जिन खोजा तिन पाइयां

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Wednesday 1 December 2010

कविता का जादू

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किसी भी कवि की श्रेष्ठता का मापदंड उसकी कविता ही होती है। रवीन्द्रनाथ हमारे समय के बड़े कवि हैं इस बात के लिए भी प्रमाण तो उनकी कविता ही है। उनकी श्रेष्ठता के अन्य सारे मापदंड या कारण अगर एक ओर रख दिए जाएं तब भी वे हमारे समय के उतने ही श्रेष्ठ कवि माने जाएंगे जितने पूर्व-काल में हुए कालिदास आदि माने जाते हैं। रवीन्द्रनाथ को मूल में पढ़ने पर बंगाली भाषा का सौन्दर्य अवश्य ही उजागर होता होगा पर उन्हें अनुवाद में पढ़ने पर भी कविता और कविता के माध्यम से मनुष्य तथा मनुष्य-जीवन के सौन्दर्य का जो पक्ष उजागर होता है वह अपने आप में अद्वितीय है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर हमें जानना हो कि यह जो हमारे चारों ओर पल-छिन फैला मनुष्य एवं प्रकृति - जगत है, यह जो हमारे भीतर भावनाओं का अनवरत उमड़ता हुआ सैलाब है वह कविता का रूप-आकार कैसे ग्रहण करते हैं तो अपने समय में हमें रवीन्द्रनाथ जैसे कवियों के पास जाना पड़ता है। जैसे कोई जादूगर हमारी ही आँखों के सामने तरह-तरह के जादू के खेल करता है और हमें आश्चर्य में डालता है ठीक उसी तरह रवीन्द्रनाथ भी अपनी कविताओं से हमें आश्चर्य में डालते हैं। लगातार डालते हैं। ट्रिक जान लेने पर जादू का प्रभाव क्रमशः कम हो जाता है पर रवीन्द्रनाथ की कविताओं का जादू समझ लेने पर भी प्रभाव में कोई कमी नहीं आती। किसी भी कविता में कल्पना का सौन्दर्य क्या होता है इस बात को समझना हो तो भी रवीन्द्रनाथ जैसे कवि ही हमारी मदद कर सकते हैं, करते हैयह हमें उनकी कविताएं पढ़ कर लगता है। हमारे अपने निराला हमे अधिक समझ में आते हैं जब हम रवीन्द्रनाथ को समझ लेते हैं। निराला अगर उनसे प्रभावित थे, तो इससे सहज और स्वाभाविक कोई घटना नहीं हो सकती थी ,ऐसा रवीन्द्रनाथ को पढ़ कर हमें लगता है। अथवा जीबनानंददास को (रणनीति के तहद्) उनका विरोध करके फिर उनका महत्व स्वीकारना पड़ा- अगर इस तथ्य को हम जस-का-तस स्वीकार भी कर लें, तब भी आश्चर्य की बात नहीं लगनी चाहिए क्यों कि इतने वर्षों बाद इतिहास में इतने सारे कवियों को अपने सामने पा कर भी रवीन्द्रनाथ की श्रेष्ठता निर्विवाद बनी हुई है।
रवीन्द्रनाथ की कविता के अनेक आयाम हैं। पर उनकी कविता में सौन्दर्य तथा मानवीयता का पक्ष इतना प्रबल है कि उसे नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है। यही उनकी कविताओं पर आखिरी टिप्पणी भी हो सकती है। उनकी कविताओं में कुछ विशिष्ट संरचनाएं हैं जिनको जान लेने पर यह तुरन्त समझ में आता है कि वस्तुकाव्य-वस्तु में कैसे परिवर्तित होती है। उदाहरण के लिए उनकी निर्झर का स्वप्न-भंग अथवा उर्वशी अथवा अहिल्या जैसी कविताओं को अगर देखा जाए

