जिन खोजा तिन पाइयां

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Tuesday 22 July 2014

केदारनाथ सिंह की कविता




मित्रो, नमस्कार। मैं रंजना अरगडे, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद आज गुरुवाणी गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदाबाद में आपका इस नए सत्र में स्वागत करती हूँ। सत्र के आरंभ में हम आज, अभी कुछ ही समय पूर्व घोषित भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित हिन्दी के वरिष्ठ कवि श्री केदारनाथ सिंह के विषय में जानकारी लेंगे तथा उनकी कुछ रचनाएं सुनेंगे।
आप को यह पता ही होगा कि ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय भाषाओं में दिया जाने वाला हमारे देश का सर्वोच्च साहित्यक सम्मान है। इस सम्मान को प्राप्त करने की दो अनिवार्य प्राथमिक शर्तें हैं – पहली, भारत का नागरिक होना और दूसरी, संविधान की आठवीं अनुसूची में बताई गई 22 भाषाओं में से किसी भाषा में लिखने की योग्यता होना । सम्मान किसे दिया जाए, इसका फैसला भारतीय  ज्ञानपीठ न्यास लेता है। इस वर्ष प्रसिद्ध ओडिशी कवि सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता में गठित चयन समिति ने यह निर्णय लिया कि वर्ष 2013 का ज्ञानपीठ सम्मान हिंदी के जाने माने कवि केदारनाथ सिंह को प्रदान किया जाएगा। सम्मान के रूप में श्री केदारनाथ सिंह को 11 लाख रुपये, प्रशस्ति पत्र और सरस्वती प्रतिमा प्रदान की जाएगी। इस सम्मान पाने वाले, केदारनाथ सिंह, हिंदी के 10वें रचनाकार हैं। इनके पहले हिन्दी में यह सम्मान श्री सुमित्रानंदन पंत को 1968 में, श्री रामधारीसिंह दिनकर को 1972 में, अज्ञेयजी को 1978 में, श्रीमती महादेवी वर्मा को 1982 में, श्री नरेश मेहता को 1992 में मिला था । सन् 1999 में यह सम्मान संयुक्त रूप से हिन्दी के निर्मल वर्मा तथा पंजाबी को गुरदयाल सिंह को मिला, फिर 2005 में कुँवर नारायण जी को, पुनः 2009 में यह सम्मान हिन्दी के ही दो रचनाकारों श्री अमरकांत एवं श्रीलाल शुक्लजी को संयुक्त रूप में मिला। और अब 2013 में यह श्री. केदारनाथ सिंह को मिल रहा है।
मित्रो, केदारनाथ जी का गुजरात से भी संबंध रहा है। हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि श्री शमशेर बहादुर सिंह जिन्होंने अपना अंतिम समय गुजरात में बिताया, उनसे मिलने वे सुरेन्द्रनगर गए थे। गुजरात विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से भी उनका नाता रहा है। हमारे विश्वविद्यालय में उनपर भूतपूर्व आचार्य हिन्दी विभाग, स्वर्गस्थ पद्मश्री भोलाभाई पटेल के निर्देशन में शोध कार्य भी हुआ है। इसलिए इस सम्मान की घोषणा हमारे लिए वैसे ही है जैसे हमारे किसी आत्मीय को यह सम्मान मिला हो।  श्री केदारनाथ सिंह का जन्म 1934 ई॰ में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गाँव में हुआ था। उन्होंने बनारस विश्वविद्यालय से 1956 ई॰ में हिन्दी में एम॰ए॰ और 1964 में पी-एच॰ डी॰ की उपाधि प्राप्त की। पीएच.डी के लिए आपने बिम्ब विधान पर काम किया। यह इस विषय में हिन्दी में पहला शोध है। आज भी हिन्दी कविता में शोध करने वालों के लिए बिम्ब को समझने के लिए यह प्रथम एवं अत्यन्त गंभीर एवं विश्वसनीय पुस्तक मानी जाती है।  केदारनाथजी ने गोरखपुर में  कुछ दिन हिंदी का अध्यापन किया और बाद में उन्होंने भारत के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली में भारतीय भाषा केंद्र में बतौर आचार्य और अध्यक्ष काम किय। वहीं से वे अध्यक्ष पद पर से निवृत्त हुए।
