जिन खोजा तिन पाइयां

इस ब्लॉग में विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के उत्तर देने की कोशिश की जाएगी। हिन्दी साहित्य से जुड़े कोर्सेस पर यहाँ टिप्पणियाँ होंगी,चर्चा हो सकेगी।

Monday 7 November 2011

मिथक और सर्जनात्मक अर्थवत्ता- बाणभट्ट की आत्मकथा के संदर्भ में


(HIN502 में काव्य-शास्त्र के कोर्स में मिथक विषयक कुछ मुद्दे हैं। संभवतः उन मुद्दों को समझने में यह निम्नलिखित विश्लेषण आपके काम आ सकता है।)
साहित्य स-शब्द रचना है और शब्द की सार्थकता अर्थ की उपस्थिति में ही है क्योंकि निरर्थक शब्द-रचना मात्र विक्षिप्तता के अलावा और क्या है। अन-गढ़ ध्वनि भी कई बार सार्थक होती है जब किसी विशेष अवसर पर पशु-पंखी उसका प्रयोग करते हैं। साहित्य-कृति अर्थ की अपेक्षा जगाती ही है- इसे तो हमें मान कर चलना चाहिए। साहित्य पठन में एक सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि अर्थ का बोधन या अर्थ का ग्रहण कैसे होता है और कैसे किया जाए। क्या यह बोधन रचना की संरचना द्वारा, कथा द्वारा या उसके समसामयिकत्व द्वारा होता है। क्या यह रस द्वारा होता है, अलंकारों द्वारा, वक्रोक्ति द्वारा रीतियों द्वारा मिथकों द्वारा होता है। कृति और पाठक के बीच संप्रेषण की कितनी क्षमता है और यह भी एक मुद्दा है।

सही अर्थों में जिसे हम क्लासिक साहित्य कहते हैं वह हमारी साहित्यिक समझ के विकसित होने के साथ-साथ हमें अधिक समझ में आता है। उदाहरण के लिए बाणभट्ट की आत्मकथा कृति की बात लें। विद्वानों ने, शोध-कर्ताओं ने और आलोचकों ने इस कृति पर बहुत लिखा है। एक प्रसंग में नामवरजी ने बिना किसी विश्लेषण और टिप्पणी के इसे हजारीप्रसादजी का सबसे उत्तम उपन्यास बताया था। इस सूत्रात्मक आलोचना को आप क्रमशः यानी आपकी बुद्धि के क्रमशः विकास के साथ समझ सकते हैं।

बाणभट्ट् को पहली बार पढ़ा था जब मैं संभवतः कॉलेज में पढ़ती थी और सबसे पहले मैं उसकी भाषा के ज़बरदस्त प्रभाव में थी क्योंकि भाषा के कारण ही मुझे वह कम ही समझ में आया था, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उपन्यास ने मुझे प्रभावित किया था, मुझे वह अच्छा लगा था। हजारीप्रसादजी के प्रति मेरे मन में एक आदर का भाव जगा था। यहाँ इस बात का ध्यान रहे कि यह प्रतिक्रिया एक हिन्दीतरभाषी पाठक की है जो हिन्दीतर भाषी प्रदेश में रह रहा हो और अभी केवल स्नातक कक्षा में पढ़ रहा हो।

दूसरी बार उसे तब पढ़ा था जब एम.ए के पाठ्यक्रम में उसे शामिल किया गया था और तब मेरी समझ में आया था कि यह एक उदात्त किस्म की प्रेम कहानी है। आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है कि उसी वर्ष अज्ञेय का नदी के द्वीप भी एम.ए के पाठ्यक्रम में पढ़ा था पर न तो तब मुझे ऐसा लगा और संभवतः न ही मेरे अध्यापकों को, अथवा उन्होंने यह बात हमको नहीं बताई कि इन दोनों में साम्य भी है—वस्तु तथा शिल्प दोनों ही दृष्टियों से ।
यह बात तब मेरी समझ में आई जब तीसरी बार दो एक वर्ष के लिए विशेष साहित्यकार के रूप में हजारीप्रसाद को मैंने पढ़ाया। मुझे लगा कि मनोवैज्ञानिक शिल्प का उपयोग सबसे पहले तो बाणभट्ट में हमें मिलता है।