तो कवि की रुचि केवल दृश्य-जगत में ही नहीं होती अपितु वहाँ होती है जहाँ सामान्य पाठक की कल्पना भी नहीं पहुँचती। निर्झर जैसा बाहर दिखाई दे रहा है वह तो सभी देख रहे हैं- पर पहाड़ों पर जब वह दिखलाई पड़ा उसके पूर्व धरती के भीतर वह किस अवस्था में था, उसके भीतर वे कौन-सी कांक्षाएं थीं, वे कौन-से तत्व थे जिनके कारण निर्झर को बाहर आने की बाध्यता अनुभव हुईकवि पाठक को वहाँ ले जाता है। यह कल्पना-मात्र अद्भुत् है। बाहर जो अद्भुत् सौन्दर्य-रूप में प्रकट है वह भीतर कितने संघर्षों से प्रकट हुआ होता है- इसका भी लेखा-जोखा कवि हमें देता है। यह चाहे रचना/कला का प्रस्फुटन हो, व्यक्ति का प्रस्फुटन हो या राष्ट्र का प्रस्फुटन हो- कोई एक सूरज की किरण, किसी एक पंछी का स्वर ही कारा में बँधे जल को जगाता है। या जब उर्वशी की बात करते हैं तो वह जो स्वयंभू प्रकट हुई है सागर-मंथन में, जो किसी की कन्या है, माता , वधू.... जो संसार को एक पूर्ण विकसित पुष्प की ही भाँति अनन्त यौवना की तरह दिखलाई पड़ी थी- उसका भी कोई बचपन होगा- ऐसी कल्पना कवि करते हैं। यानी वह बाहर आई उसके पूर्व समुन्दर के भीतर उसका बचपन कैसे बीता होगाकवि की उत्सुकता का विषय यह है।
अहिल्या कविता में तो कवि कमाल ही करते हैं। सभी केवल इस बात की ही चर्चा करते हैं कि अहिल्या को श्राप मिला और फिर राम आए और वह फिर शिला से अहिल्या बनी। पर शिला रूप में रहते हुए क्या-क्या होने की संभावना रही होगीकवि कुल गुरु हमें इस दिशा में ले जाते हैं। यह बड़ी ही क्लासिक कविता है। इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें राजा अथवा भगवान राम हैं, देवेन्द्र इन्द्र और ही गौतम ऋषि। इसमें केवल शापित अहिल्या, माता धरती और वह समाज जिसने शिला से बनी अहिल्या को स्वीकार करने के विषय में अपना मन अभी नहीं बनाया है। यह वह यथार्थ है जिसको रवीन्द्रनाथ ने अपनी कविताओं में कभी विस्मृत नहीं किया। उर्वशी के सौन्दर्य में खो जाने के पहले कवि उन धरती की वधू-उर्वशियों को नहीं भूलते जिन्हें शाम होते ही दिया-बाती करनी पड़ती है दिन भर का काम निपटा कर आधी रात को जब निवृत्त हो कर वे अपनी वासर-सज्जा की ओर प्रस्थान करती हैं तब उन्हें लज्जाशील बन कर, सिर झुका कर आहिस्ता से प्रवेश करना पड़ता हैवे थक कर निढ़ाल हो कर सो नहीं सकती क्यों कि वासर-सज्जा में भी प्रवेश की तय रीतियाँ हैं। उर्वशी के अनंत सौन्दर्य और अनंत यौवन के समक्ष धरती की वधुओं की ज़िम्मेदारियों के प्रति कवि की आँखें खुली हुई हैं- यही कवि का गौरव है। अहिल्या कविता में भी कवि की दरकार केवल अहिल्या के भीषण दुख और अपमान भरे क्षणों पर करुणा का शीतल लेप लगाना है क्योंकि राम की स्वीकृति समाज की स्वीकृति हो यह आवश्यक नहीं है। कवि अहिल्या के दुख के सामने पृथ्वी के अनंत कष्टों का वर्णन करते हैं कि कैसे वह दिन-रात जागते हुए मनुष्य-मात्र के द्वारा दिए गए कष्टों को सहते हुए भी उसी के हित में सदैव अन्न और उसके पोषण की चिंता मातृ-भाव से करती है.....अनवरत। कवि मानों अहिल्या को बताना चाहते हैं कि दुखी केवल वह अकेली नहीं। उसी जैसे अनेक शापित, उपेक्षित तथा अपमानित हैं जिनको आश्रय देती है यह धरती। उनकी उपेक्षाओं तथा अपमानों पर करुणा का लेप करती है जिससे उनके अपमान की झुर्रियाँ समतल हो जाती हैं। इसमें कवि-कुल-गुरु की कल्पना की ऊँचाई तो यहाँ है कि इतने वर्षों तक शिला बनी अहिल्या जब फिर स्त्री बनी होगी तो निश्चित ही वस्त्रों का क्या- वह कैसे प्रकट हो गई होगी सबके सामने तो कहते हैं कि शिला रूप में तुम पर जो काई जमा हो गई होगी और निरंतर वर्षा से जो चिकनी और चमकीली औऱ सघन बन गई होगी ; जैसे कोई माता