ज्ञानपीठ सम्मान के अतिरिक्त डॉ. केदारनाथ सिंह ने अपने जीवनकाल में अनेक अन्य प्रतिष्ठित पुरुस्कार प्राप्त किए हैं जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं उन्हें सन् 1989 में -" अकाल में सारस" के लिये केन्द्रीय साहित्य अकादमी दिल्ली का पुरस्कार प्राप्त हुआ था।  इसके अलावा मध्य प्रदेश सरकार का  मैथिलीशरण गुप्त सम्मान,  केरल का कुमारन आशान पुरस्कार, दिनकर पुरस्कार, उडीशा का जीवनभारती सम्मान तथा प्रतिष्ठित व्यास सम्मान। इससे पता चलता है कि केदारनाथ जी की समग्र भारत में एक कवि के रूप में अपनी एक प्रतिष्ठा है, पहचान है।
जटिल विषयों पर बेहद सरल और आम भाषा में लेखन, केदारनाथजी की  रचनाओं की मूलभूत विशेषता है। उनकी सबसे प्रमुख लंबी कविता 'बाघ' है।  इसे मील का पत्थर कहा जाता है। वर्तमान राजनीति की जटिलता और इसमें सामान्य मनुष्य की जो स्थिति है उसे, इस कविता में बखूबी प्रस्तुत कियी गया है। यह कविता जब लिखी गयी तब वह तत्कालीन सत्ता के चरित्र को समझने एवं समझाने में बहुत कामयाब रही। हमारे समय के जटिल सामजिक-सांस्कृति –राजनैतिक यथार्थ को अत्यन्त संवेदनशीलता के साथ तथा मानवीय संबंधों के मूल्यों की महत्ता को केदारनाथ सिंह की कविता में बहुत शिद्दत के साथ देखा जा सकता है।
हर कवि अपनी परंपरा से कुछ न कुछ लेता है। इलिएट के शब्दों को याद करें तो कह सकते हैं कि सर्वथा मौलिक कोई नहीं होता।  प्रत्येक कवि अपनी परंपरा से ग्रहण करता है। केदारनाथ ने जहाँ भारतीय गीत परंपरा से ग्रहण किया वहीं उनकी कविता में जातक परंपरा का भी प्रभाव है। एम.ए. के पाठ्यक्रम में उनकी एक कविता आप पढ़ते हैं -कुदाल। इस कविता पर कुद्दाल जातक  का प्रभाव है।  केदारनाथ की कविता की वास्तववादी परंपरा पर जहाँ मार्कस्वाद का प्रभाव है वहीं जातक परंपरा का भी प्रभाव है ऐसा कहा जा सकता है।
उनकी काव्य-यात्रा अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक में शामिल रचनाओं से आरंभ होती है। अभी बिल्कुल अभी के बाद लगभग 20 वर्षों के अंतराल के बाद उनका संग्रह ज़मीन पक रही है का प्रकाशन हुआ जिसने केदारनाथ की एक विशिष्ट पहचान बनाई। फिर अकाल में सारस आता है जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। केदारनाथ जन चेतना को जिस सघन वैयक्तिक अनुभूति के रूप में रचनात्मक चमत्कार एवं बिंबात्मक कौशल के साथ प्रस्तुत करते हैं कि जन-जीवन के सामान्य चित्र एकदम विशिष्ट एवं नए प्रतीत होते हैं। चाहे उजाड़ में पड़े ट्रक पर फैलती वनस्पति हो या टमाटर बेचती बुढ़िया और या मैदान में खेलते बच्चे अथवा माँझी का पुल हो या कविता में अचानक मिलने वाले त्रिलोचन अथवा टॉलस्टॉय हों- केदारनाथ की कविता में आ कर वे एकदम नए और भिन्न हो जाते हैं। यूं भी कवि का और क्या काम होता है, हमारे ही जगत को हम से अलग और मार्मिकता दे देख कर वह हमें उसे देखने की दृष्टि देता है। अभी बिल्कुल अभी से हुई उनकी काव्य यात्रा का वर्तमान पड़ाव है सृष्टि पर पहरा। कविता की उपरोक्त पुस्तकों के अलावा यहाँ से देखो, बाघ, उत्तर कबीर और अन्य रचनाएं, तॉलस्तॉय और साइकिल भी उनके प्रसिद्ध संग्रह हैं।
कविता के अलावा उन्होंने गद्य की अनेक पुस्तकें रची हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिन्दी कविता में बिंब विधान, मेरे समय के शब्द, मेरे साक्षात्कार इत्यादि। गद्य की इन पुस्तकों के अलावा ताना-बाना नाम से भारतीय कविताओं का एक चयन किया , समकालीन रूसी कविताओं का भी चयन किया, कविता दशक नाम से एक पुस्तक संपादित की तथा साखी एवं शब्द नाम की दो अनियतकालीन पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
इन दिनों वे दिल्ली के साकेत में रहते हैं.
आइए, उनकी कुछ कविताएं सुनें
