लेकिन अब जब उसे पढ़े-पढ़ाए वर्षों हो गए तो अचानक मुझे यह समझ में आया कि बाणभट्ट की आत्मकथा के शिल्प में हजारीप्रसाद केवल एक औपन्यासिक छद्म नही रचते , वह केवल एक गल्प नहीं है, बल्कि एक ऐसी सुविचारित एवं सुगठित रचना है जो अपनी संरचना में ही मिथकीय है। भट्टिनी उस पृथ्वी की तरह है जो छोटे राजकुल के कीचड़ में फँसी हुई है। महावराह और कोई नहीं बल्कि बाणभट्ट ही है जो उसे इसमें से बाहर निकाल कर उसका उद्धार करता है। असल में देखा जाए तो यह मिथक ही इस उपन्यास का स्ट्रक्चर बनाता है, उसकी संरचना का निर्माण करता है। जैसे कोई अपनी मूल्यवान वस्तु को सात पर्दों में छिपा कर रखता है वैसे ही हजारीप्रसाद ने इसके स्ट्रकचर को रखा है।मज़े की बात तो यह है कि इस स्ट्रकचर के निर्माण में इतिहास उनकी मदद करता है। उपन्यास की इस मिथकीय संरचना को बनाने में इतिहास के साथ-साथ वर्तमान युगबोध उनकी मदद करता है। वराह अवतार से लेकर भक्ति-आंदोलन की पृष्ठभूमि के रूप में वैष्णव धर्म के प्रवेश के संकेत, बौद्ध धर्म,कापालिकों, दस्यु- यानी विदेशी ताकतों का आना, और वर्तमान युगबोध के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन के प्रभाव का चित्र इस उपन्यास का व्याप और विस्तार बनाता है जो इसकी बड़ी ताक़त है।

मिथक किस तरह यथार्थ में तब्दील हो सकता है और साथ ही हमें एक फैंटेसी लोक में ले जा सकता है, हमें भ्रमित कर सकता है, हम उसके निर्देशित झूठ को झूठ मान कर भी ख़ुश रह सकते हैं, उसे महान् बता सकते हैं- इसका उत्तम उदाहरण यह उपन्यास है।

अध्ययन की दृष्टि से इस उपन्यास में तीन बिन्दु हैं-
1-पुराण- प्रतीक (कथा में एक प्रसंग की तरह) मिथक के स्तर पर संरचना पक्ष
2-इतिहास (कथा का मुख्य अंश देश-काल) गल्प पक्ष
3-वर्तमान युगबोध (व्यंजना के स्तर पर) अर्थ पक्ष

हजारीप्रसादजी का कौशल यह है कि मध्य-बिन्दु (इतिहास तथा गल्प) ने संरचना और अर्थ दोनो को अवगुंठित कर दिया है। उन्होंने गल्प को ही रेखांकित किया है। और ऐसे किया है कि अगर आप छद्म पाठक हैं तो गल्प में ही प्रसन्न हो सकते हैं और लेखक की महानता पर आँच भी नहीं आती। वह निर्विवाद साबित हो जाती है। संभवतः यही भारतीयता का भी एक उदात्त लक्षण है-सत्य को अवगुंठन में रखना। हाँ, अगर आप साहित्य मर्मज्ञ हैं और सहृदय हैं तभी संपूर्ण अर्थ तक पहुँचने की दिशा में जा सकेंगे। श्रृंगार, अद्भुत्, करुणा, वीभत्स, हास्य वीर तथा शांत – इन सभी रसों और भावों से सिंचित यह कृति नए-नए अर्थ हमारे सामने खोलती है।

