जिन खोजा तिन पाइयां

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Tuesday 21 September 2010

सुमन पाल की टिप्पणी का उत्तर



भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक आधार की बात जब हम करते हैं तब सबसे पहले हमें यह समझ लेना होगा कि किसी भी समाज या जाति के सांस्कृतिक आधार उसके साहित्य, कला और भाषा में निहित होता है। साथ ही इसका एक आधार उसकी धार्मिक एवं आध्यात्मिक विश्वासों के साथ भी जुड़ा है। जब हम भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक आधारों की बात करते हैं तो जैसा कि आपको याद होगा हमने प्रस्थान-त्रयी की बात की थी। आज तक का भारतीय साहित्य में अभी भी रामायण, महाभारत, पुराणों आदि के संदर्भ देखे जा सकते हैं। महाभारत एवं रामायण की रचना हुए अनेक वर्ष बीत जाने पर भी उसकी कथा एवं कथा प्रसंगों का आधार बना कर केवल तुलसीदास, दक्षिण के कम्बन आदि ने ही नहीं बल्कि आगे चल कर मैथिलीशरण गुप्त, निराला, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती नरेन्द्र कोहली, भगवान सिंह, बंगाली के रवीन्द्रनाथ टागोर, महाश्वेता देवी गुजराती के उमाशंकर जोशी आदि अनगिन साहित्यकारों ने लिखा और आज भी लिख रहे हैं। आप स्वयं इस बात का पता लगाएंगे तो आपको मालूम होगा कि यह सूची बहुत लंबी है। अर्थात् कथ्य के स्तर पर यह सांस्कृतिक आधार है।
हमारी कलाएँ, हमारी भाषा परंपरा का भी एक ऐसा ही आधार है। यही कारण है कि भारत में प्रायः कवि- लेखक द्विभाषी( दो भाषाएँ जानने वाले ) तो थे ही, बहुभाषी भी थे। तुलसीदास ने ब्रज अवधी दोनों में लिखा, मीरा ने राजस्थानी, ब्रज और गुजराती में लिखा,गुजराती के दयाराम ने ब्रज में भी लिखा- इस तरह भाषा भी एक आधार बनता है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि इतने वर्षों से चले आते हमारे मूल्यबोध भी हमारे सांस्कृतिक आधार हैं। अहिंसा, त्याग, परिवार भावना आदि इसी तरह के मूल्य हैं जो हमारे भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक आधार बनते हैं। मानवीय वृत्तियां तथा भाव मनुष्य-मात्र में समान हो सकते हैं। परन्तु उनकी प्रस्तुति पर समाज और विशेषकर संस्कृति का प्रभाव रहता है। सीतानुमा व्यवहार अ-भारतीय पाठक को विचित्र लग सकता है, पर भारतीय पाठक को नहीं। अतः जिन कृतियों को हम भारतीय कहते हैं उनमें हमारे सांस्कृतिक प्रभाव देखे जा सकते हैं।
किन्तु हमें यह भी याद रखना होगा कि भारतीय संस्कृति विभिन्नता से भरी हुई है अतः हमारे पास अनेक प्रकार के चरित्रों के रोल-मॉडल उपस्थित हैं। अतः स्वकीया सीता आदि के साथ-साथ परकीया राधा के प्रति भी हमारे मन में यथेष्ठ श्रद्धा है। इसीलिए तमाम सामजिक विरोध के बावजूद मीराँ के प्रेम को अथवा अक्क महादेवी के प्रेम को हम स्वीकार करते हैं।

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