बनारस / केदारनाथ सिंह (संग्रह: यहाँ से देखो / )

इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है

जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्‍वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन

तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़

इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है

यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से

कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्‍यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है

जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्‍थंभ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्‍थंभ
आग के स्‍थंभ
और पानी के स्‍थंभ
धुऍं के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्‍थंभ

किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्‍य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!

सन् ४७ को याद करते हुए / केदारनाथ सिंह

तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह?
गेहुँए नूर मियाँ
ठिगने नूर मियाँ
रामगढ़ बाजार से सुरमा बेच कर
सबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँ
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह
?
तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
तुम्हे याद है शुरु से अखिर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़ घटा कर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर
क्यों चले गए थे नूर मियाँ
?
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहाँ हैं
ढाका
या मुल्तान में
?
क्या तुम बता सकते हो
?
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में
?
तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह
?
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है
?
1982
जब वर्षा शुरु होती है / केदारनाथ सिंह
जब वर्षा शुरु होती है
कबूतर उड़ना बन्द कर देते हैं
गली कुछ दूर तक भागती हुई जाती है
और फिर लौट आती है

मवेशी भूल जाते हैं चरने की दिशा
और सिर्फ रक्षा करते हैं उस धीमी गुनगुनाहट की
जो पत्तियों से गिरती है
सिप् सिप् सिप् सिप्

जब वर्षा शुरु होती है
एक बहुत पुरानी सी खनिज गंध
सार्वजनिक भवनों से निकलती है
और सारे शहर में छा जाती है

जब वर्षा शुरु होती है
तब कहीं कुछ नहीं होता
सिवा वर्षा के
आदमी और पेड़
जहाँ पर खड़े थे वहीं खड़े रहते हैं
सिर्फ पृथ्वी घूम जाती है उस आशय की ओर
जिधर पानी के गिरने की क्रिया का रुख होता है।



नदी / केदारनाथ सिंह

अगर धीरे चलो
वह तुम्हे छू लेगी
दौड़ो तो छूट जाएगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जाएगी कहीं भी
यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी
छोड़ दो
तो वही अंधेरे में
करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में

सच्चाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी

प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई

कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए
तो किवाड़ों पर कान लगा

धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी!

रचनाकाल
 : 1983

मेरी भाषा के लोग / केदारनाथ सिंह

मेरी भाषा के लोग
मेरी सड़क के लोग हैं
सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग

पिछली रात मैंने एक सपना देखा
कि दुनिया के सारे लोग
एक बस में बैठे हैं
और हिन्दी बोल रहे हैं
फिर वह पीली-सी बस
हवा में गायब हो गई
और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिन्दी
जो अन्तिम सिक्के की तरह
हमेशा बच जाती है मेरे पास
हर मुश्किल में

कहती वह कुछ नहीं
पर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभ
कि उसकी खाल पर चोटों के
कितने निशान हैं
कि आती नहीं नींद उसकी कई संज्ञाओं को
दुखते हैं अक्सर कई विशेषण

पर इन सबके बीच
असंख्य होठों पर
एक छोटी-सी खुशी से थरथराती रहती है यह
 !
तुम झाँक आओ सारे सरकारी कार्यालय
पूछ लो मेज़ से
दीवारों से पूछ लो
छान डालो फ़ाइलों के ऊँचे-ऊँचे
मनहूस पहाड़
कहीं मिलेगा ही नहीं
इसका एक भी अक्षर
और यह नहीं जानती इसके लिए
अगर ईश्वर को नहीं
तो फिर किसे धन्यवाद दे
 !