इस उपन्यास की जो प्रकट संरचना है वह तो यही कि लेखक को दीदी से बाणभट्ट की आत्मकथा मिली और फिर वह प्रकाशित हुई। यह इसकी संरचना का बाहरी पक्ष है। यही इतना लुभाने वाला है कि हम दीदी को कहीं भट्टिनी के साथ जोड़ने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। कहीं यह उनकी प्रेम-कहानी न हो, इत्यादि। लेकिन जैसे ही हम बाणभट्ट की आत्मकथा में प्रवेश करते हैं और कथा आगे बढ़ती है तो भट्टिनी का महावराह की उपासना करना आदि से हम परिचित होते हैं। बाण भट्ट में भट्टिनी महावराह की उपासना करती है। इस औपन्यासिक तथ्य को कई तरह से देख सकते हैं। लेखक ने तत्कालीन इतिहास के उन प्रसंगों का इतने सुचारु रूप से गुंफित किया है कि महावराह की उपासना को हम उस समय के ऐतिहासिक संदर्भ के रूप में ही लेते हैं। लेकिन उपन्यास में जिस तरह भट्टिनी और भट्टिनी का तरह ही अन्य स्त्रियों के अपहरण तथा शोषण की कथा आती है, निपुणिका जिस विश्वास से बाणभट्ट को भट्टिनी को बचा लेने के लिए प्रेमभरा आदेश ही (एक तरह से) देती है, हमें समझ में आता है कि पूरी कथा की संरचना ही महावराह का मिथक है। मिथक कृति के अर्थ को खोलने में मदद रूप इसी तरह होते हैं और साथ ही कृति के सर्जन तथा सौन्दर्य में भी अपनी भूमिका निभाते हैं। यह मिथक इस कृति की आंतरिक संरचना बन जाता है। हजारीप्रसादजी इस मिथक को इतिहास तथा वर्तमान के साथ जोड़ते हैं और उसमें एक नया अर्थ भरते हैं। इस मिथकीय संरचना के कारण कृति विशिष्ट बनी है। यह केवल ऐतिहासिक कथा-वस्तु वाला सामाजिक समस्या का निरूपण करता एक सपाट उपन्यास बनने से बच गया है। जिस समाज में स्त्रियाँ इस तरह का सामुहिक संकट झेलती हैं, वे अवश्य ही किसी न किसी महावराह की प्रतीक्षा करती हैं। महावराह संकट में पड़ी स्त्रियों की सामुहिक आकांक्षा का प्रतीक बन जाता है। अतः यह मिथक है।

इस उपन्यास में ऐतिहासिकता का महत्व इसलिए भी अधिक है कि इतिहास के देश और काल में मिथक भी रोपा गया है और लेखक का अपना वर्तमान युगबोध, जिसमें स्वतंत्रता संघर्ष का आवेश और जोश है- वह भी महामाया के माध्यम से रोपा गया है। इतिहास वह स्पेस है जहाँ वर्तमान और आदिम समय की सहोपस्थिति संभव हो सकती है।

वर्तमान बोध और मिथक के कारण ही यह ऐतिहासिक कृति हजारीप्रसाद के अन्य उपन्यासों से तुलना में श्रेष्ठ ही नहीं है अपितु अन्य ऐतिहासिक कथावस्तु वाले उपन्यासों में वह अपना एक अलग स्थान भी रखता है।

3 comments:

  1. mem hame saundrya tatva ki drushti se mithak ko samjhane ke liye ye post bahot hi upyogi hai. parantu mam thoda vistrit rup se unit.5 me jo mukt chhand ke bare me bataiye? Pal Suman S.

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  2. मुक्त छन्द के बारे में शीघ्र ही एक पोस्ट भेजूँगी। पर मेरी यह अपेक्षा है कि अब आप हिन्दी में चाईप करना सीख चुकीहैं, तो अपनी टिप्पणियाँ हिन्दी में लिखने की आदत डालें।

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  3. THANKS MADAM
    I READ RECENTLY 'ATMKATHA'. APKI VYAKHYA PASAND AAYI. BAS DIWEDI JI NE JO KATHA WA DIDI KO JOD DIYA TO AB TAK BHRM HAI KI KYA SACH ME KOI DIDI THI. KRIPYA BATAYE ?
    PUNASCH; MAI HINDI ME NAHI LIKH PATA.

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