्यकता लगी है। मुझे यह भी लगा कि इस तरह के पाठ्यक्रम वाक़ई में बहुत आवश्यक हैं। मसलन भारतीयता की परिभाषा देते समय प्रायः उसके सांस्कृतिक संदर्भों में समझाने का किया जाता है जिसमें हम इस बात पर विशेष भार देते हैं कि भारत देश की बहु-भाषी तथा बहु-धर्मी प्रजा को भारतीयता की व्यापक समझ के अन्तर्गत रखना चाहिए। धर्म के प्रति बँधे बँधाए , परंपरागत विचारों के कारण तथा परिवार-प्रदत्त संस्कारों के अभाव अथवा संकीर्णता के कारण इस बात को संप्रेषित करना कई बार बहुत कठिन हो जाता है कि भारतीयता का संबंध किसी एक धर्म से नहीं है। भारत के बाहर रहने वाले हिंदुओं को भारतीय माना जाए या नहीं तथा अगर मुसलमान भी भारतीय है तो भारत बाहर के मुसलमान को क्या कहा जाए। अगर राष्ट्रीयता को भौगोलिक एवं राजनीतिक मर्यादा में रख कर व्याख्यायित करते हुए भारतीयता की पहचान की जाए तो मानवीयता के मुद्दे को किस तरह समझें। फिर भारत के बाहर रहने वाले समान धर्मी लोगों के षय में किस तरह सोचा जाए। फिर मानवीय दृष्टि तो हर साहित्य का लक्षण होती है, ऐसे में भारतीय साहित्य अलग कैसे पड़ता है, उसे अलग कैसे मानेंगे।' दुनिया के मज़ूर एक हो जाओ' की वैश्विक दृष्टि तथा राष्ट्रीय पहचान की( तथाकथित एवं तुलनात्मक दृष्टि से) संकीर्ण दृष्टि के बीच अब भारतीय साहित्य पर विचार करना इसलिए आवश्यक हो गया है कि भारतीय साहित्य पाठ्यक्रम का मुद्दा बन गया है। विचारधारा, राष्ट्रीयता, संस्कृति, मूल्य (इसमें भी विवाद के कई पेंच हैं) आदि मुद्दे प्रवहमान रहते हैं- अतः भारतीय साहित्य की संकल्पना अपनी गहराई में इतनी सरल नहीं है जितनी हमने अपने पाठ्यक्रमों में बना दिया है।
विश्व के फलक पर भारतीय साहित्य हमारी राजनैतिक आवश्यकता भी है, यह कहना बहुत गलत नहीं होगा। अकादमिक रूप से विश्व साहित्य तथा प्रादेशिक साहित्य के बीच की कड़ी के रूप में हम भारतीय साहित्य को देख सकते है और भारतीय तुलनात्मक साहित्य के समानांतर भी उसे समझा जा सकता है। फ़र्क दोनों में यही है कि भारतीय साहित्य के रूप में इन कृतियों को पढ़ने के आधार भिन्न हैं। इन्हीं कृतियों को तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत, अध्ययन के रूप में इन्हें जब पढ़ेंगे तो हमारे आधार अलग होंगे। इसमें भिन्नता और समानता इतनी ही है जितनी सूजी के हलवे तथा उपमा में होती है। मुख्य सामग्री समान है परन्तु उसमें डलने वाले पदार्थ तथा पकाने की प्रक्रिया भिन्न है।
जब कृतियों को भारतीय साहित्य के रूप में पढ़ते हैं तो हमारा ध्यान उसमें निहित भारतीयता को उजागर करना होता है। भाषा, मूल्य तथा संस्कृति की दृष्टि से , चिंतन तथा भाव-ग्रहण की दृष्टि से, सामाजिक व्यवहार तथा समाजिक संरचना की दृष्टि से निर्मित मूल्य-दृष्टि को ध्यान में रखते हुए हम कृति का मूल्यांकन करते हैं। यही सही तरीका भी है। उदाहरण के लिए रवीन्द्रनाथ या विजय तेंदुलकर या तुलसीदास या महाश्वेता देवी आदि किस भारतीय भाषा में लिखते हैं, उस भाषा की विशेषता क्या है। परन्तु हम चूंकि इन कृतियों को अनुवाद में पढ़ते हैं अतः उन भाषाओं के बारे में सीधे-सीधे जान नहीं सकते। यहाँ एक और बात हमारे सामने आती है कि भारतीय साहित्य के अध्ययन में अनुवाद की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन ये सभी कृतियाँ चूंकि भारतीय भाषाओं में हैं अतः यह संभावना बनी रहती है कि कभी हम इन भाषाओं को सीखने की ओर प्रवृत्त होंगे। हम यह भी देकने का प्रयत्न करेंगे कि इन कृतियों में किन भारतीय मूल्यों का स्थापन अथवा विस्थापन हुआ है। भारतीय संस्कृति की कौन-सी विलक्षणताएं इन कृतियों में दिखाई पड़ती हैं। अथवा तो भारतीय संस्कृति की विभिन्नताएं या विकृतियां इन कृतियों में हैं, यह भी हमारे अध्ययन का विषय हो सकते हैं। हमारी पारिवारिक संरचना हमारे पारिवारिक संबंध, हमारी सोच के कितने ही विभिन्न पहलू हमें इन पुस्तकों में दिखाई पड़ते हैं। अपनी बेटी को अपनी राजनीतिक महेच्छा के हेतु बलि चढ़ाने के बाद घासीराम के भीतर जगा अपराध-बोध उसी पारिवारिक संरचना को दर्शाता जो अपनी प्रकृति में भारतीय है। अथवा रवीन्द्रनाथ की असंख्य कविताओं में जो पारिवारिक संबंधों के संकेत है उन्हें भी इस तरह देखा जा सकता है। स्त्री के प्रति भारतीय समाज का दृष्टिकोण भी रवीन्द्रनाथ की कविताओं एवं तेंदुलकर के नाटक में स्पष्ट हो जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि भारतीय साहित्य का अध्ययन निश्चय ही हमारे भीतर अपने प्रति एक आत्मविश्वास जगाने का काम करता है।

No comments:

Post a Comment