अपनी पुत्री को विदा के समय रेशमी वस्त्र दे कर विदा करती है उसी तरह इन शैवाल के चमकीले वस्त्रों से धरती ने तुम्हें विदा किया। कवि का ध्यान उन बातों की तरफ जाता है जहाँ औरों का नहीं जाता। अहिल्या से शिला बनने के चमत्कार के साथ जो ज़मीनी समस्याएं हैं- कि कैसे कोई इतने वर्षों बाद सजीवन होने पर समाज के सामने प्रकट हो सकती है- इसका कवि को ख़याल है। रवीन्द्रनाथ की अहिल्या में धरती भी एक चरित्र बन जाती है जैसे। उःशापित अहिल्या और अग्नि-परीक्षा पार करने के बाद भी समाज के द्वारा इन स्त्रियों का कोई सहज स्वीकार तो नहीं ही हुआ था- इस बात को कवि-कुल-गुरु कहना भूलते नहीं।
संभवतः इसीलिए उनकी देवयानी कच को सरलता से छोड़ती नहीं है। स्त्री की शक्ति का जो रूप हमें देवयानी में मिलता है वह इसलिए आकर्षक भी लगता है कि वह बोलती है। वह कच को यह प्रतीत कराती है कि इस तरह प्रेम के नाम पर बेवकूफ़ बना कर जाने का समय अब समाप्त हो गया है। हमारी अपनी मल्लिकाएं उसके बाद तक साहित्य में आती रही हैं। पर वह स्त्री है अतः परशुराम से तो अधिक सहृदय है अतः शाप उसका यह है कि विद्या औरों को दोगे तो काम आएगी, तुम उसका उपयोग नही कर सकोगे।
सौन्दर्य तो कवि की दृष्टि में होता है। कृष्णकली कविता इसका उदाहरण है। लोग तो कहते हैं कलूटी मझे वह लगती है कृष्णकली। नाम भर के परिवर्तन से आशय भी बदल जाता हैइसका अद्भुत उदाहरण यह कविता है। इस कविता को पढ़ कर उसके कई संदर्भ निकल सकते हैं मसलन समाज के एक वर्ग विशेष को अपमान-जनक तरीके से बुला कर ही अपमानित किया गया है। एक कवि ही होता है जो इस अपमान को इस तरह सम्मान और फलतः सौन्दर्य मे बदल दे कि वह कलूटी हमें फिर कभी गंदी और बदसूरत लग सके। यह कविता पढ़ते हुए निराला के भिक्षुक शीर्षक में रही मानवीयता का अर्थ, तदिजनित सौन्दर्य के स्रोत का अंदाज़ा होता है वहीं विधवा कविता में विधवा को देखते निराला के चित्र के एक स्रोत का पता चलता है। श्रमिक बालाओं के सौन्दर्य को देखने की दृष्टि भी यहीं से मिलती है इसीलिए रानी और कानी के प्रति हमारे मन में एक स्वीकार और करुणा तथा सम्मान का भाव भी जागता है।
रवीन्द्रनाथ जब कल्पना की ऊँचाइयों में उड़ते हैं तो उनके पाँव ठोस, खुरदुरी ज़मीन पर दृढता से टिके हुए होते हैं। यह अपने आप में आश्चर्य एवं सोचने की बात है कि रामायण जैसी एक ही कृति में स्त्रियों को आश्रय धरती का लेना पड़ता है।वाल्मिकी की करुणा केवल क्रौंच-वध तक नहीं थी उसका विस्तार काव्य में अहिल्या और सीता के इस दुख तक व्याप्त है। रवीन्द्रनाथ उसी आदी करुणा का विस्तार अपनी कविता में भी करते हैं। इसी करुणा का एक रूप अभिसार कविता में है जहाँ वसंत ऋतु में रोगिष्ट, उपेक्षित मरणासन्न वासवदत्ता के कष्ट का निवारण करने उपगिप्त सन्यासी पहुँचता है। यह वही करुणा है जो मोइत्र मोशाय को बाध्य करती है कि वह नदी में कूद कर उस बालक को बचा ले या उस पुराने नौकर को अपने मालिक, स्वामी की पीड़ा ही नही उसके रोग और मृत्यू को भी ले लेने में बाध्य करता है। करुणा का जो भारतीय पक्ष है उसे रवीन्द्रनाथ की कविता का ताना-बाना कहा जा सकता है- जिस पर सौन्दर्य , कल्पना , चिंतन और लय के ऐसे अद्भुत चित्र बने हुए हैं कि आप चाहे तो उनका आनंद भी ले कर संतुष्ट हो सकते हैं। करुणा के ताने बाने को छूते ही कल्पना, सौन्दर्य और लय का स्वरूप ही मानों परिवर्तित हो जाता है। उनके अर्थ बदल जाते हैं। कविता का आशय भी बदल जाता है। यही रवीन्द्रनाथ की कविताओं का जादू है।

1 comment:

  1. हिंदी कव्यसाश्त्र में लक्षण एवं लक्ष्य ग्रंथो के महत्व पर प्रकाश डालिए |

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