मेरा अनुरोध है

भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध

कि राज नहीं
भाषा
भाषा — भाषा — सिर्फ़ भाषा रहने दो
मेरी भाषा को ।

इसमें भरा है
पास-पड़ोस और दूर-दराज़ की
इतनी आवाजों का बूँद-बूँद अर्क
कि मैं जब भी इसे बोलता हूँ
तो कहीं गहरे
अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु
यहाँ तक कि एक पत्ती के
हिलने की आवाज़ भी
सब बोलता हूँ ज़रा-ज़रा
जब बोलता हूँ हिंदी


पर जब भी बोलता हूं
यह लगता है

पूरे व्याकरण में
एक कारक की बेचैनी हूँ
एक तद्भव का दुख
तत्सम के पड़ोस में ।

सृष्टि पर पहरा (कविता) / केदारनाथ सिंह

जड़ों की डगमग खड़ाऊं पहने
वह सामने खड़ा था
सिवान का प्रहरी
जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस-
एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्ष
जिसके शीर्ष पर हिल रहे
तीन-चार पत्ते

कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज तीन-चार पत्तों का हिलना

उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते

जे.एन.यू. में हिंदी / केदारनाथ सिंह

जी, यही मेरा घर है
और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थी
वह पहली कुल्हाड़ी
जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया था

इस पत्थर से आज भी
एक पसीने की गंध आती है
जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर की
गंध है--
जिससे खुराक मिलती है
मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को

इस घर से सटे हुए
बहुत-से घर हैं
जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से पत्थर
और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह
कि हर घर अपने में बंद
अपने में खुला

पर बगल के घर में अगर पकता है भात
तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है
मेरे किचन में
मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक
साफ़ सुनाई पड़ती है
और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ

अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर
इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी
कि यहाँ किसी का नम्बर
किसी को याद नहीं
 !

विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ फूल भी एक सवाल है
और बिच्छू भी एक सवाल
मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा आदमी
जिसके कंधे पर अंगौछा था
और हाथ में एक गठरी
अंगौछा’- इस शब्द से
लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ
और वह भी जे. एन. यू. में
 !

वह परेशान-सा आदमी
शायद किसी घर का नम्बर खोज रहा था
और मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद
वह हो गया था निराश
और लौट रहा था धीरे-धीरे

ज्ञान की इस नगरी में
उसका इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा
जैसे मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप्
कुछ देर मैंने उसका सामना किया
और जब रहा न गया चिल्लाया फूटकर--
विद्वान लोगो ! दरवाज़ा खोलो
वह जा रहा है
कुछ पूछना चाहता था
कुछ जानना चाहता था वह

रोको.. उस अंगौछे वाले आदमी को रोको...
और यह तो बाद में मैंने जाना
उसके चले जाने के काफ़ी देर बाद
कि जिस समय मैं चिल्ला रहा था
असल में मैं चुप था
जैसे सब चुप थे
और मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी
जो मेरे परिसर में अकेले चिल्ला रही थी ।

बढ़ई और चिड़िया / केदारनाथ सिंह

वह लकड़ी चीर रहा था
कई रातों तक
जंगल की नमी में रहने के बाद उसने फैसला किया था
और वह चीर रहा था

उसकी आरी कई बार लकड़ी की नींद
और जड़ों में भटक जाती थी
कई बार एक चिड़िया के खोंते से
टकरा जाती थी उसकी आरी

उसे लकड़ी में
गिलहरी के पूँछ की हरकत महसूस हो रही थी
एक गुर्राहट थी
एक बाघिन के बच्चे सो रहे थे लकड़ी के अंदर
एक चिड़िया का दाना गायब हो गया था

उसकी आरी हर बार
चिड़िया के दाने को
लकड़ी के कटते हुए रेशों से खींच कर
बाहर लाती थी
और दाना हर बार उसके दाँतों से छूट कर
गायब हो जाता था

वह चीर रहा था
और दुनियाँ


दोनों तरफ़
चिरे हुए पटरों की तरह गिरती जा रही थी
दाना बाहर नहीं था
इस लिये लकड़ी के अंदर ज़रूर कहीं होगा
यह चिड़िया का ख़्याल था

वह चीर रहा था
और चिड़िया खुद लकड़ी के अंदर
कहीं थी
और चीख रही थी।रक्त में खिला हुआ कमल
/ केदारनाथ सिंह
मेरी हड्डियाँ
मेरी देह में छिपी बिजलियाँ हैं
मेरी देह
मेरे रक्त में खिला हुआ कमल

क्या आप विश्वास करेंगे
यह एक दिन अचानक
मुझे पता चला
जब मैं तुलसीदास को पढ़ रहा था

तुम आयीं / केदारनाथ सिंह

तुम आयीं
जैसे छीमियों में धीरे- धीरे
आता है रस
जैसे चलते - चलते एड़ी में
काँटा जाए धँस
तुम दिखीं
जैसे कोई बच्चा
सुन रहा हो कहानी
तुम हँसी
जैसे तट पर बजता हो पानी
तुम हिलीं
जैसे हिलती है पत्ती
जैसे लालटेन के शीशे में
काँपती हो बत्ती
 !
तुमने छुआ
जैसे धूप में धीरे- धीरे
उड़ता है भुआ

और अन्त में
जैसे हवा पकाती है गेहूँ के खेतों को
तुमने मुझे पकाया
और इस तरह

जैसे दाने अलगाये जाते है भूसे से
तुमने मुझे खुद से अलगाया ।




2 comments:

  1. आदरणीय रंजना जी ,
    सादर नमस्कार ।
    मै उत्कर्ष सिंह उत्तर प्रदेश के अनाम से जिले , क्षमा कीजिएगा आप से अपने जनपद को अनाम कहना उपयुक्त न होगा , जायसी, पं. रामनरेश त्रिपाठी , त्रिलोचन ,मजरुह आदि साहित्यजीवियों के जनपद सुल्तानपुर का एक नवप्रवेशी माध्यमिक अध्यापक हूँ ।
    मेरा मूल विषय सामाजिक विज्ञान है परन्तु परिस्थितिवश मुझे हिन्दी साहित्य भी पढाना पड रहा है । इस सन्दर्भ में आप कुछ दिशा निर्देशन दें सकें तो अत्यंत आभारी रहूँगा विशेष रूप से प्रसाद (श्रद्धा सर्ग -कामायनी) निराला ( बादल राग -२ तथा संध्या सुंदरी ) तथा पंत ( नौका विहार , परिवर्तन, बापू के प्रति ) के विषय में ।
    सभार
    उत्कर्ष सिंह

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  2. सबसे पहली बात तो मैं आपसे यह कहूंगी कि आप जब तक इस भार को ले कर चलेंगे कि मुझे पढ़ाना पड़ रहा है- किसी भी तरह का दिशा दर्शन आपके काम नहीं आएगा। रहा सवाल इन कविताओं का, जिनके विषय में आपने पूछा है , तो चूंकि आप विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं आपको किसी इतिहास की पुस्तक में इनके बारे में तथ्यात्मक जानकरी हासिल कर लेनी चाहिए। मसलन, प्रसाद, पंत और निराला के विषय में, फिर आपको छायावाद पर पढ़ लेना चाहिए, क्योंकि तीनों कवि छायावादी है। इसके बाद आपको-1- कमायनी महाकाव्य का परिचय ले लेना चाहिए और फिर श्रद्धा सर्ग का अध्ययन करना चाहिए। 2-3 अन्य दो कविताओं के लिए मेरा निर्देश है कि कविताएं कई कई बार पढ़नी चाहिए और जहाँ से आपके लिए उसका अर्थ खुलता है आप उसे समझने के लिए आरंभ करें। कविताएं लोगों की तरह होती हैं, आपको उन्हें समझने के लिए कई बार मिलना, बातचीत करना पड़ता है। कविताओं से दोस्ती करें, तो कविताएं अपना राज़ खोलती हैं। कामायनी पर विश्वमभर मानव की एक छोटी -सी टीका है, निराला पर रामविलास शर्मा तथा पंत पर नंददुलारे वाजपेयी की पुस्तक है। दूधनाथ सिंह के संकलन तारापथ की भूमिका भी आप देख सकते हैं।

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